JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 साखी
JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 साखी
JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 साखी (कबीरदास)
Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 10th Class Hindi Solutions
कवि-परिचय
जीवन – कबीरदास जी भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उनकी जन्म तिथि और जन्म स्थान के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। बहुमत के अनुसार कबीर जी का जन्म सन् 1398 में काशी में हुआ था। उनका पालन-पोषण नीरु-नीमा नामक दम्पति ने किया। आगे चलकर यही संत कबीर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। कबीरदास के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था । कुछ लोग शेख तकी को भी कबीरदास जी का गुरु मानते हैं लेकिन रामानंद के विषय में तो कबीरदास जी ने स्वयं कहा है—
काशी में हम प्रकट भए, रामानंद चेताये ।
कबीरदास जी का विवाह भी हुआ था। उनकी पत्नी का नाम लोई था । कमाल एवं कमाली उनके बेटा-बेटी भी थे। स्वभाव से वैरागी होने के कारण कबीर जी साधुओं की संगति में रहने लगे। सन् 1518 में उनका काशी के निकट मगहर नामक स्थान पर निधन हो गया था ।
रचनाएँ – कबीरदास जी पढ़े-लिखे नहीं थे। वे बहुश्रुत थे। उन्होंने जो कुछ कहा वह अपने अनुभव के बल पर कहा। एक स्थान पर उन्होंने शास्त्र – ज्ञाता पंडित को कहा भी है –
मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
कबीरदास जी की वाणी ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित है। इस रचना में कबीरदास जी द्वारा रचित साखी, रमैनी एवं सबद संगृहीत हैं।
काव्यगत विशेषताएं- कबीरदास जी के काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है—
1. समन्वय – भावना— कबीरदास जी के समय में हिंदू एवं मुसलमान तथा विभिन्न संप्रदायों में संघर्ष की भावना तीव्र हो चुकी थी। कबीरदास जी ने हिंदू-मुस्लिम एकता तथा विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक ऐसे धर्म की नींव रखी जिस पर मुसलमानों के एकेश्वरवाद, शंकर के अद्वैतवाद, सिद्धों के हठ योग, वैष्णवों की भक्ति एवं सूफ़ियों की प्रेम की पीर का प्रभाव था ।
2. भगवान् के निर्गुण रूप की उपासना— कबीरदास जी भगवान् के निर्गुण रूप के उपासक थे। उनके भगवान् प्रत्येक हृदय में वास करते हैं। अतः उन्हें मंदिर-मस्जिद में ढूंढ़ना व्यर्थ है। भगवान् की भक्ति के लिए आडंबर की अपेक्षा मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्रता की आवश्यकता है—
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि ।
ऐसैं घटि-घटि राम है, दुनियाँ देखै नाँहि ॥
3. समाज सुधार की भावना – कबीरदास जी अपने समय के उच्च कोटि के समाज सुधारक थे । धर्म एवं जाति के नाम पर होने वाले अत्याचारों का कबीर ने डटकर विरोध किया । जाति-पाँति की भेद-रेखा खींचने वाले पंडित एवं मौलवी ही थे। अतः उन्होंने इन दोनों की खूब खबर ली—
ऊँचे कुल क्या जनमिया, जो करनी ऊंच न होय।
सवरन कलस सुरइ भरा, साधु निंदै सोय ॥
4. गुरु महिमा – कबीरदास जी ने सच्चे गुरु को भगवान् के समान ही मान कर उनकी वंदना की है। गुरु ही ईश्वर तक पहुंचने की राह दिखाता है –
‘गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु आपण, गोबिंद दियो बताय ।’
5. सत्संगति का महत्त्व – सत्संगति का प्रभाव निश्चित रूप से बहुत गहरा होता है। कबीर जी ने सत्संग की महिमा में अनेक दोहों एवं शब्दों की रचना की है और माना है कि सत्संगति ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है।
6. रहस्यवाद – आत्मा एवं परमात्मा के मध्य चलने वाली प्रणयलीला को रहस्यवाद कहते हैं। आत्मा एवं परमात्मा के मिलने में माया सबसे बड़ी बाधा है। माया का पर्दा हटते ही आत्मा-परमात्मा एक हो जाते हैं। कबीरदास जी ने प्रेमपक्ष की तीव्रता का भी बड़ा मार्मिक चित्रण किया है।
भाषा-शैली—कबीरदास जी पढ़े-लिखे नहीं थे। इसलिए उनके काव्य में कला-पक्ष का अधिक निखार नहीं है। दूसरा कारण यह है कि कबीरदास जी भक्त पहले और कवि बाद में थे। फिर भी उनके काव्य में भाषा का सहज सौंदर्य दिखाई देता है। कबीरदास जी की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा अथवा सधुक्कड़ी अथवा खिचड़ी भाषा है। उसे मधुक्कड़ी भी कहते हैं। उसमें ब्रज, पंजाबी, खड़ी बोली एवं अवधी आदि भाषाओं के अनेक शब्दों का मिश्रण है। भाषा की सुंदरता में प्रतीकों एवं अलंकारों ने भी सहयोग दिया है। शैली मुक्तक है। कबीरदास के पदों में अनेक राग-रागनियों का प्रयोग हुआ है।
