JKBOSE 9th Class Hindi मौखिक अभिव्यक्ति Chapter 2 बोलना

JKBOSE 9th Class Hindi मौखिक अभिव्यक्ति Chapter 2 बोलना

JKBOSE 9th Class Hindi मौखिक अभिव्यक्ति Chapter 2 बोलना

Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 9th Class Hindi मौखिक अभिव्यक्ति

Jammu & Kashmir State Board class 9th Hindi मौखिक अभिव्यक्ति

J&K State Board class 9 Hindi मौखिक अभिव्यक्ति

(i) भाषण, वाद-विवाद
भाषण देना एक अनूठी कला है जिसे थोड़े से अभ्यास से सीखा जा सकता है। अच्छा भाषण देने वाला व्यक्ति आज के युग में शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर लेता है। राजनीति, धर्म आदि तो ऐसे क्षेत्र हैं जहां अच्छा भाषण देने वालों ने बहुत नाम कमाया है।
भाषण देने की कला मुख्य रूप से दो आधारों पर टिकी हुई है—
उच्चारण और वाक्य संरचना
शारीरिक हाव-भाव
अच्छे भाषण के गुण
1. रोचकता— अच्छा भाषण वही कहलाता है जो अपने भीतर रोचकता का गुण छिपाए हुए हो। उसमें श्रोता को अपने साथ बांध लेने का गुण होना चाहिए। भाषण ऐसा होना चाहिए कि श्रोता का ध्यान पूरी तरह से भाषण देने वाले की ओर लगा रहे। रोचकता को बढ़ाने के लिए भाषण में काव्यांशों, चुटकलों, उदाहरणों, चटपटी बातों आदि का स्थान-स्थान पर प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. स्पष्टता— भाषण में भाव, विषय और भाषा की स्पष्टता होनी चाहिए। भाषण देने वाले को पूर्ण रूप से पता होना चाहिए कि उसने कहां और क्या बोलना है। उसके मन में विचारों की व्यवस्था पहले से ही होनी चाहिए। उसे विषय पर पूर्ण रूप से अधिकार होना चाहिए। उसकी भाषा में सरलता और स्पष्टता निश्चित रूप से होनी चाहिए।
3. ओजपूर्ण— वक्ता को भाषण देते समय उत्साह और ओज का परिचय देना चाहिए। उसकी वाणी ऐसी होनी चाहिए जो श्रोताओं की नस-नस में मनचाहा जोश भर दे। उसके भाषण में ऐसे भाव भरे होने चाहिए कि श्रोताओं को लगे कि वे वही तो सुनना चाहते थे जो वक्ता कह रहा है।
4. पूर्णता— भाषण में पूर्णता का गुण होना चाहिए। श्रोता को सदा ऐसा लगना चाहिए कि वक्ता के द्वारा कही जाने वाली बात बिल्कुल पूरी है और उसमें किसी प्रकार का कोई अधूरापन नहीं है। वक्ता को किसी भी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति की ओर स्पष्ट संकेत करना चाहिए।
5. श्रोताओं की रुचि अनुसार— भाषण का औचित्य सीधा श्रोता से जुड़ा होता है। वक्ता को ऐसे विषय और उदाहरण चुनने चाहिए जो श्रोताओं की रुचि के अनुसार हों। श्रोताओं की आयु मनोदशा और परिस्थितियों को समझ कर ही उसे बोलना चाहिए। उसे दैनिक जीवन से विभिन्न प्रसंगों को लेकर उन्हें अपने भाषण का हिस्सा बनाना चाहिए। विषय से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को श्रोताओं के सामने उठाना चाहिए और उन समस्याओं का तर्कपूर्ण समाधान बताना चाहिए। उसे वही बात कहनी चाहिए जो कोरी कल्पना पर आधारित न होकर यथार्थ जीवन से जुड़ी हुई हो।
6. स्वर में आरोह-अवरोह— भाषण देते समय वक्ता को सीधी-सपाट भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उसे श्रोताओं को सम्बोधित करते समय अपने स्वर में आरोह और अवरोह की ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए। उसे स्थान-स्थान पर प्रश्न उपस्थित करके उनका समाधान प्रस्तुत करना चाहिए।
7. तथ्यात्मकता— भाषण में तथ्यों और सूचनाओं को प्रस्तुत करके श्रोताओं को अपनी ओर सरलता से आकृष्ट किया जा सकता है। इससे जिज्ञासा तो बढ़ती ही है पर साथ ही साथ वक्ता के ज्ञान का परिचय भी मिलता है।
8. क्रियात्मक अभिनय— वक्ता अपने चेहरे पर आए भावों, हाथों के संकेतों और गर्दन की गति से भावों के प्रकाशन में नए आयाम जोड़ सकता है। क्रियात्मक अभिनय स्वाभाविक होना चाहिए। इसकी अति कृत्रिमता को जन्म देती है जो श्रोताओं को कदापि सहन नहीं हो पाती।
9. संभाव्यता— भाषण कल्पना के आधार पर टिका हुआ नहीं होना चाहिए। वक्ता मंच से जो भी कहे वह प्रामाणिक होना चाहिए। किसी पर झूठे आक्षेप तो कभी नहीं लगाए जाने चाहिए।
भाषणों के कुछ उदाहरण
1. आइए, हम भी बनें जल-मित्र
मंच पर आसीन मुख्य अतिथि महोदय, श्रद्धेय प्राचार्य जी, आदरणीय अध्यापकगण और मेरे प्रिय साथियो ! आज की प्रतियोगिता में मेरे संभाषण का विषय है- ‘आइए हम भी बनें जल मित्र ।’
जल हमारा जीवन है। हम भोजन के बिना तो कुछ दिन या कुछ सप्ताह जीवित रह सकते हैं पर जल के बिना अधिक देर तक जीवित नहीं रह सकते। हमारे देश में जलसंकट बढ़ता जा रहा है। हम इस संकट के जिस स्तर पर अनुमान लगा रहे हैं, संकट उससे कहीं अधिक गम्भीर है। एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा, भागीरथी और अलकनंदा बेसिन के 564 ग्लेशियर तेज़ी से सिमट रहे हैं। इनमें से आधे से अधिक सन् 2075 तक पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के अनुसार दिल्ली के भू-जल भंडार सन् 2015 पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे। केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2006 में भाखड़ा सहित उत्तर भारत के प्रमुख बांधों में क्षमता से 70% – 90% तक पानी की कमी थी। मध्य प्रदेश के गांधी सागर बांध में जल का स्तर शून्य पर था  ।
साथियो, निश्चित रूप से इसके लिए ज़िम्मेदार हम हैं। हमने जल को सहेज कर नहीं रखा। हमने बड़ी बेरहमी से भू-जल का दोहन किया है पर इतना निश्चित है कि प्रकृति हमें लम्बे समय तक ऐसा नहीं करने देगी। जब जल ही नहीं रहेगा तो हम उसका दोहन Namas कैसे कर सकेंगे ? पर जरा सोचो तो, तब हम आप सब का क्या होगा ? हमारी आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा?
