JKBOSE 9th Class Hindi Grammar Chapter 1 निबंध-लेखन
JKBOSE 9th Class Hindi Grammar Chapter 1 निबंध-लेखन
Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 9th Class Hindi Grammar
Jammu & Kashmir State Board class 9th Hindi Grammar
J&K State Board class 9 Hindi Grammar
1. विज्ञान के हानि-लाभ
अथवा
विज्ञान अभिशाप या वरदान
आज का युग विज्ञान के चमत्कारों का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान ने क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। इस युग में विज्ञान की उन्नति ने संसार को विस्मित कर दिया है। विज्ञान के ऐसे-ऐसे अद्भुत आविष्कार हुए हैं कि मनुष्य दाँतों तले उंगली दबाए उन्हें देखता और उनके बारे में सोचता ही रह जाता है उनकी चकाचौंध देखकर स्तब्ध रह जाता है। विज्ञान की अद्भुत उपलब्धि पर प्रकाश डालते हुए राष्ट्र कवि ‘दिनकर’ ने कहा है—
पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार,
आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार,
यह समय विज्ञान का, सब भान्ति पूर्ण समर्थ,
खुल गए हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरु अर्थ ।
चीरता तम को सम्भाले बुद्धि की पतवार,
आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार ।
विज्ञान ने मानव को जो सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं, उनका वर्णन सहज नहीं। जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप में हमें विज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान प्राप्त है। विज्ञान ने हमारी कल्पनाओं को वास्तविकता में बदल दिया है। चन्द्र विजय जैसा अभूतपूर्व कार्य विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। विज्ञान ने असम्भव को सम्भव कर दिया है ।
विज्ञान ने लोगों का जीवन सुखमय तथा आनन्द – युक्त बना दिया है। बिजली के बल्ब, पंखे, हीटर, ग्रामोफोन, रेडियो, टेलीविजन, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि से हमें कई तरह के आराम तथा सुविधाएं प्राप्त हैं। बिजली स्वयं विज्ञान का चमत्कार है, उसके द्वारा कई जीवनोपयोगी काम होते हैं। बिजली आज हमारा भोजन पकाती है, कमरा बुहारती है, पंखा चलाती है, प्रकाश प्रदान करती है। अनेक कारखाने बिजली की सहायता से चलते हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान के चमत्कारों ने आद्योपांत परिवर्तन कर दिया है।
विज्ञान के आविष्कार ‘एक्स-रे’ द्वारा शरीर के अन्दर के चित्र लिये जाते हैं और बीमारियों का पता लगाया जाता है। फेफड़े, दिल, गुर्दे आदि शरीर के सभी अंगों के आप्रेशन होने लगे हैं। अन्धों को दूसरों की आँखें दे कर देखने योग्य बनाया जाता है। भयंकर बीमारियों की चिकित्सा होने लगी है। विज्ञान के वरदान से ही कई असाध्य रोग साध्य हो गए हैं।
विज्ञान ने मनुष्य की यात्रा बहुत आसान कर दी है। प्राचीन युग में लोग पैदल या बैलगाड़ी आदि पर दिनों, महीनों या वर्षों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचते थे, किन्तु अब रेलगाड़ी मोटर, वायुयान आदि द्वारा थोड़े समय में पहुंच जाते हैं। वायुयान, हैलीकाप्टरों आदि द्वारा युद्ध के स्थान पर सैनिक, अस्त्र-शस्त्र, भोजन-सामग्री, पेट्रोल आदि झटपट जा सकता है। भूकम्प या बाढ़ द्वारा पीड़ित लोगों को भोजनादि की सहायता हुंचाई जा सकती है और उन्हें बचाया जा सकता है। राडार द्वारा शत्रु विमान की हरकत का पता चल जाता है।
विज्ञान के मानव के लिए मनोरंजन के बहुत से साधन पैदा दिए हैं। फोटो, चित्रपट, ग्रामोफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि से मनुष्य का जीवन सरस, रोचक और मधुर हो उठा है। सिनेमा का उपयोग जहां मनोरंजन की पूर्ति करता है, वहां इस सदुपयोग द्वारा शिक्षाजगत् को भी पर्याप्त लाभ पहुंचाया जा सकता है। सिनेमा की लोकप्रियता से कौन परिचित नही है ।
इम टेलीफोन आदि द्वारा दूर बैठे व्यक्ति से बातचीत करते हैं। व्यापारिक क्षेत्र के साथ व्यवस्था बनाये रखने में इसका बड़ा उपयोग है। टाइप राइटर, टेलीप्रिंटर, प्रेस आदि बड़े उपयोगी आविष्कार हैं।
विज्ञान ने कृषि विषयक आविष्कारों में नये-नये प्रकार के हल, ट्रैक्टर, काटने-छांटने के यन्त्र प्रदान किये हैं। इनकी सहायता से समय एवं शक्ति की बचत होती है। अब विज्ञान के तरीके से बीज बो कर चार घण्टे में फसल तैयार की जा सकती है। चौबीस घण्टे में अण्डे से मुर्गी का बच्चा निकाला जा सकता है। कुछ घण्टों में गेहूं पैदा किया जा सकता है। वैज्ञानिक खाद से फसल की मात्रा तथा पैदा होने वाली चीज का आकार बढ़ गया है। विज्ञान की सहायता से बड़े-छोटे कारखाने तथा कई तरह की मशीनें चलती हैं। भट्टियां चलाई जाती हैं। क्रेनों के द्वारा बड़ी भारी भरकम चीजें उठाकर जहाजों में भरी जाती हैं तथा ऊंची जगहों पर पहुंचाई जाती हैं। विज्ञान के इन आविष्कारों को देखकर हम कह सकते हैं कि विज्ञान वरदान है।
मनुष्य का ध्यान जब विज्ञान की भयानकता की ओर जाता है तो उसका सारा उत्साह समाप्त हो जाता है। विज्ञान द्वारा सम्भव होने वाले विध्वंस की कल्पना मात्र से उसका हृदय कांप उठता है। विज्ञान ने नेपाम बम, ऐटम बम, हाइड्रोजन बम, मिसाइल्ज्, तोपें आदि ऐसे-ऐसे विनाशकारी अस्त्र-शस्त्र बनाए हैं कि जिनसे संसार क्षण भर में नष्ट हो सकता है। द्वितीय महायुद्ध में अमेरिका ने ऐटम बम (अणु बम) गिरा कर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों को भस्म कर दिया था। इनमें से कुछ विरले ही लोग बचे थे। उनमें से कई अपंग हो गये थे। पशु-पक्षी भी मारे गए थे। वृक्ष तक राख हो गये थे। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि कर उठी थी। उस नाशकारी दृश्य को संसार आज भी नहीं भूला । विज्ञान द्वारा विषैली गैस देशों में छोड़ी जा सकती है, जिससे वहां की जलवायु को विषाक्त करके लोगों को समाप्त किया जा सकता है। विज्ञान द्वारा बनाई हुई डुबकिनी किश्ती ऐसा तारपीडो छोड़ती है कि उसकी चोट से बड़े-बड़े समुद्री जहाज पलों में समुद्र में डूब जाते हैं। हवाई जहाजों से बमों की वर्षा करके निरीह जनता तथा उनके घर-बार तबाह कर दिए जाते हैं। राकेट द्वारा दूर देश पर हमला करके उसे मिनटों में मिट्टी में मिलाया जा सकता है। विज्ञान की सबसे बड़ी हानि यह है कि उसने मनुष्य को नास्तिक, आलसी और बेकार बना दिया है। वह ईश्वर, आत्मा, धर्म, पुण्य, परलोक आदि को नहीं मानता। जब रेल, मोटर, हवाई जहाज़ नहीं बने थे तब लोग कई मील पैदल चल लेते थे, आज उनसे चला नहीं जाता। कई मनुष्यों का काम एक मशीन कर लेती है, इसलिए बेकारी बढ़ गई है। विज्ञान ने लोगों के चरित्र को भी गिराया है। कई तरह के अनुचित काम करने के लिए विज्ञान मदद करता है तथा उकसाता है। इसलिए विज्ञान एक अभिशाप बनकर प्रकट हुआ है।
यदि विज्ञान की उपलब्धियों पर विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि यह वस्दान है। परन्तु निष्कर्ष रूप में यह दिखाई देता है कि विज्ञान ने मानवता और संस्कृति को बड़ी ठेस पहुंचाई है, क्योंकि उसने दुनिया को अशान्त तथा व्याकुल कर दिया है। संसार के सर्वनाश का खतरा भी दिखाई पड़ता है। सम्भव है कि भविष्य में धर्म और संस्कृति का आंचल पकड़ने से विज्ञान की हानियां घट जाएं और उससे संसार में शान्ति की स्थापना में सहायता मिले। किसी कवि ने ठीक ही कहा है—
जिसने नई सभ्यता दी है मानव की सन्तान को ।
श्रद्धायुत प्रणाम है मेरा उस विज्ञान महान् को ॥
विष्णु सरीखा जो पालक है शंकर जैसा संहारक ।
पूजा उसकी शुद्ध भाव से करो आज से आराधक ॥
2. मनोरंजन के प्रमुख साधन
अथवा
मनोरंजन के साधनों
मनोविनोद के साधन मनोरंजन मानव जीवन का अनिवार्य अंग है। केवल काम जीवन में नीरसता लाता है। कार्य के साथ-साथ यदि मनोरंजन के लिए भी अवसर रहे तो काम में और गति आ जाती है। मनुष्य प्रतिदिन आजीविका कमाने के लिए कई प्रकार के काम करते हैं। उन्हें बहुत श्रम करना पड़ता है। काम करते-करते उनका मस्तिष्क, मन, शरीर, अंग-अंग थक जाता है। उन्हें अनेक प्रकार की चिन्ताएं भी घेरे रहती हैं। एक ही काम में निरन्तर लगे रहने से जी उक्ता जाता है। अतः जी बहलाने तथा थकान मिटाने के लिए किसी-न-किसी साधन को ढूंढ़ा जाता है। इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए मनोरंजन के साधन बने हैं।
जब से मनुष्य ने इस पृथ्वी पर पदार्पण किया है तभी से वह किसी-न-किसी साधन द्वारा मनोरंजन का आश्रय लेता रहा है।
सदा मनोरंजन देता है, मन को शान्ति वितान ।
कांटों के पथ पर ज्यों मिलती फूलों की मनहर छाया ॥
प्राचीनकाल में मनोरंजन के अनेक साधन थे। पक्षियों को लड़ाना, भैंसे की लड़ाई, रथों की दौड़, धनुषबाण से निशाना लगाना, लाठी- तलवार का मुकाबला, दौड़, तैरना, वृक्ष पर चढ़ने का खेल, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गुड़िया का विवाह, रस्सी कूदना, रस्सा खिंचाई, चौपट, गाना-बजाना, नाचना, नाटक, प्रहसन, नौका-विहार, भाला चलाना, शिकार आदि। फिर शतरंज, गंजफा आदि खेलें आरम्भ हुईं। सभ्यता एवं संस्कृति विकास के साथ-साथ में परिवर्तन आता रहा है।
आधुनिक युग में मनोरंजन के अनेक नये साधन उपलब्ध हैं। आज मनुष्य अपनी रुचि एवं सामर्थ्य के अनुरूप मनोरंजन का आश्रय ले सकता है। विज्ञान ने हमारी मनोवृत्ति को बहुत बदल दिया है। कंप्यूटर और इंटरनेट एक साथ ढेरों मनोरंजन के साधन हैं। आज के मनोरंजन के साधनों में मुख्य हैं- ताश, शतरंज, रेडियो, सर्कस, चित्रपट, नाटक, प्रदर्शिनी, कार्निवल, रेस, गोल्फ, रग्बी, फुटबाल, हाकी, क्रिकेट, वालीबाल, बास्कटबाल, टेनिस, बेडमिन्टन, शिकार आदि। इनमें से कई साधनों से मनोरंजन के साथ-साथ पर्याप्त व्यायाम भी होता है।
वर्तमान समय में ताश, शतरंज, चित्रपट और रेडियो, संगीत सम्मेलन, कवि-सम्मेलन, मैच देखना, सर्कस देखना मनोरंजन के सर्वप्रिय साधन हैं। इनसे आबाल वृद्ध लाभ उठाते हैं। खाली समय में ही नहीं, अपितु कार्य के लिए आवश्यक समय को भी अनावश्यक बनाकर लोग इन में रमे रहते हैं। बच्चे, युवक, बूढ़े जब देखो तब ताश खेलते दिखाई देंगे। शतरंज खेलने का भी कइयों को शौक है। चित्रपट तो मनोरंजन का विशेष साधन बन गया है। मजदूर चाहे थोड़ा कमायें, तो भी चित्रपट देखने अवश्य जाएंगे। युवक-युवतियों और विद्यार्थियों के लिए तो यह एक व्यसन बन गया है। कई लड़के पैसे चुराकर चित्रपट देखते हैं। माता-पिता बाल-बच्चों को लेकर चित्रपट देखने जाते हैं और अपनी चिन्ता तथा थकावट दूर करने का प्रयत्न करते हैं। 14
इस समय मनोरंजन के साधनों में रेडियो, टेलीविजन, कंप्यूटर और इंटरनेट प्रमुख साधन हैं। इनसे घर बैठे ही समाचार, संगीत, भाषण, चर्चा, लोकसभा या विधानसभा की समीक्षा, वाद-विवाद, नाटक, रूपक, प्रहसन आदि सुनकर लोग अपना मनोरंजन प्रतिदिन करते हैं। स्त्रियां घर का काम कर रही हैं साथ ही उन्होंने रेडियो चलाया हुआ है। बहुतसे लोग प्रतिदिन प्रहसन अवश्य सुनेंगे। कई विद्यार्थी कहते हैं कि एक ओर रेडियो से गाने सुनाई दे रहे हों तो पढ़ाई में हमारा मन खूब लगता है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि रेडियो चलाए बिना हम तो पढ़ नहीं सकते। टेलीविज़न तो निश्चय ही मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन है। संगीत-सम्मेलनों और कवि-सम्मेलनों में भी बड़ा मनोरंजन होता है । नृत्य आदि भी होते हैं। सर्कस देखना भी मनोरंजन का अच्छा साधन है।
मनोरंजन के साधनों से मनुष्य के मन का बोझ हल्का होता है तथा मस्तिष्क और नसों का तनाव दूर होता है। इस से नवजीवन का संचार होता है। पाचन क्रिया भी ठीक होती है। देह को रक्त संचार में सहायता मिलती है। कहते हैं कि सरस संगीत सुनकर गौएं प्रसन्न होकर अधिक दूध देती हैं। हरिण अपना आप भूल जाते हैं। बैजू बावरे का संगीत सुनकर मृग जंगल से दौड़ आए थे।
परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि अति सर्वत्र बुरी होती है। यदि विद्यार्थी अपना मुख्य अध्ययन कार्य भूलकर, दिन-रात मनोरंजन में लगे रहें तो उससे हानि होगी। सारा दिन ताश खेलते रहने वाले लोग अपना व्यापार चौपट कर लेते हैं। इसलिए समयानुसार ही मनोरंजन व साधनों से लाभ उठाना चाहिए। मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानार्जन भी होना चाहिए। हमें ऐसे मनोरंजन का आश्रय लेना चाहिए जिससे हमारे ज्ञान में वृद्धि हो । सस्ता मनोरंजन बहुमूल्य समय को नष्ट करता है। कवि एवं कलाकारों को भी ऐसी कला कृतियां प्रस्तुत करनी चाहिएं जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्द्धन में भी सहायता करें। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है—
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
एक बात और विचारणीय है। कुछ लोग ताश आदि से जुआ खेलते हैं। आजकल यह बीमारी बहुत बढ़ती जा रही है। रेलगाड़ी में, तीथों पर, वृक्षों के नीचे, जंगल में, बैठक में, क्लबों में जुए के दाव चलते हैं। कई लोगों ने शराब पीना तथा दुराचार के गड्ढे में गिरना भी मनोरंजन का साधन बनाया हुआ है। विनाश और पतन की ओर ले जाने वाले ऐसे मनोरंजनों से अवश्य बचना चाहिए। मनोरंजन के साधन के चयन से हमारी रुचि, दृष्टिकोण एवं स्तर का पता चलता है। अतः हम मनोरंजन के ऐसे साधन को अपनाएं जो हमारे ज्ञान एवं चरित्र बल को विकसित करें।
3. वर्षा ऋतु
मानव जीवन के समान ही प्रकृति में भी परिवर्तन आता रहता है। जिस प्रकार जीवन में सुख-दुःख, आशा-निराशा की विपरीत धाराएं बहती रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति भी कभी सुखद रूप को प्रकट करती है तो कभी दुःखद । सुख के बाद दुःख का प्रवेश कुछ अधिक कष्टकारी होता है। बसन्त ऋतु की मादकता के बाद ग्रीष्म का आगमन होता है। ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति का दृश्य बदल जाता है। बसन्त ऋतु की सारी मधुरता न जाने कहां चली जाती है। फूल-मुरझा जाते हैं। बाग-बगीचों से उनकी बहारें रूठ जाती हैं। गर्म लुएं सबको व्याकुल कर देती हैं। ग्रीष्म ऋतु के भयंकर ताप के पश्चात् वर्षा का आगमन होता है। वर्षा ऋतु प्राणी जगत् में नये प्राणों का संचार करती है। बागों की रूठी बहारें लौट आती हैं। सर्वत्र हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है ।
धानी चूनर ओढ़ धरा की दुलहिन जैसे मुस्कराती है।
नई उमंगें, नई तरंगें, लेकर वर्षा ऋतु आती है ।
वैसे तो आषाढ़ मास से वर्षा ऋतु का आरम्भ हो जाता है लेकिन इसके असली महीने सावन तथा भादों हैं। धरती का ‘शस्य श्यामलाम् सुफलाम्’ नाम सार्थक हो जाता है । इस ऋतु में किसानों की आशा – लता लहलहा उठती है। नई-नई सब्जियां एवं फल बाज़ार में आ जाते हैं। लहलहाते धान के खेत हृदय को आनन्द प्रदान करते हैं। नदियों, सरोवरों एवं नालों के सूखे हृदय प्रसन्नता के जल से भर जाते हैं। वर्षा ऋतु में प्रकृति मोहक रूप धारण कर लेती है। इस ऋतु में मोर नाचते हैं। औषधियां – वनस्पतियां लहलहा उठती हैं। खेती हरी-भरी हो जाती है। किसान खुशी में झूमने लगते हैं। पशु-पक्षी आनन्द – मग्न हो उठते हैं। बच्चे किलकारियां मारते हुए इधर से उधर दौड़ते-भागते, खेलते-कूदते हैं । स्त्री-पुरुष हर्षित हो जाते हैं। वर्षा की पहली बूंदों का स्वागत होता है। वर्षा प्राणी मात्र के लिये जीवन लाती है। जीवन का अर्थ पानी भी है। वर्षा होने पर नदी-नाले, तालाब, झीलें, कुएं पानी से भर जाते हैं। अधिक वर्षा होने पर चारों ओर जल ही जल दिखाई देता है। कई बार भयंकर बाढ़ आ जाती है, जिससे बड़ी हानि होती है। पुल टूट जाते हैं, खेती तबाह हो जाती है, सच है कि अति प्रत्येक वस्तु की बुरी होती है। वर्षा न होने को ‘अनावृष्टि’ कहते हैं, बहुत वर्षा होने को ‘अतिवृष्टि’ कहते हैं। दोनों ही हानिकारक हैं। जब वर्षा न होने से सूखा पड़ता है तब अकाल पड़ जाता है। वर्षा से अन्न, चारा, घास, फल आदि पैदा होते हैं जिससे मनुष्यों तथा पशुओं का जीवन निर्वाह होता है। सभी भाषाओं के कवियों ने ‘बादल’ और ‘वर्षा’ पर बड़ी सुन्दर सुन्दर कविताएं रची है, अनोखी कल्पनाएं की हैं। संस्कृत, हिन्दी आदि के कवियों ने सभी ऋतुओं के वर्णन किए हैं। ऋतु वर्णन की पद्धति बही लोकप्रिय हो रही है। महाकवि तुलसीदास ने वर्षा ऋतु का बड़ा सुहावना वर्णन किया है। वन में सीता हरण के बाद उन्हें ढूंढ़ते हुए भगवान् श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर ठहरते हैं। वहां लक्ष्मण से कहते हैं—
वर्षा काल मेघ नभ छाये देखो लागत परम सुहाये।
दामिनी दमक रही धन माहीं। खल की प्रीति जथा थिर नाहीं ॥
कवि लोग वर्णन करते हैं कि वर्षा ऋतु में वियोगियों की विरह-वेदना बढ़ जाती है। अर्थात् बादल जीवन (पानी) देने आए थे किन्तु वे वियोगिनी का जीवन (प्राण) लेने लगे हैं। मीरा का हृदय भी पुकार उठता है—
सावण आवण कह गया रे।
हरि आवण की आस
रैण अंधेरी बिजरी चमकै,
तारा गिणत निरास ।
कहते हैं कि प्राचीन काल में एक बार बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई थी । त्राहि-त्राहि मच गई थी। जगह-जगह प्यास के मारे मुर्दा शरीर पड़े थे। लोगों ने कहा कि यदि नरबली दी जाए तो इन्द्र देवता प्रसन्न हो सकते हैं, पर कोई भी जान देने के लिए तैयार न हुआ। तब दस-बारह साल का बालक शतमन्य अपनी बलि देने के लिए तैयार हो गया। बलि वेदी पर उसने सिर रखा, बधिक उसका सिर काटने के लिए तैयार था । इतने में बादल उमड़ आए और वर्षा की झड़ी लग गई। बिना बलि दिए ही संसार तृप्त हो गया।
वर्षा में जुगनू चमकते हैं। वीर बहूटियां हरी – हरी घास पर लहू की बूंदों की तरह दिखाई देती हैं।
वर्षा कई प्रकार की होती है-रिमझिम, मूसलाधार, रुक-रुककर होने वाली, लगातार होने वाली। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन – इन चार महीनों में साधु-संन्यासी यात्रा नहीं करते। एक स्थान पर टिक कर सत्संग आदि करके चौमासा बिताते हैं। श्रावण की पूर्णमासी को मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन वर्षा ऋतु का प्रसिद्ध त्योहार है।
वर्षा में कीट-पतंग मच्छर बहुत बढ़ जाते हैं। सांप आदि जीव बिलों से बाहर निकल आते हैं। वर्षा होते हुए कई दिन हो जाएं तो लोग तंग आ जाते हैं। रास्ते रुक जाते हैं। गाड़ियां बन्द हो जाती हैं। वर्षा की अधिकता कभी-कभी बाढ़ का रूप धारण कर जनजीवन के लिए अभिशाप बन जाती है। निर्धन व्यक्ति का जीवन तो दुःख की दृश्यावली बन जाता है।
न इन दोषों के होते हुए भी वर्षा का अपना महत्त्व है। यदि वर्षा न होती तो इस संसार में कुछ भी न होता। न आकाश में इन्द्रधनुष की शोभा दिखाई देती और न प्रकृति का ही मधुर संगीत सुनाई देता। यह पृथ्वी की प्यास बुझाकर उसे तृप्त करती है। प्रसाद जी ने बादलों का आह्वान करते हुए कहा है—
शीघ्र आ जाओ जलद, स्वागत तुम्हारा हम करें।
ग्रीष्म से संतप्त मन के, ताप को कुछ कम करें।
4. वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे
अथवा
परहित सरिस धर्म नहिं भाई
अथवा
परोपकार
औरों को हँसते देखो मनु,
हँसी और सुख पाओ।
अपनी सुख को विस्तृत कर लो,
सब को सुखी बनाओ। —प्रसाद कामायनी
आदिकाल से ही मानव-जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियां काम करती रही हैं। कुछ लोग स्वार्थ- भावना से प्रेरित होकर अपना ही हित साधन करते रहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूसरों के हित में ही अपना जीवन लक्ष्य स्वीकार करते हैं। परोपकार की भावना दूसरों के लिये अपना सब कुछ त्यागने के लिए प्रोत्साहित करती है। यदि संसार में स्वार्थ भावना ही प्रबल हो जाए तो जीवन की गति के आगे विराम लग जाए। समाज सद्गुणों से शून्य हो जाए। धर्म, सदाचार और सहानुभूति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। परोपकार जीवन का मूलमन्त्र तथा भावना विश्व की प्रगति का आधार है, समाज की गति है और जीवन का संगीत परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप । गोस्वामी तुलसीदास ने इस भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है—
परहित सरिस धर्म नहिं भाई । परपीड़ा सम नहिं अधमाई ।
दूसरों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने से बड़ा कार्य दूसरा नहीं हो सकता। अपने लिए तो पशु-पक्षी और कीड़े-मकौड़े भी जी लेते हैं। यदि मनुष्य ने भी यह किया तो क्या किया ? अपने लिए हँसना और रोना तो सामान्य बात है जो दूसरे के दुःख को देखकर रोता है उसी की आँखों से गिरने वाले आँसू मोती के समान हैं। गुप्त जी ने कहा भी है—
गौरव क्या है, जनभार सहन करना ही ।
सुख क्या है, बढ़कर दुःख सहन करना ही ।।
परहित का प्रत्यक्ष दर्शन करना हो तो प्रकृति पर दृष्टिपात कीजिए। फूल विकसित होकर संसार को सुगन्धि प्रदान करता है। वृक्ष स्वयं अग्नि वर्षा पीकर पथिक को छाया प्रदान करते हैं। पर्वतों से करुणा के झरने और सरिताएं प्रवाहित होती हैं जो संतप्त धरा को शीतलता और हरियाली प्रदान करती हैं। धरती जब कष्टों को सहन करके भी हमारा पालन-पोषण करती है। सूर्य स्वयं तपकर संसार को नव-जीवन प्रदान करता है। संध्या दिन भर की थकान का हरण कर लेती है। चांद अपनी चांदनी का खजाना लुटाकर प्राणीजगत् को निद्रा के मधुर लोक में ले जाकर सारे शोक-संताप को भुला देता है। प्रकृति का पल-पल, कण-कण परोपकार में लीन है। यह व्यक्ति को भी अपने समान परहित के लिए प्रेरित करती है—
वृक्ष कबहु नहि फल भखै, नदी संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ।।
स्वार्थ में लिप्त रहना पशुता का प्रतीक नहीं तो क्या है—
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
परोपकार सर्वोच्च धर्म है जो इस धर्म का पालन करता है, वह वन्दनीय बन जाता है। इसी धर्म के निर्वाह के लिए राम वन-वन भटके, ईसा सलीब पर चढ़े, सुकरात को विष पान करना पड़ा। गांधी जी को गोलियों की बौछार सहन करनी पड़ी। स्वतन्त्रता के यज्ञं में अनेक देश-भक्तों को आत्मार्पण करना पड़ा। उन्हीं वीर रत्नों के जलते अंगार से ही आज का स्वातन्त्र्य उठा है। कोई शिव ही दूसरों के लिए हलाहल पान करता है—
मनुष्य दुग्ध से दनुज रुधिर से अगर सुधा से जीते हैं,
किन्तु हलाहल भवसागर का शिव शंकर ही पीते हैं।
परोपकार अथवा परहित से बढ़कर न कोई पुण्य है और न कोई धर्म । व्यक्ति, जाति और राष्ट्र तथा विश्व की उन्नति, प्रगति और शान्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने का इससे बड़ा उपकरण दूसरा नहीं। आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य से लेकर राष्ट्र तक स्वार्थ केन्द्रित हो गए हैं। यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी क्लेश एवं अशान्ति का बोल-बाला है।
5. मेरे सपनों का भारत
बसते वसुधा पर देश कई,
जिनकी सुषमा सविशेष नई ॥
पर भारत की गुरुता इतनी,
इस भूतल पर न कहीं जितनी ॥