स्पष्ट हो जाता है कि कबीरदास जी हिंदी – साहित्य की महान् विभूति हैं। उनकी कविता में क्रांति का स्वर, समाजसुधार की भावना है और एक सच्चे भक्त की पुकार है ।
साखियों का सार/प्रतिपाढ्य
पाठ में संकलित साखियाँ कबीरदास जी के द्वारा रचित हैं। इन साखियों में कवि ने विभिन्न विषयों पर अपने विचारों को सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है। कबीरदास जी के अनुसार हमें ऐसे मधुर वचनों का प्रयोग करना चाहिए जिससे दूसरों को भी सुख का अनुभव हो । उनका मानना है कि ईश्वर प्रत्येक हृदय में विद्यमान है, किंतु मनुष्य कस्तूरी मृग की तरह उसे इधर-उधर ढूँढ़ता फिरता है । ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अहंकार को नष्ट करना आवश्यक है और मन को पूर्ण एकाग्र करके ही ईश्वर को पाया जा सकता है । ईश्वर को प्राप्त करने के लिए वे सभी प्रकार की वेशभूषा को अपनाने के लिए तैयार हैं।
कबीरदास जी कहते हैं कि सांसारिक लोग विषय-वासनाओं में डूबे रहते हैं। वे खाने-पीने और सोने में सुख अनुभव करते हैं किंतु ज्ञानी व्यक्ति जीवन की नश्वरता को देखकर दुःखी रहता है । ईश्वर के विरह में तड़पने वाला व्यक्ति अत्यंत कष्टमय जीवन व्यतीत करता है। उनका मानना है कि मनुष्य को अपने आलोचकों को भी अपने आस-पास ही रखना चाहिए। क्योंकि निंदा करने वाले व्यक्ति के सभी दोषों को दूर कर देते हैं। उनके अनुसार वेदों, उपनिषदों आदि ग्रंथों को पढ़कर कोई व्यक्ति विद्वान् नहीं हो सकता। जो व्यक्ति ईश्वर प्रेम के मार्ग पर चलता है, वही विद्वान् होता है। ईश्वर प्रेम के प्रकाशित होने पर एक विचित्र – सा प्रकाश हो जाता है। उसके बाद तो मनुष्य की वाणी से भी सुगंध आने लगती है। अंत में कबीरदास जी अत्यंत क्रांतिकारी स्वर में कहते हैं कि ईश्वर प्रेम के मार्ग पर चलना सरल नहीं है । इस मार्ग में चलने के लिए तो अपना सर्वस्व न्योछावर करना पड़ता है।
पढ्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
1. ऐसी बाँणी बोलिए, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ ॥
शब्दार्थ – बाँणी = वाणी, शब्द, वचन । आपा = अहंकार, घमंड । खोइ = नष्ट होना । तन = शरीर । सीतल = शीतलता, सुख, आनंद।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी क्रांतिकारी एवं समाज सुधारक कवि कबीरदास द्वारा रचित है। इस साखी में कवि ने मनुष्य को मधुर वचनों के लाभ बताए हैं ।
व्याख्या – कबीरदास जी मधुर वचन बोलने के संबंध में कहते हैं कि मनुष्य को ऐसे मीठे वचन बोलने चाहिएं जिससे मन का अहंकार समाप्त हो जाए । मनुष्य के द्वारा बोले गए मीठे वचनों से उसका अपना शरीर तो आनंद का अनुभव करता ही है, उसे सुनने वाला भी सुख प्राप्त करता है। कहने का भाव यह है कि मनुष्य को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिएं।
विशेष – (1) संत कबीरदास ने मीठी वाणी बोलने का उपदेश दिया है।
(2) सधुक्कड़ी भाषा, उपदेशात्मक शैली, साखी छंद तथा अनुप्रास अलंकार है ।
2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि ।
ऐसैं घटि-घटि राम है, दुनियाँ देखै नाँहि ॥
शब्दार्थ – कस्तूरी = काले मृग की नाभि से प्राप्त होने वाला एक सुगंधित पदार्थ । मृग = हिरण । बन = वन, जंगल। माँहि = में । घट = हृदय | राम = ईश्वर, परमात्मा । दुनियाँ = संसार ।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी महाकवि कबीरदास जी द्वारा रचित है। इस साखी में उन्होंने बताया है कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। वह प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है ।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी ही नाभि में विद्यमान होता है किंतु वह इस तथ्य से अनजान होता है । हिरण तो उसे जंगल में इधर-उधर खोजता रहता है। इसी प्रकार से ईश्वर भी सभी के हृदय में विद्यमान है किंतु दुनियाँ के लोग इस बात को नहीं समझते हैं। वे ईश्वर को इधर-उधर खोजते रहते हैं। ईश्वर को इधर-उधर खोजना व्यर्थ है।
विशेष – (1) प्रभु सृष्टि के कण-कण में विद्यमान हैं इसलिए बाह्याडंबरों को त्यागने की शिक्षा दी है।