स्पष्ट है कि जल के अनियन्त्रित उपयोग पर अंकुश लगाना होगा और स्थिति को अधिक बिगड़ने से पहले हमें एक साथ दो मोर्चों पर काम करना होगा- वर्षा के जल का संग्रहण तथा उपलब्ध जल का बेहतर प्रबन्धन ।
हमें वर्षा के जल को सीधा भू-गर्भ में उतार देने का रास्ता अपनाना चाहिए क्योंकि वर्षा जल बिल्कुल स्वच्छ होता है। देश में कई स्थानों पर ऐसा किया गया है और वहां भू-जल की गुणवत्ता में सुधार आया है। हमें बोरवेल तरीके का प्रयोग करना चाहिए। इस तरीके से जमीन में रेतीली सतह की गहराई तक पाईप डालकर जल संग्रहण किया जाता हैं।
साथियो, जल संग्रहण से भी अधिक ज़रूरी है उपलब्ध जल का समझदारी से उपयोग करना। हम अपने दैनिक जीवन में कुछ आदतों को बदलकर घर में पानी की खपत को पचास प्रतिशत तक बचा सकते हैं। हम बचे हुए पेयजल को गमलों में उगे पौधों को डाल सकते हैं। कपड़े धोने का बचा पानी पोछे में इस्तेमाल कर सकते हैं। वाहनों की धुलाई बाल्टी में पानी लेकर करनी चाहिए न कि पाईप से। घर में लॉन की सतह शेष पक्के फर्श से नीचे रखकर, छत का पानी लॉन में छोड़ना चाहिए। प्याऊ या हैंडपम्प के व्यर्थ पानी के लिए गड्ढा खुदवाना चाहिए।
भाइयो! हमें चाहिए कि पानी की बूँदें जहाँ गिरे उन्हें वहीं रोक लिया जाये। जल संरक्षण का यही मूल मंत्र है । इसके अनगिनत समाधान आप स्वयं भी सोच सकते हैं। भूजल भण्डार एक बैंक के समान है जिसमें पानी जाता रहता है तो निकलता भी रह सकता है। यदि हमने इस बैंक से केवल निकासी ही जारी रखी तो उसका परिणाम हम समझ सकते हैं। समय आ चुका है कि हम सब जल के महत्त्व को समझें और जी-जान से उसकी रक्षा करें ताकि हमारा भविष्य सुखद बना रहे।
2. जीवन
मान्यवर अध्यक्ष महोदय और आज की इस सभा में उपस्थित महानुभावो! हम सबके मन में हमेशा ही एक प्रश्न चक्कर काटता रहता है कि जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? जीवन को देखकर कोई इसे नश्वर कहता है और इसकी क्षण-भंगुरता को देखकर परेशान रहता है। किसी को यह सुंदर सपना लगता है और कोई इसकी वास्तविकता पर मुग्ध है। कोई इसे सुखद बनाने के लिए प्रयत्न करता है तो कोई इससे परेशान होकर अपने शरीर को भी त्याग देने की ठान लेता है।
सच में तो जीवन तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। यह हमारे अनुभव की वस्तु है। इसका उद्देश्य कहीं बाहर नहीं बल्कि इसमें ही छिपा हुआ है। यह तो हम सब के भीतर वैसे ही है जैसे दीपक की लौ में रोशनी और फूल में सुगंध और सुंदरता छिपी रहती है। प्रकाश के रहस्य को समझना ही दीपक को समझना है। सुगंध और सौंदर्य को समझना फूल को समझना है पर बुद्धि के प्रयोग से जीवन को समझने का रहस्य तो और अधिक उलझता जाता है। तब हमारा हृदय हम से महादेवी वर्मा की तरह पूछने लगता है—
किन उपकरणों का दीपक, किसका जलता है तेल ?
किसकी वाति कौन करता इसका ज्वाला से मेल ? 
दीपक के जलने में ही जीवन का आनंद है। हमारी भावनाएं ही इसे सुखद बनाती हैं या परेशान कर देती हैं तभी तो महादेवी वर्मा अपने जीवन रूपी दीपक से मधुर मधुर जलने को कहती है—
मधुर मधुर मेरे दीपक जल !
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल !
पर वहीं यह भी मान लिया जाता है कि फूल की हंसी उसकी मौत से पहले का रूप है—
धूल हाय ! बनने को ही खिलता है फूल अनूप।
वह विकास मुरझा जाने का ही है पहला रूप ॥
साथियो, सबका अपना-अपना दृष्टिकोण है जीवन के प्रति । यदि फ़ारसी के कवि उमर खय्याम का कहना है कि—
“मरने से पहले, आओ, हम जीवन का आनंद उठा लें। फिर तो हमें मिट्टी में मिलकर मिट्टी के नीचे दब जाना है।” तो प्रसिद्ध अंग्रेज़ी ड्राइडन का मानना है—
“जब मैं ज़िन्दगी के बारे में सोचता हूं तो मुझे सरासर धोखा प्रतीत होता है। फिर भी आशा ने लाखों को इस प्रकार उलझा रखा है कि वे इस मिथ्या प्रवचनों से किसी तरह छूट नहीं पाते। वे सोचते हैं कि आने वाला कल उनकी कामनाओं को फल देगा। पर वास्तव में कल आज से भी असत्य होता है।”
मान्यवर, पाल लॉरेंस का कहना है – “घड़ी भर के लिए हंसना और घंटों रोना, थोड़ा-सा आनंद और भारी दुःख, बस यही जीवन है । ” हैनरी वाइल्ड ने जीवन की तुलना पतझड़ के उस पत्ते से की है जो चांद की धुंधली किरणों में कांपता है और शीघ्र ही झड़ कर गिर पड़ता है।
यदि हम ध्यान से सोचें तो लगता है कि जीवन हमारे अनुभव का शास्त्र है । यह लेने के लिए नहीं है बल्कि देने के लिए है। जीवन केवल खाने और सोने का नाम नहीं है । यह तो नाम है, सदा आगे बढ़ने की लगन का । जीवन विकास का सिद्धान्त है, स्थिर रहने का नहीं । जीवन तो कर्म का दूसरा नाम है। जो कर्म नहीं करता, उसका अस्तित्व तो है किन्तु वह जीवित नहीं होता । इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि मनुष्य मरता किस प्रकार है, महत्त्व की बात यह है कि वह जीवित किस प्रकार रहता है ।
साथियो, हमें याद रखना चाहिए कि जीवन एक गतिशील छाया मात्र है। इसका द्वारा तो सीधा है पर मार्ग बहुत संकीर्ण है। आत्मज्ञान, स्वाभिमान और आत्मसंयम जीवन को आलौकिक शक्ति की तरफ ले जाते हैं। स्वेट मार्डेन का कहना है—’जो दूसरों के जीवन के अंधकार में सूर्य का प्रकाश पहुंचाते हैं, उनका इस मृत्युलोक में कभी नाश नहीं होगा ।’ तभी तो रवींद्र नाथ ठाकुर कवितामयी भाषा में लिखते हैं- पत्तों पर नृत्य करती हुई ओस के समान अपने जीवन को भी समय के दलों पर नृत्य करने दो।
असल में, जीवन एक गम्भीर सत्य है। ईश्वर ने इसे हमें प्रदान किया है। मृत्यु इसकी मंजिल नहीं है। वह तो एक मार्ग का दूसरी तरफ मुड़ जाना मात्र है। पता नहीं कब तक हमें इस मार्ग पर आगे बढ़ते रहना है।
(ii) सस्बर कविता वाचन
कविता सुनना किसे अच्छा नहीं लगता ? कविता-पाठ से बरसता रस सहज ही मन को मुग्ध कर लेता है पर कविता का पाठ करना बहुत सरल नहीं है। कुछ लोगों में इसकी जन्म जात प्रतिभा होती है। इसके लिए अभ्यास और सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। कविता-पाठ सामान्य गानों के गायन से कुछ भिन्न है। गायन में संगीत की प्रधानता होती है, स्वर लहरियों का जादू होता है और मिठास का लहलहाता सागर होता है। कोई भी कविता इन गुणों को पाकर गीत बन जाती है। जब कोई व्यक्ति कविता-पाठ करता है तो उसे श्रोताओं की मानसिकता और स्थिति को समझ कर अपनी कविता चुननी चाहिए। हर कविता कवि के अलग मूड को प्रतिबिम्बित करती है और श्रोताओं पर उसका प्रभाव भी उसी प्रकार पड़ना चाहिए। हंसी-खुशी के अवसर पर करुणा से भरी कविता का कोई औचित्य नहीं है तो दुःख-भरे माहौल में शृंगार रस से भरी कविता सुनाने वाला उपहास का कारण ही बनता है। उसकी बुद्धि पर सभी को तरस आता है।
कविता पाठ करते समय जिन बातों की तरफ ध्यान रखा जाना चाहिए वे हैं—
• अवसरानुकूल कविता-पाठ का स्वर ।
• उच्चारण की स्पष्टता और शुद्धता ।
• स्वर में समुचित आरोह-अवरोह ।
• चेहरे और आंखों से भावों की अभिव्यक्ति।
• भावानुसार स्वर की गति योजना ।
• लयात्मकता और गेयता । हस्त- संचालन ।
• कंठस्थता ।
प्रत्येक कविता-पाठ करने वाले को कविता में छिपे भावों को स्वरों से उभारने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे भावों में छिपे गूढ़ अर्थ को व्यक्त करने के लिए शब्दों और वाक्यों के बीच उचित ठहराव के महत्त्व को कभी नहीं भूलना चाहिए | काव्य-रस के अनुसार उसके चेहरे पर कठोरता, कोमलता, करुणा, श्रद्धा आदि के भाव आने चाहिए। उसकी वाणी को कोमल, कठोर, मंद, उच्च, करुण आदि रूपों में प्रकट होना चाहिए। इसका श्रोता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कविता पाठ करने वाले को स्वयं कविता में पूरी तरह डूब जाना चाहिए। जहां तक सम्भव हो कविता को बिना कहीं से पढ़े प्रस्तुत करना चाहिए। इससे भावों को प्रकट होने में स्वाभाविकता मिलती है।
उदाहरण – 1
मैंने जीवन के प्याले में आँसू का विषपान किया है,
और बरसते नयनों से भी सुबक-सुबक कर गान किया है।
करुण रस से भरी इन दो पंक्तियों का श्रोता के हृदय पर तब प्रभाव पड़ेगा जब स्वर में करुणा का भाव हो। स्वर में बहुत अधिक उच्चता न हो और चेहरे पर बहुत उत्साह के भाव न हों। इनसे ऐसा लगना चाहिए जैसे कवि अपने हृदय में छिपी पीड़ा को व्यक्त करना चाहता हो। अपने शब्दों को प्रभावात्मकता का गुण देने के लिए उसे इस प्रकार बोलना चाहिए—
मैंने—
जीवन के प्याले में…….