प्रत्येक प्राणी को अपने देश, अपने आवास तथा अपने जन्म स्थान से प्यार होता है। राष्ट्र हमारी अमूल्य सम्पत्ति है। उसके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रकट करने और उसकी पूजा-अर्चना करने के निमित्त ही हम मूर्तियां, मन्दिर, मस्जिद, धर्म-ग्रन्थ, राष्ट्र-ध्वज, राष्ट्र-गान एवं संविधान आदि प्रतीक बना लेते हैं। इन सब के प्रति आदर भाव रखने का अभिप्राय देश-प्रेम के भावों को पुष्टि एवं विकसित करना है। ‘वन्दे मातरम्’, ‘जयहिन्द’ आदि उद्घोष भी हमारे देश-प्रेम के परिचायक हैं। जो मनुष्य अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सचेत नहीं रहता और उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता, उसे मनुष्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है—
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का ध्यान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।
प्रत्येक देश के वासी अपने राष्ट्र को ‘मातृ-भूमि’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं संस्कृति में तो यहां तक कहा गया है—
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी (अपनी माता और मातृ भूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बड़ी होती हैं।)
हमारा प्राचीन भारत प्रत्येक दृष्टि से समुन्नत था। यहां दूध की नदियां बहती थीं । धर्मपालन जीवन का सर्वोत्तम ध्येय था । हमारा समाज गुणों की दृष्टि से एक स्वर्णिम समाज था। वैदिक युग से लेकर गुप्त युग तक का भारत अनेक उतार-चढ़ाव पार करता हुआ भी अपने गौरव को अक्षुण्ण बनाए हुए था, यह देश सभ्यता एवं संस्कृति का आदर्श था । विदेशियों ने भी इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की थी। ज्ञान-विज्ञान में तो इसकी समता ही नहीं थी। तभी तो इसे जगद्गुरु की संज्ञा से विभूषित किया गया। यह ठीक है कि हूण, द्रविड़, कुषाण आदि विदेशी आक्रांताओं ने हमारी सामाजिक मर्यादाओं एवं धार्मिक आस्थाओं पर आघात किए पर हमने अपनी मूलभूत क्षमताओं को अक्षुण्ण बनाए रखा।
“नहीं था यद्यपि उसकी यह क्षमता भी खूब बड़ी-चढ़ी थी। प्राचीन भारत का गौरव आज तक अक्षुण्ण है और उसका आत्मिक विकास। उसके लिए आत्मा ही दृष्टव्य मन्तव्य और श्रोतव्य था।”
शताब्दियों की पराधीनता एवं शोषण के बाद देश स्वतन्त्र हुआ। इसने नव-निर्माण की ओर अनेक कदम बढ़ाए हैं। आज फिर यह विश्व के महान् राष्ट्रों में गिना जाता है। हमारे देश का मानचित्र बड़ा आकर्षक है। इसके उत्तर में हिमालय है जो रात-दिन प्रहरी की भान्ति इसकी रक्षा में सचेत रहता है। कितने ही घने जंगल एवं उपवन इसके हृदय में छाये हुए हैं। गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, गोमती आदि पावन नदियां कल-कल ध्वनि करती हुई इसका गुणगान करती हैं। वे देश की भूमि को हरा भरा बनाती हैं। प्रशांत महासागर इसके चरणों का प्रक्षालन करता है। इसका प्राकृतिक वैभव दर्शनीय है। इसके भौतिक एवं सांस्कृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ही तो प्रसाद जी का हृदय कह उठा था—
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
मैं भी भारत का एक नागरिक हूं। मैं इस देश के मंगल के लिए नित्य नई-नई कल्पनाएं करता हूं। मैं इसे सुन्दर से सुन्दर देखना चाहता हूं। इसने मेरे ऊपर जो उपकार किया है, मैं उससे उऋण नहीं हो सकता। अनेक देश-भक्तों, शहीदों और कर्मठ व्यक्तियों की सेवा, त्याग एवं कठोर परिश्रम के बल पर मेरे देश ने एक बार फिर नया ठाठ धारण किया है । लेकिन मेरे सपनों का भारत इससे भिन्न है, मेरे सपनों के भारत की तस्वीर देखिए—
इसमें सन्देह नहीं कि आज भारतवासी स्वतन्त्र हैं लेकिन अभी तक हमें स्वतन्त्रता का पूर्ण आनन्द उपलब्ध नहीं हुआ। आज भी सरकार के अधिकारी निर्धनों का शोषण करते हैं। निर्धनों की दशा बड़ी शोचनीय बनती जा रही है। सरकार ने भी अनेक बार निरंकुश होकर जनता की उपेक्षा की है। उसने जनता के हित की उपेक्षा करके अपनी गद्दी एवं सत्ता को बनाए रखने की तरफ अधिक ध्यान दिया है। कभी-कभी तो राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं जो प्रजातन्त्र के ऊपर कलंक की गहरी छाप छोड़ जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों में जो कुछ हुआ है; वह हमारे सामने है। मैं चाहता हूं कि मेरे देश का प्रजातन्त्र का आदर्श रूप हो ताकि प्रत्येक नागरिक को सच्ची स्वतन्त्रता का अनुभव हो।
मेरे देश में आर्थिक विषमता की खाई भी दिन-प्रतिदिन गहरी होती जा रही है। निर्धन अभाव की चक्की में पिस रहा है जब तक यह आर्थिक विषमता समाप्त नहीं होती और देश के निर्धन और धनी को एक जैसा सुख प्राप्त नहीं होता तब तक मेरे सपनों का भारत भी यथार्थ रूप धारण नहीं कर सकता।
कभी-कभी प्रान्तीयता एवं साम्प्रदायिकता के भाव प्रबल हो जाते हैं जिससे मेरे देश की एकता खण्डित हो जाती है। कभी भाषा के नाम पर आन्दोलन होते हैं तो कभी धर्म की संकीर्णता वैमनस्य का कारण बन जाती है। राजनीतिक पार्टियां परस्पर मतभेद होने के कारण भी देश की उन्नति में बाधक बन जाती हैं। जब तक यह गुटबन्दी समाप्त नहीं होती तब तक राजनीतिक वातावरण में भी स्वस्थता एवं स्थिरता नहीं आ सकती। जब तक राजनीतिक दल देश के हित-सम्पादन को अपना लक्ष्य स्वीकार नहीं करते तब तक मेरा सपना भी साकार नहीं हो सकता।
आज के भारत में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है जिसके कारण राष्ट्रीय चरित्र पर आघात पहुंच रहा है। जब तक भारतवासी चरित्रबल की आवश्यकता को नहीं समझते तब तक भारत का स्तर ऊंचा नहीं उठ सकता।
वर्तमान भारत की शिक्षा-पद्धति भी दोषपूर्ण है। छात्र अपने जीवन का दीर्घ समय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में व्यतीत करके भी अपने भविष्य के प्रति निश्चित नहीं हो सकते। मैं अपने देश में ऐसी शिक्षा पद्धति चाहता हूं जो छात्र के भविष्य को स्वर्णिम बना दे। उसके हृदय में देश भक्ति एवं समाज सेवा की भावनाएं हिलोरे लेती रहें ।
भारत अपने प्राचीन गौरव को समझे, पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध से अपने को बचाए, सादा जीवन और उच्च विचार ग्रहण करे, अपनी भाषा को प्राथमिकता दे, प्राचीनता एवं नवीनता के समन्वय से अपने ज्ञान-विज्ञान को चरम सीमा तक पहुंचा दे तभी मैं समझुंगा कि मेरा सपना साकार हुआ है।
मैं आशावादी हूं। मुझे विश्वास है कि वह दिन अवश्य आएगा जब हमारे भारत की संस्कृति विश्व के चौराहे पर चमक कर सभी दिशाओं को आलोकित करेगी। भारत आत्मनिर्भर बनेगा। प्रत्येक नागरिक सुख-सुविधा एवं आनन्द का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् से मेरी नम्र प्रार्थना है कि वे मेरी राष्ट्रोत्थान सम्बन्धी कल्पनाओं को यथार्थ रूप प्रदान करे। मेरी यह हार्दिक कामना है —
सभी निज संस्कृति के अनुकूल,
एक हों रचे राष्ट्र उत्थान ।
6. विद्यार्थी जीवन
अथवा
आदर्श विद्यार्थी
छात्र राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं। ये देश की आशा होते हैं। देश का भविष्य इन्हीं पर निर्भर करता है। देश के जितने महान् नेता, कार्यकर्ता, समाज सुधारक एवं धार्मिक पुरुष हुए हैं, वे इसी अवस्था से निकले हैं। छात्रों की समर्थता एवं शक्ति में सन्देह करना भारी भूल है । ये अपने जीवन के विविध सोपानों को सफलतापूर्वक पार करते हुए नर – रत्न बनते हैं। यदि इनका उचित मार्ग दर्शन किया जाए तो ये शिवा, प्रताप, गुरु गोबिन्द सिंह बनकर आततायियों के दांत खट्टे करते हैं, सुभाष एवं भक्त सिंह के समान बनकर शत्रु के नाक में दम कर देते हैं, गांधी तथा नेहरू बनकर राजनीति के क्षेत्र में डंका बजा देते हैं तथा सत्य एवं अहिंसा के बल पर विश्व में भारत की शान्तिप्रियता का डंका बजा देंगे। स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द एवं श्रद्धानन्द के आदर्शों को जीवित करने की शक्ति केवल छात्रों में है। मनुष्य के जीवन की चार मुख्य अवस्थाएं मानी गई हैं। उनमें पहली अवस्था विद्या प्राप्त करने की है। इसे ही विद्यार्थी जीवन कहते हैं। पढ़ना-लिखना, कला-कौशल सीखना, युद्ध – विद्या में निपुण होना, ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना, अच्छे संस्कार अपनाना, इसी आयु में पूरी तरह सम्भव होता है, क्योंकि बाल, किशोर और युवा अवस्था में बुद्धि तीव्र, मन निर्मल, मस्तिष्क साफ़ एवं बलवान् और शरीर स्वस्थ होता है। हृदय में उत्साह और उमंग होने से आशाएं भरी होती हैं। विद्यार्थी जीवन की सबसे मीठी, सुन्दर और आनन्द – मय अवस्था है। विद्यार्थी जीवन मुख्यतया पांच वर्ष से लेकर पच्चीस वर्ष तक होता है। पर धन्य है वे लोग जो जीवन भर विद्यार्थी और जिज्ञासु बने रहकर अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं।
विद्यार्थी जीवन मनुष्य के सारे जीवन की नींव है। नींव पक्की हो तो उसके ऊपर भवन भी पक्का बनता है। यदि नींव कच्ची रह जाए तो उसके ऊपर भवन देर तक नहीं टिकता। इसी प्रकार विद्यार्थी जीवन में यदि विद्या भली भांति प्राप्त न की जाए, तो भविष्य में मनुष्य का जीवन सूना-सूना, अधूरा और पिछड़ा हुआ रह जाता है। विद्यार्थी जीवन में चिन्ता जरा भी नहीं होती। विद्यार्थी सदा प्रसन्न रहते हैं। हँसते-खेलते उनका समय बीतता है। चेहरे पर चमक और ताजगी होती है। उन्हें आनन्द मग्न देखकर बड़े-बूढ़े लोग विद्यार्थी जीवन के लिए तरसा करते हैं पर अब वह चपलता कहां, वह थिरकन कहां कितना सरस और सुहावना है विद्यार्थी जीवन। डॉ० रामेश्वरलाल खण्डेलवाल ने छात्रवर्ग की निर्मलता से प्रभावित होकर कहा- “वे मुझे सदा सुगंधित उपजाऊ माटी से मिले हैं- जब देखो तब जीवन-रसमयी हरियाली की दूब फोड़ने-उगाने को तैयार, छुओ तो कंचन बन जावें।”
परन्तु कई बालक, बहुत से किशोर, अनेक युवक इस जीवन की महत्ता को नहीं – जानते। वे अपनी इस सुनहरी अवस्था को बेदर्दी से व्यर्थ गंवा देते हैं। उन्हें पता नहीं कि ऐसा अमूल्य समय फिर हाथ नहीं आयेगा, बाद में केवल पछताना पड़ेगा। उन्हें जान लेना चाहिये कि विद्यार्थी जीवन का एक-एक पल कीमती होता है। अन्दर की शक्तियां इसी जीवन में फलती-फूलती हैं। इसीलिए इस जीवन में बड़ी रुचि और लग्न से विद्याएं सीखनी चाहिए।
विद्यार्थी जीवन को सफल बनाने के मुख्य रहस्य हैं- कर्त्तव्य पालन, आज्ञाकारी होना, ब्रह्मचर्य, संयम, कुसंगति से बचना, खेल-तमाशों का त्याग, व्यायाम, उत्तम स्वास्थ्य, गुरु और माता-पिता के प्रति श्रद्धा, ईश्वर भक्ति, आलस्य का त्याग एवं समय का सदुपयोग।
आलस्य तो विद्यार्थी जीवन का बहुत बड़ा शत्रु है । एक नीतिकार ने लिखा है कि जो सुख आराम चाहता है वह विद्या प्राप्त नहीं कर सकता और जो विद्या प्राप्त करना चाहता है उसे सुख आराम छोड़ देना चाहिए। एक और विचारक ने कहा है कि हाय पुत्र ! तूने आराम से बीती हुई उन रात्रियों में पढ़ा नहीं, इसलिए अब तू विद्वानों के बीच में ऐसे दुःखी हो रहा है, जैसे दलदल में फंसी हुई गाय दुःखी होती है ।
विद्या ग्रहण करते हुए अपने स्वास्थ्य का पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए ब्यायाम और खेल-कूद आवश्यक है। कई विद्यार्थी पुस्तकों के कीड़े बनकर अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लेते हैं। इसके विपरीत कई लड़के केवल खेल-कूद में ही सारा दिन नष्ट कर देते हैं और विद्या ग्रहण करने में बहुत पिछड़ जाते हैं। पढ़ने और खेलने दोनों में समयानुसार भाग लेकर निपुण बनना हितकर है। शिक्षा एवं खेलों में समन्वय की आवश्यक है। अतिशयता हर वस्तु की बुरी होती है।
कुसंगति, खेल तमाशे, व्यर्थ की गप्पें, दुर्व्यसन आदि, इनसे बचने वाले विद्यार्थी का जीवन चमकता है। जो विद्यार्थी इनके अधीन हो जाता है वह स्वयं अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारता है। अपना भविष्य धुंधला कर लेता है। अनुचित आहार-विहार से विद्यार्थी अपना सत्व गुण गंवा बैठता है। महात्मा गांधी का कथन है कि विद्यार्थी जीवन में पान-सिगरेट तथा शराब की बुरी आदतें डालना आत्मघात करना है।
विद्यार्थी जीवन कच्चे घड़े के समान होता है। इस अवस्था में जैसे संस्कार डाले जाएं वे पक्के हो जाते हैं। यह सोचकर विद्यार्थी को सदा अच्छे और सच्चे साथी तथा मित्र बनाने चाहिए क्योंकि वे जीवन को ऊंचा और सुखी बना देते हैं। बुरे साथी और आचरणहीन मित्र विद्यार्थी की जीवन नैया को डुबो देते हैं।
विद्यार्थी को मितव्ययी होना चाहिए। सम्भल कर खर्च करने वाले विद्यार्थी माता-पिता पर बोझ नहीं बनते, स्वयं ऋण से बचकर सदा सुखी रहते हैं। मर्यादा का ध्यान रखना विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य है। उसे निर्लज्ज नहीं बनना चाहिए। हँसी-मजाक एक सीमा तक ही अच्छा होता है। हां, झूठी शर्म, दब्बूपन छोड़ देना चाहिए। साहस, वीरता तथा निडरता से विद्यार्थी की विशेषताएं बढ़ती हैं। प्रत्येक विद्यार्थी को देशभक्त होना चाहिए। उसे झगड़े-बखेड़े वाली राजनीति की चालों में भाग नहीं लेना चाहिए। देश की राजनीतिक अवस्था और नीतियों के बारे में जागरूक और सचेत होना तो आवश्यक है, पर राजनीति की दलदल में फंसना ठीक नहीं।
उपद्रव, हिंसा, तोड़-फोड़, उद्दण्डता भरे आन्दोलनों में पड़ने से विद्यार्थी जीवन का महत्त्व बहुत नीचे गिर जाता है। विद्यार्थियों में अनुशासन हीनता के कारण आज सारा वातावरण दूषित हो गया है। इन बातों से विद्या प्राप्ति में बड़ी बाधाएं आ रही हैं। आज भारत ही नहीं, लगभग सारा संसार ही छात्रों की अनुशासनहीनता से त्रस्त और परेशान है। यह छात्र समस्या कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेती है-‘दिनकर’ जी ने इस समस्या का चित्रण करते हुए कहा ह—
और छात्र बड़े पुरजोर हैं,
कालिजों में सीखने को आए तोड़-फोड़ हैं।
कटते हैं, पाप है समाज में,
धिक हम पै! जो कभी पढ़े इस राज में,
अभी पढ़ने का क्या सवाल है ?
अभी तो हमारा धर्म एक हड़ताल है।
अनुशासनहीनता – यह छात्र वर्ग एवं राष्ट्र दोनों के लिए घातक है । आज तो ऐसे छात्रों की आवश्यकता है जो आदर्श जीवन से मोह करने वाले हों और जो स्वर से यह कहें—
सामाजिक, जलधार बनेंगे नैतिक नेता
होवेंगे सुप्रसिद्ध सुधारक ग्रन्थ प्रणेता,
कर दरिद्रता दूर द्रव्य से घर भर लेंगे,
भारत को फिर विश्व-शिरोमणि हम कर देंगे।
विद्यार्थी जीवन अमृत से भरा जीवन है। यही बाद के जीवन को बनाता या बिगाड़ता है। इसी के आधार पर अच्छे नागरिक उत्पन्न होते हैं। इसी के सहारे राष्ट्र में राष्ट्रीयता बढ़ती है। महान् नेता बनने के अंकुर इसी अवस्था में उगते हैं। क्योंकि कहा भी है ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’। ऐसे सामर्थ्य-भरे जीवन को आदर्श बनाना प्रत्येक विद्यार्थी का एकमात्र कर्त्तव्य है।
7. ऐतिहासिक भवन ताजमहल
अथवा
किसी ऐतिहासिक स्थल की यात्रा
कला चाहे किसी भी रूप में हो, जीवन की ही अभिव्यंजना है। मानवीय सुख-दुःख की अनुभूति, विरह-वेदना तथा हास्य-विनोद सब कला के रूप में कुसुम-गुच्छ की भांति गुंथे रहते हैं। ऐतिहासिक भवन भी अपने युग की कला पूर्ण अभिव्यक्ति करता है। यह कला कभी मानव जीवन के बाह्य ठाठ-बाट की अभिव्यंजना करती है तो कभी उसके अन्तर्जगत् पर प्रकाश डालती है। ताजमहल कुछ ऐसी ही भावना का प्रतीक है। यह मुग़ल बादशाह शाहजहां तथा साम्राज्ञी मुमताज के प्रेम का प्रतीक है। यह समय की शिला पर रखा हुआ वह दीपक है जिस पर प्रेमी-पतंगे सदैव मंडराते रहते हैं।
ताजमहल उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध नगर आगरा में स्थित है। इसके दर्शनार्थ देश-विदेश से असंख्य यात्री आते हैं। संसार के सात आश्चर्यों में इसका स्थान है। इसका निर्माण आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व सम्राट् शाहजहां ने अपनी प्रेयसी मुमताज की स्मृति में करवाया था। शाहजहां मुमताज से अत्यधिक प्रेम करते थे। मुमताज बीमार पड़ गई। प्रसव पीड़ा से उसके प्राण निकलने लगे। शाहजहां भीगी आँखों से अपनी मुमताज के पास बैठा था। मुमताज ने मरने से पूर्व सम्राट् से अनुरोध किया कि उसकी स्मृति में एक ऐसा स्मारक बनाया जाए जिसे देखकर संसार आश्चर्यचकित हो उठे। शाहजहां ने ऐसा ही स्मारक बनाने का वचन दिया। समय के विकराल हाथ ने एक प्रेमी से उसकी प्रेमिका छीन ली। शाहजहां मुमताज को खोकर मानो, सब कुछ खो बैठा। विकलता और निराशा उसे चैन न लेने देती थी। मुमताज की स्मृति में स्मारक बनवाने के लिए देश-विदेश से कारीगर बुलाए गये । आखिर ताजमहल का निर्माण आरम्भ हुआ। हज़ारों मज़दूरों ने 20-22 वर्ष तक सतत परिश्रम करके इस सुन्दर स्मारक का निर्माण किया। शाहजहां के उद्गारों को साकार रूप मिल गया।
ताजमहल के चारों ओर सुन्दर उद्यान हैं। सबसे पूर्व प्रवेश द्वार है जिसके दोनों पाश्र्व में फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी में कुछ शब्द अंकित हैं जो शाहजहां तथा मुमताज के जीवन तथा उनके अगाध प्रेम पर प्रकाश डालते हैं। वहां के वातावरण में बड़ी सौम्यता है। वहां सौन्दर्य के सैंकड़ों आनन हँसते और मुस्कराते हुए दिखाई देते हैं। इस सौन्दर्य को आँखों में समा लेने के लिए मनुष्य की गति इतनी धीमी हो जाती है कि 100 गज तक चलने में उसे घण्टों लग जाते हैं। एक पंक्ति में उछलते हुए फव्वारे, मखमल की भांति घास, सीधी रेखा में सरू के वृक्ष, सब में एक नया आकर्षण दिखाई देता है। ताज की विशद जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रवेश द्वार पर मार्ग-दर्शक भी मिल जाते हैं। विदेशी लोग प्रायः मार्ग दर्शकों को साथ लेकर ही ताज के भीतर प्रवेश करते हैं।
ताज के बाहरी रूप की भान्ति ही भीतरी रूप भी आकर्षण रखता है। भवन में शाहजहां और मुमताज की बनी हुई संगमरमर की कब्रें हैं। इनके ऊपर विभिन्न प्रकार के बेल-बूटे खुदे हुए हैं। इनके चारों ओर संगमरमर की सुन्दर जाली है जो मुसलमानों की मूर्ति कला पर प्रकाश डालती है। भवन के चारों कोनों पर चार मीनारें हैं जो ताज की सुन्दरता को चार चांद लगा देती है। ताज कवियों, कलाकारों और चित्रकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
इसके पाश्र्व कल-कल नाद से बहती यमुना मानी, इसी का गुणगान कर रही है। मान हृदय भी यमुना की धारा के साथ ही आनन्द की लहर में बहने लगता है। ताज के प्रमु सौंदर्य से प्रभावित होकर किसी कवि ने ठीक ही कहा है—
नील चन्द्रातप तले,
यह संगमरमर का महल,
ज्योति-जमुना में खिला है,
दुधिया कोई कमल
शरद पूर्णिमा में तो ताज का सौंदर्य अवर्णनीय होता है। वह कितना स्वच्छ, सुन्दर और कला से परिपूर्ण है, उसे जिसने भी देखा मुग्ध हो गया। कला की अधिष्ठात्री मानो, उसके सम्मुख आ गई। शरद पूर्णिमा में झूलता हुआ यह महल सब को आत्म-विभोर कर देता है। दुधिया चाँदनी के स्नान में लीन प्रत्येक वस्तु स्वर्गीय दिखाई देती है। स्वच्छ चाँदनी में नहाई हुई सड़क ऐसी दिखाई देती है, मानो स्वर्ग नगरी तक पहुंचने के लिए मखमली चादर बिछा दी हो। चाँद भी इन प्रेमियों के स्मारक पर हृदय खोलकर चाँदनी बरसाता है। संगमरमर के पत्थरों में अपना प्रतिबिम्ब देखकर दर्शक का मन-मयूर नाचने लगता है। वायु की सनसनाहट से दो प्रेमियों की वेदना का आभास होने लगता है। वास्तव में ताज है भी विरह वेदना का साकार रूप। डॉ० राम कुमार वर्मा ने ठीक ही कहा है—
था शाहजहां वह एक व्यक्ति,
जिसने तो किया इतना काम।
दे दिया विरह को एक रूप,
है ताज जिसका व्यथित नाम ।
कहते हैं कि सौंदर्य क्षण-भंगुर है। सुन्दर वस्तुओं की आयु कम होती है, पर ताज को देखकर लगता है, सौन्दर्य स्थायी है। अस्थायी है मन की चंचलता और वासना । कला का सौंदर्य सतत और चिरंतन है। सैंकड़ों वर्ष हो गये। राज्य उथल-पुथल हो गए। आन्धी, वर्षा, भूकम्प से पृथ्वी की आकृति भी बदल गई है, पर ताज आज भी वैसा ही है जैसा तीन सौ वर्ष पहले था। यह समय के लिए चुनौती है। यह समय की शिला पर जलने वाली अमर ज्योति है।
8. भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या और समाधान
अथवा
परिवार नियोजन
भारत की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई जनसंख्या राष्ट्र की एक भयानक समस्या है। देश की समृद्धि के लिए सरकार द्वारा किए श्रेष्ठ कार्यों में गतिरोध उत्पन्न होने का एक प्रमुख का जनसंख्या का निरन्तर बढ़ना है। अतः राष्ट्रीय सरकार ने इसके समाधान के लिए ‘परिवार नियोजन’ का आहवान किया है ।
प्राचीन स्थिति – वेदों में दस पुत्रों की कामना की गई है। सावित्री ने यमराज से अपने लिए सौ भाइयों तथा सौ पुत्रों का वर मांगा था । कौरव सौ भाई थे । ये उस समय की बात है जब जनसंख्या इतनी कम थी कि समाज की समृद्धि, सुरक्षा और सभ्यता के विकास के लिए जनसंख्या वृद्धि – नितान्त आवश्यक थी।
आज की स्थिति बदल गई है। एक स्त्री और एक पुरुष मिलकर दो हैं, और इन दोनों की दो सन्तानें यदि दो लड़के और दो लड़कियां हुई तो चार हो जाएंगी, फिर उनकी तीसरी पीढ़ी में आकर आठ बच्चे हो जाएंगे यह सामान्य क्रम है। इस प्रकार आज भारत की आबादी 125 करोड़ से अधिक है। इसमें लगातार वृद्धि हो रही है।
वस्तुतः देश की जनसंख्या ही उसकी शक्ति का आधार होती है, परन्तु जब यह अनियन्त्रित गति से बढ़ेगी तो निश्चय ही देश के लिए बोझ सिद्ध होगी। सीमा से अधिक आबादी किसी देश के लिए गौरव की बात कदापि नहीं कही जा सकती। ऐसी दशा में तो जनसंख्या एक अभिशाप ही कही जाएगी। भारत इस समय भी आबादी की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश है। यदि वृद्धि की गति इस तरह रही तो यह चीन (सबसे अधिक आबादी वाले देश) से आगे निकल जाएगा।
स्वाधीनता के उपरान्त भारत में सम्पत्ति के उत्पादन और वितरण की ग़लत नीतियों के कारण रोज़गार इतना नहीं बढ़ा कि सबको किसी सीमा तक समान रूप से खाने, पहनने और स्वस्थ रहकर अपना योग देने का अवसर मिले। यह भी अनुचित है कि शिक्षा तथा आर्थिक विकास के परिणामों की प्रतीक्षा करते परिवार नियोजन का प्रश्न अनदेखा कर दें। वास्तविक तथ्य यह है कि जब तक आर्थिक विकास होगा, तब तक जनसंख्या इतनी बढ़ चुकी होगी कि समग्र विकास को वह निगल जाएगी। प्रगति की सभी सीमाएं धरी की धरी रह जाएंगी। जनसंख्या का कीड़े-मकोड़ों की तरह बढ़ना समग्र मानवता को नष्ट कर डालेगा।
देश के नेताओं और कर्णधारों का मत उचित है— ‘सन्तान उत्पन्न करना आर्थिक असुरक्षा का बड़ा कारण है।’ जनसंख्या के बढ़ने से परिवार का जीवन स्तर गिरता है, जिससे नैतिक तथा चारित्रिक पतन होता है। जीवन का विकास रुक जाता है। –
जनसंख्या में गुणन प्रणाली में वृद्धि होती है। जनसंख्या 2 x 2 = 4, 4 × 4 = 16 जब कि कारोबार 1 +1,4+4 के अनुपात से बढ़ता है। परिणामस्वरूप मांग अधिक और उत्पादन व पूर्ति कम होती है, जिसके कारण कीमतें बढ़ती हैं और महंगाई व बेकारी की समस्याएं प्रकट होती हैं। देश की अर्थ-व्यवस्था बिगड़ जाती है। अधिक सन्तान से जननी का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अस्वस्थ जननी के बच्चों में स्वस्थता कैसे सम्भव हो सकती है ?