(2) भाषा सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है।
(3) उदाहरण, अनुप्रास और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं ।
3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।
शब्दार्थ – हरि = परमात्मा, ईश्वर । अँधियारा = अंधेरा, अज्ञान | दीपक = दीया, ज्ञान का प्रकाश । मिटि = समाप्त । देख्या = देखा।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी कवि कबीरदास जी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए अहंकार को त्यागने पर बल दिया है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मुझमें अहंकार था तब तक प्रभु मुझसे दूर थे । अब अहंकार के मिट जाने पर मुझे प्रभु मिल गए हैं। जब मैंने ज्ञान रूपी दीपक लेकर अपने अंतःकरण को देखा तो मेरे हृदय का अज्ञान रूपी अंधकार पूरी तरह नष्ट हो गया । भाव यह है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए अहंकार को त्यागना आवश्यक है।
विशेष – (1) अहंकार दूर होने से ही निर्गुण प्रभु की प्राप्ति हो सकती है। –
(2) भाषा सरल सरस सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है।
4. सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै ।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरू रोवै ।।
शब्दार्थ- सुखिया = सुखी । अरू = और । सोवै = सोता है। दुखिया = दुःखी । रोवै = रोता है।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी कबीरदास जी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने सांसारिक और ज्ञानी व्यक्ति के अंतर को स्पष्ट किया है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि सारा संसार सुखी है। सांसारिक व्यक्ति तो खाने-पीने और सोने में ही जीवन व्यतीत कर देता है । वह इसी को ही सच्चा सुख मानकर इसमें डूबा हुआ है। दूसरी ओर ज्ञानी व्यक्ति संसार की नश्वरता को देखकर उदास रहता है। वह जीवन की नश्वरता को देखकर सदैव दुःखी रहता है।
विशेष – (1) संसार की असारता का उल्लेख हुआ है।
(2) भाषा सरल सरस सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है।
(3) अनुप्रास, पदमैत्री एवं स्वरमैत्री अलंकार हैं।
5. बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ॥
शब्दार्थ – भुवंगम = भुजंग, साँप | तन = शरीर । वियोगी = विरह में तड़पने वाला। जिवै = जीवित रहता है। बौरा = पागल ।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी कबीरदास जी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने प्रभु से मिलन न होने की विरह की पीड़ा व्यक्त की है।
व्याख्या—कबीरदास जी कहते हैं कि विरह रूपी साँप शरीर रूपी बिल में घुसा बैठा है। कोई भी मंत्र उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल रहा है । ईश्वर के प्रेम के विरह में तड़पने वाला व्यक्ति उस विरह की पीड़ा के कारण जीवित नहीं रहता और यदि वह जीवित रह जाता है तो उसकी स्थिति पागलों- जैसी हो जाती है अर्थात् वह अपने में ही डूबा रहता है।
विशेष – (1) आत्मा परमात्मा से मिलन न होने पर उनके विरह में सदा तड़पती रहती है।
(2) भाषा सरल, सरस और सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है।
(3) अनुप्रास, रूपक, श्लेष अलंकारों का प्रयोग है।
6. निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ ।
बिन साबण पांणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ॥
शब्दार्थ – निंदक = निंदा करने वाला । नेड़ा = समीप, निकट । आँगणि = आँगन । कुटी = कुटिया । साबण = साबुन । निरमल = स्वच्छ । सुभाइ = स्वभाव ।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी कबीरदास जी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने निंदा करने वाले व्यक्ति के लाभ बताए हैं।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि निंदा करने वाले व्यक्ति का भी महत्त्व होता है। अतः उसे अपने आस-पास ही रखना चाहिए। यदि संभव हो तो अपने घर के आँगन में ही उसके रहने के लिए छप्पर डाल देना चाहिए। निंदक व्यक्ति तो हमारे अवगुणों को बार-बार बताता है और इस प्रकार वह साबुन और पानी के बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल एवं स्वच्छ बना देता है।
विशेष – (1) कवि ने निंदक को अपने पास रखने के लाभ बताए हैं। –