आंसू का विषपान किया है,
और !
बरसते नयनों से भी
सुबक-सुबक कर…….
गान
किया है।
‘मैंने’ के पश्चात् पल भर रुक कर अपने प्रति ध्यान आकृष्ट करना चाहिए।
‘जीवन के प्याले में के बाद विराम से जिज्ञासा उत्पन्न करनी चाहिए।
‘आंसू का’ के साथ दुःख का भाव व्यक्त होना चाहिए।
‘विषपान किया है’ में असहायता प्रकट होनी चाहिए।
‘और’ के द्वारा कथन को आगे बढ़ाने पर बल होना चाहिए। ‘बरसते नयनों से भी’ से निराशा जगनी चाहिए।
‘सुबक-सुबक कर’ में व्यथा का भाव जागृत होना चाहिए।
‘गान’ में पीड़ा से भरे व्यंग्य को प्रकट होना चाहिए।
‘किया है’ में विवशता विद्यमान रहनी चाहिए।
जब कोई कवि का पाठ आरम्भ करता है तो उसे कविता का शीर्षक बताने के साथ कविता में निहित भाव संक्षेप में बताना चाहिए।
उदाहरण – 2
मैं आपके समक्ष राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता सुनाने जा रहा हूं जिसका शीर्षक है— मातृभूमि । कवि ने अपनी इस कविता में भारत भूमि का गुणगान अति स्वाभाविक रूप से किया है।
(iii) वार्तालाप और उसकी औपचारिकताएँ
इस संसार में कोई भी इन्सान किसी दूसरे से कड़वी बात नहीं सुनना चाहता । किसी के द्वारा बोले गए मीठे शब्द दूसरों के हृदय पर भीषण गर्मी में ठंडी हवा के झोंकों-सा काम करते हैं। जो व्यक्ति स्वयं कड़वा और कठोर बोल लेते हैं वे भी अपने लिए दूसरों से मीठी आवाज़ ही सुनना चाहते हैं। कड़वी बातचीत सीधी मन पर ऐसा प्रभाव डालती है कि वह चाहकर भी कभी नहीं भूलती। अधिकांश लड़ाई-झगड़े कड़वी जुबान से ही शुरू होते हैं और अनेक बड़ी गलतियां मीठी जुबान से क्षमा हो जाती हैं। सभ्यता की पहचान ही सद्व्यवहार और मीठी बातचीत है। जो व्यक्ति जितना मधुर व्यवहार और मीठी बातचीत करता है उतना ही वह समाज में प्रतिष्ठा पा जाता है। चेहरे पर आई मुस्कराहट और मधुर बातचीत सबके हृदय को जीत लेने की क्षमता रखती है।
वार्तलाप की मधुरता से आपसी सम्बन्ध घनिष्ठ होते हैं। कई तरह के भेदभाव और झगड़े मिट जाते हैं। इसके लिए न तो कुछ खर्च करना पड़ता है और न ही कोई परिश्रम करना पड़ता है। इसके लिए तो जो औपचारिकताएं हैं—
• मीठे शब्द
• चेहरे पर मुस्कान
• विनम्र व्यवहार
• अपनेपन और सहयोग का भाव
• संवदेना
• मृदुलता
मधुर वार्तालाप दूसरों के हृदय को ही जीतने में सहायता नहीं देता बल्कि अपने मन को भी सुख-शांति प्रदान करता है। इस से व्यक्ति तनाव रहित जीवन जीने में सफलता प्राप्त कर लेता है।
शिष्ट वार्तालाप से सम्बन्धित कुछ उदाहरण
उदाहरण – 1                      माँ-बेटे का वार्तालाप 
माँ—                                 ओह ! मेरी पीठ । …..
शगुन—                             (घबरा कर) क्या हुआ मम्मी ?
माँ—                                 पता नहीं बेटा ? पीठ में दर्द है।
शगुन—                             कब से है यह ?
माँ—                                 आज दोपहर से।
शगुन—                             क्या पापा को बताया था आपने ?