परिवार नियोजन का महत्त्व आर्थिक तथा मानवीय दोनों दृष्टियों से है। आर्थिक दृष्टि से कि सीमा से अधिक जनसंख्या बोझ बन जाती है और मानवीय दृष्टि से इसलिए कि शक्ति से अधिक लोगों को पालन-पोषण देकर मनुष्य बनाना सम्भव नहीं। जनसंख्या को बढ़ने से रोकने के लिए एक अमानवीय उपाय यह है कि जीवन स्तर को गिरा दिया जाए, मृत्यु की दर बढ़ा दी जाए, परन्तु यह बात एक सभ्य समाज में नहीं चल सकती।
भारत में विभिन्न धर्मावलम्बी लोग रहते हैं। देश में कुछ धार्मिक पुरुष हिन्दुओं की जनसंख्या घटने के कारण परिवार नियोजन का विरोध करते हैं। ईसाई तथा इस्लाम धर्म को मानने वाले भी धार्मिक दृष्टि से इसका विरोध करते हैं। ऐसी देश-विरोधी भावनाओं को राष्ट्र के उत्थान के लिए नष्ट करना नितान्त आवश्यक है। 1975 में कुछ कारणों से गर्भपात को वैध मान लिया गया है। फिर भी परिवार नियोजन कार्यक्रम गत दो दशाब्दियों से चल रहा है। आपात्कालीन स्थिति में सरकार ने इस राष्ट्रीय समस्या का युद्ध स्तर पर समाधान करने का जो निश्चय किया था, उसके कार्यान्वयन में कहीं-कहीं ज्यादती भी हुई। प्रत्येक प्रान्त में नसबन्दी का विविध रूप से प्रचार और प्रयोग हुआ। दिल्ली में व्यापारिक मंडियों में कैम्प लगाकर लोगों को वस्तुएं व नकद राशि देकर नसबन्दी के लिए प्रेरित किया गया था। राजकीय अस्पतालों में नसबन्दी बिना शुल्क के चिकित्सा प्राप्त नहीं हो सकती। कई प्रान्तीय सरकारें तीन बच्चों के पश्चात् अनिवार्य नसबन्दी का कानून लागू करने का विचार भी करती रही है।
परिवार नियोजन में वर्तमान कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन अपेक्षित हैं। आज भी निर्धन वर्ग जनसंख्या वृद्धि में गौरव अनुभव करता है। केवल राष्ट्र का शिक्षित समुदाय पूर्वाग्रह को छोड़कर नियोजित परिवार में विश्वास रखता है। इस प्रकार दो दशाब्दी के पश्चात् देश में अनचाहे असभ्य लोगों की बहुसंख्या हो जाएगी। अतः एक निश्चित आय से कम अथवा आयकर न देने वाले लोगों को कानूनी नसबन्दी के लिए बाध्य करना चाहिए ।
एक बात की ओर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि परिवार नियोजन के प्रचार में बहुत हल्कापन आ गया है। यह राष्ट्र के चरित्र का ह्रास करेगा। जीवन में उच्छृंखलता आएगी। भारत का मानस भोगवादी बन जाएगा। भोग में शान्ति व सुख कहां ? इसलिए देश के चरित्रनिर्माण की दृष्टि से हल्कापन दूर करना अत्यावश्यक है।
इस तथ्य की ओर ध्यान देना भी परमावश्यक है कि सैन्य दृष्टि से युद्ध – प्रिय एवं वीर जातियों का बन्ध्याकरण न किया जाए। आज नसबन्दी करते समय इस दृष्टिकोण की उपेक्षा का परिणाम यह होगा कि दो दशाब्दी बाद सेना के लिए साहसी सैनिकों का अभाव राष्ट्र को अखरेगा।
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जनसंख्या की अनियन्त्रित वृद्धि देश के विकास में एक बड़ी बाधा सिद्ध हो सकती है। इसका समाधान परिवार नियोजन ही है। परन्तु इस तथ्य से भी देश के कर्णधारों को अपनी आँखें नहीं मूंद लेनी चाहिए कि बढ़ी हुई जनसंख्या को काम मिले। रोजगार के अधिक अवसर जुटाए जाएं।
9. हमारे त्योहार
अथवा
त्योहार का महत्त्व
आज के वैज्ञानिक युग में मानव चांद का पदार्पण कर चुका है। इसमें सन्देह नहीं कि यह बीसवीं शताब्दी में मानव की एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। अन्तरिक्ष स्टेशन बनने की योजना को भी सम्भव बनाया जा रहा है। निश्चय ही एक मानव के मस्तिष्क के विकास की चरम सीमा है। लेकिन मानव के समुचित विकास के लिए मस्तिष्क के साथ हृदय के विकास की भी आवश्यकता है। हमारे त्योहार एवं पर्व हृदय के विकास में विशेष सहायक हैं। उत्सव हमारे मन में सरलता, करुणा, अतिथि सेवा एवं परोपकार की भावनाएं उत्पन्न करते हैं। यही कारण है कि भारत जैसा देश त्योहारों को अधिक महत्त्व देता है। वह किसी भी वैज्ञानिक उपलब्धि की अपेक्षा अपने त्योहार को अधिक महत्त्व देता है। त्योहार जीवन और जाति का प्राण हैं। प्रत्येक ऋतु कोई न कोई त्योहार अपने साथ अवश्य लेकर आती है। त्योहारों से जीवन की नीरसता दूर होती है तथा भारतीय धर्म, संस्कृति एवं महापुरुषों के प्रति आस्था बढ़ती है। बच्चों के जीवन में तो त्योहार उल्लास की सरिता बहा देते हैं। बच्चों में भारतीयता उत्पन्न करने का सर्वश्रेष्ठ साधन ये पर्व और त्योहार हैं।
त्योहार जीवन में मनोरंजन लाते हैं। जिस प्रकार एक ही खिलौने से खेलते-खेलते बच्चे के मन में उसके प्रति विरक्त होना स्वाभाविक है, उसी प्रकार एकरसता का जीवन मनुष्य में नीरसता का भाव जगाता है। सुख की अधिकता भी कभी-कभी मन की उदासी का कारण बन जाती है। ऐसी स्थिति में मानव कष्टों की अभिलाषा करने लगता है। जब जीवन-आकाश कष्टों के बादलों से घिर जाता है तो वह सुख के अरुण प्रभात की कामना करता है।
भारतीय त्योहार भारतीय संस्कृति की उज्ज्वलता के प्रतीक हैं। इन्होंने ही संस्कृति को अजर-अमर बनाया है। ये हमें सत्य, अहिंसा, परोपकार, सहनशीलता, एकता एवं बन्धुत्व का सन्देश देते हैं। इन त्योहारों को मुख्यतया चार भागों में बांटा जा सकता है(1) सांस्कृतिक (2) सामाजिक (3) ऐतिहासिक (4) धार्मिक, राष्ट्रीय एवं महापुरुषों सम्बन्धी। इन त्योहारों में दीपावली, दशहरा, होली, रक्षा बन्धन आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। दीपावली भारत का एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पर्व है। इस त्योहार के साथ अनेक कहानियां जुड़ी हुई हैं। एक धारणा के अनुसार जब श्री रामचन्द्र 14 वर्ष के बनवास के बाद लंका विजय कर लौटे थे, तब उनके स्वागंत की खुशी में अयोध्या के निवासियों ने यह त्योहार बड़े उत्साह से मनाया था। दीपावली की जगमगाहट जीवन को भी जगमग कर देती है। यह पर्व सफ़ाई, सजावट का सुनहला सन्देश लेकर आता है। दीपावली का त्योहार भारतवासियों में आत्मीयता के भाव जगाता है।
विजय दशमी भी हिन्दू जाति का एक गौरवपूर्ण त्योहार है। यह आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाया जाता है। इस दिन श्री रामचन्द्र जी ने लंकापति को मारकर निरीह जनता को अत्याचारों से मुक्त कराया था। यह पर्व आसुरी प्रवृत्ति पर सात्विक प्रवृत्ति की विजय का प्रतीक है। सचमुच यह पर्व हमारा राष्ट्रीय ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्व है। यह पर्व हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता को बल प्रदान करता है।
रक्षाबन्धन भी हिन्दुओं का बड़ा पवित्र त्योहार है। यह श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है। यह भाई बहन के पावन प्रेम का द्योतक है। यह भाई को अपनी बहन तथा अपने राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य की याद दिलाता है—
बाँधे बहन, बंधे भाई, यह अमर स्नेह का नाता,
बन्धन से रक्षा रहती, रक्षा से बन्धन आता ।
राखी के इन धागों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां करवाई हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने एक स्थान पर लिखा है—
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी,
जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने, दौड़ पड़े थे,
राखी – बन्ध वे भाई ॥
होली भी भारत का एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है। यह नृत्य, संगीत एवं रंगों का त्योहार है। इस अवसर पर भारत के तमाम प्रदेशों में प्रादेशिक नृत्यों की तथा संगीत की धूम मच जाती है। यह ऋतुराज बसन्त की मादकता के बीच मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में प्रसिद्ध है कि यह उसी काल से मनाया जाता है, जब हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका अग्नि में न जलने का वरदान होते हुए भी जलकर भस्म हो गई और उसकी गोद में बैठे हुए भक्त प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ। इस प्रकार यह त्योहार भी बुराई पर भलाई की विजय का प्रतीक है।
त्योहारों का हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व है। त्योहारों के अवसर पर घरों में सफ़ाई की जाती है। कुछ लोग व्रत एवं उपवास रखते हैं । इस अवसर पर अच्छे-अच्छे पकवान बनते हैं। ये हमारे मन में आस्तिकता के भावों को दृढ़ करते हैं। ये भारतीय संस्कृति की रक्षा के सबसे बड़े प्रहरी हैं। ये भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं । 15 अगस्त और 26 जनवरी के पर्वों का तो कहना ही क्या । यह पर्व हमें अपने प्राणों से भी प्रिय है। ये देश-भक्ति के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं । ये देश – भक्तों एवं शहीदों की स्मृति का प्रतीक हैं। ये राष्ट्रीय एकता का पाठ पढ़ाते हैं। ये भ्रष्टाचार, अन्याय, दुराचार, बेकारी, रोग-शोक को समाप्त करने के लिए हमें प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं । इनसे त्याग एवं तपस्या का जीवन व्यतीत करने का सन्देश मिलता है।
स्पष्ट हो जाता है कि हमारे त्योहार हमारे जीवन का सहारा हैं। ये जीवन
को आलोकित करने वाले टिमटिमाते दीपक हैं। ये भारत का गौरव हैं। भाषा, प्रान्त, जाति के भेद वाले इस देश में हमारे त्योहार हमारे ध्येय की एकता, हमारे आदर्शों और हमारे प्राचीन और नवीन इतिहास का हमें स्मरण कराते हैं। अतः इन त्योहारों के महत्त्व को बनाए रखना प्रत्येक भारतवासी का कर्त्तव्य है।
10. स्वतंत्रता दिवस
विकास की आस भरा नवेन्दु- सा,
हरा-भरा कोमल पुष्पभाल सा ।
प्रमोद-दाता विमल प्रभात सा
स्वतंत्रता का शुचि पर्व आ लसा ।
जीवन के समान ही राष्ट्र का इतिहास भी उन्नति – अवनति और हर्ष – विषाद की नियों से बनता है लेकिन दुर्भाग्य के कारण जब कोई राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ लिया जाता है तो उसका जीवन अभिशाप बन जाता है। भारत को भी शताब्दियों तक इस एसभीनता की लोह श्रृंखलाओं में बंध कर पीड़ा और घुटन का जीवन व्यतीत करना रहा है। अंग्रेजों के शासनकाल में तो पराधीनता की पीड़ा चरमसीमा पर पहुंच गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी भी पूरी सजगता के साथ सरकार का विरोध कर रहे थे। दिनप्रतिदिन ‘स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और उसे हम लेकर रहेंगे’ का नारा बुलन्द होता जा रहा था। सारा देश स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए लालायित हो उठा था। सर्वत्र एक ही गूंज सुनाई देती थी।
रणभेरी बज उठी, वीरवर पहनो केसरिया बाना ।
मिट आओ वतन पर इसी तरह, जिस तरह शमा पर परवाना ॥
अंग्रेजी सरकार भी अपने शासन की नींव को हिलते देखकर बौखला उठती थी । सिपाही लाठियों और गोलियों की वर्षा करते । देशभक्तों के सिर फूटते, हड्डियां टूटतीं और कुछ सड़क पर ही दम तोड़ देते पर लोगों का जोश कम न होता । वे तो एक रट लगाए हुए थे—
नहीं रखनी सरकार, भाइयो, नहीं रखनी ।
अंग्रेजी सरकार भाइयो, नहीं रखनी ॥
आखिर शहीदों का खून रंग लाया, जिस सरकार के राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था ऐसी शक्तिशाली साम्राज्यवादी सरकार भी आखिर निहत्थे भारतवासियों के सामने झुक गई। 15 अगस्त का पावन दिन आया । परतंत्रता की काल-रात्रि समाप्त हुई और स्वतंत्रता का नवसूर्य निकला। भारत माता अपने सौभाग्य पर एक युग के बाद हंस उठी। यह दिन भारतीय जीवन का मंगलमय दिन बन गया है। भारत के राजनीतिक इतिहास का तो यह स्वर्णिम दिन है। इस दिन ही हमारे नेताओं के चिरसंचित स्वप्न चरितार्थ हुए थे।
15 अगस्त का शुभ पर्व देखने के लिए अनेक भारतीयों ने आत्मसमर्पण किया। इसी दिन के लिए अनगिनत माताओं की गोदियों के लाल लुट गए, अनेक बहिनों से उनके भाई किन गए और सुहागिनों की मांग का सिंदूर पुछ गया। गांधी, पटेल, जवाहर, राजेन्द्र प्रसाद सरीखे देशभक्तों को एक बार नहीं अनेक बार जेल यातनाएं सहन करनी पड़ीं। नेता जी सुभाष, शहीद भगत सिंह तथा लाला लाजपत राय के बलिदान को कौन भूल सकता है ? अनेक वीर स्वतन्त्रता भवन की नींव की ईंटें बन गए। भले ही उनका नाम इतिहास के पृष्ठों में नहीं पर उनके ही बलिदान से स्वतंत्रता का यह दीपक प्रज्वलित हुआ है। बापू के नेतृत्व में लड़े हुए अहिंसात्मक संग्राम की कहानी बड़ी लम्बी है। सविनय अवज्ञा आन्दोलनों, असहयोग आन्दोलनों, भारत छोड़ो आन्दोलनों आदि ने सुप्त भारतीयों में नव चेतना भर दी। 15 अगस्त से पूर्व के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें बलिदानों का एक ताँता दिखाई देगा। बलिदानों की एक लंबी परंपरा के बाद आज हम स्वतंत्र वातावरण में सांस ले रहे है।
भारतवासियों के सतत् प्रयत्नों एवं संगठित आन्दोलनों ने अंग्रेजी सरकार के नाक में दम कर दिया था। अंग्रेजी सरकार भी समझ गई थी कि भारत के सोए शेर जाग उठे हैं। अब इनका सामना करना सम्भव नहीं। अतः 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ यहां से बोरिया बिस्तर गोल कर गए। ठीक 12 बजकर एक मिनट पर 14 अगस्त के समाप्त होते और 15 अगस्त के आरम्भ होते ही विदेशी शासन के प्रतिनिधि वायसराय ने सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंप दी। राजकीय भवनों पर ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा स्वतंत्रता की हवा के झोंकों से लहराने लगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति का समाचार सुनकर भारतवासी प्रसन्नता से झूम उठे। भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक हर्ष के आवेग की लहर दौड़ गई। 15 अगस्त की भोर भी क्या मनोरम भोर थी । प्रत्येक गली संगीत से गूंज उठी। यह संगीत हृदय का संगीत था। इससे कोई भी अछूता नहीं रहा।
उठो सोने वालो, सबेरा हुआ है।
वतन के शहीदों का फेरा हुआ है।।
दिल्ली तो उस दिन नवेली दुल्हन बन गई थी । ठीक प्रात: आठ बजे स्वतन्त्रता संग्राम के महान् सेनानी श्री जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। उस दिन प्रत्येक क्षण ने एक उत्सव का रूप धारण कर लिया था। अनेक कार्यक्रम रखे गए। शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलियां अर्पित की गईं। भारत के स्वर्णिम भविष्य के लिए अनेक योजनाएं बनाई गईं। 15 अगस्त की रात्रि को ऐसी दीपमालिका की गई कि आकाश में चमकने वाले असंख्य तारों ने भी अपना मुंह छिपा लिया। यह दिन जहां इतना सुखद है वहां इसके साथ दुःख की कालिमा भी अपना स्थान बनाए हुए है। इस दिन भारत का विभाजन हो गया। भारत के एक अंग को काटकर उसे पाकिस्तान की संज्ञा दी गई। यह देखकर बापू की आत्मा रो उठी। साम्प्रदायिकता की आग भड़क उठी। अपहरण, मार-काट, अत्याचार और लूट का बाज़ार गर्म हो उठा। होनी ही बन आई थी, सब लाचार थे। पंजाब एवं बंगाल ने इस अवसर पर जो बलिदान दिया, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। हमारे देश के सजग नेताओं के किसी तरह इस आग को शान्त किया।
भारत स्वतंत्र तो हो गया लेकिन अभी उसके सामने देश के निर्माण का काम था । यह काम धीरे-धीरे हो रहा है। खेद की बात है कि 60 वर्ष से अधिक व्यतीत हो जाने पर भी भारत अपने सपने को साकार नहीं कर पाया। इसका कारण वैयक्तिक स्वार्थों की प्रबलता है। दलबन्दी के कारण भी काम में विशेष गति नहीं आती। हमारा कर्त्तव्य है कि देश के उत्थान के लिए, इसकी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए ईमानदारी का परिचय दें। प्रत्येक नागरिक कर्मठता का पाठ सीखे और अपने चरित्र बल को ऊंचा उठाए । जनता एवं सरकार दोनों को मिलकर देश के प्रति अपने कर्त्तव्य को पूरा करना है। युवक देश की रीढ़ की हड्डी के समान हैं। उन्हें देश के गौरव को बनाए रखने के लिए तथा उसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली बनाने में अपना योगदान देना चाहिए। राष्ट्र की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि हम साम्प्रदायिकता के विष से सर्वथा दूर रहें ।
सभी निज संस्कृति के अनुकूल,
एक ही रचें राष्ट्र उत्थान ।
स्वतंत्रता दिवस का मंगल पर्व इस बात का साक्षी है कि स्वतन्त्रता एक अमूल्य वस्तु है। इसके लिए हमने महान् त्याग किया है। अनेक देशभक्तों ने भारत माता के सिर पर ताज रखने के लिए अपना उत्सर्ग कर दिया है। इस दिन हमें एकता का पाठ पढ़ना चाहिए और देश की रक्षा का व्रत धारण करना चाहिए—
हर पन्द्रह अगस्त पर साथी, हम सब व्रत धारें।
जननि जन्मभूमि की खातिर, अपना सब कुछ वारें।
11. गणतंत्र दिवस
छब्बीस जनवरी कहती आकर हम बार,
संघर्षो से ही मिलता है जीने का अधिकार,
स्वतंत्रता किसे प्रिय नहीं? स्वतंत्रता वरदान है और परतन्त्रता अभिशाप क्षणभर की परतन्त्रता भी असहनीय बन जाती है। पशु-पक्षी तक पराधीनता के बन्धन में छटपटाने लगते हैं तब मानव जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है पराधीनता को कैसे सहन करता है? कभी-कभी विवश एवं साधनहीन होने के कारण उसे पराधीनता की शिला में पिसना पड़ता है। शिवमंगल सिंह सुमन ने पिंजरे में बन्द पक्षी के माध्यम से पराधीनता के उत्पीड़न को प्रकट करते हुए कहा है—
नीड़ न दो चाहे टहनी का, आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
जो राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र द्वारा पराधीन बना लिया जाता है, उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। उसका केवल राजनीतिक दृष्टि से ही पतन नहीं होता अपितु उसका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टि से भी पतन होने लगता है। भारत देश को भी शताब्दियों तक पराधीनता का अभिशाप सहन करना पड़ा। लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त, सन् 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न था। ऐसा लग रहा था जैसे अन्धे को प्रकाश मिल गया हो, निर्जीव व्यक्ति में प्राणों का संचार हो गया हो अथवा मूक बांसुरी में किसी ने संगीत भर दिया हो । भारत स्वतंत्र तो हो गया पर उसका कोई अपना संविधान नहीं था। सन् 1950 में देश के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नया संविधान बनने पर 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस घोषित किया गया।
गणतंत्र का अर्थ है सामुदायिक व्यवस्था। भारत में ऐसे शासन की स्थापना हुई जिसमें देश के विभिन्न दलों, वर्गों एवं जातियों के प्रतिनिधि मिलकर शासन चलाते हैं। इसीलिए भारत की शासन पद्धति को गणतंत्र की संज्ञा दी गई और इस दिन को गणतंत्र दिवस के नाम से सुशोभित किया गया ।
26 जनवरी का दिन बहुत पहले ही मनाना आरम्भ कर दिया गया था। इसलिए यह दिन राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में भी अमर है। 26 जनवरी, सन् 1929 ई० को लाहौर में रावी नदी के तट पर एक विशाल जन समूह के सामने स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह घोषणा की थी -“हम भारतवासी आज से स्वतन्त्र हैं, ‘ब्रिटिश सरकार को हम अपनी सरकार नहीं मानते। यदि ब्रिटिश शासक अपनी खैर चाहते हैं तो वे यहां से चले जाएं और खैरियत से नहीं जाएंगे तो हम आखिरी दम तक भारत की अजादी के लिए लड़ते रहेंगे और अंग्रेजों को चैन से नहीं बैठने देंगे।” इस घोषणा से भारतीयों के हृदय जोश से भर गए। स्वतन्त्रता संग्राम का संघर्ष तीव्र हो गया। अंग्रेजी सरकार पागल हो गई। उसने देशभक्तों पर मनमाने अत्याचार किये। सरकार का दमन-चक्र चरम सीमा पर पहुंच गया था। परन्तु भारतीय अपने संकल्प में दृढ़ थे। वे हिमालय के समान अडिग बने रहे। आखिर 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को स्वतंत्रता का सूर्योदय हुआ।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व 26 जनवरी मनाने का लक्ष्य और था और स्वतन्त्रता के बाद कुछ और। पहले हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी प्रतिज्ञा दुहराते थे और स्वतंत्रता संग्राम को गति देने के लिए अनेक प्रकार की योजनाएं बनाते थे। अब 26 जनवरी के दिन हम भारत की खुशहाली के लिए कामना करते हैं और अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं। हम, हमारी सरकार ने जो कुछ किया है, उस पर दृष्टिपात करते हैं। भविष्य में क्या करना है, इसके लिए योजनाएं बनाते हैं। यह पर्व बड़े हर्ष एवं उल्लास से मनाया जाता है।
भारत को पूरी तरह से गणराज्य बनाने के लिए राष्ट्रीय संविधान की आवश्यकता थी। संविधान के निर्माण में लगभग 21/½ वर्ष लगे गए। 26 जनवरी, सन् 1950 को इस संविधान को लागू किया गया और भारत को पूर्ण रूप से गणराज्य की मान्यता प्राप्त हो गई । देशरत्न बाबू राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने और पं० जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमन्त्री । यह दिवस प्रथम बार बड़े समारोह से मनाया गया । हर्षातिरेक से नागरिक झूम उठे। ऐसा लगता था जैसे किसी निर्धन को रत्नों की निधि मिल गई हो । कुटिया तक जगमगा उठी। यह उत्सव दिल्ली में जिस शान से मनाया गया, उसे दर्शक कभी भूल नहीं सकते। उसके बाद प्रत्येक वर्ष यह मंगल पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। देश भर में अनेक स्थानों पर विविध कार्यक्रमों की योजना बनाई जाती है। सांस्कृतिक प्रदर्शन और नृत्य होते हैं। सैनिकों की परेड होती है। वायुयानों से पुष्प वर्षा की जाती है ।
26 जनवरी के दिन आज़ादी को कायम रखने के लिए देशवासी प्रतिज्ञा करते हैं । वे देश के निर्माण एवं उत्थान के लिए कृत संकल्प होते हैं। यह राष्ट्रीय पर्व देश के निवासियों में नया उत्साह, नया बल, नई प्रेरणा और नई स्फूर्ति भरता है। देशभक्त शहीदों को श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं। 26 जनवरी के दिन राष्ट्रपति भवन में विशेष कार्यक्रम होते हैं। वे देश के सैनिकों, साहित्यकारों, कलाकारों आदि को उनकी उपलब्धियों पर विभिन्न प्रकार के पदक प्रदान करते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी देश ने अभी तक भरपूर उन्नति नहीं की। इसका कारण भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, भाषा-भेद, जातिवाद एवं संकीर्ण दृष्टिकोण है। हमें चाहिए कि हम इन दोषों को परित्याग कर देशोद्धार के कार्यों में लीन हो जाएं। तभी हमारे देश में वैभव का साम्राज्य स्थापित हो सकता है और देश में सर्वांगीण उन्नति हो सकती है। अज्ञेय जी ने 26 जनवरी को आलोक-मंजूषा की संज्ञा देते हुए भारतीय नागरिकों को सम्बोधित करते है—
हुए कहा सुनो हे नागरिक !