(2) भाषा सरल सहज सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है ।
7. पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ ।
ऐकै आखिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ ।
शब्दार्थ – पोथी = ग्रंथ, पुस्तक | जग = संसार। पंडित = विद्वान् । भया = हुआ । ऐकै = एक। आखिर = अक्षर। पीव = प्रियतम, ईश्वर । सु = वही ।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी कबीरदास जी द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने बताया है कि जो व्यक्ति ईश्वर प्रेम के सच्चे रस में डूब जाता है, वही विद्वान् है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में धार्मिक ग्रंथों को पढ़-पढ़कर अनेक सांसारिक लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं किंतु कोई भी सच्चा विद्वान् नहीं बन सका। दूसरी ओर जो व्यक्ति ईश्वर प्रेम के केवल एक ही अक्षर को पढ़ लेता है, वह सच्चा विद्वान बन जाता है। ईश्वर प्रेम में डूबने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त करने में सफ़ल हो जाता है। धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने मात्र से कोई लाभ नहीं होता ।
विशेष – (1) ईश्वर प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन है।
(2) भाषा सरल सरस सधुक्कड़ी तथा दोहा छंद है।
(3) पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
8. हम घर जाल्या आपणा, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि ।।
शब्दार्थ – जाल्या = जलाया। आपणाँ = अपना। मुराड़ा = जलती हुई लकड़ी, मशाल । तास का = उसका । साथि = साथ।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी क्रांतिकारी कवि कबीरदास जी द्वारा रचित है। इस साखी में उन्होंने समस्त विकारों को त्यागकर ज्ञान प्राप्ति की बात कही है।
व्याख्या – कबीरदास जी क्रांतिकारी स्वर में कहते हैं कि उन्होंने तो विषय-वासनाओं और अन्य विकारों से युक्त अपने शरीर रूपी घर को जलाकर नष्ट कर दिया है। अब उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। अब वे ज्ञान रूपी मशाल को लेकर निकल पड़े हैं और जो उनके साथ चलने के लिए तैयार होंगे, वे उनके अज्ञान को भी जलाकर नष्ट कर देंगे।
विशेष – (1) अज्ञानता को दूर कर ज्ञान प्राप्ति करने पर बल दिया है।
(2) सधुक्कड़ी भाषा, दोहा छंद तथा अनुप्रास एवं पदमैत्री अलंकार है ।
J&K class 10th Hindi साखी Textbook Questions and Answers
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर – कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिएं। मीठी वाणी बोलने से उसे सुनने वाला सुख का अनुभव करता है क्योंकि मीठी वाणी जब हमारे कानों तक पहुँचती है तो उसका प्रभाव हमारे हृदय पर होता है। किसी के द्वारा कहे गए कड़वे वचन तो तीर की भांति हृदय में चुभने वाले होते हैं। यद्यपि सुनने का कार्य हमारे कान करते हैं किंतु उनसे सुनी गई वाणी का प्रभाव हमारे हृदय पर पड़ता है। मीठी वाणी से हम दूसरों को ही सुख प्रदान नहीं करते अपितु हमें स्वयं भी शीतलता का अनुभव होता है। जब हम मीठे वचनों का प्रयोग करते हैं तो हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है। अहंकार के नष्ट होने पर हमें शीतलता प्राप्त होती है । इस प्रकार मीठी वाणी बोलने से न केवल दूसरों को हम सुख प्रदान करते हैं अपितु स्वयं भी शीतलता को अनुभव करते हैं।
प्रश्न 2. दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है ? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीरदास जी के अनुसार जिस प्रकार दीपक के जलने पर अँधकार अपने आप दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक के हृदय में जलने पर अज्ञान रूपी अँधकार दूर हो जाता है। जब तक मनुष्य में अज्ञान रहता है तो उसमें अहंकार और अन्य दुर्गुण होते हैं। वह अपने ही हृदय में निवास करने वाले ईश्वर को पहचान नहीं पाता है। अज्ञानी मनुष्य केवल अपने आप में ही डूबा रहता है। जैसे ही उसके हृदय में ज्ञान रूपी दीपक जलता है तो उसका हृदय अपने आप प्रकाशित हो उठता है। ज्ञान रूपी दीपक के जलते ही मनुष्य का अज्ञान रूपी अँधकार उसके प्रकाश से नष्ट हो जाता है। ज्ञान के दीपक के जलने पर मनुष्य ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।
प्रश्न 3. ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते ?