माँ—                                 नहीं…. वे तो सुबह ही चले गए थे अपने काम पर।
शगुन—                             चलो अभी मेरे साथ डॉक्टर के पास।

माँ—                                 रहने दे बेटा। अपने आप ठीक हो जाएगी।

शगुन—                            नहीं, माँ। हम दोनों अभी जाएंगे। कितना पीला चेहरा पड़ गया है आपका दर्द से ।
माँ—                                तू बहुत ध्यान रखता है, मेरा । भगवान् तुम्हें लंबी उमर दे ।
(iv) कार्यक्रम प्रस्तुति
मंच से किसी कार्यक्रम को प्रस्तुत करना अपने आप में एक कला है। अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया कोई भी कार्यक्रम श्रोताओं पर जादुई प्रभाव डालता है। कोई अच्छा मंच संचालक या कलाकार उनके मन-मस्तिष्क को झकझोर सकता है, उन्हें अपने साथ झूमने या रुलाने के लिए तैयार कर सकता है। कार्यक्रम की प्रस्तुति के दो भाग होते हैं—
• मंच संचालन करना ।
• स्वयं अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करना ।
1. मंच संचालन
मंच संचाल करने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, ज्ञान और शब्दों के कुशल प्रयोग से किसी कार्यक्रम की सफलता में अनूठा योगदान देता है। वह श्रोताओं और कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले कलाकार के बीच कड़ी का कार्य करता है। वही दो कार्यक्रमों के बीच के खाली समय को अपने कौशल से भरता है। उसमें जिन गुणों का होना आवश्यक है, वे हैं—
• शब्दों और भाषा का अच्छा ज्ञान।
• हाजिर जवाब।
• श्रोताओं के मूड को बदलने की क्षमता। के
• भाषा के आरोह-अवरोध की शक्ति का ज्ञाता।
मंच संचालक श्रोताओं को कार्यक्रमों की मंच से जानकारी देता है। वह कलाकारों के उत्साह को बढ़ाता है और श्रोताओं के मन में कार्यक्रमों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करता है। वही कलाकारों के द्वारा कार्यक्रमों की प्रस्तुति से पहले उनका परिचय श्रोताओं तक पहुंचाता है।
मंच संचालन से पहले प्रत्येक मंच संचालक के लिए आवश्यक है कि वह प्रस्तुत किए जाने वाले सभी कार्यक्रमों की पूरी जानकारी प्राप्त कर ले और उनको लिखित रूप में अपने पास व्यवस्थित रूप में रख ले। उसे सभी कलाकारों की विशेषताओं का परिचय ज्ञात होना चाहिए। प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों के विषय और उनमें निहित मुख्य भावनाओं का ज्ञान भी उसे होना चाहिए ताकि वह श्रोताओं को उनका पूर्व परिचय दे सके। किसी भी कार्यक्रम की प्रस्तुति से पहले और अंत में मंच संचालक की भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण होती हैं।
(क) कार्यक्रम प्रस्तुति से पहले— मंच संचालक के कार्यक्रम की प्रस्तुति से पहले से कलाकार का परिचय और उसकी प्रस्तुति की जानकारी नपे-तुले और सन्तुलित शब्दों में श्रोताओं को देनी चाहिए। अतिशयोक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए ।
(ख) कार्यक्रम प्रस्तुति के बाद— कार्यक्रम प्रस्तुति के बाद मंच संचालक को श्रोताओं के सामने प्रस्तुति का प्रभाव प्रकट करना चाहिए। इसका कलाकार पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
2. स्वयं अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करना
जब कोई कलाकार मंच पर अपना कोई भी कार्यक्रम प्रस्तुत करने आता है तब वह विशेष औपचारिकता का निर्वाह करता है जिसे मंचीय शिष्टचार कहा जाता है। उसके लिए आवश्यक होता है कि—
• कार्यक्रम की गरिमा के अनुसार उसके चेहरे पर भाव हों।
• वह सहज हो।
• मंच की ओर बढते समय उसकी चाल और आंगिक क्रियाएं स्वाभाविक हों।
कलाकार को अपना कार्यक्रम आरंभ करने से पहले मंच पर बैठे विशेष अतिथियों, निर्णायकों और श्रोताओं की ओर देखते हुए उन्हें संबोधित करना चाहिए। सम्बोधन में कभी-भी व्यंग्य की पुट नहीं चाहिए। गरिमा का बना रहना अनिवार्य है, जैसे—
माननीय अध्यक्ष महोदय।
आदरणीय सभापति जी !
सम्मान्य नेता जी !
परम पूजनीय गुरु वर !
अभिनन्दनीय भाई साहब !
पूज्य वर !
पूजनीय गुरु जी !
प्यारे सहपाठियो !
प्रिय मित्रो !
मेरे प्रिय साथियो !
प्रातः स्मरणीय आचार्य वर !
माताओं और बहनों !
श्रद्धा योग्य मातृ शक्ति !
श्रद्धेय विद्वजन !
यदि मंच पर अनेक महानुभाव विराजमान हों तो उन सब की ओर देखते हुए उन्हें सम्बोधित किया जाना चाहिए जैसे—
माननीय नेता जी ! आदरणीय मुख्याध्यापक जी ! श्रद्धेय गुरुवर ! बाहर से पधारे अतिथिगण ! और मेरे प्यार साथियो !