अभिनव सभ्य भारत के नये जनराज्य के
सुनो ! यह मंजूषा तुम्हारी है।
पला है आलोक चिर- दिन यह तुम्हारे स्नेह से
तुम्हारे ही रक्त से ।
12. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
अथवा
मेरा प्रिय नेता
अथवा
मेरा आदर्श महापुरुष
“समय का दिव्य झूला कभी-कभी पृथ्वी की ओर झुक जाता है और अकस्मात् ही किसी दिव्य विभूति को भूमि पर छोड़ जाता है। वह विभूति कालान्तर में अपनी असाधारण प्रतिभा से विश्व को चमत्कृत कर देती है।”
महात्मा गांधी भारत की ऐसी ही विभूति हैं। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोग से अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। सम्भवतः ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिल सकता जबकि भौतिक शक्ति को इस तरह झुकना पड़ा हो। दुनिया के इतिहास में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। आइन्सटीन ने गांधी जी के विषय में लिखा है- “आने वाली पीढ़ियां कठिनता से विश्वास करेंगी कि हाड-मांस का बना ऐसा व्यक्ति भी कभी इस भूतल पर आया था।”
इस महान् पुरुष को जन्म देने का श्रेय गुजरात कठियावाड़ के पोरबन्दर स्थान को है। भारत इस प्रान्त का चिरऋणी रहेगा। 2 अक्तूबर, सन् 1869 का वह पवित्र दिन था, जिस दिन इस महापुरुष ने पृथ्वी पर अवतार धारण किया। आप मोहनदास कर्मचन्द गांधी के नाम से प्रख्यात हुए। आपके पिता राजकोट राज्य के दीवान थे। इसलिए आप का बाल्यकाल भी वहीं व्यतीत हुआ। माता पुतली बाई बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की एवं सती-साध्वी स्त्री थी जिन का प्रभाव गांधी जी पर आजीवन रहा।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पोरबन्दर में हुई। कक्षा में ये साधारण विद्यार्थी थे। श्रेणी में किसी सहपाठी से बातचीत नहीं करते थे। पढ़ाई में मध्यम वर्गीय छात्रों में से थे। अपने अध्यापकों का पूर्ण सम्मान करते थे। आप ने मैट्रिक तक की शिक्षा स्थानीय स्कूलों में ही प्राप्त की। तेरह वर्ष की आयु में कस्तूरबा के साथ आपका विवाह हुआ। आप आरम्भ से ही सत्यवादी थे।
जब आप कानून पढ़ने जिलागत गए उस समय आप एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। आपने माता को दिए गए वचनों का पालन पूरी तरह किया। अन्त में वे ही वचन सत्यनिष्ठ, धर्मात्मा एवं महात्मा का उच्च पद प्राप्त करने में सहायक बने विलायत में शिक्षा ग्रहण करने के समय से विलासिता से कोसों दूर रहे। वहां से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे।
गांधी जी ने बम्बई में आ कर वकालत का कार्य आरम्भ किया। किसी विशेष मुकदमे की पैरवी करने के लिए वे दक्षिणी अफ्रीका गये। वहां भारतीयों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार देखकर इनमें राष्ट्रीय भाव जागृत हुआ। वहां पर उन्होंने सबसे पहले सत्याग्रह का प्रयोग किया, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई।
जब सन् 1915 ई० में भारत वापिस आए तो अंग्रेजों का दमनचक्र जोरों पर था। रोल्ट एक्ट जैसे काले कानून लागू थे। सन् 1919 में जलियांवाला बाग की नरसंहारी दुर्घटनाओं ने मानवता को नतमस्तक कर दिया था। उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस केवल पढ़ेलिखे मध्यवर्गीय लोगों की एक जमात थी। देश की बागडोर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के हाथ में थी। उस समय कांग्रेस की स्थिति इतनी अच्छी न थी। वह दो दलों में विभक्त थी। गांधी जी ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेते ही इतिहास का एक नया अध्याय शुरू किया। सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात करके भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया। इसके बाद सन् 1921 ई० में जब ‘साइमन कमीश्न’ भारत आया तो गांधी जी ने उसका पूर्ण बहिष्कार किया और देश का सही नेतृत्व किया। सन् 1930 में नमक आन्दोलन तथा डांडी यात्रा का श्रीगणेश किया।
सन् 1942 के अन्त में द्वितीय महायुद्ध के साथ ‘अंग्रेजो’ ! भारत छोड़ो आन्दोलन का बिगुल बजाया और कहा, “यह मेरी अन्तिम लड़ाई है।” वे अपने अनुयायियों के साथ गिरफ्तार हुए। इस प्रकार अन्त में 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को अंग्रेज यहां से विदा हुए । पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दो देश बने। जब भारतीय लोग अपनी नवागन्तुक आज़ादी देवी की स्वागत हर्षोन्मत्त होकर कर रहे थे, तो यह मानवता का पुजारी, शान्ति का अग्रदूत, भाई-भाई के खून से पीड़ित मानवता को अपने सदुपदेश रूप मरहम का लेपन करता हुआ गली-गली और कूचे कूचे में शान्ति की अलख जगा रहा था ।
गांधी जी का व्यक्तित्व महान् था। वे एक आदर्श पुरुष थे। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था। वे सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अछूतोद्धार के लिए उनके कार्य स्मरणीय हैं। वे मानव मात्र के प्रति स्नेह और सहानुभूति रखते थे। वे शान्ति के पुजारी थे। उन्होंने विश्व बन्धुत्व की भावना का उदय करने के लिए अथक प्रयास किया । वे गीता, कुरान, गुरु, ग्रन्थ साहिब, बाइबिल सभी धर्म ग्रन्थों में से पढ़कर कुछ सुनाते थे। उन्होंने कहा था- “मैं हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, यहूदी सब कुछ हूं।” ।
गांधी जी जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उन्होंने कहा था – ” भारत के अधिक लोग गांवों में रहते हैं, इन गांवों में अशिक्षा है, बीमारी है। इन गांवों की दशा सुधारो, चर्खा कातो, हिंसा के भाव छोड़ो। इससे हमें आन्तरिक स्वतन्त्रता मिलेगी, फिर हम आत्मिक बल और आन्तरिक स्वतन्त्रता के सहारे अंग्रेज़ी सत्ता को भी समाप्त कर सकेंगे।” स्वतंत्रता का पुजारी बापू गांधी 30 जनवरी, सन् 1948 को एक मनचले नौजवान नात्थू राम गोडसे की गोली का शिकार हुआ। अहिंसा का सबसे बड़ा उपासक हिंसा की भेट चढ़ गया। उनकी मृत्यु पर बर्नाड शॉ ने लिखा था, “इससे पता चलता है कि बहुत नेक बनना कितना भयंकर है।” चाहे बापू भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं हैं तो भी उनके आदर्श इस महान् देश का पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे। गांधी जी मरकर भी अमर हैं, क्योंकि उनके आदर्श आज भी हम मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
मेरा देश
अथवा
अरुण यह मधुमय देश हमारा
अथवा
हमारा प्यारा भारतवर्ष
राष्ट्र मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। जिस भूमि के अन्न-जल से यह शरीर बनता एवं पुष्ट होता है उसके प्रति अनायास ही स्नेह एवं श्रद्धा उमड़ती रहती है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों की अपेक्षा करता है, वह कृतघ्न है। उसका प्रायश्चित सम्भव ही नहीं। उसका जीवन पशु के सदृश बन जाता है। मरुभूमि में वास करने वाला व्यक्ति ग्रीष्म की भयंकरता के कारण हांफ- हांफ कर जी लेता है, लेकिन अपनी मातृभूमि के प्रति दिव्य प्रेम संजोए रहता है। शीत प्रदेश में वास करने वाला व्यक्ति कांप-कांप कर जी लेता है लेकिन जब उसके देश पर कोई संकट आता है तो वह अपनी – जन्म भूमि पर प्राण न्योछावर कर देता है। ‘यह मेरा देश है’ कथन में कितनी मधुरता है। इस पर जो कुछ है, वह सब मेरा है। जो व्यक्ति ऐसी भावना से रहित है, इसके लिए ठीक ही कहा गया है—
जिसको न निज गौरव तथा
निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है
और मृतक समान है।।
मेरा महान् देश भारत सब देशों में शिरोमणि है। इसका अतीत स्वर्णिम रहा है। एक समय था जब इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। इसे प्रकृति देवी ने अपने अपार वैभव, शक्ति एवं सौन्दर्य से विभूषित किया है। इसके आकाश के नीचे मानवीय प्रतिभा ने अपने सर्वोत्तम वरदानों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया है। इस देश के मनीषियों ने शाश्वत एवं गूढ़तम प्रश्न की तह में पहुंचने का सफल प्रयास किया है। इसकी प्राकृतिक शोभा पर मुग्ध होकर गुप्त जी ने कहा है—
भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगा जल जहां!
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस, देश का उत्कर्ष है ?
उसका कि जो ऋषि-भूमि है, वह कौन भारतवर्ष है !!
यह अति प्राचीन देश है। इसे सिन्धु देश, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान भी कहते हैं। इसके उत्तर में ऊंचा हिमालय पर्वत इसके मुकुट के समान है। उससे परे तिब्बत तथा चीन है। दक्षिण में समुद्र इसके पांव धोता है। श्रीलंका द्वीप वहां समीप ही है। उसका इतिहास भी भारत से सम्बद्ध है। पूर्व में बंगला देश और ब्रह्मदेश है। पश्चिमी में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान देश हैं। प्राचीन समय में तथा आज से दो हज़ार वर्ष पहले सम्राट् अशोक के राजकाल में और उसके बाद भी गन्धार (अफ़गानिस्तान) भारत का ही एक प्रान्त था। कुछ वर्ष पहले बंगला देश, ब्रह्मदेश, पाकिस्तान तथा लंका भारत के ही अंग थे।
इस देश पर मुसलमानों, मुग़लों, अंग्रेजों ने आक्रमण करके यहां पर विदेशी राज्य स्थापित किया और इसे खूब लूटा तथा पद- दलित किया पर अब वे दुःख भरे दिन बीत चुके हैं। हमारे देश के वीरों, सैनिकों, देश-भक्तों और क्रान्तिकारियों के त्याग और बलिदान से 15 अगस्त, 1947 ई० में भारत स्वतन्त्र होकर दिनों-दिन उन्नत और शक्तिशाली होता जा रहा है। 26 जनवरी, सन् 1950 में भारत में नया संविधान लागू हुआ है और यह ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व – सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ बन गया है। अनेक ज्वार-भाटों का सामना करते हुए भी इसका सांस्कृतिक गौरव अक्षुण्ण रहा है।
यहां गंगा, समुना, सरयू, सोन, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, सतलुज, ब्यास, रावी आदि पवित्र नदियां बहती हैं, जो कि इस देश को सींचकर हरा-भरा करती हैं। इनमें स्नान कर देशवासी वाणी का पुण्य लाभ करते हैं। यहां बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर, ये छः ऋतुएं क्रमशः आती हैं। अनेक तरह की जलवायु इस देश में है। भांति-भांति के फल-फूल वनस्पतियां, अन्न आदि यहां उत्पन्न होते हैं । इस देश को देखकर हृदय गद्गद् हो जाता है। यहां अनेक दर्शनीय स्थान हैं।
यह एक विशाल देश है। इस समय इसकी जनसंख्या 125 करोड़ हो गई है, जो संसार में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि मतों के लोग परस्पर हिल मिल कर रहते हैं। उनमें कभी-कभी वैमनस्य भी पैदा हो जाता है, तो आम लोग उसे बहुत बुरा समझते हैं। यहां हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, पंजाबी उर्दू, बंगला, तमिल, तेलुगू आदि अनेक भाषाएं हैं। दिल्ली इसकी राजधानी है। वहीं संसद् है जिसके लोकसभा और राज्यसभा दो अंग हैं। मेरे देश के प्रमुख ‘राष्ट्रपति’ कहलाते हैं। एक उपराष्ट्रपति भी होते हैं। देश का शासन प्रधानमन्त्री तथा उसका मन्त्रिमण्डल चलाता है। इस देश में 28 राज्य या प्रदेश हैं जहां विधानसभाएं हैं तथा मुख्यमन्त्री और उसके मन्त्रिमण्डल द्वारा शासन होता है।
प्राचीन युग में इस देश का चरित्र बड़ा आदर्श होता था। हमारे पूर्वज मनस्वी, त्यागी, परोपकारी एवं बलिदान की भावना से सम्पन्न थे। उनके विषय में ठीक ही कहा गया है—
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे,
वे स्वार्थ रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी ?
अन्य देशों के लोग यहां से चरित्र की शिक्षा लेते थे। यह धर्म प्रधान देश है। यहां बड़े – बड़े धर्मात्मा, तपस्वी, त्यागी, परोपकारी, वीर, बलिदानी महापुरुष हुए हैं। यहां की स्त्रियां पतिव्रता, सती, साध्वी, वीर, साहसी और योद्धा हुई हैं। उन्होंने कई बार जौहर व्रत किये हैं। वे योग्य और दृढ़ शासक भी हो चुकी हैं और आज भी हैं। यहां के ध्रुव, प्रह्लाद, लवकुश, अभिमन्यु, हकीकतराय आदि बालकों ने अपने ऊंचे जीवनादर्श से अपने देश का नाम उज्ज्वल किया है।
मेरा देश गौरवशाली है। इसका इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। इस देश का गौरव अनन्त है। ये स्वर्ग के समान सभी सुखों को प्रदान करने में समर्थ है। मैं इस पर तनमन-धन न्योछावर करने के लिए तत्पर रहता हूं। श्रीधर पाठक के शब्दों में—
जय उज्ज्वल कीर्ति विशाल हिंद,
जय करुण सिंधु कृपालु हिंद।
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद,
यह जयति जयति प्राचीन हिंद ।
14. भ्रष्टाचार समस्या समाधान
संसार में जब एक बच्चा जन्म लेता है तो उसकी आत्मा इतनी सात्विक, विचार इतने कोमल और बुद्धि इतनी निर्मल होती है कि यदि उसे देवता की उपाधि से भी विभूषित कर दिया जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। इसीलिए कुछ लोग बच्चे को ‘बाल-गोपाल’ के नाम से भी पुकारते हैं। ज्यों-ज्यों बच्चा अपनी माता के साहचर्य में, परिवार के सहवास में, मित्रों के संपर्क में और समाज के सानिध्य में आता रहता है त्यों-त्यों उसकी आत्मा, विचार और बुद्धि में परिवर्तन होते चले जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यही है कि वह समाज में जो कुछ देखता है, सुनता है और अनुभव करता है उसी ओर अपने को ढालता चला जाता है। फलस्वरूप एक दिन ऐसा भी आता है कि वही बच्चा युवक बनकर या तो उच्चकोटि का सदाचारी बन जाता है अथवा एक दुराचारी बनकर समाज और राष्ट्र के लिए एक महान् कलंक सिद्ध होता है।
मनुष्य का यह दुराचार ही अपना व्यापक रूप धारण करके भ्रष्टाचार का स्थान ग्रहण कर लेता है। कुछ लोग भ्रष्टाचार को अति संकुचित अर्थों में समझाते हैं। मेरे अपने विचारों के अनुसार समाज की उन बुराइयों के समूह का नाम ही भ्रष्टाचार है जो उसे अंदर ही अंदर खोखला करती रहती है। वास्तव में, भ्रष्टाचार की स्थिति भी एक भयंकर राक्षस के समान है, काला बाजार इसका दूषित हृदय है तो मिलावट इसका भयंकर उदर है। रिश्वत इसके कठोर हाथ हैं तो व्यभिचार और अनादर इसके पैर हैं, सिफारिश इसकी तीक्ष्ण जीभ है तो शोषण इसके कठोर दांत हैं। यह बेईमानी के नेत्रों से देखता है, कुनबापरस्ती के कानों से सुनता है और अन्याय की नाक से सूंघता है। जब यह अपना भयंकर रूप बना कर चलता है तो एक बार तो इससे भयभीत होकर समाज का देवता भी कांप उठता है।
भ्रष्टाचार कब और कहां उत्पन्न हुआ ? इस संबंध में कुछ अधिक न कहकर यह बता देना ही पर्याप्त होगा कि इसकी उत्पत्ति क्यों हुई है। स्मरण रहे कि जब मनुष्य स्वार्थ में अंधा होकर मिथ्या अभिमान के नशे में झूमने लगता है, कामवासना के वशीभूत होकर उचित और अनुचित पर विचार करना छोड़ देता है, धर्म-कर्म को छोड़कर नास्तिकता और अकर्मण्यता के संकीर्ण पथ पर आरूढ़ हो जाता है, करुणा और सहानुभूति की भावना का त्याग करके निर्दय और कठोर बन जाता है तो ऐसी अवस्था में धीरे-धीरे एक ऐसे भयंकर जाल में फंस जाता है जहां से फिर वापस निकलना उसके लिए कठिन ही नहीं अपितु असंभव हो जाता है। इस भांति स्वयं मानव भ्रष्टाचार को जन्म देकर केवल अपना ही अहित नहीं करता बल्कि समाज और राष्ट्र को भी बड़ी हानि पहुंचाता है। “
वैसे तो आज समस्त विश्व में ही भ्रष्टाचार की चिंगारियां सुलगती हुई दिखाई दे रही हैं, परंतु भारत में तो इसकी ज्वाला ही धधकने लग पड़ी है। जब अंग्रेज़ भारत से गए तो यहां भ्रष्टाचार की मात्रा बहुत कम थी। यद्यपि वे हमें इसका थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण दे गए थे परंतु हमें यह पूर्ण विश्वास था कि भारत के स्वतंत्र होते ही हम इस भयंकर रोग को समूल नष्ट कर देंगे, परंतु हुआ इसके सर्वथा विपरीत। भारत की जनता और भारत की सरकार दोनों ही स्वतंत्रता के सही अर्थ को न समझ सकीं। भारत के प्रजातंत्र शासन में यह रोग नासूर की भांति फैलता ही चला गया। आज भारत में इस रोग की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि केंद्रीय सरकार तथा कई राज्य सरकारों की महत्त्वपूर्ण घोषणाओं के बावजूद यह रोग बढ़ता ही जा रहा है। आज भ्रष्टाचार की समस्या इतनी जटिल और भयंकर हो चुकी है कि यदि कुछ दिन तक भारत में यही स्थिति रही तो भारत अपनी स्वतंत्रता की भी रक्षा कर सकेगा या नहीं, हमें इसमें संदेह है।
भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यहां हमारे नेताओं को ‘परोपदेशे पांडित्यम्’ की नीति को छोड़ना होगा, यहां भारत की साधारण जनता को भी ज़रा आत्मसंयम से काम लेना होगा। आज नैतिकता को बढ़ावा देने की बड़ी आवश्यकता है। सरकार का कर्त्तव्य है कि वह निष्पक्ष व्यक्तियों की जांच समिति बनाए जो सबसे पहले बड़े-बड़े लोगों पर लगे आरोपों की जांच करे। इसके साथ ही किसी भी मंत्री या बड़े सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति के समय उसकी चल और अचल संपत्ति का पूरा ब्योरा दर्ज किया जाए। भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को कठोर दंड दिए जाएं और प्रत्येक कार्यविधि में शीघ्रता का ध्यान रखा जाए। कथनी और करनी में एकता भी भ्रष्टाचार को रोकने में बड़ी सहायक सिद्ध हो सकती है। वर्षों पुराना यह रोग इतनी आसानी से जाने वाला नहीं है। जिस दिन भ्रष्टाचार के रोग से भारत मुक्त हो जाएगा उस दिन फिर से सोने की चिड़िया कहलाने का गौरव इसे प्राप्त हो सकेगा इन उपायों द्वारा भ्रष्टाचार का यह रोग पूर्ण रूप से तो समाप्त नहीं होगा परंतु धीरे-धीरे इसकी जड़ें काटने में सहायता मिल सकती है। आज हमें चाहिए कि हम सब मिलकर भ्रष्टाचार की इस विकट समस्या को हल करने में अपना पूरा- सहयोग देते रहें।
15. बसन्त ऋतु
भारत अपनी प्राकृतिक शोभा के लिए विश्व विख्यात है। इसे ऋतुओं का देश कहा जाता है। ऋतु परिवर्तन का जो सुन्दर क्रम हमारे देश में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रत्येक की अपनी छटा और अपना आकर्षण है।
बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त शिशिर इन सबका अपना महत्त्व है। इनमें से बसन्त ऋतु की शोभा सबसे निराली है। वैसे तो बसन्त ऋतु फाल्गुन मास से शुरू हो जाती है। इसके असली महीने चैत्र और वैसाख हैं। बसन्त ऋतु को ऋतुराज कहते हैं, क्योंकि यह ऋतु सबसे सुहावनी, अद्भुत आकर्षक और मन में उमंग भर देने वाली है। इस ऋतु में पौधों, वृक्षों, लताओं पर नए-नए पत्ते निकलते हैं, सुन्दर सुन्दर फूल खिलते हैं। सचमुच बसन्त की बासन्ती दुनिया की शोभा ही निराली होती है। बसन्त ऋतु प्रकृति के लिए वरदान बन कर आती है। बागों में, वाटिकाओं में, वनों में सर्वत्र नव जीवन आ जाता है। पृथ्वी का कण-कण एक नये आनन्द, उत्साह एवं संगीत का अनुभव करता है। ऐसा लगता है जैसे मूक वीणा ध्वनित हो उठी हो, बांसुरी को होठों से लगातार किसी ने मधुर तान छेड़ दी हो । शिशिर से ठिठुरे हुए वृक्ष मानो निद्रा से जाग उठे हों और प्रसन्नता से झूमने लगे हों। शाखाओं एवं पत्तों पर उत्साह नजर आता है। कलियां अपना घूंघट खोलकर अपने प्रेमी भंवरों से मिलने के लिए उतावली हो जाती हैं। चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियों की अनोखी शोभा दिखाई देती है। प्रकृति में सर्वत्र यौवन के दर्शन होते हैं, सारा वातावरण सुवासित हो उठता है। चम्पा, माधवी, गुलाब और चमेली आदि की सुन्दरता मन को मोह लेती है। कोयल की ध्वनि कानों में मिश्री घोलती है।
आम, जामुन आदि के वृक्षों पर बौर आता है और उसके बाद फल भर जाते हैं। सुगन्धित और रंग-बिरंगे फूलों पर बौर तथा मंजरियों पर भौंरे गुंजारते हैं, मधुमक्खियां भिनभिनाती हैं। ये जीव उनका रस पीते हैं। बसन्त का आगमन प्राणी जगत् में परिवर्तन ला देता है। जड़ में भी चेतना आ जाती है और चेतन तो एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव करता है।
मनुष्य-जगत् में भी यह ऋतु विशेष उल्लास एवं उमंगों का संचार करती है। बसन्त ऋतु का प्रत्येक दिन एक उत्सव का रूप धारण कर लेता है। कवि एवं कलाकार इस ऋतु से विशेष प्रभावित होते हैं। उनकी कल्पना सजग हो उठती है। उन्हें उत्तम से उत्तम कला कृतियां रचने की प्रेरणा मिलती है ।
इस ऋतु में दिशाएं साफ़ हो जाती हैं. आकाश निर्मल हो जाता है। चारों ओर स्निग्धता और प्रसन्नता फैल जाती है। हाथी, भौरे, कोयलें, चकवे विशेष रूप से ये मतवाले हो उठते हैं। मनुष्यों में मस्ती छा जाती है। कृषि के लिए भी यह ऋतु बड़ी उपयोगी है। चना, गेहूं आदि की फसल इस ऋतु में तैयार होती है।
बसन्त ऋतु में वायु प्राय: दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है। क्योंकि यह वायु दक्षिण की ओर से आती है, इसलिए इसे दक्षिण पवन कहते हैं । यह शीतल, मन्द और सुगन्धित होती है। सर्दी समाप्त हो जाने के कारण बसन्त ऋतु में जीव मात्र की चहल-पहल और हलचल बढ़ जाती है। सूर्य की तीव्रता अधिक नहीं होती । दिन-रात एक समान होते हैं। जलवायु उत्तम होती है । सब जगह नवीनता, प्रकाश, उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, नई इच्छा नया जोश तथा नया बल उमड़ आता है। लोगों के मन में आशाएं तरंगित होने लगती हैं, अपनी लहलहाती खेती देखकर किसानों का मन झूम उठता है कि अब वारे-न्यारे हो जाएंगे।
इस ऋतु की एक बड़ी विशेषता यह है कि इन दोनों शरीर में नये रक्त का संचार होता है और आहार-विहार ठीक रखा जाए तो स्वास्थ्य की उन्नति होती है। स्वभावतः ही बालक-बालिकाएं, युवक-युवतियां, बड़े-बूढ़े, पशु-पक्षी सब अपने हृदय में एक विशेष प्रसन्नता और मादकता अनुभव करते हैं । इस ऋतु में बाहर खुले स्थानों, मैदानों, जंगलों, पर्वतों, नदी-नालों, बाग-बगीचों में घूमना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। कहा भी है कि, ‘बसन्ते भ्रमणं पथ्यम्’ अर्थात् बसन्त में भ्रमण करना पथ्य है। इस ऋतु में मीठी और तली हुई वस्तुएं कम खानी चाहिए। चटनी, कांज़ी, खटाई आदि का उपयोग लाभदायक रहता है। इसका कारण यह है कि सर्दी के बाद ऋतु परिवर्तन से पाचन शक्ति कुछ मन्द हो जाती है। बसन्त पंचमी के दिन इतनी पतंगें उड़ती हैं कि उनसे आकाश भर जाता है। सचमुच यह ऋतु केवल प्राकृतिक आनन्द का ही स्रोत नहीं बल्कि सामाजिक आनन्द का भी स्रोत है।
बसन्त ऋतु प्रभु और प्रकृति का एक वरदान है। इसे मधु ऋतु भी कहते हैं। भगवान् · श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि मैं ऋतुओं में बसन्त हूं। बसन्त की महिमा का वर्णन नहीं हो सकता। इसकी शोभा अद्वितीय होती है। जिस प्रकार गुलाब का फूल पुष्पों में, हिमालय का पर्वतों में, सिंह का जानवरों में, कोयल का पक्षियों में अपना विशिष्ट स्थान है उसी प्रकार ऋतुओं में बसन्त की अपनी शोभा और महत्त्व है। कहा भी है—
आ आ प्यारी बसन्त सब ऋऋतुओं से प्यारी ।
तेरा शुभागमन सुनकर फूली केसर क्यारी ॥
16. जीवन में परिश्रम का महत्त्व
अथवा
श्रम की महत्ता
अथवा
परिश्रम बेरोज़गारी की समस्या का एकमात्र हल
इस संसार में जितने भी चेतना प्राणी हैं, उनमें से कोई भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। यहां तक कि प्रकृति के सभी पदार्थ भी नियमपूर्वक अपना कार्य करते हैं। सूर्य प्रतिदिन समय पर निकलकर संसार का उपकार करता है। वह कभी अपने नियम का उल्लंघन नहीं करता। नदियां भी दिन-रात यात्रा करती रहती हैं। वनस्पतियां भी समय और वातावरण के अनुसार परिवर्द्धित होती रहती हैं। कीड़े तथा पक्षी तक अपने दैनिक जीवन में व्यस्त रहते हैं। जब संसार के अन्य प्राणी व्यस्त हैं अथवा परिश्रम करते रहते हैं तब मनुष्य जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, काम किये बिना कैसे रह सकता है। वास्तव में कर्म अथवा श्रम के बिना मानव जीवन की गाड़ी चल भी नहीं सकती। श्रम की उन्नति, प्रगति, विकास और निर्माण कर सकता है। परिश्रम और प्रयास की बड़ी महिमा है। यदि मनुष्य परिश्रम न करता तो संसार में कुछ भी न होता। आज संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है. वह परिश्रम का ही परिणाम है।
परिश्रम का अत्यधिक महत्त्व है। परिश्रम के अभाव में जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। यहां तक कि स्वयं का उठना-बैठना, खाना-पीना भी सम्भव नहीं हो सकता। फिर उन्नति और विकास की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज संसार में जो राष्ट्र सर्वाधिक उन्नत हैं, वे परिश्रम के बल पर ही इस उन्नत दशा को प्राप्त हुए हैं।