उत्तर – कबीरदास जी का मानना है कि निर्गुण ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है किंतु अपनी के कारण हम उसे देख नहीं पाते हैं। जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही विद्यमान होता है लेकिन वह उसे जंगल में इधर-उधर ढूँढ़ता फिरता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपने हृदय में छिपे ईश्वर को अपनी अज्ञानता के कारण नहीं पहचान पाता । वह ईश्वर को धर्म से संबंधित अन्य स्थानों जैसे मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर आदि में व्यर्थ ही ढूँढ़ता है। कबीरदास जी का मत है कि कण-कण में छिपे परमात्मा को देखने के लिए ज्ञान का होना अति आवश्यक है।
प्रश्न 4. संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुःखी कौन ? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं ? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीरदास जी के अनुसार जो व्यक्ति केवल सांसारिक सुखों में डूबा रहता है और जिसके जीवन का उद्देश्य केवल खाना पीना और सोना है वही व्यक्ति सुखी है। इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार की नश्वरता को देखकर रोता रहता है, वह दुःखी है। यहाँ ‘सोना’ शब्द सांसारिक सुखों में डूबे रहने का प्रतीक है तथा ‘जागना’ भक्ति के मार्ग पर चलकर ज्ञान प्राप्त होने का प्रतीक है। इन शब्दों का प्रयोग कवि ने यह बताने के लिए किया है कि मूर्ख व्यक्ति अपना जीवन यूँ ही निश्चित रहकर नष्ट कर देता है। दूसरी ओर ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि संसार नश्वर है फिर भी मनुष्य इसमें डूबा हुआ है। यह देखकर वह दुःखी हो जाता है। वह चाहता है कि मनुष्य भौतिक सुखों को त्यागकर ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो।
प्रश्न 5. अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है ?
अथवा
कबीर के विचार से निंदक को निकट रखने के क्या-क्या लाभ हैं ?
उत्तर – कबीरदास जी का मानना है कि अपने स्वभाव को निर्मल रखने का सबसे अच्छा उपाय निंदा करने वाले को अपने साथ रखना है। अपनी निंदा करने वाले को तो अपने ही घर में या अपने आस-पास रखना चाहिए। ऐसा करने से हमारा स्वभाव अपने आप ही निर्मल हो जाएगा क्योंकि निंदा करने वाला व्यक्ति हमारे गलत कार्यों की निंदा करेगा तो हम अपने आप को सुधारने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार निंदा करने वाले व्यक्ति के पास रहने पर हम धीरे-धीरे अपने स्वभाव को बिल्कुल ठीक कर लेंगे। उसके द्वारा बताए गए अपने अवगुणों को दूर करके हम अपने स्वभाव को निर्मल बनाने में सफल हो सकते हैं।
प्रश्न 6. ‘ऐकै आखिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ’। इस पंक्ति के द्वारा कवि क्या कहना चाहताहै ?
उत्तर – इस पंक्ति के द्वारा कवि स्पष्ट करना चाहता है कि जो व्यक्ति अपने प्रिय परमात्मा के प्रेम का एक अक्षर पढ़ लेता है, वही ज्ञानवान् है। कुछ लोग बड़े-बड़े धर्मग्रंथों को पढ़कर अपने आपको विद्वान् और ज्ञानवान् सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। कबीर का मत है कि वेदों, पुराणों और उपनिषदों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं होता। इनको पढ़ना व्यर्थ है। इसके विपरीत जो ईश्वर प्रेम के मार्ग को अपना लेता है और ईश्वर – प्रेम में ही डूब जाता है, वही विद्वान् और ज्ञानवान् है।
प्रश्न 7. कबीर जी की उधृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – कबीरदास जी द्वारा रचित इन साखियों की भाषा सधुक्कड़ी है। इसमें अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी तथा पंजाबी के शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं इन्होंने पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया है किंतु अधिकांश साखियों में प्राय: बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। इन साखियों में कबीरदास ने अत्यंत सामान्य भाषा के द्वारा भी लोक व्यवहार की शिक्षा दी है। जैसे—
ऐसी बाँणी बोलिए, मन का आपा खोइ ।
2800 अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥
कबीरदास जी की भाषा में कहीं-कहीं बौद्धिकता के भी दर्शन होते हैं। यह बौद्धिकता प्रायः उपदेशात्मक साखियों में अधिक है। दोहा छंद में लिखी गई इन साखियों में मुक्तक शैली का प्रयोग है तथा गीति-तत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। भाषा पर कबीरदास जी के जबरदस्त अधिकार को देखते हुए ही डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए—
- बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
- कस्तूरी कुंडलि बसें, मृग दूढ़ें बन मांहि ।
- जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि
- पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ ।
उत्तर –
- कबीरदास जी का कहना है कि जब विरह रूपी सर्प शरीर में बैठ जाता है तो वही व्यक्ति सदा तड़पता रहता है। उस पर किसी प्रकार के मंत्र का भी कोई प्रभाव नहीं होता। जब आत्मा अपने प्रिय परमात्मा के विरह में तड़पती है तो वह केवल अपने प्रिय परमात्मा के दर्शन पाकर ही शांत होती है। विरह रूपी सर्प आत्मा को तब तक तड़पाता रहता है जब तक परमात्मा के दर्शन नहीं हो जाते । विरहणी आत्मा के विरह की पीड़ा को अन्य किसी भी साधन से शांत नहीं किया जा सकता।
- कवि यहाँ यह स्पष्ट करना चाहता है कि हिरण की अपनी ही नाभि में कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ होता है। जब हिरण को उसकी सुगंध आती है तो वह उसे इधर-उधर खोजता है किंतु वह उसे ढूंढ नहीं पाता। इसी प्रकार ईश्वर भी मनुष्य के हृदय में ही विद्यमान है, किंतु मनुष्य अज्ञानतावश उसे पहचान नहीं पा रहा है। वह तो ईश्वर को इधरउधर अन्य स्थानों पर खोज रहा है, जोकि व्यर्थ है।
- यहां कबीरदास जी के कहने का भाव यह है कि जब तक मनुष्य में ‘मैं’ अर्थात् अहंकार की भावना होती है तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य जैसे ही अपने भीतर से अहंकार की भावना को नष्ट कर देता है तो ईश्वर को सहजता से पा लेता है। ईश्वर को पाने के लिए अहंकार को त्यागना आवश्यक है।
- कबीरदास जी का मत है कि धार्मिक ग्रंथों आदि को पढ़ने से कोई व्यक्ति विद्वान् अथवा बुद्धिमान् नहीं बनता। जो व्यक्ति ईश्वर-प्रेम के केवल एक अक्षर को ही जान लेता है, वही सच्चा विद्वान् है। धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर स्वयं को विद्वान् और ज्ञानी कहने वाले सदा होते रहे हैं और मिटते हैं किंतु ईश्वर प्रेम के एक अक्षर को समझने वाला व्यक्ति अमर हो जाता है। वही सच्चा विद्वान् होता है।
भाषा अध्ययन
1. पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप उदाहरण के अनुसार लिखिए—
उदाहरण — जिवै — जीना
औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणि, साबण, पीव, जालौं, तास।
उत्तर – औरन — दूसरे को / अन्य को ।
माँहि — में।
देख्या — देखा।
भुवंगम — भुजंग/सांप।
नेड़ा — निकट/समीप ।
आँगणि — आँगन।
साबण — साबुन ।
पीव — पिया, प्रिय, प्रियतम
जालोँ — जलाऊँ ।
तास — उस।
योग्यता विस्तार
1. ‘साधु में निंदा सहन करने से विनयशीलता आती है’ तथा ‘व्यक्ति को मीठी और कल्याणकारी वाणी बोलनी चाहिए’ – इन विषयों पर कक्षा में परिचर्चा आयोजित कीजिए।
2. कस्तूरी के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर – विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें ।
परियोजना कार्य
1. मीठी वाणी / बोली संबंधी और ईश्वर प्रेम संबंधी दोहों का संकलन कर चार्ट पर लिखकर भित्ति पत्रिका
पर लगाइए।
2. कबीर की साखियों को याद कीजिए और कक्षा में अंत्याक्षरी में उनका प्रयोग कीजिए।
उत्तर – विद्यार्थी स्वयं करें।
J&K class 10th Hindi साखी Important Questions and Answers
प्रश्न 1. कबीरदास जी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – कबीरदास जी ने साखी, दोहा, चौपाई की शैली में अपनी वाणी प्रस्तुत की है। इनके काव्य में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग किया गया है। जिसमें गीति के सभी गुण विद्यमान हैं। उपदेशात्मक पदों में बौद्धिकता की अधिकता है। ये अशिक्षित थे। अतः इन्होंने प्रायः बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया। यह अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फ़ारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी आदि के शब्दों से भरी पड़ी है। आलोचकों ने इनकी भाषा को खिचड़ी, सधुक्कड़ी, मधुक्कड़ी, घुमक्कड़ी, पंचमेल आदि नाम दिए हैं। कहीं-कहीं इन्होंने पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी किया है। वे वस्तुतः भाषा के डिक्टेटर थे। उन्होंने जिस ढंग से भाषा का प्रयोग करना चाहा, वह किया। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनकी भाषा का मूल्यांकन करते हुए लिखा है “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे । जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कह दिया है – बन गया है तो सीधे सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नज़र आती है। उसमें मानों ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फ़रमाइश को नाही कर सके और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है।” जनभाषा को अपनाने के कारण वे अपने विचारों को सभी तक पहुंचाने में सफल हो पाए थे ।
प्रश्न 2. ‘कबीर जी एक समाज सुधारक भी थे’ आप क्या सहमत हैं ?