अपना परिचय – यदि मंच संचालक ने आपका परिचय श्रोताओं को नहीं दिया हो तो आप अपना संक्षिप्त परिचय दें। आपके द्वारा दिया गया परिचय विस्तृत नहीं होना चाहिए। उसमें किसी भी बात को बढ़ा-चढ़ा कर तो कभी नहीं कहा जाना चाहिए। अपने परिचय के साथ आपको अपने द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रम का संक्षिप्त परिचय भी दिया जाना चाहिए।
उदाहरण – 1
मैं भारती जुनेजा। मैं दसवीं ‘ए’ की छात्रा हूँ। मुझे कविता लिखने का शौक है। मैं आपको अपनी एक कविता सुनाने आई हूँ जिसका शीर्षक है- ‘हम भारतीय’ ।
उदाहरण – 2 
मैं हूँ रोहण अग्रवाल। नवीं कक्षा में पढ़ता हूँ। बचपन से ही मुझे तरह-तरह के पशुपक्षियों की आवाज़ें निकालने का शौक रहा है। आज मैं आपको ऐसी ही कुछ आवाज़ें सुनाने जा रहा हूं।
उदाहरण – 3
मैं पल्लवी जोशी, राजकीय सीनियर सैकंडरी स्कूल की ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा हूँ। मुझे अभिनय करने का शौक है। मैं आपके सम्मुख पतंग उड़ाने वाले एक लड़के का मूक अभिनय करने जा रही हूँ।
उदाहरण – 4
मैं अभिषेक खुराना हूँ और यह है मेरा मित्र राघव । हम दोनों डी० ए० वी० मॉडल स्कूल के विद्यार्थी हैं। हम दसवीं कक्षा के छात्र हैं और आज आप के समक्ष सहगान प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसका शीर्षक है—
‘बदल गया ज़माना’ ।
(v) कथा / कहानी / घटना / संस्मरण को सुनाना
कहानी सुनने-सुनाने की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी मानव सभ्यता। जब इंसान सभ्य हुआ होगा तब उसने अवश्य अपने जीवन से जुड़े हुए प्रसंगों को कल्पना से जोड़ कर दूसरों को सुनाया होगा और उनसे उनकी कहानियों को सुना होगा। कहानी सुनाना एक कला है। यह कला सब में नहीं होती पर इस कला को थोड़े अभ्यास से सीखा जा सकता है।
हर कहानी सुनाई जा सकती है पर कहानी सुनाने वाले को कहानी सुनने वाले की रुचि, स्थिति, मानसिकता और बुद्धि स्तर का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। जो भी कहानी किसी को सुनानी हो उसमें निम्नलिखित गुण आवश्य होने चाहिएं –
• कहानी चाहे सच्ची हो या काल्पनिक, पर उसे रोचक अवश्य होना चाहिए।
•कहानी में सहजता, स्वाभाविकता और गतिशीलता होनी चाहिए।
• कहानी की भाषा अति सरल होनी चाहिए। उसमें मुहावरे लोकोक्तियों का यथासम्भव प्रयोग नहीं होना चाहिए।
• कहानी में उपदेशात्मकता और भाषणात्मकता नहीं होनी चाहिए। कहानी में जिज्ञासा और उत्सुकता बनी रहनी चाहिए।
• कहानी का अन्त चरम बिन्दु पर होना चाहिए।
• कहानी में अनावश्यक विस्तार, भूमिका आदि नहीं होने चाहिए। कहानी को अपना संदेश स्वयं प्रकट करना चाहिए।
उदाहरण – 1
भीड़ से भरे बाजार में एक बहेलिया बैठा था। उसके पास दो पिंजरे थे। दोनों में एकएक तोता था। दोनों तोते बहुत सुंदर थे। उनके लंबे हरे पँख, लाल चॉच, सुंदर पंजे और गले पर काली गोल रेखाएं तो मन को मोह लेने वाली थीं। बहेलिए ने एक तोते के पिंजरे पर उसका दाम एक हजार रुपए लिख रखा था तो दूसरे तोते का केवल दस रुपए।
लोग पिंजरों के पास आ खड़े होते तोतों को देखते। उन्हें खरीदने के लिए मोल-भाव करते। बहेलिया सबसे एक ही बात करता था – ‘दाम इतना ही लगेगा और दोनों तोते एक साथ लेने पड़ेंगे। मुझे कोई भी एक अकेला तोता नहीं बेचना।’ कोई भी तोते खरीदने को तैयार नहीं था। उन्हें उनके दामों में इतने बड़े अंतर का रहस्य समझ में नहीं आ रहा था। उन्होंने उससे उस अंतर के बारे में पूछा। तोते वाले ने कहा- आप इन्हें ले जाएं। आपको अंतर स्वयं मालूम हो जाएगा।’ एक व्यक्ति ने कुछ देर सोच कर दोनों तोते ख़रीद लिए। वह उन्हें अपने घर ले गया। उसने एक हज़ार वाले तोते के पिंजरे को अपने कमरे में एक खिड़की के पास टांग दिया। रात को जब सोने से पहले उसने कमरे की रोशनी बंद की तो तोता बोला, ‘शुभ रात्रि’। उस व्यक्ति को यह सुनना अच्छा लगा।
अगली सुबह जैसे ही उसकी आँख खुली वैसे ही तोता बोला- ‘राम, राम !’ उसने सुंदर श्लोक भी पढ़े। व्यक्ति प्रसन्न हो गया।
दूसरे दिन उस व्यक्ति ने दूसरे पिंजरे को अपने कमरे में टांगा। रात को जैसे ही अन्धेरा हुआ, वैसे ही तोता पिंजरे से बोला—’अबे, बंद कर रोशनी। सोने भी दे। क्या उल्लू है तू ?