परिश्रम का अभिप्राय ऐसे परिश्रम से है जिससे निर्माण हो, रचना हो। जिस परिश्रम से निर्माण नहीं होता, उसका कुछ अर्थ नहीं। जो व्यक्ति आलस का जीवन बिताते हैं, वे कभी उन्नति नहीं कर सकते।
आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है। आलसी व्यक्ति परावलम्बी होता है। वह कभी पराधीनता से मुक्त नहीं हो सकता। हमारा देश सदियों तक पराधीन रहा। इसका आधारभूत कारण भारतीय जीवन में व्याप्त आलस्य एवं हीन भावना थी। जैसे ही हमने परिश्रम के महत्त्व को समझा वैसे ही हमारी हीनता दूर होती गई और हम में आत्मविश्वास बढ़ता गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमने एक दिन पराधीनता की केंचुली उतार कर फेंक दी। परिश्रम ही छोटे से बड़े बनने का साधन है। यदि छात्र परिश्रम न करे तो परीक्षा में कैसे सफल हो। मज़दूर भी मेहनत का पसीना बहाकर, सड़कों, भवनों, डैमों, मशीनों तथा संसार के लिये उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, कवि, लेखक सब परिश्रम द्वारा ही अपनी रचनाओं से संसार को लाभ पहुंचाते हैं। कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपीयर, टैगोर आदि परिश्रम के बल पर ही अमर हो गए हैं। परिश्रम के बल पर ही वे अपनी रचनाओं के रूप में अजर-अमर हैं।
कुछ लोग परिश्रम की अपेक्षा भाग्य को महत्त्व देते हैं। उनका तर्क है कि जो भाग्य में है वह अवश्य मिलेगा, अतः दौड़-धूप करना व्यर्थ है । यह तर्क निराधार है। यह ठीक है कि भाग्य का भी हमारे जीवन में महत्त्व है लेकिन आलसी बनकर बैठे रहना और असफलता के लिए भाग्य को कोसना किसी प्रकार भी उचित नहीं। परिश्रम के बल पर मनुष्य भाग्य की रेखाओं को भी बदल सकता है। आलसी एवं कामचोर व्यक्ति ही ईश्वर के लिखे लेख को पढ़ते हैं। सच्चे वीर तो ध्रुवों से पसीने की धार बहाकर मस्तक के बुरे अंक को भी धो डालते हैं । ‘दिनकर’ जी ने ठीक ही कहा है—
ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है।
उसने अपना सुख अपने ही भुजबल से पाया है।
आज हमारे देश में अनेक समस्याएं हैं। उन सबके समाधान का साधन परिश्रम है। परिश्रम के द्वारा ही बेकारी की, खाद्य की और अर्थ की समस्या का अन्त किया जा सकता है। परिश्रम के बल पर निर्धन धनवान् बन सकता है, मूर्ख विद्वान् बन सकता है। परिश्रम के द्वारा मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति कर सकता है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितने भी महान् व्यक्ति हुए हैं, वे सब परिश्रम के बल पर ही ऊपर उठे हैं। सामान्य से असामान्य स्थिति प्राप्त करने का सवश्रेष्ठ साधन परिश्रम है।
परिश्रमी व्यक्ति स्वावलम्बी, ईमानदार, सत्यवादी, चरित्रवान् और सेवा – भाव से युक्त होता है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपनी, परिवार की, जाति की तथा राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दे सकता है। अतः मनुष्य को परिश्रम करने की प्रवृत्ति बचपन अथवा विद्यार्थी जीवन से ग्रहण करनी चाहिए। परिश्रम से ही मिट्टी सोना उगलती है। यह व्यक्ति एवं देश की उन्नति एवं सफलता का रहस्य है।
17. समाचार पत्रों का महत्त्व
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जैसे-जैसे उसकी सामाजिकता में विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी अपनी साथियों के दुःख-सुख जानने की इच्छा भी तीव्र होती जाती है। इतना ही नहीं वह आस-पास के जगत् की गतिविधियों से परिचित रहना चाहता है। मनुष्य अपनी योग्यता तथा साधनों के अनुरूप समय-समय पर समाचार जानने के लिए प्रयत्नशील रहा है। इन प्रयत्नों में समाचार पत्रों एवं प्रेसों का आविष्कार सबसे महत्त्वपूर्ण है। आज समाचार पत्र सर्वसुलभ हो गए हैं। इन समाचार पत्रों ने संसार को एक परिवार का रूप दे दिया है। एक मोहल्ले से लेकर राष्ट्र तक की ओर और राष्ट्र से लेकर विश्व तक की गतिविधि का चित्र इन पत्रों के माध्यम से हमारे सामने आ जाता है। आज समाचार पत्र शक्ति का स्रोत माने जाते हैं—
शुक आते हैं उनके सम्मुख, गर्वित ऊंचे सिंहासन
बांध न पाया उन्हें आज तक, कभी किसी का अनुशासन |
निज विचारधारा के पोषक हैं प्रचार के दूत महान् ।
समाचार पत्रों का करते, इसीलिए तो सब सम्मान ।।
प्राचीन काल में समाचार जानने के साधन बड़े स्थूल थे। एक समाचार को पहुंचने में पर्याप्त समय लग जाता था। कुछ समाचार तो स्थायी से बन जाते थे। सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को दूर तक पहुंचाने के लिए लाटें बनवाई। साधु-महात्मा चलतेचलते समाचार पहुंचाने का कार्य करते थे, पर यह समाचार अधिकतर धर्म एवं राजनीति से सम्बन्ध रखते थे। छापेखाने के आविष्कार के साथ ही समाचार पत्र की जन्म कथा का प्रसंग आता है। मुगल काल में ‘अखबारात-इ-मुअल्ले’ नाम से समाचार पत्र चलता था । अंग्रेजों के आगमन के साथ-साथ हमारे देश में समाचार पत्रों का विकास हुआ। सर्वप्रथम 20 जनवरी, सन् 1780 ई० में वारेन हेस्टिंग्ज़ ने ‘इण्डियन गजट’ नामक समाचार-पत्र निकाला। इसके बाद ईसाई प्रचारकों ने ‘समाज दर्पण’ नामक अखबार प्रारम्भ किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरोध में ‘कौमुदी’ तथा ‘चन्द्रिका’ नामक अखबार निकाले। ईश्वर चन्द्र ने ‘प्रभाकर’ नाम से एक समाचार पत्र प्रकाशित किया । हिन्दी के साहित्यकारों ने भी समाचार पत्रों के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। स्वाधीनता से पूर्व निकलने वाले समाचार पत्रों ने स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका निभाई, वह सराहनीय है। उन्होंने भारतीय जीवन में जागरण एवं क्रान्ति का शंख बजा दिया। लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ वास्तव में सिंह गर्जना के समान था ।
समाचार पत्र अपने विषय के अनुरूप कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समाचार पत्र दैनिक समाचार पत्र हैं। ये प्रतिदिन छपते हैं और संसार भर के समाचारों का दूत बनकर प्रातः घर-घर पहुंच जाते हैं। हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों में नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, आज, विश्वमित्र, वीर अर्जुन, पंजाब केसरी, वीरू प्रताप, दैनिक ट्रिब्यून का बोलबाला है। साप्ताहिक पत्रों में विभिन्न विषयों पर लेख, सरस कहानियां, मधुर कविताएं तथा साप्ताहिक घटनाओं तक का विवरण रहता है। पाक्षिक पत्र भी विषय की दृष्टि से साप्ताहिक पत्रों के ही अनुसार होते हैं। मासिक पत्रों में अपेक्षाकृत जीवनोपयोगी अनेक विषयों की विस्तार से चर्चा रहती है। वे साहित्यिक अधिक होते हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों पर भाव एवं कला की दृष्टि से प्रकाश डाला जाता है। इनमें विद्वत्तापूर्ण लेख, उत्कृष्ट कहानियां, सरस गीत, विज्ञान की उपलब्धियां, राजनीतिक दृष्टिकोण, सामायिक विषयों पर आलोचना एवं पुस्तक समीक्षा आदि सब कुछ होता है ।
उपर्युक्त पत्रिकाओं के अतिरिक्त त्रैमासिक, अर्द्ध- वार्षिक आदि पत्रिकाएं भी छपती हैं। ये भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। विषय की दृष्टि से राजनीतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विभाग हैं। इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों पर भी पत्रिकाएं निकालती हैं। धार्मिक, मासिक पत्रों में कल्याण विशेष लोकप्रिय है।
समाचार पत्रों से अनेक लाभ है। आज के युग में इनकी उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इनका सबसे बड़ा लाभ यह है कि विश्व भर में घटित घटनाओं का परिचय हम घर बैठे प्राप्त कर लेते हैं। यह ठीक है कि रेडियो इनसे भी पूर्व समाचारों की घोषणा कर देता है, पर रेडियो पर केवल संकेत होता है उसकी सचित्र झांकी तो अ द्वारा ही देखी जा सकती है। यदि समाचार पत्रों को विश्व जीवन का दर्पण कहें तो अत्युक्ति न होगी। जीवन के विभिन्न दृष्टिकोण, विभिन्न विचारधाराएं हमारे सामने आ जाती हैं। प्रत्येक पत्र का सम्पादकीय विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। आज का युग इतना तीव्रगामी है कि यदि हम दो दिन अखबार न पढ़ें तो हम ज्ञान-विज्ञान में बहुत पीछे रह जाएं।
इनसे पाठक का मानसिक विकास होता है। उसकी जिज्ञासा शांत होती है और साथ ही ज्ञान-पिपासा बढ़ जाती है। समाचार पत्र एक व्यक्ति से लेकर सारे देश की आवाज़ है जो दूसरे देशों तक पहुंचती है जिससे भावना एवं चिन्तन के क्षेत्र का विकास होता है। व्यापारियों के लिए ये विशेष लाभदायक हैं। वे विज्ञापन द्वारा वस्तुओं की बिक्री में वृद्धि करते हैं। इनमें रिक्त स्थानों की सूचना, सिनेमा जगत् के समाचार, क्रीड़ा जगत् की गतिविधि, परीक्षाओं के परिणाम वैज्ञानिक उपलब्धियां, वस्तुओं के भावों के उतारचढ़ाव, उत्कृष्ट कविताएं, चित्र कहानियां, धारावाहिक उपन्यास आदि प्रकाशित होते रहते हैं। समाचार पत्रों के विशेषांक बड़े उपयोगी होते हैं। इनमें महान् व्यक्तियों की जीवनगाथा, धार्मिक, सामाजिक आदि उत्सवों का बड़े विस्तार से परिचय रहता है। देश-विदेश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक भवनों के चित्र पाठक के आकर्षण का केन्द्र हैं।
समाचार-पत्र अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी कुछ कारणों से हानिकारक भी हैं। इस हानि का कारण इनका दुरुपयोग है। प्राय: बहुत से समाचार पत्र किसी न किसी धार्मिक अथवा राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अखबार का आश्रय लेकर एक दल दूसरे दल पर कीचड़ उछालता है। अनेक सम्पादक सत्ताधीशों की चापलूसी करके सत्य को छिपा रहे हैं। कुछ समाचार पत्र व्यावसायिक दृष्टि को प्राथमिकता देते हुए इनमें कामुकता एवं विलासिता को बढ़ाने वाले नग्न चित्र प्रकाशित करते हैं। कभी-कभी अश्लील कहानियां एवं कविताएं भी देखने को मिल जाती हैं। साम्प्रदायिक समाचार पत्र पाठक के दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाते हैं तथा राष्ट्र में अनावश्यक एवं ग़लत उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। पक्षपात पूर्ण ढंग से और बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित किए गए समाचार पत्र जनता में भ्रांति उत्पन्न करते हैं। झूठे विज्ञापनों से लोग गुमराह होते हैं। इस प्रकार इस प्रभावशाली साधन का दुरुपयोग कभी-कभी देश के लिए अभिशाप बन जाता है।
सच्चा समाचार पत्र वह है जो निष्पक्ष होकर राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाए। वह जनता के हित को सामने रखे और लोगों को वास्तविकता का ज्ञान कराए। वह दूध का दूध और पानी का पानी कर दे। वह सच्चे न्यायाधीश के समान हो। उसमें हंस का-सा विवेक हो जो दूध को एक तरफ तथा पानी को दूसरी तरफ कर दे । वह दुराचारियों एवं देश के छिपे शत्रुओं की पोल खोले। एक ज़माना था जब सम्पादकों को जेलों में डालकर अनेक प्रकार की यातनाएं दी जाती थीं। उनके समाचार पत्र अंग्रेज़ सरकार बन्द कर देती थी, प्रेसों को ताले लगा दिए जाते थे लेकिन सम्पादक सत्य के पथ से नहीं हटते थे। दुःख की बात है कि आज पैसे के लोभ में अपने ही देश का शोषण किया जा रहा है।
यदि समाचार पत्र अपने कर्त्तव्य का परिचय दें तो निश्चय ही ये वरदान हैं। इसमें सेवा-भाव है । इनका मूल्य कम हो ताकि सर्वसाधारण भी इन्हें खरीद सके। ये देश के चरित्र को ऊपर उठाने वाले हों, न्याय का पक्ष लेने वाले तथा अत्याचार का विरोध करने वाले हों। ये राष्ट्र भाषा के विकास में सहायक हों। भाषा को परिष्कृत करें, नवीन साहित्य को प्रकाश में लाने वाले हों, नर्वोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने वाले हों, समाज तथा राष्ट्र को जगाने वाले हों तथा उनमें देश की संसद् तथा राज्य सभाओं की आवाज़ हो तो निश्चय हो यह देश की काया पलट करने में समर्थ हो सकते हैं ।
18. जीवन में ध्येय की आवश्यकता
अथवा
मेरे जीवन का उद्देश्य
अथवा
मेरी महत्त्वाकांक्षा
अथवा
आदर्श अध्यापक
मनुष्य संसार का एक सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ईश्वर ने उसे चिन्तन एवं मनन की अद्भुत शक्ति प्रदान की है। वह जिस संसार में रहता है उसके आधार पर वह एक और संसार बसा लेता है। वह संसार है उसके सपनों का संसार। मनुष्य के साथ कुछ आदर्श होते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाएं होती हैं जिनको वह अपने जीवन में सफल देखने के लिए उतावला बन जाता है। हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपना-अपना लक्ष्य निर्धारित करता है। कोई डॉक्टर बनने की इच्छा से प्रेरित है तो कोई इंजीनियर बनने के सपने को साकार करना चाहता है। कोई उद्योगपति बनकर लाखों की सम्पत्ति में खेलना चाहता है तो कोई देश का नेता बन कर देशोद्धार करना चाहता है। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई कवि और लेखक बनकर देश के जन-जीवन को चित्रित करना चाहता है। कुछ ऐसे भी हैं जो राष्ट्र एवं समाज सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। वे इस नश्वर शरीर को देश सेवा में अर्पित कर अपना जीवन सार्थक बनाना चाहते हैं। भाव यह है कि संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो कुछ न कुछ बनना चाहता हो। ध्येय अथवा लक्ष्य के बिना जीवन निरर्थक है। ध्येयहीन जीवन ऐसा ही है जैसे कोई नाविक समुद्र में बिना पतवार और डांडों के नाव को भाग्य के भरोसे छोड़े दे। उसका परिणाम भयंकर ही होगा। जीवन में लक्ष्य का चुनाव अपनी इच्छाओं एवं अपने साधनों के अनुरूप करना चाहिए। ध्येय चुनते समय स्वार्थ और परमार्थ में समन्वय रखना चाहिए। अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति को भी सामने रखना चाहिए। दूसरों का अन्धानुकरण करना उपयुक्त नहीं। मेरे जीवन का भी एक लक्ष्य है। मैं एक आदर्श शिक्षक बनना चाहता हूं। भले ही लोग इसको एक सामान्य मैं भगवान् से नित्य लक्ष्य कहें, पर मेरे लिए यह एक महान् लक्ष्य है जिसकी पूर्ति के लिए हूं। अध्यापक बनकर भावी भारत का भार उठाने वाले नागरिक तैयार करना मेरी महत्त्वाकांक्षा है।
आज जब मैं ऐसे अनेक शिक्षकों को देखता हूं जो शिक्षा का सच्चा मूल्य नहीं समझते तो मेरा मन खिन्नता से भर जाता है। आज इस पवित्र पेशे को निरादर की दृष्टि से देखा जाता है। इसका कारण स्वयं अध्यापक है। वह धन कमाना ही अपने जीवन का उद्देश्य मान बैठा है। वह यह भूल गया है कि अध्यापन कार्य बड़ा पवित्र और महान् कार्य है। अध्यापक ही राष्ट्र की भावी सन्तान के जीवन को बनाते, सुधारते और संवारते हैं। ये दुनिया से अज्ञान का अन्धेरा दूर करके उसमें ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। विद्यार्थियों को नाना प्रकार की विद्याएं सिखाकर उन्हें विद्वान् और योग्य बनाते हैं। ये निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करते हैं। थोड़-थोड़ें धन लाभ में ही सन्तुष्ट रहकर आने वाली पीढ़ी को तैयार करते हैं उन्हें अपने में उत्तम गुणों का विकास करना पड़ता है। उनके सामने राष्ट्र सेवा का आदर्श रहता है। कहा भी है ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे और मैं ऐसा ही मनुष्य बनने का अभिलाषी हूं। आदर्श शिक्षक मानव जाति का नम्र सेवक होता है। छात्रों में छिपी शक्ति को जगाना और उन्हें राष्ट्र सेवा के लिए तैयार करना कोई सामान्य बात नहीं है। मैं अध्यापक बनकर इन्हें स्वावलम्बन, सेवा, सादगी, स्वाभिमान, अनुशासन और स्वच्छता का पाठ पढ़ाऊंगा। आज के विद्यार्थी ही राष्ट्र के भावी नागरिक, नेता और उद्धारक हैं। उन्हें कर्मयोगी बनाकर ही देश के भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है।
भारत की नींव को मज़बूत बनाना एक असामान्य कार्य है। मैं शिक्षक बनकर छात्रों में विद्या प्राप्ति की सच्ची लगन पैदा करूंगा। आज का छात्र शिक्षा को भार समझता है। मैं उनकी इस भावना को दूर करूंगा। जो अध्यापक छात्र में शिक्षा के प्रति रुचि नहीं जगा सकता उसे शिक्षक नहीं माना जा सकता। छात्रों में अनुशासनहीनता का कारण शिक्षा के प्रति अरुचि है। छात्र जब शिक्षा में लीन हो जाते हैं तो उनकी बुराइयां अपने-आप दूर हो जाती हैं। शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। मैं अपने विषय को बड़ी लगन से पढ़ाऊंगा । विज्ञान पढ़ाकर छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करूंगा । इतिहास पढ़ाकर छात्रों में अपने पूर्वजों के प्रति आस्था एवं श्रद्धा उत्पन्न करूंगा। बुद्ध, अशोक, हर्ष, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोबिन्द सिंह जी की चारित्रिक निर्मलता, दृढ़ता एवं वीरता को अपनाने की प्रेरणा दूंगा। मैं अपनी श्रेणी में अध्ययन का ऐसा वातावरण बनाऊंगा कि प्रत्येक छात्र उनमें रम जाएगा। वह अध्ययन के वास्तविक आनन्द को प्राप्त कर सकेगा।
मैं अपनी कक्षा को परिवार के समान समूझंगा। अनुशासन का पूरा ध्यान रखूंगा। कमजोर छात्रों को ऊपर उठाने के लिए मैं विशेष प्रयत्न करूंगा। मैं मनोविज्ञान के आधार पर यह जानने का प्रयत्न करूंगा कि छात्रों के कमज़ोर होने के कारण क्या हैं? कारण को जानने के बाद उनका समाधान ढूंढूंगा। होनहार छात्रों को भी मैं प्रोत्साहित करूंगा ताकि वे अपने जीवन में कोई चमत्कार प्रस्तुत कर सकें। छात्रों के समुचित विकास के लिए उन्हें पाठ्यक्रम के अतिरिक्त भी पुस्तकों के अध्ययन की प्रेरणा दूंगा। मैं उन्हें देश के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थानों पर भी ले जाऊंगा, ताकि उनमें भारतीयता के भाव उत्पन्न हों और वे सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकें। अभिनय, वाद-विवाद, चित्र तथा निबन्ध प्रतियोगिता द्वारा उनमें स्पर्धा के भाव जगाऊंगा। शिक्षा के साथ क्रीड़ा का भी उचित समन्वय स्थापित करूंगा। मैं सादगी एवं विचारों की उच्चता की ओर विशेष ध्यान दूंगा। अपनी सादगी, सरलता, नम्रता एवं सहृदयता से उन्हें प्रभावित करूंगा।
आदर्श अध्यापक ही आदर्श छात्र उत्पन्न कर सकता है। विवेकानन्द बनाने के लिए रामकृष्ण परमहंस के समान बनने की ज़रूरत होगी। शिवाजी जैसे योद्धा उत्पन्न करने के लिए रामदास जैसी दृढ़ता अपनानी होगी। भाव यह है कि चरित्रवान् अध्यापक ही छात्रों में चरित्र बल का विकास कर सकता है। यदि मेरी इच्छा पूरी हो गई तो मैं अपने जीवन को सार्थक समक्षूंगा। देश के प्रगति-यज्ञ में भाग लेना मेरे लिए गौरव की बात होगी।
19. ग्राम निवास अथवा नगर निवास
अथवा
ग्राम जीवन
अंग्रेजी में एक कहावत प्रचलित है “God made the country and man made the town”. अर्थात् गांव को ईश्वर ने बनाया है और नगर को मनुष्य ने बनाया है। ग्राम का अर्थ समूह है-उसमें कुछ एक घरों और नर-नारियों का समूह रहता है। नगर का सम्बन्ध नागरिकता से है जिसका अर्थ है कौशल से रचाया हुआ। ग्राम कृषि और नगर व्यापार के कार्य क्षेत्र हैं। एक में जीवन सरल एवं सात्विक है तो दूसरे में तड़क-भड़कमय और कृत्रिम। गांव प्रकृति की शांत गोद है पर उसमें अभावों का बोलबाला है। शहर में व्यस्तता है, रोगों का भण्डार है, कोलाहल है, किन्तु लक्ष्मी का साम्राज्य होने के कारण आमोद-प्रमोद के राग-रंग की ज्योति जगमगाती रहती है।
ग्रामीण व्यक्तियों का स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसका कारण यह है कि उन्हें स्वस्थ वातावरण में रहना पड़ता है। खुले मैदान में सारा दिवस व्यतीत करना पड़ता है। अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता है। स्वास्थ्यप्रद कुओं का पानी पीने को मिलता है। प्राकृतिक सौन्दर्य का पूर्ण आनन्द ग्राम के लोग ही ले सकते हैं। अधिकतर नगरों में देखा जाता है कि लोग प्रकृति के सौन्दर्य को देखने के लिए तरसते रहते हैं। ग्रामों की जनसंख्या थोड़ी होती है। वे एक-दूसरे से खूब परिचित होते हैं। एक-दूसरे के सुख-दुःख में सम्मिलित होते हैं। इनका जीवन सीधा-सादा तथा सात्विक होता है। नगरों में रहने वालों की भांति वे बाह्य आडम्बरों में नहीं फंसते ।
ग्रामवासियों को कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है। ग्रामों में स्वच्छता की अत्यन्त कमी होती है। घरों में गंदा पानी निकालने का उचित प्रबन्ध नहीं होता। अशिक्षा के कारण ग्रामवासी अपनी समस्याओं का समाधान भी पूरी तरह नहीं कर पाते। अधिकतर लोग वहां निर्धनता में जकड़े रहते हैं जिसके कारण वे जीवन निर्वाह भी पूरी तरह से नहीं कर पाते। जीवन की आवश्यकताएं अधूरी ही रहती हैं। पुस्तकालय तथा वाचनालय का कोई प्रबन्ध नहीं होता। बाहरी वातावरण से वे पूर्णतया अपरिचित होते हैं। छोटी-छोटी बीमारी के लिए उन्हें शहर भागना पड़ता है। शहर की तरफ प्रत्येक वस्तु नहीं मिलती, प्रत्येक आवश्यकता के लिए शहर जाना पड़ता है।
नगर शिक्षा के केन्द्र होते हैं। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक नगर में हम प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा से नगर निवासियों में विचार-शक्ति की वृद्धि होती है। जीविकोपार्जन के अनेक साधन होते हैं। प्रत्येक वस्तु हर समय मिल सकती है। यात्रियों के लिए भोजन, निवास स्थान, विश्रामगृह तथा दवाखानों का तो पूछना ही क्या है। गली में डॉक्टर और श्रा बैठे रहते हैं। डाकखाना, पुलिस स्टेशन आदि का प्रबन्ध प्रत्येक शहर में होता है। वकील बैरिस्टर और अदालते शहरों में होती हैं। इस प्रकार नगर का जीवन बड़ा सुखमय है, परन्तु इस जीवन में भी अनेक कठिनाइयां होती हैं।
नगरवासियों को प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुभव तो होता ही नहीं। नगरों में सभी व्यक्ति इतने व्यस्त रहते हैं कि एक-दूसरे से सहानुभूति प्रकट करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता। अक्सर देखा जाता है कि कई वर्षों तक बगल के कमरे में रहने वाले को हम पहचान ही नहीं पाते, उनसे परिचय की बात तो दूर रही।
किसी भी देश की उन्नति के लिए यह परम आवश्यक है कि उसके नगरों और ग्रामों का सन्तुलित विकास हो। यह तभी सम्भव हो सकता है जब नगरों और ग्रामों की कमियों को दूर किया जाए। नगरों की विशेषताएं ग्राम वालों को उपलब्ध हों और ग्रामों में प्राप्त शुद्ध खाद्य सामग्री नगर वालों तक पहुंचाई जा सके। ग्रामों में शिक्षा का प्रसार हो। लड़ाईझगड़ों और कुरीतियों का निराकरण हो।
ग्राम जीवन तथा नगर जीवन दोनों दोषों एवं गुणों से परिपूर्ण हैं। इनके दोषों को सुधारने की आवश्यकता है। गांवों में शिक्षा का प्रसार होना चाहिए। सरकार की ओर से इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। नगर निवासियों का यह कर्त्तव्य है कि वे ग्रामों के उत्थान में अपना योगदान दें। ग्राम भारत की आत्मा हैं। शहरों की सुख-सुविधा ग्रामों की उन्नति पर ही निर्भर करती है। दोनों में उचित समन्वय की आवश्यकता है।
चुनना तुम्हें नगर का जीवन, या चुनना है ग्राम निवास,
करना होगा श्रेष्ठ समन्वय, होगा तब सम्पूर्ण विकास।
20. टेलीविज़न (दूरदर्शन)
वर्तमान में घर-घर में दिखाई देने वाला टेलीविज़न महत्त्वपूर्ण आधुनिक आविष्कार है। यह मनोरंजन का साधन भी है और शिक्षा ग्रहण करने का सशक्त उपकरण ही। मनुष्य के मन में दूर की चीजों को देखने की प्रबल इच्छा रहती है चित्र कला, फोटोग्राफी और छपाई के विकास से दूरस्थ वस्तुओं, स्थानों, व्यक्तियों के चित्र सुलभ होने लगे। परन्तु इनके दर्शनीय स्थान की आंशिक जानकारी ही मिल सकती है। टेलीविज़न के आविष्कार ने अब यह सम्भव बना दिया है। दूर की घटनाएं हमारी आँखों के सामने उपस्थित हो जाती हैं।
टेलीविजन का सिद्धान्त रेडियो के सिद्धान्त से बहुत अंशों में मिलता है। रेडियो प्रसारण में वक्ता या गायक स्टूडियो में अपनी वार्ता या गायन प्रस्तुत करता है। उसकी आवाज़ से हवा में तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें उसके सामने रखा हुआ माइक्रोफोन बिजली की तरंगों में बदल देता है। इन बिजली की तरंगों को भूमिगत तारों के द्वारा शक्तिशाली ट्रांसमीटर तक पहुंचाया जाता है जो उन्हें रेडियो तरंगों में बदल देता है। इन तरंगों को टेलीविज़न एरियल पकड़ लेता है। टेलीविजन के पुर्जे इन्हें बिजली तरंगों में बदल देते हैं। फिर उसमें लगे लाउडस्पीकर से ध्वनि आने लगती है जिसे हम सुन सकते हैं। टेलीविज़न कैमरे में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले चित्र आने लगते हैं।