उत्तर – महात्मा कबीर जी पहुंचे हुए महात्मा, और कवि थे। कबीर जी का काव्य समाज के लिए एक निश्चित संदेश लिए हुए है। उन्होंने अपने युग के समाज को सुधारने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में फैले अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा कर्म-कांडों का विरोध किया। महात्मा कबीर ने मानव-मात्र की एकता एवं भ्रातृत्व का प्रचार किया तथा जन्म पर आधारित ऊंच-नीच की मान्यताओं का खंडन किया। कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों को उनकी कमियों के कारण बुरा-भला कहा और किसी एक का पक्ष नहीं लिया । सत्य, अहिंसा, संतोष तथा सदाचार को उन्होंने अपनी शिक्षा का आधार बनाया। शोषण का उन्होंने हर रूप में खंडन किया । कबीर ने न्याय और समता पर आधारित एक शोषण रहित समाज की रचना का प्रयास किया। इस प्रकार महात्मा कबीर एक महान् समाज सुधारक ठहरते हैं।
प्रश्न 3. ‘साखी’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर – ‘साखी’ शब्द साक्षी शब्द का तद्भव रूप है। इसका अर्थ है प्रत्यक्षज्ञान अथवा गवाही। महात्मा कबीर ने जिन बातों को अपने अनुभव से जाना और सत्य पाया उन्हें उन्होंने अपने ‘साक्षी’ या साखी रूप में लिखा है। साखियां अनुभूत सत्य की प्रतीक हैं और कबीर उस सच्चाई के गवाह हैं।
प्रश्न 4. कबीर जी ने किस प्रकार के ब्रह्म की आराधना की है ?
उत्तर – कबीर जी निर्गुणवादी थे। उन्होंने कहीं भी सूर और तुलसी की तरह निर्गुण – सगुण का समन्वय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उनका ब्रह्म अविगत है । वह फूलों की सुगंध से भी पतला, अजन्मा और निर्विकार है। वह विश्व के कण-कण में है। उसे कहीं बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। जैसे मृग की नाभि में कस्तूरी छिपी रहती है और मृग उस सुगंध का स्रोत बाहर ढूंढने का प्रयास करता है, उसी प्रकार मनुष्य राम को जगह-जगह ढूंढता है जबकि वह उसके भीतर ही विद्यमान होता है –
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि ।
ऐसैं घट-घट रॉम है, दुनियाँ देखै नाँहि ॥
प्रश्न 5. कबीर जी के जाति-पाँति के बारे में क्या विचार थे ?
उत्तर – कबीर जी मानव धर्म की स्थापना को महत्त्व देते थे। उन्होंने जाति-पाँति और वर्ग-भेद का सर्वत्र विरोध किया। इस विरोध के अनेक कारण दिखाई देते हैं। इनके मुख्य उद्देश्यों में एक हिंदू-मुसलमानों में एकता स्थापित करना था। समाज में व्याप्त वर्ग-भेद इस कार्य में रुकावट था। साथ ही कबीर जी अन्य संतों की भांति निम्न जाति से संबंधित थे। मनोवैज्ञानिक कारणों से भी वे अपने आप को निम्न न मानकर उच्च मानते थे। कबीर का मत था कि जो परमात्मा का भजन करता है, वह उसे पा सकता है-
जाति पाति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजे सो हरि का होई ॥
प्रश्न 6. ईश्वर के प्रति भक्ति कब दृढ़ हो जाती है ?
उत्तर – कबीरदास जी का मत है कि जब इश्वर विरह में जलने वाला ऐसे हि दूसरे व्यक्ति से मिलता है तो ईश्वर के प्रति भक्ति दृढ़ हो जाती है। ईश्वर के प्रेम में घायल व्यक्ति जब ईश्वर के प्रेम में तड़पने वाले अपने ही समान अन्य व्यक्ति से मिलता है तो उनमें विचारों का आदान-प्रदान होता है। दोनों अपने अनुभवों को बताते हैं और इस प्रकार दोनों के हृदय में ईश्वर के प्रति भक्ति-भाव और अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। इससे ईश्वर के प्रति भक्ति को दृढ़ता मिलती है।
प्रश्न 7. कबीर की निर्गुण भक्ति संबंधी किसी एक दोहे का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि ।
ऐसैं घटि-घटि राम है, दुनियाँ देखै नाँहि ।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. संत कबीरदास का जन्म कब हुआ ?
उत्तर – 1398 ई० में ।
प्रश्न 2. संत कबीरदास का जन्म कहां हुआ ?
अथवा
कबीर जी का जन्म स्थान कहाँ है ?