रात भर भी जागेगा क्या ?’ व्यक्ति यह सुन कर गुस्से से भर उठा पर कुछ सोच कर उसने रोशनी बंद कर दी।
जैसे ही सवेरा हुआ, उस तोते ने गंदी-गंदी गालियां बकनी आरम्भ कर दीं। व्यक्ति की नींद खुली। उसने गालियां सुनीं। उसे बहुत बुरा लगा और गुस्सा भी आया। उसने अपने नौकर को आवाज दी और कहा-‘इस दुष्ट का गला अभी मरोड़ कर इसे बाहर फेंक दो।’ पहला तोता पास ही था। उसने नम्रता से कहा-‘श्रीमान् ! इसे मत मरवाओ। यह मेरा सगा भाई है। हम एक साथ जाल में फंसे थे। मुझे एक महात्मा जी ले गए थे। मैंने उनके यहां ईश्वर का नाम लेना सीख लिया। इसे एक बदमाश ने ले लिया था। इसने वहां गंदा बोलना और गाली देना सीख लिया। इसमें इसका कोई दोष नहीं है। यह तो बुरी संगत का नतीजा है।’
व्यक्ति ने पल भर सोचा और फिर अपने नौकर से कहा-‘इस गाली देने वाले तोते को बाहर ले जाकर उड़ा दो। इसे घर में मत रखो।’
I. परिचय देना
परिचय के प्रकार – प्रायः परिचय दो प्रकार से दिया जाता है।
• अनौपचारिक परिचय
• औपचारिक परिचय
1. अनौपचारिक परिचय – इस प्रकार के परिचय में नाम, कक्षा या व्यवसाय का ही परिचय देना पर्याप्त होता है। यदि परिचय पाने वाला व्यक्ति आप के विषय में अधिक जानना चाहता है तो वह स्वयं बातों-बातों में आप से पूछ लेगा।
उदाहरण-
(क) मेरा नाम रेवती है। मैं दयाल सिंह पब्लिक स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ती हूं।
(ख) मैं मोहित । दिल्ली पब्लिक स्कूल, आर० के० पुरम में नौवीं कक्षा का विद्यार्थी
(ग) मैं हूं जावेद । संत कबीर स्कूल, इलाहाबाद में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता हूं।
(घ) मैं मोहित जैन हूँ। मेरा पानीपत में दरियां बनाने का काम है। (ङ) मैं माधवी गुप्ता सरकारी अस्पताल में शल्य चिकित्सक हूँ।
(च) मैं नरेंद्र उपाध्याय हूँ। पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग से सेवानिवृत्त हो चुका हूँ।
2. औपचारिक परिचय – इस प्रकार का परिचय प्रायः सभा-सभाओं, सार्वजनिक कार्यक्रमों, कक्षा या बड़े समूहों में देना होता है। कई बार तो यह बता दिया जाता है कि परिचय देते समय क्या-क्या बताना होगा। सामान्य रूप से ऐसे परिचय में चार बातें बतानी होती हैं—
नाम, कक्षा/व्यवसाय, विद्यालय/निवास, रुचियां
उदाहरण
(क) मेरा नाम पल्लवी है। मैं सेंट थैरेसा कान्वेंट स्कूल, करनाल में नौवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैं न्यू हाऊसिंग बोर्ड में रहती हूँ। कैरम खेलना, पेंटिंग करना और पुराने गाने सुनना मेरा शौक है।
(ख) मेरा नाम रोहण है। मैं डी० ए० वी० सीनियर सैकेंडरी स्कूल, जयपुर में ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी हूँ। मैं अपनी कक्षा का मॉनीटर हूँ। क्रिकेट खेलना मेरा शौक है। पत्रमित्रता करने में मेरी गहरी रुचि है।
(ग) मैं निवेदिता हूँ । प्रताप पब्लिक स्कूल, उदयपुर में दसवीं कक्षा में पढ़ती हूँ। राज्य स्तरीय चैस प्रतियोगिता में गत तीन वर्षों से स्वर्ण पदक प्राप्त कर रही हूँ । कत्थक करना और कविता पाठ प्रतियोगिताओं में भाग लेना मेरे शौक हैं।
(घ) मैं रोहण चौहान हूँ। लुधियाना के सदर बाज़ार में रहता हूँ । वहीं मेरी वूलन मिल है। क्रिकेट मैच देखना और पुराना संगीत सुनना मेरे शौक हैं।
(ङ) मैं हूँ रणधीर वर्मा । अशोका कॉलोनी, ग्वालियर में रहता हूँ। मैं नेत्र रोग विशेषज्ञ हूं और मॉडल टाऊन में मेरा नर्सिंग होम है। टैनिस खेलना मेरा शौक है।
II. परिचय लेना 
हमें अपने जीवन में प्रतिदिन अनेक ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे हमारा पूर्व परिचय नहीं होता। हम किसी न किसी कारण उनसे परिचय पाना चाहते हैं। कई लोग हमें अच्छे लगते हैं और कई से हमारे कारोबारी सम्बन्ध होते हैं।
जब भी किसी अपरिचित से हम परिचय प्राप्त करना चाहते हैं, हमें भद्रता और शालीनता का परिचय देते हुए शिष्टाचार के सभी नियमों का पालन करना चाहिए। आरम्भ में औपचारिकता बनी रहनी चाहिए और ‘आप’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। कभी भी ‘तू’ या ‘तुम’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हंसी-मज़ाक और व्यंग्यात्मक शब्दों का प्रयोग तो कदापि नहीं करना चाहिए क्योंकि हम उस अपरिचित के स्वभाव को नहीं जानते। हमारा व्यंग्यात्मक शब्द उसे बुरा लग सकता है। परिचय प्राप्त करने से पहले सम्मानपूर्वक सम्बोधित करना आवश्यक होता है, जैसे—
भाई-साहब, बहन जी, अंकल, आंटी, मैडम, सर, श्रीमान् जी, महोदय । परिचय प्राप्त कर लेने के पश्चात् मर्यादा का ध्यान रखते हुए नाम से भी सम्बोधित किया जा सकता है ।
अपनत्व दिखाने के लिए बीच-बीच में नाम/जाति / संबोधन आदि का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे—
(क) आपसे मैं पहले कह चुका हूँ, गुप्ता जी ।
(ख) महेश जी, कभी उधर भी आइए।
(ग) अच्छा, बहन जी! फिर मिलेंगे ।
(घ) अरे, बेटा ! मैं भी उधर ही जा रहा हूँ ।
(ङ) वाह अंकल ! आप तो बहुत अच्छे हैं।
परिचय पाने के लिए संबोधन के साथ अभिवादन किया जाना चाहिए, जैसे—
(क) हैलो, सर !
(ख) नमस्ते अंकल !
(ग) आदाब, भाई जान !
(घ) नमस्कार जी
(ङ) नमस्कार आंटी।
अभिवादन के बाद परिचय पूछा जा सकता है, जैसे—
(क) श्रीमान् जी ! क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकता हूँ ?
(ख) कृपया अपना नाम बताइए ।
(ग) सर ! क्या मैं आपका नाम पूछ सकता हूँ ?
(घ) मैडम ! क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?