टेलीविजन के पर्दे पर हम वे ही दृश्य देख सकते हैं जिन्हें किसी स्थान पर टेलीविज़न कैमरे द्वारा चित्रित किया जा रहा हो और उनके चित्रों को रेडियो तरंगों के द्वारा दूर स्थानों पर भेजा रहा हो। इसके लिए टेलीविज़न के विशेष स्टूडियो बनाए जाते हैं, जहां वक्ता, गायक, नर्तक आदि अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। टेलीविजन के कैमरामैन उनके चित्र विभिन्न कोणों से प्रतिक्षण उतारते रहते हैं। स्टूडियो में जिसका चित्र जिस कोण से लिया जाएगा टेलीविजन सैट के पर्दे पर उसका चित्र वैसा ही दिखाई पड़ेगा। प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। जहां फूल हैं वहां कांटे भी अपना स्थान बना लेते हैं। टेलीविज़न भी इसका अपवाद नहीं है। छात्र तो टेलीविज़न पर लट्टू दिखाई देता है। कोई भी और कैसा भी कार्यक्रम क्यों न हो, वे अवश्य देखेंगे। दीर्घ समय तक टेलीविज़न के आगे बैठे रहने के कारण उनके अध्ययन में बाधा पड़ती है। उनका शेष समय कार्यक्रमों की विवेचना करने में निकल जाता है। रात को देर तक जागते रहने के कारण प्रातः देर से उठना, विद्यालय में विलम्ब से पहुंचना, सहपाठियों से कार्यक्रमों की चर्चा करना, श्रेणी में ऊंघते रहना आदि उनके जीवन के सामान्य दोष बन गए हैं। टेलीविज़न महंगा भी है। यह अभी तक धनियों के घरों की ही शोभा है। अधिकांश लोग मनोरंजन के इस सर्वश्रेष्ठ साधन से वंचित हैं। यदि टेलीविज़न पर मनोरंजनात्मक कार्यक्रमों के साथ-साथ शिक्षात्मक कार्यक्रम भी दिखाए जाएं तो यह विशेष उपयोगी बन सकता है। पाठ्यक्रम को चित्रों द्वारा समझाया जा सकता है। आशा है, भविष्य में कुछ सुधार अवश्य हो सकेंगे।
टेलीविज़न की खोज स्कॉटलैण्ड के इंजीनियर बेयर्ड ने सन् 1925 ई० में की थी। भारत में टेलीविज़न कार्यक्रम का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने 15 दिसम्बर, सन् 1959 ई० को किया था। आज देश के कोने-कोने में दूरदर्शन केन्द्र स्थापित हैं तथा घर-घर में टेलीविज़न पर कार्यक्रम देखे जा रहे हैं। केबल के द्वारा टेलीविज़न पर अनेक चैनलों के कार्यक्रम देखे जा सकते हैं।
टेलीविज़न के अनेक उपयोग हैं- लगभग उतने ही जितने हमारी आँखों के नाटक, संगीत सभा, खेलकूद आदि के दृश्य टेलीविज़न के पर्दे पर देखकर हम अपना मनोरंजन कर सकते हैं। राजनीतिक नेता टेलीविज़न के द्वारा अपना सन्देश अधिक प्रभावशाली ढंग से जनता तक पहुंचा सकते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी टेलीविजन का प्रयोग सफलता से किया जा रहा है कुछ देशों में टेलीविज़न के द्वारा किसानों को खेती की नई-नई विधियां दिखाई जाती हैं।
समुद्र के अन्दर खोज करने के लिए टेलीविजन का प्रयोग होता है। यदि किसी डूबे हुए जहाज़ की स्थिति का सही-सही पता लगाना हो तो जंजीर के सहारे टेलीविजन कैमरे को समुद्र के जल के अन्दर उतारते हैं। उसके द्वारा भेजे गये चित्रों से समुद्र तक की जानकारी ऊपर के लोगों को मिल जाती है। टेलीविजन का सबसे आश्चर्यजनक चमत्कार तब सामने आया जब रूस के उपग्रह में रखे गए टेलीविजन कैमरे ने चन्द्रमा की सतह के चित्र ढाई लाख मील दूर से पृथ्वी पर भेजे। इन चित्रों से मनुष्य को पहली बार चन्द्रमा के दूसरी ओर उस तल की जानकारी मिली जो हमें कभी दिखाई नहीं देती। जब रूस और अमेरिका चन्द्रमा पर मनुष्य को भेजने की तैयारी कर रहे थे तो इसके लिए चन्द्रमा की सतह के सम्बन्ध में सभी उपयोगी जानकारी टेलीविजन कैमरों द्वारा पहले ही प्राप्त कर ली गई थी ।
निश्चय ही टेलीविजन आज के युग का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मनोरंजन का साधन है। इसका उपयोग देश की प्रगति के लिए किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में भारत की सरकार ने बहुत ही प्रशंसनीय पग उठाए। इन्हीं के कारण भारत के प्रत्येक क्षेत्र में टेलीविजन कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाने लगे हैं। अंतरिक्ष में सेटेलाइट छोड़ने के बाद तो अब सैंकड़ों चैनल दिन-रात सभी का मनोरंजन करते हैं।
21. विजयदशमी
अथवा
दशहरा
जग में सदा जीत होती है, पुण्य, सत्य की और धर्म की।
यही अमर संदेश दशहरा देता, समझो बात मर्म की ॥
हमारे त्योहारों का किसी न किसी ऋतु के साथ सम्बन्ध रहता है। दशहरा शरद् ऋतु के प्रधान त्योहारों में से एक है। यह आश्विन मास की शुक्ला दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन श्रीराम ने लंकापति रावण पर विजय पाई थी, इसलिए इसको विजयदशमी कहते हैं। यह एक जातीय त्योहार है। इसको हिन्दू ही नहीं अन्य सम्प्रदाय वाले भी मानते हैं। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से क्षत्रियों से है।
भगवान् राम के वनवास के दिनों में रावण छल से सीता को हरकर ले गया था। राम हनुमान और सुग्रीव आदि मित्रों की सहायता से लंका पर आक्रमण किया। एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें भगवान् राम और उनके अनुयायियों ने लंका की ईंट से ईंट बजा दी। कुम्भकर्ण, मेघनाद तथा रावण को मार कर लंका पर विजय पाई। तभी से यह दिन मनाया जाता है।
वस्तुतः विजयदशमी का त्योहार पाप पर पुण्य की, अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। भगवान् राम ने अत्याचारी और दुराचारी रावण का विध्वंस कर भारतीय संस्कृति और उसकी महान् परम्पराओं की पुनः प्रतिष्ठा की थी । ऐसे त्योहार हमारे वीरत्व को जगाते हैं। शत्रुओं के दांत खट्टे करने तथा सीमाओं की रक्षा करने की प्रेरणा देते हैं।
इसके अतिरिक्त इस दिन का और भी महत्त्व है। वर्षा ऋतु के कारण क्षत्रिय राजा तथा व्यापारी अपनी यात्रा स्थगित कर देते थे। क्षत्रिय अपने शस्त्रों को बन्द करके रख देते थे और शरद् ऋतु के आने पर निकालते थे। शस्त्रों की पूजा करते थे और उन्हें तेज़ करते थे। व्यापारी माल खरीदने और फिर वर्षा ऋतु के अन्त में बेचने को चल पड़ते हैं। उपदेशक तथा साधु-महात्मा धर्म प्रचार के लिए अपनी यात्रा को निकल पड़ते हैं।
दशहरा रामलीला का अन्तिम दिन होता है। भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग प्रकार से यह दिन मनाया जाता है। बड़े-बड़े नगरों में रामायण के पात्रों की झांकियां निकाली जाती हैं। रामायण का सस्वर पाठ किया जाता है। दशहरे के दिन रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद के कागज़ के पुतले बनाये जाते हैं। सायंकाल के समय राम और रावण के दलों में कृत्रिम लड़ाई होती है। राम रावण को मार देते हैं। रावण आदि के पुतले जलाए जाते हैं। पटाखे आदि छोड़े जाते हैं। लोग मिठाइयां तथा खिलौने लेकर घरों को लौटते हैं।
दशहरा मनाने से हमें उस दिन की याद आती है जब राम ने विदेशों में अपनी संस्कृति का प्रचार किया था और लंका में आर्य साम्राज्य की नींव रखी थी । रामचन्द्र जी के समान पितृभक्त, लक्ष्मण के समान भ्रातृभक्त, सीता के समान पतिव्रता और धैर्यवान् तथा हनुमान के समान स्वामिभक्त बनने की प्रेरणा मिलती है।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है देश में नई जागृति और नई चेतना पैदा करने की ऐसा अब त्योहारों से नई स्फूर्ति प्राप्त करके ही कर सकते हैं। विजयदशमी हमें प्रेरणा देती है कि अत्याचारों के समक्ष कभी नत-मस्तक न हों। भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक बुराइयों को कभी आश्रय न दें। कुप्रवृत्तियों के रावण को ध्वस्त करने का दृढ़ निश्चिय रखें।
इस दिन कुछ असभ्य लोग शराब पीते हैं और लड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यदि ठीक ढंग से त्योहार को मनाया जाए तो आशातीत लाभ हो सकता है। स्थान स्थान पर व्याख्यानों का प्रबन्ध होना चाहिए, जहां विद्वान् लोग अपने उपदेशों द्वारा जनता का पथ प्रदर्शन करें। राम के जीवन पर प्रकार डालें। उस समय का इतिहास याद रखें। इस प्रकार दशहरा हमें उन गुणों को धारण करने का उपदेश देता है जो राम में विद्यमान थे।
22. दीपावली
अथवा
मेरा प्रिय पर्व
पावन पर्व दीपमाला का,
आओ साथी दीप जलाएं,
सब आलोक मन्त्र उच्चारें,
घर-घर ज्योति ध्वज फहरायें।
भारत देश त्योहारों का देश है। ये त्योहार जीवन और जाति में प्राणों का संचार करते हैं। ये हमारे लिए सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति लेकर आते हैं। ये हमारी सांस्कृतिक परम्परा, धार्मिक भावना, राष्ट्रीयता, सामाजिकता तथा एकता की कड़ी के समान हैं। प्रत्येक त्योहार की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। त्योहार हमारे नीरस जीवन को आनन्द और उमंग से भर देते हैं। भारत के पर्व किसी-न-किसी सांस्कृतिक अथवा सामाजिक परम्परा के प्रत्येक रूप में स्मरण किए जाते हैं। ये हमारी अस्तिकता और आस्था के भी प्रतीक हैं। दीपावली भी भारत का एक सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पर्व है। यह पर्व अन्य पर्वों में प्रमुख है। जगमगाते दीपों का यह त्योहार सबके आकर्षण का केन्द्र बनकर आता है। इस पर्व के आने से पूर्व लोग घरों, मकानों और दुकानों की सफ़ाई करते हैं। प्रत्येक वस्तु में नई शोभा आ जाती है। सब पर्वों का सम्राट् यह पर्व सर्वत्र आनन्द और हर्ष की लहर बहा देता है ।
दीपावली के इस मधुर पर्व के साथ अनेक प्रकार की कहानियां जुड़ी हैं। इन कथाओं में सबसे प्रमुख कहानी भगवान् राम की है। इस दिन श्री रामचन्द्र जी अत्याचारी और अनाचारी रावण का वध कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासी अपने मनचाहे प्रिय तथा श्रेष्ठ शासक राम को पाकर गद्गद् हो गए। उन्होंने उनके आगमन की खुशी में दीप जलाए। ये दीप उनकी प्रसन्नता के परिचायक थे। तब से इस पर्व को मनाने की परम्परा चल पड़ी। कुछ कृष्ण भक्त इस पर्व का सम्बन्ध भगवान् कृष्ण से जोड़ते हैं। उनके अनुसार इसी दिन श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध कर उसके चंगुल से सोलह हज़ार रमणियों को मुक्त करवाया
था। इस अत्याचारी शासक का संहार देख कर लोगों का मन मोर नाच उठा और उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए दीप जलाए।
एक पौराणिक कथा के अनुसार इसी दिन समुद्र का मंथन हुआ था। समुद्र से लक्ष्मी के प्रकट होने पर भी देवताओं ने उनकी अर्चना की। कुछ भक्तों का कथन है कि धनतेरस के दिन भगवान् विष्णु ने नृसिंह के रूप से प्रकट होकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। सिक्ख धर्म को मानने वाले कहते हैं कि इसी दिन छठे गुरु हरगोबिन्द जी ने जेल से मुक्ति पाई थी। महर्षि दयानन्द ने भी इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था ।
दीपावली से सम्बन्धित सभी कहानियां दीपावली नामक पर्व का महत्त्व बताती हैं। वास्तव में इस महान् पर्व के साथ जितनी भी कहानियां जोड़ी जाएं कम हैं। यह पर्व जनजन का पर्व है। सभी धर्मों और सभी जातियों के लोग इसे समान रूप से आदर की दृष्टि से देखते हैं।
दीपावली स्वच्छता का भी प्रतीक है। छोटे बड़े, धनी – निर्धन सब इस पर्व को पूर्ण उत्साह से मनाते हैं। इस दिन की साज-सज्जा तथा शोभा का वर्णन करना सहज नहीं। बाज़ारों में रंग-बिरंगे खिलौनों की दुकानें सज जाती हैं। इस दिन बालकों का उत्साह अपने चरम पर दिखाई देती है। वे पटाखे चलाकर अपनी प्रसन्नता का परिचय देते हैं । मिठाई की दुकानों की सजावट दर्शनीय होती है। दीपावली की रात्रि का दृश्य अनुपम होता है। रंगबिरंगे बल्बों की पंक्तियाँ सितारों होड़ लगाती दिखाई देती हैं। आतिशबाजी के कारण वातावरण में गूंज भर जाती है। दीपावली अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण पर्व है। व्यापारी लोग इस दिन को बड़ा शुभ मानते हैं। वे इस दिन अपनी बहियां बदलते हैं तथा नया व्यापार शुरू करते हैं। यह पर्व एकत्व का भी है। सभी धर्मों के लोग इस पर्व को समान निष्ठा के साथ मनाते हैं। अत: यह पर्व राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता का भी साधन है। दीपावली के अवसर पर जो सफाई की जाती है, वह स्वास्थ्य के लिए भी बड़ी लाभकारी होती है क्योंकि इसके पूर्व वर्षा ऋतु के कारण घरों में दुर्गन्ध आती है। वह दुर्गन्ध इन दिनों सुगन्धि के रूप में बदल जाती है। दीपावली मनुष्य की वैमनस्य भावना को समाप्त कर एकता अपनाने की प्रेरणा देती है। मनुष्य कर्त्तव्य-पालन में जनता का अनुभव करता है।
दुःख की बात है कि दीपावली जैसे महत्त्वपूर्ण पर्व पर भी कुछ लोग जुआ खेलते तथा शराब पीते हैं। जो व्यक्ति जुए में हार जाता है, उसके लिए यह पर्व अभिशाप के समान है। ऐसे लोग दीपावली की उज्ज्वलता पर कालिमा पोत कर नास्तिकता, कृतघ्नता तथा अराष्ट्रीयता का परिचय देते हैं ।
दीपावली भारत का एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पर्व है। इसके महत्त्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि हम अपने दोषों का परित्याग करें। जुआ खेलने और शराब पीने वालों का विरोध करें। तभी हम ऐसे पर्वों के प्रति श्रद्धा और आस्तिकता का परिचय दे सकते हैं। पर्व देश और जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं। इनके महत्त्व को समझना तथा इनके आदर्शों का पालन करना चाहिए। प्रत्येक भारतवासी का यह परम कर्त्तव्य है कि वे इस महान् उपयोगी एवं सांस्कृतिक पर्व को सामाजिक कुरीतियों से बचाएं।
23. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से चाहे कितना ही बलशाली क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से दुर्बल है तो वह जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य को सदैव यहीं विचार करना चाहिए कि मैं परमात्मा की रचना हूं। मैं अपने अन्दर कोई न्यूनता नहीं आने दूंगा। मन से हार नहीं मानूंगा। बड़े-से-बड़े संकटों से भी टकरा जाऊंगा। मन से हार मान लेना मरण है और मन से विजयी रहने की भावना ही जीवन है।
शास्त्रकारों ने मन को इन्द्रियों का राजा माना है। मन एक महासागर के समान है जिस का कोई ओर-छोर नहीं। इसकी थाह पाना अति कठिन है। मन के किसी एक सर्वमान्य रूप का निश्चय नहीं हो सकता । गीता के मन को चंचल गति बताया गया है। न जाने मन कहां-कहां भटकता रहता है। यह किसी से अपना सम्बन्ध जोड़ता है और किसी से सम्बन्ध विच्छेद करता है।
मन को वश में करना बड़ा ही कठिन है। कोई विरला ही व्यक्ति इस पर नियन्त्रण पा सकता है। वास्तव में मन ही मानव है। मन के अनेक रूप-रंग हैं। सृष्टि की रचना मन का ही खेल है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा मन के ही परिवर्तन हैं। मन मनुष्य को दुनिया में अनेक नाच नचाता है। मनुष्य की हार-जीत सच्चे अर्थों में मन के अन्दर ही निहित होती है। मन से हीरे व्यक्ति की जीत सर्वथा असम्भव है।
साहस या उत्साह मन का सच्चा मित्र कहा जा सकता है। चाहे युद्ध का मैदान हो या खेल का मैदान, यदि मन हार गया तो समझो तन भी हार गया । कोई काम कैसा भी और कितना भी कठिन क्यों न हो यदि मन में उत्साह रहा तो वह निश्चय ही पूर्ण होगा। यदि कहीं मन पहले ही हार बैठा तो साधारण सा काम भी पहाड़ बन जाएगा। कई बार मन के हार जाने पर योग्य छात्र भी परीक्षा में विफल हो जाते हैं। उत्साह का आंचल पकड़ कर साधारण छात्र अधिक अंक प्राप्त करते देखे गए हैं।
महात्मा गांधी जी ने मन के बल पर आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों से टक्कर ली थी। अंग्रेज़ की विशाल शक्ति को गांधी जी ने नीचे झुका दिया । अंग्रेज़ अपना मन हार बैठे और दूसरी ओर गांधी जी मन नहीं हारे । इतिहास इस बात का साक्षी है कि अतुल बलशाली अंग्रेज़ भी महात्मा गांधी जी के शान्तिपूर्ण आन्दोलन के सामने टिक नहीं सके। विकट परिस्थितियों में भी गान्धी जी ने भारत को स्वतन्त्रता दिलाई। उन्होंने भारतीयों के दिलों में एक नया जोश भर दिया जिसमें हारने की भावना नहीं थी।
जीवन का यह एक मूल सत्य है कि मन की हार सबसे बड़ी हार है। जीवन के निरन्तर संघर्ष से थके-हारे व्यक्ति का मन थका-हारा होता है। व्यक्ति की सारी हलचल, भाग दौड़ और परेशानियां मन की ही तो हैं। व्यक्ति जब भी गिरता है तो मन से ही गिरता है । वह हारता है तो मन से ही हारता है। गुरु नानक देव जी ने इसी कारण कहा है-मन जीते, जग जीते।
मन से कभी हार न मानना ही महानता की सबसे बडी कसौटी है। भारत के जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी सबसे बड़ी शिक्षा यही थी कि कभी मन में दुर्बलता न आने दो। संकटों की परवाह न करते हुए जीवन के लक्ष्य पाने के लिए संघर्षशील बनो। भगवान् श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को यही उपदेश दिया था कि मन की दुर्बलता को छोड़कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ । यदि अर्जुन मन हार बैठता तो महाभारत युद्ध का परिणाम सम्भवतः कुछ और ही होता ।
हमें मन को संयमशील बनाकर ऊंची भावनाओं का स्वामी बनना चाहिए। किसी भी कार्य में हीन भावना का शिकार होकर निरुत्साहित नहीं बनना चहिए । सफलता की प्राप्ति के लिए पूरे मन से प्रयत्नशील बने रहो, निश्चय ही आपकी साधना सफल होगी। मन से कभी हार न मानो, इस स्थिति में जीत आपका स्वागत करेगी। कबीर ने ठीक ही कहा हैमन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।
24. मेरा प्रिय लेखक
अथवा
साहित्यकार
अथवा
उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द
हिन्दी कथा-साहित्य को गौरव प्रदान करने, उसे अन्तर्राष्ट्रीय कथा साहित्य के समकक्ष लाने का श्रेय स्वर्गीय मुन्शी प्रेमचन्द को है। यहि उन्हें भारत का गोर्की कहा जाए तो गलत नहीं होगा। प्रेमचन्द के उपन्यासों में लोक जीवन के व्यापक चित्रण तथा सामाजिक समस्याओं के गहन विश्लेषण को देखकर कहा गया है कि प्रेमचन्द के उपन्यास भारतीय जनजीवन के मुँह बोलते चित्र हैं। इसी कारण मैं इन्हें अपना प्रिय लेखक मानता हूं।
माँ भारती के इस आराधक का जन्म वाराणसी के निकट लमही ग्राम में सन् 1880 ई० में हुआ। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उनका बचपन संकटों में बीता। कठिनाई से बी० ए० किया और शिक्षा विभाग में नौकरी की, किन्तु उनकी स्वतन्त्र विचारधारा आड़े आई। नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखी ‘सोज़े वतन’ पुस्तक अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर ली। इसके पश्चात् उन्होंने प्रेमचन्द के नाम से लिखना शुरू किया।
प्रेमचन्द ने एक दर्जन सशक्त उपन्यास और लगभग तीन सौ कहानियां लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। उनके उपन्यासों में गोदान, कर्म भूमि, गबन तथा सेवासदन आदि प्रसिद्ध हैं। कहानियों में ‘पूस की रात’ तथा ‘कफन’ अत्यन्त मार्मिक हैं तथा विश्व कहानी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती हैं।
प्रेमचन्द को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्यकार कहा जाता है। साहित्य में अश्लीलता और नग्नता के वह हामी नहीं थे। वह मानते थे कि साहित्य समाज का चित्रण करता है किन्तु साथ ही समाज के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है जिसके सहारे लोग अपने चरित्रों को ऊंचा उठा सकें। उनके उपन्यासों के अनेक पात्र जैसे, होरी धनिया, सोफी, सुमन, जालपा, निर्मला आज भी हमारे चारों ओर जीते-जागते पात्र लगते हैं। ग्रामीण जीवन का चित्रण करने में प्रेमचन्द को विशेष सफलता प्राप्त हुई है।
प्रेमचन्द की भाषा सरल तथा मुहावरेदार हिन्दी है। भारत में हिन्दी का प्रचार करने में प्रेमचन्द के उपन्यासों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने ऐसी भाषा अपनाई जिसे जनता बोलती और समझती थी। यही कारण है कि हिन्दी में किसी अन्य लेखक के उपन्यास इतने अधिक नहीं बिके जितने प्रेमचन्द के ।
‘गोदान’ प्रेमचन्द का ही नहीं, हिन्दी का सर्वोत्तम उपन्यास माना जाता है। गोदान में कृषक जीवन का जो मर्मस्पर्शी चित्र अंकित किया गया है, वह आज भी हमारा दिल दहला देता है। सूद – खोर बनिये, जागीरदार, ढोंगी ब्राह्मण, सरकारी कर्मचारी सभी की कलई खोलकर उन्होंने अपने साहित्य को शोषित, निर्धन और दुःखी जनता का प्रवक्ता बना दिया।
यह अत्यन्त खेदजनक तथ्य है कि हिन्दी का यह महान् सेवक जीवन भर आर्थिक संकटों से घिरा रहा। जीवन भर अथक परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और सन् 1936 में हिन्दी के उपन्यास सम्राट् का देहान्त हो गया।
25. भारतीय नारी की महत्ता
अथवा
भारतीय समाज में नारी का स्थान
जिस प्रकार तार के बिना वीणा और सुर के बिना संगीत व्यर्थ है, उसी प्रकार नारी के बिना पुरुष का सामाजिक जीवन भी अपूर्ण है। इस सत्य को भारतीय ऋषियों ने बहुत पहले ही जान लिया था। वैदिक युग में घोषणा की थी कि “जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।” उन्होंने समाज में नारी के महत्त्व को स्वीकार किया था। उस युग में प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक अनुष्ठान में नारी की उपस्थिति आवश्यक थी । पुत्रियों को भी पुत्रों के समान अधिकार प्राप्त थे तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध होता था। मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषियों की गणना ऋषियों के साथ होती थी । प्राचीन भारत में उस नारियों के लिए जीवन का कोई भी क्षेत्र वर्जित नहीं था। वे रणभूमि से लेकर घर-परिवार तक के अपने सभी उत्तरदायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह करती थीं।
मध्यकाल में नारी के सम्मान को विशेष क्षति पहुँची थी तथा उसे पर्दे में रख कर केवल घर की चार दीवारों तक ही सीमित कर दिया गया था। उसके शिक्षा के अधिकार छीन लिए गए थे। वह एक मूक प्राणी बन कर रह गई थी। इस युग में भी दुर्गावती, अहल्याबाई, पद्मिनी जैसी वीर नारियों ने अपनी योग्यता और बलिदान से भारतीय नारी का गौरव बढ़ाया था।
सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सीमित सैनिक शक्ति से अंग्रेज़ों से टक्कर लेने वाली भारत की ‘जोन ऑफ़ आर्क’ झाँसी की महारानी लक्ष्मी बाई के बलिदान को भला कौन भुला सकता है ? अंग्रेज़ी शासन के साथ-साथ देश में अनेक समाज-सुधारक आंदोलन आरंभ हुए। राजा राम मोहन राय तथा स्वामी दयानंद ने नारी जागरण तथा उनकी शिक्षा, उन्नति आदि की ओर विशेष ध्यान दिया था। स्वतंत्रता संग्राम तो मानो नारी मुक्ति का ही संदेश लेकर आया था, जिसमें असंख्य महिलाएँ सत्याग्रह का ध्वज लेकर गाँधी जी के आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। आज के भारतीय समाज में वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर देश के नव निर्माण में पूर्ण सहयोग दे रही है। आर्थिक, सामाजिक, चिकित्सा, शिक्षा, सेना, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में वह अग्रणी है। श्रीमती प्रतिभा पाटिल भारत की राष्ट्रपति तथा श्रीमती इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री रहीं। ग्राम पंचायत से लेकर संसद् तक, विभिन्न समितियों, आयोगों, मंत्रालयों आदि में महिलाएँ महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर अपने उत्तरदायित्वों का कुशलतापूर्वक पालन कर रही हैं। विश्व स्तरीय विभिन्न प्रतियोगिताओं में भारतीय महिलाओं का योगदान सराहनीय रहा है। वह एवरेस्ट विजेता भी है और कल्पना चावला की तरह आकाश की ऊँचाइयों को भी पार कर जाने की क्षमता रखती है।
आज की भारतीय नारी आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी अपने कार्यक्षेत्र एवं पारिवारिक क्षेत्रों में समन्वय बनाए रखने के कारण विश्व – वंदनीय है। आज के इस अशांति पूर्ण युग में हमें उन गुणों के प्रचार और प्रसार की आवश्यकता है, जो भारतीय नारी को परंपरा प्राप्त हैं। वह नम्रता, लज्जा और मर्यादा की त्रिवेणी है । वह सबका कल्याण चाहती है । वह त्याग, शांति और ममता की देवी है । वह ऐसी शक्ति है, जो आसुरी अवगुणों का नाश कर सत्वगुणों का प्रसार करती है। उस की प्ररेणा, शक्ति, संकल्पना नव-निर्माण कर मानव को देवत्व की ओर ले जाती है। आज के भारतीय समाज में नारी को विश्व की समस्त नारियों से अधिक सम्मान दिया जाता है क्योंकि वह सब प्रकार से मंगलकारिणी है।
26. विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
छात्र जीवन तथा अनुशासन
नियमबद्ध और नियन्त्रण में रहकर कार्य करना अनुशासन कहलाता है। अनुशासन मानव जीवन का एक परम आवश्यक और महत्त्वपूर्ण अंग है। मानव जीवन में अनुशासन का होना परम आवश्यक है। समाज का कोई भी अंग जब अनुशासनहीन हो जाता है तो अव्यवस्था फैलती है। विद्यार्थियों में अनुशासन का होना तो परमावश्यक है।
जो विद्यार्थी अनुशासन में नहीं रह सकता वह जीवन का निर्माण नहीं कर सकता। जो व्यक्ति अनुशासन में नहीं रह सकता वह जीवन में असफल हो जाता है, जो समाज अनुशासन में नहीं रहता, वह भी अव्यवस्थित होकर अपनी सत्ता को स्थिर नहीं रख सकता, जिस सेना में अव्यवस्था हो वह सेना भी देश की रक्षा करने में असफल हो जाती है, जिस उद्योग केन्द्र में मजदूर अनुशासनहीन हो जाते हैं, वह भी शीघ्र ही अवनति की ओर उन्मुख होकर समाप्त हो जाता है।
संसार में प्रत्येक प्राकृतिक वस्तु नियमानुसार अनुशासन में रहकर चल रही है। सूर्य प्रभात में उदय होकर सायं अस्ताचल की ओर अग्रसर हो जाता है। रजनी चन्द्रिका से विभूषित हो तारों से अपने शरीर को सजाकर आती है और प्रभात काल में उषाकाल की लाली में डूब जाती है। समुद्र अनुशासन में रहकर ही सीमोल्लंघन नहीं करता, वायु क्षण भर के लिए भी अनुशासनहीन नहीं होती। ऋतु के अनुसार पुष्प प्रफुल्लित होकर संसार की शोभा को बढ़ाते हैं और समयानुसार ही मिट्टी में अपने शरीर को आहुत कर देते हैं।
आज भारत में जीवन के प्रत्येक पहलू में अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर हो रही है। विद्यार्थी की रुचि पढ़ाई की ओर नहीं। कभी एक विश्वविद्यालय में, कभी दूसरे विश्वविद्यालय में, कभी एक परीक्षा केन्द्र में, कभी दूसरे परीक्षा केन्द्र में, कभी एक विद्यालय या महाविद्यालय में, कभी दूसरे विद्यालय तथा महाविद्यालय में हड़ताल, मार-पीट आदि समाचार प्रतिदिन का विषय बने हुए हैं। केवल विद्यार्थी ही नहीं समाज के अन्य अंग भी अनुशासनहीनता के केन्द्र बने हुए हैं। प्रतिदिन कारखानों में हड़ताल, सरकार के नियमों का उल्लंघन आदि के समाचार छपते हैं।
केवल एक पहलू में ही हम अनुशासनहीन नहीं हो रहे अपितु अन्य पहलुओं में भी अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर हो रही है। आज का सरकारी नौकर अपने वेतन से सन्तुष्ट न होकर अपनी आय को बढ़ाने के लिए रिश्वत लेने से भी हिचकिचाता नहीं। आज के कुछ राजनीतिज्ञ जनता के धन का दुरुपयोग अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करने में करते हैं। आज का मनुष्य चारित्रिक पहलू से भी अनुशासनहीन हो रहा है।
विद्यार्थी में अनुशासनहीनता के अनेक कारण हैं—
(i) आजकल विद्यार्थियों में पढ़ाई की ओर रुचि नहीं। आज का विद्यार्थी, साज-शृंगार, सुख-आराम का इच्छुक है। कुछ मनचले विद्यार्थी तथा उच्छृंखल विद्यार्थी न स्वयं पढ़ते हैं और न ही दूसरे विद्यार्थियों को पढ़ने देते हैं। जब कभी उन्हें अनुशासन में रहने के नियमों पर चलने के लिए कहा जाता है तो वे उद्दण्डता और अनुशासनहीनता का सहारा लेते हैं।
(ii) विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता का दूसरा कारण समाज तथा माता-पिता हैं। स्कूल तथा कालेज में विद्यार्थी केवल 4-5 घण्टे रहता है, बाकी सारा समय वह अपने माता-पिता और समाज में रहता है। इसलिए 5 घण्टे का स्कूल या कालिज का अनुशासन अठारह उन्नीस घण्टे के अनुशासनहीन जीवन को सुधार नहीं सकता। प्रतिदिन माता-पिता के अनुशासनहीन जीवन को बच्चा देखता है। समाज में फैल रही अव्यवस्था का विद्यार्थी के मन पर धीरे-धीरे प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन की गाली-गलौच, आज्ञा का उल्लंघन, गन्दे विद्यार्थियों का सहयोग प्राय: विद्यार्थियों को उद्दण्ड बना देता है।
(iii) विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता का तीसरा प्रमुख कारण राजनीतिक पार्टियां हैं।
राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक पार्टियां अपना स्वार्थ-साधन हल करने के लिए विद्यार्थियों में अनुशानहीनता फैलाती हैं। हुल्लड़बाज़ी, नारे लगाना, एक-दूसरे के प्रति भड़काना यह सब कुछ विद्यार्थी राजनीतिक कार्यकर्ताओं से सीखते हैं।
(iv) अनुशासनहीनता का चौथा तथा सर्वप्रथम कारण अध्यापक की कमजोरियां हैं। जब अध्यापक अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता नहीं होता और न ही पाठ्य विषय को अच्छी प्रकार से देखकर जाता है तो विद्यार्थी शीघ्र ही उसकी कमजोरी को भांप लेते हैं और पढ़ाई में रुचि पैदा नहीं होने देते हैं।
विद्यार्थी जीवन एक अमूल्य हीरा होता है। इसे यदि अनुशासन के सांचे में ढाला जाएगा तो यह और भी चमक उठेगा। वैसे भी अनुशासन की लगाम जीवन को नियन्त्रित करती है। संयम से आत्म-निष्ठा पनपती है, जो उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है, अतः यह कहना पूर्णतया उपयुक्त है कि अनुशासन विद्यार्थी जीवन का आधार है।
27. मेरी प्रिय पुस्तक और प्रिय लगने के कारण
महात्मा गांधी में राम-राज्य स्थापित करने की उच्च भावना जगाने वाली प्रेरणा शक्ति : रामचरित मानस, मेरी सर्वप्रिय पुस्तक है। यह पुस्तक महाकवि तुलसीदास का अमर स्मारक है। तुलसीदास ही क्यों, वास्तव में इससे हिन्दी साहित्य समृद्ध होकर समस्त जगत् को आलोक दे रहा है। इसकी श्रेष्ठता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यह कृति संसार की प्रायः सभी समृद्ध भाषाओं में अनुदित हो चुकी है।
रामचरितमानस मानव जीवन के लिए मूल्य निधि है। पत्नी का पति के प्रति, भाई का भाई के प्रति, बहू का सास-ससुर के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति क्या कर्त्तव्य होना चाहिए आदि इस कृति का मूल सन्देश है। इसके अतिरिक्त साहित्यिक दृष्टि से यह कृति हिन्दी साहित्य उपवन का वह कुसुमित फूल है, जिसे सूंघते ही तन-मन में एक अनोखी “सुगन्धि का संचार हो जाता है। यह ग्रन्थ दोहा-चौपाई में लिखा महाकाव्य है ।
ग्रन्थ में सात कांड हैं जो इस प्रकार हैं- बाल- कांड, अयोध्या कांड, अरण्य – कांड, किष्किधाकांड, सुन्दर-कांड, लंका-कांड तथा उत्तर-कांड। हर कांड, भाषा भाव आदि की दृष्टि से पुष्ट और उत्कृष्ट है और हर कांड के आरम्भ में संस्कृत के श्लोक है। तत्पश्चात् कथा फलागम की ओर बढ़ती है।
यह ग्रन्थ खड़ी बोली भाषा में और दोहा-चौपाई में लिखा हुआ है। इसकी भाषा में प्रांजलता के साथ-साथ प्रवाह तथा सजीवता दोनों हैं। इसे अलंकार स्वाभाविक रूप में आने के कारण सौन्दर्य प्रदत्त है। उनके कारण कथा का प्रवाह रुकता नहीं, स्वच्छन्द रूप से बहता चला जाता है। इसमें रूपक तथा अनुप्रास अलंकार मुख्य रूप में मिलते हैं। इसके मुख्य छन्द हैं दोहा और चौपाई। शैली वर्णनात्मक होकर भी बीच-बीच में मार्मिक व्यंजना-शक्ति लिए हुए है।
इसमें प्रायः समस्त रसों का यथास्थान समावेश है। वीभत्स रस लंका में उभर कर आया है। चरित्रों का चित्रण जितना प्रभावशाली तथा सफल इसमें हुआ है उतना हिन्दी के अन्य किसी महाकाव्य में नहीं हुआ। राम, सीता, लक्ष्मण, रावण, दशरथ, भरत आदि के चरित्र विशेषकर उल्लेखनीय तथा प्रशंसनीय हैं।
इस पुस्तक के पढ़ने से प्रतिदिन की पारिवारिक, सामाजिक आदि समस्याओं को दूर करने की प्रेरणा मिलती है। परलोक के साथ-साथ इस लोक में कल्याण का मार्ग दिखाई देता है और मन में शान्ति का सागर उमड़ पड़ता है। बार-बार पढ़ने को मन चाहता है।
रामचरितमानस हमारे सामने समन्वय का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें भक्ति और ज्ञान का, शैवों और वैष्णवों का तथा निराकार और साकार का समन्वय मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं मानते।
रामचरितमानस में नीति, धर्म का उपदेश जिस रूप में दिया गया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है। “राम-भक्ति का इतना विराट् तथा प्रभावी निरूपण और राम-कथा का इतना सरस तथा धार्मिक कीर्तन किसी और जगह मिलता अति दुर्लभ है।” इसमें जीवन के मार्मिक चित्र का विशद चित्रण किया गया है। जीवन के प्रत्येक रस का संचार किया है और लोक मंगल की उच्च भावना का समावेश भी किया गया है। यह वह पतित पावनी गंगा है जिसमें डुबकी लगाते ही सारा शरीर शुद्धमय हो उठता है तथा एक मधुर रस का संचार होता है। सहृदय भक्तों के लिए यह दिव्य तथा अमर वाणी है।
उपर्युक्त विवेचन के अनुसार अन्त में हम कह सकते हैं ‘रामचरितमानस साहित्यिक तथा धार्मिक दृष्टि से उच्चकोटि की रचना है जो अपनी उच्चता तथा भव्यता की कहानी स्वयं कहती है इसलिए मैं इसे अपनी प्रिय पुस्तक मानता हूँ ।
28. बेकारी की समस्या और उसका समाधान
आज भारत के सम्मुख अनेकों समस्याएं हैं, परन्तु उन सब में से बेकारी की समस्या अधिक गम्भीर एवं भयानक है। कई वर्षों से इस समस्या को सुलझाने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन अभी तक सफलता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। यह समस्या आर्थिक योजनाओं के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है। अतः जब तक इस समस्या का समाधान नहीं किया जाता, तब तक देश में आर्थिक योजनाएं भी सफल नहीं हो सकतीं।
बेकार व्यक्तियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जाती है। रोजगार कार्यालयों की फाइलों के अनुसार लाखों व्यक्ति बेकार हैं। लेकिन वास्तव में यह बेकारी इससे दुगुनी अथवा तिगुनी के लगभग है क्योंकि प्रत्येक बेकार मनुष्य अपना नाम रोजगार कार्यालय में दर्ज नहीं करवाता और दूसरे ग्रामीण लोग इन कार्यालयों से बिलकुल भी लाभ नहीं उठाते ।
हमारे देश में जनसंख्या में दिन-प्रतिदिन अत्यधिक वृद्धि हो रही है। वर्ष भर में जितने व्यक्तियों को काम-धन्धों में लगाया जाता है उससे कई गुणा अधिक और बेकारों की संख्या को बढ़ा देते हैं। हमारी सरकार पिछले कई वर्षों से इस समस्या का समाधान ढूंढ़ रही है लेकिन जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि इस समस्या को हल नहीं होने देती। इसलिए जनसंख्या की इस वृद्धि को हर हालत में रोकना चाहिए।
हमारी शिक्षा प्रणाली पूर्णतया अधूरी एवं दोषपूर्ण है। परन्तु भारत में अंग्रेज़ों ने ऐसी शिक्षा पद्धति केवल क्लकों को पैदा करने के लिए ही प्रारम्भ की थी। लेकिन अब आज़ाद भारत में समयानुसार समस्याएं भी बदल गई है। यह शिक्षा पद्धति केवल ऐसे लोग ही तैयार कर सकते हैं जो कार्यालयों में बाबू बन सकें। यदि उन लोगों को काम नहीं मिलता तो वे बेकार हो जाते हैं।
हमारे गांवों में कृषक वर्ष में छः मास तक बेकार रहते हैं। इन गांवों में कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन होने के कारण बेकारी भी बढ़ गई है। प्राचीन समय में वर्ण व्यवस्था में पैतृक व्यवसाय को अपना लिया जाता था जिससे बेकारी उत्पन्न ही नहीं होती थी। लेकिन अब शिक्षा के प्रसार तथा वर्ग-व्यवस्था के भंग हो जाने से पैतृक व्यवसाय को साधारणतया घृणा की दृष्टि से देखा जाता है तो पुत्र पिता के व्यवसाय को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता।
युवकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उन्हें काम-धंधा दिलाने में सहायक सिद्ध हो सके। अतः औद्योगिक शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। जिससे पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या को रोका जा सके। हमारी शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इस शिक्षा से युवक स्वावलम्बी नहीं बनते। उनमें हाथ से काम करने की भावना उत्पन्न नहीं होती। अधिकांश नौकरी की तालाश में भटकते फिरते हैं। इस प्रकार प्रतिवर्ष बेकारों की पंक्ति और लम्बी हो जाती है।
हमारा देश अधिक जनसंख्या वाला है इसलिए यहां पर बड़े उद्योगों तथा घरेलू उद्योगों दोनों का विकास किया जाना परमावश्यक है। जहां तक बड़े उद्योगों का सम्बन्ध है वह तो निजी सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित हुए हैं, परन्तु इससे हमारी बेकारी की समस्या का समाधान नहीं निकल सकता जब तक कि घरेलू दस्तकारों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाएगा।
सरकार का यह कर्त्तव्य है कि विकेन्द्रित व्यवसायों एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहिए। इसके लिये कुटीर उद्योग को शिक्षा देनी चाहिए तथा उसे चलाने में सहायता देनी चाहिए। किसानों को खेती की उन्नति के लिए आधुनिक सुविधाएं प्रदान करनी चाहिये । बेकारी का परिणाम बड़ा भयंकर हो सकता है। भूख से व्याकुल मनुष्य कुछ भी कर सकता है—
है भूख विश्व में बड़ा पाप,
बेटे को देता बेच बाप,
तरूणी तन की लज्जा बिकती,
मंदिर बिकते श्रद्धा बिकती ।
देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह अनिवार्य है कि बेकारी की समस्या को रोकने के लिए व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयत्न किये जाएं। इस कार्य में तत्परता, ईमानदारी तथा पूरी शक्ति से जुट जाने की आवश्यकता है। बेकारी मिट जाने पर देश के गौरव तथा व्यक्ति के स्वामिभान में भी वृद्धि होगी।
29. दैवी प्रकोप- भूकंप
वहि बाढ़, उल्का, झंझा की
भीषण भू पर कैसे रह सकता है
कोमल मनुज कलेवर ।
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज
भंगुर जीवित जन मानव को
चाहिए यहां मानवोचित साधन।
प्रकृति उस ईश्वर की रचना होने के कारण अजेय है। मनुष्य आदि काल से ही प्रकृति की शक्तियों के साथ संघर्ष करता आ रहा है। उसने अपनी बुद्धि, साहस एवं शक्ति के बल पर प्रकृति के अनेक रहस्यों का उद्घाटन करने में सफलता प्राप्त की है लेकिन इस प्रकृति की शक्तियों पर पूर्ण अधिकार करने का सामर्थ्य मनुष्य में नहीं। प्रकृति अनेक रूपों में हमारे सामने आती है। यह कभी अपना कोमल और सुखदायी रूप दिखाती है तो कभी ऐसा कठोर रूप धारण करती है कि मनुष्य उसके सामने विवश और असहाय बन जाता है। आंधी, तूफान, अकाल, अनावृष्टि तथा भूकंप ऐसे ही दैवी प्रकोप हैं।
भूमि के हिलने को भूचाल, हालाडोल तथा भूकंप की संज्ञा दी जाती है। धरती का कोई भी अंग ऐसा नहीं बचा है जहां कभी-न-कभी भूकंप के झटके न आए हों। भूकंप के हल्के झटकों से तो विशेष हानि नहीं होती लेकिन जब कभी ज़ोर के झटके आते हैं तो वे प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित कर देते हैं। ‘कामायनी’ महाकाव्य के रचयिता श्री जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति के भयंकर प्रकोप का वर्णन करते हुए कहा है—
हा-हा-कार हुआ क्रंदनमय
कठिन कुलिश होते थे चूर;
हुए दिगंत वधिर, भीषण रव
बार-बार होता था क्रूर ।
भूकंप क्यों आते हैं यह तो वैज्ञानिकों को पता है लेकिन यह एक रहस्य है जिसका उद्घाटन आज तक नहीं हो सका कि अगला भूकंप कब आएगा ? वैज्ञानिकों ने प्रकृति को मनुष्य के अनुकूल बनाने के अनेक प्रयत्न किए हैं। वह गर्मी तथा सर्दी से स्वयं को बचाने के लिए वातावरण को अपने अनुकूल बना सकता है। लेकिन भूकम्प तथा बाढ़ आदि ऐसे दैवी प्रकोप हैं जिनका समाधान मनुष्य जाति सैंकड़ों वर्षों से कठोर प्रयत्न के बाद भी नहीं कर पाई है।
भूकम्प के विषय में लोगों के भिन्न-भिन्न मत हैं । भूगर्भ शास्त्रियों का मत है कि धरती के भीतर तरल पदार्थ हैं। वे जब अन्दर की गर्मी के कारण तीव्रता से फैलने लगते हैं तो पृथ्वी हिल जाती है। कभी-कभी ज्वालामुखी का फटना भी भूकम्प का कारण बन जाता है। भारत एक धर्म भीरु देश है। यहां के लोगों का मत है कि जब पृथ्वी के किसी भाग पर अत्याचार और अनाचार बढ़ जाते हैं तो उस भाग में दैवी प्रकोप के कारण भूचाल आते हैं। देहातों में यह कथा भी प्रचलित है कि शेषनाग ने पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर रखा है। उसके सात सिर हैं। जब एक सिर पृथ्वी के बोझ के कारण थक जाता है तो वह उसे दूसरे सिरे पर बदलता है उसकी इस क्रिया से पृथ्वी हिल जाती है और भूकंप आ जाता है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि धरती के भीतर की टिकटॉनिक प्लेट्स की गाति के कारण भूकंप आते हैं।
भूकम्प का कारण कोई भी क्यों न हो पर इतना निश्चित है कि यह एक दैवी प्रकोप है जो अत्यधिक विनाश का कारण बनता है। यह जानलेवा ही नहीं बनता बल्कि मनुष्य की शताब्दियों सहस्त्राब्दियों की मेहनत के परिणाम को भी नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। बिहार ने बड़े विनाशकारी भूकम्प देखे हैं। हजारों लोग मौत के मुंह में चले गए। भूमि में दरारें पड़ गईं जिनमें जीवित प्राणी समा गए। पृथ्वी के गर्भ से कई प्रकार की विषैली गैसें उत्पन्न हुई जिनसे प्राणियों का दम घुट गया । भूकम्प के कारण जो लोग धरती में समा जाते हैं उनके मृत शरीरों को बाहर निकालने के लिए धरती की खुदाई करनी पड़ती है। यातायात के साधन नष्ट हो जाते हैं। बड़े-बड़े भवन धराशायी हो जाते हैं। लोग बेघर हो जाते हैं। धनवान् अकिंचन बन जाते हैं और निर्धनों को जीने के लाले पड़ जाते हैं ।
26 जनवरी, सन् 2001 को गुजरात के लोगों ने भूकम्प का प्रलयंकारी नृत्य देखा था । भूकम्प के तेज झटकों के कारण देखते ही देखते सुन्दर नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गए। हजारों स्त्री-पुरुष जो 26 जनवरी का दूरदर्शन पर आनन्द ले रहे थे, क्षण भर में मौत का ग्रास बन गए। मकान, सड़कें और वृक्ष आदि नष्ट हो गए। सर्वत्र करुणाजनक चीत्कार था । बहुत से लोग अपंग हो गए। किसी का हाथ टूट गया तो किसी की टांग, कोई अंधा हो गया तो कोई बहरा। अनेक स्त्रियां विधवा हो गईं। बच्चे अनाथ हो गए। आज भी जब भूकम्प की करुण कहानी सुनते हैं तो हृदय कांप उठता है।
जापान आदि कुछ ऐसे देश, जहां भूकम्पों की सम्भावना अधिक रहती है। यही कारण है कि वहां पर मकान पत्थर, चूने तथा ईंट के न होकर लकड़ी तथा गत्ते के बनाए जाते हैं। ये साधन भूकम्प के प्रभाव को कम कर सकते हैं पर उसे रोक नहीं सकते। भूकम्प जब भी आता है, जान और माल की हानि अवश्य होती है। टर्की में एक भीषण भूकम्प आया था जिसके परिणामस्वरूप हजारों मनुष्य दब कर मर गए थे। भूकम्प के हल्के-हल्के झटके भी कम भयंकर नहीं होते, उससे भवनों को क्षति पहुंचती है।
आज का युग विज्ञान का युग कहलाता है पर विज्ञान दैवी प्रकोप के सामने विवश है। भूकम्प के कारण क्षण भर में ही प्रलय का संहारक दृश्य उपस्थित हो जाता है। ईश्वर की । इच्छा के आगे सब विवश है। मनुष्य को कभी भी अपनी बुद्धि पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। उसे हमेशा प्रकृति तथा ईश्वर की शक्ति के आगे नतमस्तक रहना चाहिए। ईश्वर की कृपा ही मानव जाति को ऐसे प्रकोपों से बचा सकती है।
30. महंगाई की समस्या
आज विश्व के देशों के सामने दो समस्याएं प्रमुख हैं- मुद्रा स्फीती तथा महंगाई | जनता अपनी सरकार से मांग करती है कि उसे कम दामों पर दैनिक उपभोग की वस्तुएं उपलब्ध करवाई जाएं। विशेषकर विकासशील देश अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण ऐसा करने में असफल हो रहे हैं। लोक आय में वृद्धि की भी मांग करते हैं। देश के पास धन होता नहीं। फलस्वरूप मुद्रा का फैलाव बढ़ता है। सिक्के की कीमत घटती है, महंगाई और बढ़ती है।
भारत की प्रत्येक सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतें कम करने का आश्वासन दिए किन्तु कीमतें बढ़ती ही चली गई। इस कमरतोड़ महंगाई के अनेक कारण है। महंगाई का सबसे बड़ा कारण होता है, उपज में कमी सूखा पड़ने, बाढ़ आने तथा अन्य किसी कारण से उपज में कमी हो जाए तो वस्तुओं के दाम बढ़ना स्वाभाविक है। लगभग दस वर्ष पूर्व भारत को इतिहास के प्रबलतम सूखे का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप अनाज का भारी मात्रा में आयात करना पड़ा देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक अनाज के उत्पादन की दिशा में पूर्णतया स्वावलम्बी नहीं हो पाए हैं। हरित क्रान्ति के अन्तर्गत बहुत से कार्यक्रम चलाए गए। अधिक उपज वाले बीजों का आविष्कार तथा प्रयोग बढ़ा, रासायनिक खाद के प्रयोग से भी उपज बढ़ी किन्तु हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकी।
उपज जब मण्डियों में आती है, अमीर व्यापारी भारी मात्रा में अनाज एवं अन्य वस्तुएं खरीद कर अपने गोदाम भर लेता है और इस प्रकार बाजार में वस्तुओं की कमी हो जाती है। व्यापारी अपने गोदामों की वस्तुएं तभी निकालता है जब उसे कई गुणा अधिक कीमत प्राप्त होती है। भारत को निरन्तर अनेक युद्धों का सामना करना पड़ा। विशेष कर बांग्लादेश के स्वतन्त्रता संघर्ष का देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ा। अनुकूल वर्षा न होने पर भी महंगाई की समस्या बढ़ती है। वर्तमान में जमाखोरी की यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है।
प्रश्न यह है कि महंगाई कम कैसे हो ? उपज में बढ़ोत्तरी हो, यह आवश्यक है कि किन्तु हम देख चुके हैं कि उपज बढ़ने का भी कोई बहुत अनुकूल प्रभाव कीमतों पर नहीं पड़ता, वस्तुतः हमारी वितरण प्रणाली में ऐसा दोष है जो उपभोक्ताओं की कठिनाइयां बढ़ा देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार का सर्वग्रासी अजगर यहां भी अपना काम करता है। वस्तुओं की खरीद और वितरण की निगरानी करने वाले विभागों के कर्मचारी ईमानदारी से काम करें तो कीमतों को रोका जा सकता है।
आपात स्थिति के प्रारम्भिक दिनों में वस्तुओं के दाम नियत करने की परिपाटी चली थी किन्तु शीघ्र ही व्यापारियों ने पुनः मनमानी आरम्भ कर दी। तेल उत्पादक देशों द्वारा तेल कीमत बढ़ा देने से भी महंगाई बढ़ी है। वस्तुतः अफसरशाही, लालफीता शाही तथा नेताओं की शुतुरमुर्गीय नींद महंगाई के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है।
देश का कितना दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के साठ से अधिक वर्ष पश्चात् भी किसानों को सिंचाई की पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। बड़े-बड़े नुमायशी भवन बनाने की अपेक्षा सिंचाई की छोटी योजनाएं बनाना और उन को क्रियान्वित करना बहुत जरूरी है। हमारे सामने ऐसे भी उदाहरण आ चुके हैं जब सरकारी पंजियों में कुएं खुदवाने के लिए धनराशि का व्यय दिखाया गया तो वे कुएं कभी खोदे ही नहीं गए।
बढ़ती महंगाई पर अंकुश रखने के लिए एक सक्रिय राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है। यदि निम्न तथा मध्य वर्ग के लोगों को उचित दाम पर आवश्यक वस्तुएं नहीं मिलेंगी तो असन्तोष बढ़ेगा और हमारी स्वतन्त्रता के लिए पुनः खतरा उत्पन्न हो जायेगा।
31. दहेज प्रथा- एक भयानक कलंक
अथवा
दहेज समस्या और उसका समाधान
कितनी गीता गंगा मां की गोदी में सो जाती हैं ।
कितनी सीता रेल पटरियां पर लोहू बो जाती हैं।
कौन कुएं में कूद गई है, गिरी कौन मीनारों से।
कौन गिनेगा इनकी संख्या रोज अखबारों में।
धरम बेचने वालो तुम।
शरम बेचने वालो तुम।
फिर से क्यों जिन्दा करते हो मरे हुए चंगेज को।
सोने की हथकड़ी काट दो मारो दुष्ट दहेज को ।
भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियां गौरवशाली समाज के माथे पर कलंक हैं। जाति-पाति, हुआछूत और दहेज जैसी प्रथाओं के कारण विश्व के उन्नत समाज में हमारा सिर लाज से झुक जाता है। समय-समय पर अनेक समाज सुधारक तथा नेता इन कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करते रहे हैं किन्तु इनका समूल नाश सम्भव नहीं हो सका। दहेज प्रथा तो दिन-प्रतिदिन अधिक भयानक रूप लेती जा रही है।
समाचार-पत्रों के पृष्ठ उलटिये, आपको अनेक समाचार इस प्रकार दिखाई देंगे—सास ने बहू पर तेल छिड़कर आग लगा दी, दहेज के लोभियों ने बारात लौटाई, स्टोव फट जाने से नवविवाहिता की मृत्यु….. इत्यादि । इन समाचारों का विस्तृत विवरण पढ़कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हम सोचते हैं, क्या सचमुच मनुष्य इतना निर्मम तथा जालिम हो सकता है ?