उत्तर – काशी में ।
प्रश्न 3. कवि ने कैसी वाणी बोलने को कहा है ?
उत्तर – मधुर ।
प्रश्न 4. कस्तूरी किस में बसती है ?
उत्तर – मृग में ।
प्रश्न 5. कस्तूरी मृग के किस अंग में विराजमान है ?
उत्तर – कुंडलि में ।
प्रश्न 6. कैसे व्यक्ति को अपने समीप रखना चाहिए ?
उत्तर – निंदक व्यक्ति को ।
प्रश्न 7. क्या पढ़कर मनुष्य पंडित बन सकता है ?
उत्तर – ढाई अक्षर प्रेम का ।
प्रश्न 8. कवि के अनुसार क्या पढ़ने से पंडित नहीं बना जाता ?
उत्तर – पोथियां पढ़ने से।
प्रश्न 9. मृग कस्तूरी को कहां ढूंढता है ?
उत्तर – वन में।
प्रश्न 10. राम कहां विराजमान हैं ?
उत्तर – घट घट में ।
प्रश्न 11. संत कबीरदास के माता-पिता पेशे से क्या थे ?
उत्तर – जुलाहा ।
प्रश्न 12. कबीरदास के कितने ग्रंथ हैं ?
उत्तर – तीन ।
प्रश्न 13. कबीर के पुत्र और पुत्री का नाम लिखिए।
उत्तर – कमाल और कमाली।
प्रश्न 14. कबीर किस ज्ञानमार्गी शाखा के कवि माने जाते हैं ?
उत्तर – निर्गुण प्रश्न
15. कबीर जी के गुरु का क्या नाम है ?
अथवा
कबीर ने किस गुरु से निर्गुण भक्ति की दीक्षा ली ?
उत्तर – रामानंद।
प्रश्न 16. कबीर की मृत्यु कब और कहाँ हुई ?
उत्तर – सन् 1518 ई० में, काशी के निकट मगहर में
प्रश्न 17. साखी किस कवि की रचना है ?
उत्तर – कबीरदास।
प्रश्न 18. कबीरदास जी के अनुसार कैसे व्यक्ति को अपने समीप रखना चाहिए ?
उत्तर – निंदा करने वाले व्यक्ति को।
प्रश्न 19. कबीर के काव्य ग्रंथ का नाम लिखिए ।
उत्तर – बीजक।
बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर
1. कवि ने कैसी वाणी बोलने के लिए कहा है ?
(क) मीठी
(ख) खट्टी
(ग) कठोर
(घ) कटु ।
उत्तर – (क) मीठी
2 ‘मन का आपा’ क्या होता है ?
(क) प्रेम
(ख) घृणा
(ग) त्याग
(घ) अहंकार ।
उत्तर – (घ) अहंकार।
3. ‘तन सीतल करै’ का तात्पर्य क्या है ?
(क) शरीर का ठंडा पड़ना
(ख) ‘सुख अनुभव करना
(ग) मृत्यु होना
(घ) ठंड पड़ना ।
उत्तर – (ख) सुख अनुभव करना।
4. ‘औरन को सुख’ किससे मिलता है ?
(क) भोजन कराने से
(ख) शीतल पेय पिलाने से
(ग) मीठी बाणी बोलने से
(घ) उधार देने से।
उत्तर – (ग) मीठी वाणी बोलने से।
5. कस्तूरी हिरण के किस स्थान पर होती है ?
(क) गले में
(ख) मस्तक में
(ग) नाभि में
(घ) पेट में ।
उत्तर – (ग) नाभि में
6. मृग कस्तूरी को कहां तलाश करता है ?
(क) शहर में
(ख) पर्वतों पर
(ग) वन में
(घ) नदी में ।
उत्तर – (ग) वन में।
7. कवि के अनुसार ईश्वर प्राप्ति में बाधक है—
(क) परिवार
(ख) अर्थ
(ग) अहंकार
(घ) समाज ।
उत्तर – (ग) अहंकार ।
8. यहां ‘दीपक’ किस का प्रतीक है ?
(क) उजाला
(ख) ज्योति
(ग) प्रकाश
(घ) ज्ञान ।
उत्तर – (घ) ज्ञान ।
9. कवि ने किस अंधियारे की बात कही है ?
(क) अमावस के
(ख) अज्ञान के
(ग) दिन के
(घ) गुफ़ा के ।
उत्तर – (ख) अज्ञान के।
10. कवि के मन का अंधकार कैसे दूर हुआ ?
(क) ज्ञानरूपी दीप के प्रकाश से
(ख) गुरु के उपदेश से
(ग) शास्त्र पढ़ने से
(घ) जंगल में तपस्या करने से।
उत्तर – (क) ज्ञान रूपी दीप के प्रकाश से ।
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