नाम जान लेने के पश्चात् रहने का स्थान, नगर, स्कूल, कार्यालय, शिक्षा आदि के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। परिचय प्राप्त करने के पश्चात् औपचारिकतावश मिलने की खुशी अवश्य प्रकट की जानी चाहिए, जैसे—
(क) आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
(ख) बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर शर्मा जी ।
(ग) फिर मिलना।
(घ) जल्दी फिर मिलेंगे।
(ङ) हमें आपसे मिलने का इंतजार रहेगा।
परिचय प्राप्त करने के पश्चात् धन्यवाद अवश्य ज्ञापित करना चाहिए।
परिचय पाने के कुछ उदाहरण
1. कक्षा में नया प्रवेश प्राप्त करने वाले एक लड़के से परिचय प्राप्त कीजिए।
उत्तर—आप-हलो !
वह – हलो ! आप ?
आप – मैं रोहन । इसी कक्षा में पढ़ता हूँ ।
वह – मैं अनुराग हूँ ।
आप – आप को इस कक्षा में पहली बार देखा है।
वह — हाँ। मैंने इस स्कूल में कल ही दाखिला लिया है। आप पहले कहाँ पढ़ते थे ?
वह – मैं बंगालुरु के मेरी कान्वेंट स्कूल में पढ़ता था। आप – क्या पापा की ट्रांसफर हो गई है ?
वह — हाँ ।
आप – कहाँ रह रहे हो ?
वह — अभी तो घर ढूंढ़ रहे हैं। कुछ दिन के लिए गेस्ट हाऊस में ठहरे हैं।
आप – एक बड़ा-सा मकान मेरे घर के सामने किराए के लिए खाली है।
वह — फिर तो बहुत अच्छा है। मैं पापा-मम्मी को बताऊंगा ।
आप – हम भी पास-पास रह दोस्त बन जाएंगे।
वह – दोस्त तो हम बन भी गए । धन्यवाद ।
आप — धन्यवाद ।
2. सब्ज़ी की रेहड़ी के निकट खड़ी एक औरत से आप उसका परिचय प्राप्त कीजिए ।
उत्तर—आप – नमस्ते, बहन जी ।
वह – नमस्ते, आप ?
आप – मैं नमिता हैं। सामने घर में रहती हैं। और आप ?
वह – मैं मीनाक्षी हूँ। पिछली गली में रहती हूँ।
आप – कौन-सा मकान है आपका ?
वह – कोने वाला ।
आप – अच्छा है। चलती हूँ। धन्यवाद ।
वह – प्रसन्नता हुई आप से मिलकर ।
(vii) भावानुकूल संवाद योजना
जब भी दो या दो से अधिक लोग आपस में बातचीत करते हैं। तब भावों के अनुसार उन की वाणी और चेहरे के हाव-भावों में परिवर्तन दिखाई देता है। क्रोध की स्थिति में उनकी आवाज़ ऊँची और तेज़ हो जाती है तो करुण अवस्था में दुःख की झलक अपने आप ही आवाज़ के माध्यम से प्रकट होने लगती है। प्रसन्नता के कारण आवाज में विशेष चहक-सी उत्पन्न हो जाती है। भक्ति-भाव के समय वह शांत हो जाती है। शब्दों का चयन भी भावों के अनुरूप बदलता दिखाई देता है। स्वरों का उतार-चढ़ाव मानसिक स्थिति के अनुसार निश्चित रूप से नए-नए रूप लेता रहता है।
संवाद योजना सदा भावानुकल होनी चाहिए। इस से स्वाभाविकता का गुण जब प्रकट होता है। तब वह दूसरों को अधिक प्रभावित करता है। बातचीत में कभी बनावटीपन नहीं झलकना चाहिए। यदि किसी कहानी या नाटक के संवादों को बोला जाना हो तो व्यर्थ में बनावटी हाव-भाव कभी प्रकट नहीं किए जाने चाहिए। भावों और पारिस्थितियों के अनुसार आंगिक क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए।
संवादों को बोलने का अभ्यास निरन्तरता की मांग करता है। दूसरों के सामने संवादों को बोल कर स्वयं को सुधारा और संवारा जा सकता है। संवादों में छिपे भावों को केवल वाणी से ही नहीं बल्कि चेहरे के भाव-भावों से भी सरलतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता है।
कुछ उदाहरण
1. बोर्ड परीक्षा में पुत्र के प्रथम आने की सूचना को पाकर माता-पिता के बीच हुई बातचीत
पिता (कम्प्यूटर स्क्रीन को देखते हुए)— अरे, वाह! कमाल कर दिया मोहित ने।
माता— क्यों क्या हो गया?
पिता— देखो तो, उस का परीक्षा परिणाम आ गया है। “
माता (घबराकर)— पास तो हो गया है न वह।
पिता— अरे ! उसे ने तो करिश्मा कर दिया है।
माता— क्या स्कूल में फर्स्ट आ गया है।
पिता— अरे नहीं! वह तो पूरे राज्य में प्रथम आया है।
माता— क्या ?
पिता— हाँ, उसने तो पिछले बोर्ड परिणामों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं।
माता— अरे वाह!
पिता— मुझे यह तो लगता था कि उसका नाम मैरिट लिस्ट में होगा पर….।
माता— पर क्या ? हमारा बेटा है। अपने दादा पर गया है।
पिता— क्या मुझ पर नहीं ?
माता— आप पर इस तरफ से तो नहीं गया।
पिता— हाँ, मुझ पर गया होता तो फिर सेकंड डिविजन ही मिली होगी।
माता— (मुस्करा कर ) – वही तो कह रही हूँ।

पिता— मोहित है कहाँ ? उसे बताओ तो सही।

माता—ह तो बाहर लड़कों के साथ खेल रहा है। अभी बुलाती हूँ, उसे।
पिता— बुला लो उसके सारे दोस्तों को भी यहाँ और जल्दी से मिठाई मंगाओ।
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