दहेज का अर्थ है, विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुएं । हमारे समाज में विवाह के साथ लड़की को माता-पिता का घर छोड़कर पति के घर जाना होता है। इस अवसर पर अपना स्नेह प्रदर्शित करने के लिए कन्या के पक्ष के लोग लड़की, लड़कों के सम्बन्धियों को यथाशक्ति भेंट दिया करते हैं। यह प्रथा कब शुरू हुई, कहा नहीं जा सकता। लगता है कि यह प्रथा अत्यन्त प्राचीन है। हमारी लोक कथाओं और प्राचीन काव्यों में दहेज प्रथा का काफी वर्णन हुआ है।
दहेज एक सात्विक प्रथा थी पिता के सम्पन्न घर से पतिगृह में प्रवेश करते ही पुत्री के पिता का घर पराया हो जाता है। उसका पितृगृह से अधिकार समाप्त हो जाता है। अत: पिता अपनी सम्पन्नता का कुछ भाग दहेज के रूप में विदाई के समय कन्या को देता था। दहेज में एक सात्विक भावना और भी है। कन्या अपने घर में श्री समृद्धि का सूचक बने। अत: उसका खाली हाथ पतिगृह में प्रवेश अपशकुन माना जाता है। फलतः वह अपने साथ वस्त्र भूषण, बर्तन तथा अन्य पदार्थ साथ ले जाती है।
कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में कन्या को परायी वस्तु कहा है। वस्तुतः वह धरोहर है, जिसे पिता, पति-पाणिग्रहण करके सौंप देता है। जिस प्रकार बैंक अपने पास जमा की गई हुई धरोहर राशि को ब्याज सहित चुकाता है, उसी प्रकार पिता भी धरोहर (कन्या) को सूद (दहेज) सहित लौटाता है। इस प्रकार दहेज में कुछ आर्थिक कर्त्तव्य की भावना भी निहित है।
हजार वर्ष की पराधीनता और स्वतन्त्रता के गत 68 से अधिक वर्षों की स्वच्छन्दता ने दहेज प्रथा को विकृत कर दिया। कन्या की श्रेष्ठता शील- सौन्दर्य से नहीं, बल्कि दहेज में आंकी जाने लगी। कन्या की कुरूपता और कुसंस्कार दहेज के आवरण में आच्छादित हो गए। खुलेआम वर की बोली बोली जाने लगी। दहेज में प्रायः राशि से परिवारों का मूल्यांकन होने लगा। समस्त समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष नहीं, गुण बन जाता है। फलतः दहेज सामाजिक विशेषता बन गई।
दहेज प्रथा जो आरम्भ में स्वेच्छा और स्नेह से भेंट देने तक सीमित रही होगी। धीरेधीरे विकट रूप धारण करने लगी है। वर पक्ष के लोग विवाह से पहले दहेज में ली जाने वाली धन-राशि तथा अन्य वस्तुओं का निश्चय करने लगे हैं।
एक ओर वर पक्ष की लोभी वृत्ति ने इस कुरीति को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर ऐसे लोग जिन्होंने काफ़ी काला धन इकट्ठा कर लिया था, बढ़-चढ़ कर दहेज देने लगे । उनकी देखा-देखी अथवा अपनी कन्याओं के लिए अच्छे वर तलाश करने के इच्छुक निर्धन लोगों को भी दहेज का प्रबन्ध करना पड़ा। इसके लिए बड़े-बड़े कर्ज लेने पड़े, सम्पत्ति बेचनी पड़ी, आपार परिश्रम करना पड़ा लेकिन वर पक्ष की मांगें सुरसा के मुख की भांति बढ़ती गईं।
दहेज कुप्रथा का एक मुख्य कारण यह भी है कि आज तक हम नारी को बराबर नहीं समझते। लड़के वाले समझते हैं कि वे लड़की वालों पर बड़ा अहसान कर रहे हैं। यही नहीं विवाह के बाद भी वे लड़की को मन से अपने परिवार का अंग नहीं बना पाते। यही कारण है कि वे हृदयहीन बनकर भोली-भाली भावुक, नवविवाहिता को कठोर यातनाएं देते हैं।
दहेज प्रथा बन्द कैसे हो, इस प्रश्न का एक सीधा-सा उत्तर है- कानून से । लेकिन हम देख चुके हैं कि कानून से कुछ नहीं हो सकता, कानून लागू करने के लिए एक ईमानदार व्यवस्था की ज़रूरत होती है। इसके अतिरिक्त जब तक सशक्त गवाह और पैरवी करने वाले दूसरे लोग दिलचस्पी न लेंगे, पुलिस तथा अदालतें कुछ न कर सकेंगी। दहेज को समाप्त करने के लिए एक सामाजिक चेतना आवश्यक है। कुछ गांवों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि जिस घर में बड़ी बारात आये या जो लोग बड़ी बारात ले जाएं, उनके घर पर गांव का कोई निवासी बधाई देने नहीं जाता। दहेज के लोभी लड़के वालों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता है।
दहेज प्रथा समाप्त करने के लिए स्वयं युवकों को आगे आना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे अपने माता-पिता तथा सम्बन्धियों को स्पष्ट शब्दों में कह दें- शादी होगी तो बिना दहेज के होगी। इन युवकों को चाहिए कि वे उस सम्बन्धी का डटकर विरोध करें जो नवविवाहिता को शारीरिक या मानसिक कष्ट देता है।
दहेज प्रथा की विकटता को कम करने में नारी का आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होना भी बहुत हद तक सहायक होता है। अपने पैरों पर खड़ी युवती को दूसरे लोग अनाप-शनाप नहीं कह सकते। इसके अतिरिक्त चूंकि वह चौबीस घण्टे घर पर बन्द नहीं रहेगी, सास और ननदों की छींटा-कशी से काफ़ी बची रहेगी। बहू के नाराज हो जाने से एक अच्छी खासी आय हाथ से निकल जाने का भय भी उनका मुख बन्द किए रखेगा।
दहेज प्रथा हमारे समाज का कोढ़ है। यह प्रथा सिद्ध करती कि हमें अपने को सभ्य मनुष्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। जिस समाज में दुल्हिनों को प्यार की जगह यातनाएं दी जाती हैं, वह समाज निश्चित रूप से – सभ्यों का नहीं नितान्त असभ्यों का समाज है। अब समय आ गया है कि इस कुरीति का समूल उखाड़ फेंकेंगे ।
32. राष्ट्रीय एकता
अथवा
भारत की भावात्मक एकता
अथवा
साम्प्रदायिक एकता
सभी निज संस्कृति के अनुकूल एक हों, रचे राष्ट्र उत्थान ।
इसलिए नहीं कि करें सशक्त निर्बलों को अपने में लीन—
इसलिए कि हो राष्ट्र हित हेतु समुन्नति पथ पर सब स्वाधीन ।
भारत एक विशाल देश है। इनकी भौगोलिक एवं प्राकृतिक स्थिति ऐसी है कि इस एक देश में अनेक देशों की कल्पना सहज रूप में की जा सकती है। यहां छः ऋतुओं का अद्भुत क्रम है। एक ही समय में एक क्षेत्र में गर्मी का वातावरण है तो दूसरे में सर्दी का । एक क्षेत्र में हरियाली है तो दूसरे में दूर तक रेत ही रेत के दर्शन होते हैं। जनसंख्या की दृष्टि से भी यह विश्व में दूसरे स्थान पर है। हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा बौद्ध आदि सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोग इस भूमि पर वास करते हैं और इसे अपना राष्ट्र कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। यह देश किसी एक जाति, वंश, सम्प्रदाय या धर्म का देश नहीं। यहां आचार-विचार, रहन-सहन, भाषा तथा धर्म सम्बन्धी विभिन्नताओं का होना स्वाभाविक है। इन विभिन्नताओं में अभिन्नता तथा अनेकता में एकता के दर्शन भारत की सर्व प्रमुख विशेषता है। इसी विशेषता एवं समन्वय की भावना के कारण भारतीय संस्कृति अजर अमर बन गई। इसी तथ्य को लक्ष्य इकबाल कवि ने कहा था—
यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गये जहां से,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ।
भारतीय संस्कृति भावात्मक एकता का आधार है लेकिन कई बार राजनीतिक स्वार्थ, अस्पृश्यता, साम्प्रदायिक तनाव, भाषा-भेद, क्षेत्रीय मोह तथा जातिवाद आदि संकीर्ण भावनाओं के प्रबल होने पर हमारी भावात्मक एकता को खतरा पैदा हो जाता है। परिणामस्वरूप अदूरदर्शी, मंदबुद्धि धर्मांध लोग गुमराह होकर अपने छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति के लिए अलग रास्ते की मांग करने लगते हैं। राजनीतिक दलबंदी का सहयोग पाकर ये स्वार्थ अनेक बार भयंकर रूप धारण कर लेते हैं। कुछ समाचार पत्र अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर राजनीतिक स्वार्थों का समर्थन करने लगते हैं। इस तरह संघर्ष का बोलबाला हो जाता है। शत्रु देश भी इसका लाभ उठाकर गुप्त रूप से स्वार्थी तत्वों को पुष्ट करने लगते हैं। पंजाब में उग्रवाद को जन्म देने तथा आसाम की शांति को भंग करने के पीछे ऐसे ही स्वार्थी तत्व अपना प्रभाव दिखाते रहे हैं।
राज्यों में अव्यवस्था फैलाने से केन्द्र और उनमें सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं। कुछ लोग हिंसा का पथ ग्रहण कर इस समस्या को और भी विकट बना देते हैं। सारा देश आन्दोलन का अखाड़ा बन जाता है। कुछ देशों की गुप्तचर एजेन्सियां धन आदि की सहायता से स्वार्थी तत्त्वों को प्रोत्साहित करती तथा भड़काती हैं।
राष्ट्रीय एकता के लिए भावात्मक एकता अत्यन्त आवश्यक है। भावात्मक एकता बनाए रखने के लिए भारत सरकार हमेशा प्रयत्नशील रही है। हमारे संविधान में ही धर्म निरपेक्ष, समाजवादी समाज की परिकल्पना की गई है। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में भी ऐसे अनेक संगठन बनाए गए हैं जो राष्ट्रीय एकता के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। सच्चा साहित्य भी पृथक्तावादी प्रवृत्तियों का विरोधी रहा है।
वर्तमान समय में भावात्मक एकता के लिए सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्रीय शिक्षा की व्यवस्था करे। चल-चित्र, दूरदर्शन तथा रेडियो आदि भी राष्ट्रीय एकता में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। सामूहिक खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा धार्मिक एवं शैक्षिक यात्राएं भी राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता में सहायक हो सकती हैं। सबसे अधिक आवश्यकता है हृदय-परिवर्तन की तथा सद्भावनापूर्ण वातावरण बनाने की । धार्मिक संकीर्णता एवं साम्प्रदायिकता का मोह राष्ट्रीय एकता में सबसे बड़ा बाधक तत्व है। धर्म ज्ञान और विश्वास में नहीं, वह तो कर्म और आचरण में बसता है। सच पूछो तो सभी धर्म एक हैं केवल पूजा-विधियां भिन्न-भिन्न हैं। इसी भिन्नता के कारण एक ही धर्म के भिन्नभिन्न रूप होते हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ठीक ही कहा था—
‘धर्म को पकड़े रहो, धर्मों को छोड़ दो।’
स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भी तो देशवासियों को संकीर्णता से ऊपर उठ कर धर्म के व्यापक रूप की प्रेरणा देते हुए कहा था—
‘हे मेरे देश के लोगो ! धर्म को एकवचन में ही रहने दो।’
दुःख की बात है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर कुछ लोग स्वार्थों की पूर्ति के लिए अनेक लोगों की शक्ति का दुरुपयोग कर राष्ट्रीय भावना का हनन कर रहे हैं। धर्मांध लोगों को लक्ष्य कर श्रीगणेश शंकर विद्यार्थी ने ठीक ही कहा है।—’यथार्थ दोष है कुछ चलते पुर्जे पढ़े-लिखे लोगों का, जो मूर्ख लोगों की शक्ति और उत्साह का दुरुपयोग कर रहे हैं कि इस प्रकार जाहिलों के बल के आधार पर उनका नेतृत्व और बड़प्पन कायम रहे।’
देश को सबल बनाने के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द बनाए रखने की जरूरत है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रेम से प्रेम और घृणा से घृणा उत्पन्न होती है। हमारा पथ प्रेम और अहिंसा का पथ होना चाहिए। घृणा एवं हिंसा सब प्रकार की बुराइयों की जड़ है। संतों, महात्माओं और धर्म गुरुओं का भी यही संदेश रहा है कि किसी भी धर्म में छोटे बड़े का भेद नहीं। सभी धर्म सत्य, प्रेम, ममता, सदाचार और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। प्रार्थना और आराधना की पद्धति भिन्न हो सकती है पर उनके लक्ष्य में एकता है। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च एक ही संदेश देते हैं—’जिओ और जीने दो।’
स्पष्ट हो जाता है कि भावात्मक एकता तथा साम्प्रदायिक सद्भाव देश की शक्ति एवं का आधार है। हमें इस मूल मन्त्र को ग्रहण करना चाहिए कि हम सब भारतीय हैं, भूमि के वासी हैं। अतः सभी भाई-भाई हैं। कवि नीरज के शब्दों में—
जाति-पाति से बड़ा धर्म है,
धर्म-ध्यान से बड़ा कर्म है।
कर्म-काण्ड से बड़ा मर्म है।
मगर सभी से बड़ा यहां छोटा-सा इन्सान है और
अगर वह प्यार करे तो धरती स्वर्ग समान है।
33. शिक्षा में खेलों का महत्त्व
अथवा
खेल – खूद का महत्त्व
मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। कारण यह है कि इसमें चिन्तन की शक्ति है जिसके द्वारा यह प्राचीन काल से सब पर शासन करता आया है। आज प्रकृति भी इसके सामने नतमस्तक हो रही है। संसार के सम्पूर्ण ऐश्वर्य के पीछे मानव मस्तिष्क विकास का इतिहास गुंथा हुआ है। लेकिन यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि केवल मस्तिष्क का विकास एकांगी है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ शारीरिक शक्ति का भी विकास होना अनिवार्य है। अतः मस्तिष्क के विकास के लिए जहां शिक्षा की आवश्यकता है, वहां शारीरिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए क्रीड़ा की भी आवश्यकता है। दोनों एक-दूसरे के अभाव में अपूर्ण हैं।
शरीर – विकास के लिए खेलों के अतिरिक्त अन्य साधन भी हैं। व्यायाम के द्वारा तथा प्रातः काल के भ्रमण द्वारा भी स्वास्थ्य लाभ किया जा सकता है । कुश्ती, कबड्डी, दंगल, भ्रमण, दौड़ना आदि भी स्वास्थ्यवर्द्धन के लिए उपयोगी हैं। इसमें शरीर तो पुष्ट होता है, पर मनोरंजन आदि से मनुष्य वंचित रहता है। खेलों से मनोरंजन भी पर्याप्त हो जाता है। इससे खिलाड़ी में आत्म-निर्भर होने की भावना का उदय होता है । वह केवल अपने लिए ही नहीं खेलता बल्कि उसकी हार और जीत पूरी टीम की हार और जीत है। अतः उसमें अपने साथियों के लिए स्नेह तथा मित्रता का विकास होता है। उसमें अपनत्व तथा एकत्व की भावना जन्म लेती है। वे अपने में ही अपनी टोली की प्रगति देखता है । रुचि की भिन्नता के कारण किसी को हॉकी, किसी को क्रिकेट और किसी को फुटबाल अच्छा लगता है।
खेलों से अनेक लाभ हैं। इनका जीवन और जाति में विशिष्ट स्थान है। शारीरिक और मानसिक स्थिति को कायम रखने के लिए खेलों का बड़ा महत्त्व है। इसलिए प्राचीन काल से ही खेलों को महत्त्व दिया जाता रहा है। विद्यार्थी आश्रमों में अध्ययन के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के खेलों में भी पारंगत होते थे। उस समय के खेल युद्ध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते थे। धनुर्विद्या की शिक्षा का विशेष बोल-बाला था । खेलों से केवल शरीर ही नहीं बनता अपितु इससे मस्तिष्क और मन का भी पर्याप्त विकास होता है, क्योंकि पुष्ट और स्वस्थ शरीर में ही सुन्दर मस्तिष्क का वास होता है। बिना शारीरिक शक्ति से शिक्षा पंगु है। मान लो कि एक विद्यार्थी अध्ययन में बहुत अच्छा है पर वह शरीर से कमज़ोर है। उसके लिए किसी भी बाधा का सामना करना सम्भव नहीं। अपने मार्ग में पड़ा एक पत्थर तक उठा कर अपना मार्ग निष्कंटक बनाने की शक्ति उसमें नहीं। तब ऐसे विद्यार्थी से देश और जाति क्या कामना कर सकती है ? रात-दिन किताबों पर ही अपनी दृष्टि गढ़ाए रखने वाले विद्याथी जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते । शक्ति के अभाव में अन्य सब गुण व्यर्थ सिद्ध होते हैं ।
यहां तक कि मानव के सर्वश्रेष्ठ गुण तप, त्याग तक शक्ति के अभाव में व्यर्थ साबित होते हैं। तभी तो कहा गया है—
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भाग कर
व्यक्ति का मन तो बली होता मगर
हिंसक पशु जब घेर लेते हैं, उसे,
काम आता बलिष्ठ शरीर ही ।
बलिष्ठ शरीर के साथ-साथ खेलों से मनुष्य में क्षमाशीलता, दया, स्वाभिमान, आज्ञापालन, अनुशासन आदि अनेक गुणों का समावेश भी होता है। बहुत से विद्यार्थी तो खेलों के बल पर ही ऊँचे-ऊँचे पदों को प्राप्त कर लेते हैं। खेलों के अभाव तथा निर्बलकाय होने के कारण ही अधिकांश विद्यार्थी किसी महत्त्वपूर्ण स्थान से वंचित रह जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मस्तिष्क कितना ही सबल क्यों न हो पर चलना पैरों से ही है। अतः शिक्षण के साथ-साथ क्रीड़ा में भी कुशल होना उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है। खेलों से राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का भी उदय होता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेली जाने वाली खेलों के आधार पर खिलाड़ियों को विश्व भ्रमण का सुअवसर मिलता है ।
इसमें सन्देह नहीं कि खेलें विद्यार्थी जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं पर यदि इनमें अधिक भाग लिया जाए तो हानि नहीं होती है। बहुत से विद्यार्थी क्रीड़ा में अधिक रुचि – लेने के कारण अध्ययन से मुंह मोड़ लेते हैं। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि खेलों का महत्त्व भी शिक्षा के साथ ही है। कई बार तो खेलों के कारण द्वेष, स्पर्धा तथा गुटबन्दी आदि की कटु भावनाओं का भी जन्म होता है, जो बड़ा हानिकारक है। अतः शिक्षण में और क्रीड़ा में परस्पर समन्वय की नितान्त आवश्यकता है।
अतः जीवन में शिक्षा के साथ खेलों के प्रति भी रुचि होनी चाहिए। जैसे मस्तिष्क और हृदय का समन्वय अनिवार्य है वैसे ही शिक्षा और क्रीड़ा का भी शिक्षण संस्थाओं का भी यह कर्त्तव्य है कि वे शिक्षा के साथ-साथ विभिन्न खेलों की भी व्यवस्था करें ।
34. आज का भारतीय किसान
भारतीय किसान परिश्रम, सेवा और त्याग की सजीव मूर्ति है। उसकी सादगी, सरलता तथा दुबलापन उसके सात्विक जीवन को प्रकट करती है। उसकी प्रशंसा में ठीक ही गया है—
नगरों से ऐसे पाखण्डों से दूर,
साधना-निरत, सात्विक जीवन के महासत्य
तू वन्दनीय जग का, चाहे रह छिपा नित्य
इतिहास करेगा तेरे श्रम में रहा सत्य ।
किसान संसार का अन्नदाता कहा जाता है। उसे अपने इस नाम को सार्थक बनाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। वह बहुत सवेरे ही अपने खेत में कार्य शुरू कर देता है। दोपहर तक लगातार परिश्रम करता है। वह खेतों के हवन में अपने पसीने की आहुति डालता है। इस आहुति के परिणामस्वरूप ही खेतों में हरियाली छा जाती है। दोपहर के भोजन के बाद वह फिर अपने काम में डट जाता है। सूर्यास्त तक लगातार काम करता है। ग्रीष्म ऋतु की कड़कती धूप हो या हाड़ कम्या देने वाला जाड़ा हो, दोनों स्थितियों में किसान अपने काम पर दिखाई देता है। इतना कठोर परिश्रम करने के बाद भी कई बार उसकी झोंपड़ी में अकाल का तांडव नृत्य दिखाई देता है। संकट में भी वह किसी से शिकायत नहीं करता। दुःख के घूंट पी कर रह जाता है।
भारतीय किसान के रहन-सहन में बड़ी सादगी और सरलता होती है। उसके जीवन पर बदलती हुई परिस्थितियों का कुछ असर नहीं पड़ता। वह फैशन और आडम्बर की दुनिया से हमेशा दूर रहता है। उसका जीवन अनेक प्रकार के अभावों से घिरा रहता है।
अशिक्षा के कारण भारतीय किसान अनेक बातों में पिछड़ जाता है। उसका मानसिक विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि उसके जीवन में अन्धविश्वास सरलता से अपना स्थान बना लेते हैं। इन अन्धविश्वासों पर वह अपने खून-पसीने की कमाई का अपव्यय करता है। अपनी सरलता और सीधेपन के कारण वह सेठ-साहूकारों तथा ज़मींदारों के चंगुल में फंस जाता है। वह इनके शोषण की चक्की में पिसता हुआ दम तोड़ देता है । मुंशी प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास गोदान में किसान जीवन की शोचनीय दशा का मार्मिक चित्रण किया है। किसानों में प्रायः ललित कलाओं एवं उद्योगों में भी रुचि नहीं होती। वे बहुत परिश्रमी हैं तो बहुत आलसी भी बन जाते हैं। साल के आठ महीने तो वह खूब काम करता है पर चार महीने वह हाथ पर हाथ धर कर बैठता है। नशा तो उसके जीवन का अंग बन जाता है। हिंसक घटनाएं, लड़ाई-झगड़ों के भयंकर परिणाम तो उसके जीवन को बर्बाद कर देते हैं।
किसान कुछ दोषों के होने पर भी दैवी गुणों से युक्त है। वह परिश्रम, बलिदान, त्याग और सेवा के आदर्श द्वारा संसार का उपकार करता है। ईश्वर के प्रति वह आस्थावान् है । प्रकृति का वह पुजारी तथा धरती माँ का उपासक है। धन से गरीब होने पर भी मन का अमीर और उदार है। अतिथि का सत्कार करना वह अपना परम धर्म मानता है।
स्वतन्त्रता के बाद भारतीय किसान के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया है। सरकार ने इसे अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान की हैं। अब उसका जीवन बहुत नगर- जीवन के समान बनता जा रहा है। वह उत्तम बीजों के महत्त्व तथा आधुनिक मशीनों का प्रयोग करना सीख गया है। शिक्षा के प्रति भी उसकी रुचि बढ़ी है। अब उसकी सन्तान देश में ही नहीं विदेश में भी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त कर रही है। अब सेठ – साहूकार भी उसे शीघ्र अपना शिकार नहीं बना सकते। ग्राम पंचायतें भी उसे जागृति प्रदान कर रही हैं।
किसान अन्नदाता है। वह समाज का हितैषी है। उसके सुख में ही देश का सुख है। उसकी समृद्धि में ही देश की समृद्धि है। आशा है कि भविष्य में किसान भरपूर उन्नति करेगा। शिक्षा उसके जीवन में नयी चमक लाएगी। देश को उस पर गर्व है।
35. प्रदूषण की समस्या
मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है। जब वह प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता तब तक उसका जीवन सहज और स्वाभाविक गति से चलता है। विज्ञान की प्रगति के कारण औद्योगिक विकास में मनुष्य की रुचि इतनी बढ़ गई है कि वह प्रकृति के साथ अपना सामंजस्य प्रायः समाप्त कर बैठा है। औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण तीव्र गति से बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि प्रकृति में किसी प्रकार की गन्दगी नहीं, उसका बदलता हुआ रूप प्राणी जगत् को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाता ।
आज के औद्योगिक युग में संयंत्रों, मोटर वाहनों, रेलों तथा कल-कारखानों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है। ये उद्योग जितने बढ़ेंगे, उतनी ही ज्यादा गर्मी फैलाएंगे। धुएं में कार्बन मोनोऑक्साइड काफ़ी मात्रा में निकलती है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। अनुमान लगाया गया है कि 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन जितनी ऑक्सीजन का प्रयोग करता है, उतनी ऑक्सीजन मनुष्य को एक वर्ष के लिए चाहिए। हवाई जहाज़, तेल- शोधन, चीनी मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज़, रबड़ के कारखाने आदि को ईंधन की आवश्यकता होती है। इस ईंधन के जलने से जो धुआं उत्पन्न होता है, उससे प्रदूषण फैलता है। यह प्रदूषण एक जगह स्थिर नहीं रहता बल्कि वायु के प्रवाह में यह तीव्र गति से सारे संसार को कुप्रभावित करता है। घनी आबादी वाले क्षेत्र इससे अधिक प्रभावित होते हैं। वायु में प्रदूषण फैलता है और ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।
टोकियो विश्व भर में सबसे अधिक प्रदूषित नगर है। यहां पुलिस के लिए जगह-जगह पर ऑक्सीजन के सिलिंडर लगे रहते हैं ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे उसका उपयोग कर सकें। धुएं और कोहरे की स्थिति में हवा को छानने के लिए मुंह पर पट्टी बांधनी पड़ती है। इस पर भी यहां आँख, नाक और गले के रोगों की अधिकता बनी रहती है। लन्दन में चार घण्टों तक ट्रैफिक सम्भालने वाले सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पीये हों।
प्रदूषण की समस्या के पीछे जनवृद्धि का संकट भी काम कर रहा है। इस जन-वृद्धि के कारण ग्रामों, नगरों तथा महानगरों को विस्तार करने की आवश्यकता का अनुभव हो रहा है। परिणामस्वरूप जंगल काटकर वहां बस्तियां बसाई जा रही हैं। वृक्षों और वनस्पतियों की कमी के कारण प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में असन्तुलन पैदा हो गया है। प्रकृति जो जीवनोपयोगी सामग्री जुटाती है, उसकी अपेक्षा हो रही है। प्रकृति का स्वस्थ वातावरण दोषपूर्ण हो गया है। इसी को पर्यावरण या प्रदूषण की समस्या कहा जाता है। कलकारखानों की अधिकता के कारण वातावरण दूषित होता जा रहा है। वाहनों तथा मशीनों के शोर से ध्वनि प्रदूषण फैलता है जिसमें कानों के बहरे हो जाने का डर बना रहता है। मनुष्य अनेक प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक रोगों का शिकार बनता जा रहा है।
जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ ताल-मेल स्थापित नहीं करता तब तक उसकी औद्योगिक प्रगति व्यर्थ है। इस प्रगति को नियन्त्रण में रखने की ज़रूरत है। मशीन हम पर शासन न करे बल्कि हम मशीन पर शासन करें। हम ऐसे औद्योगिक विकास से विमुख रहें, जो हमारे सहज जीवन में बाधा डाले। हम वनों, पर्वतों, जलाशयों और तालाबों के लाभ से वंचित न हों।
नगरों के साथ-साथ ग्राम भी संपन्न बने रहें क्योंकि बहुत-सी बातों में नगर ग्रामों पर निर्भर करते हैं। नगर-संस्कृति के साथ-साथ संस्कृति का भी विकास होता रहे ।
प्रदूषण की समस्या से बचने के लिए यह ज़रूरी है कि विषैली गैस, रसायन तथा जलमल को उत्पन्न करने वाले कारखानों को आवास के स्थानों से कहीं दूर खुले स्थानों पर स्थापित किया जाए ताकि नगर-वासियों को प्राकृतिक खुराक (ऑक्सीजन, प्राणवायु) प्राप्त होती रहे। इसके साथ ही नगरों के जल-मल को बाहर निकालने वाले नालों को ज़मीन के नीचे दबाया जाए ताकि यह वातावरण को प्रदूषित न कर सकें। वन महोत्सव के महत्त्व को समझते हुए बाग-बगीचों का विकास किया जाए। सड़कों के किनारों पर वृक्ष लगाए जाएं।
औद्योगिक उन्नति एवं प्रगति की सार्थकता इसमें है कि मनुष्य सुखी, स्वस्थ एवं सम्पन्न बना रहे। इसके लिए यह जरूरी है कि प्रकृति को सहज रूप में अपना कार्य करने के लिए अधिक-से-अधिक अवसर दिया जाए ।
36. वन महोत्सव
अथवा
वृक्षारोपण
अथवा
पेड़-पौधे और हम
आदिकाल से ही प्रकृति के साथ मनुष्य का गहरा सम्बन्ध आ रहा है। मनुष्य ने प्रकृति की गोद में ही जन्म लिया और उसी ने अपने भरण-पोषण की सामग्री प्राप्त की। प्रकृति ने ही मानव जीवन को संरक्षण प्रदान किया। हिंसक पशुओं की मार से बचने के लिए उसने ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का सहारा लिया। वृक्षों के मीठे फलों को खा कर अपनी भूख को मिटाया। सूर्य की तीव्र गर्मी से बचने के लिए उसने शीतल छाया प्रदान करने वाले वृक्षों का सहारा लिया। घने वृक्षों के नीचे झॉपड़ी बना कर मनुष्य ने अपनी तथा अपने परिवार को आंधी, वर्षा, शीत के संकट से बचाया। श्री राम चन्द्र, सीता तथा लक्ष्मण ने भी पंचवटी नामक स्थान पर कुटिया बना कर बनवास का लम्बा जीवन व्यतीत किया था। पंचवटी की शोभा ने कुटिया की शोभा को द्विगुणित कर दिया था। गुप्त जी ने शब्दों में-‘पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्ण कुटीर बना।
वृक्षों की लकड़ी से भी मनुष्य अनेक प्रकार के लाभ उठाता रहा है। जैसे-जैसे मनुष्य सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ता गया। वैसे-वैसे वृक्षों का उपयोग भी बढ़ता गया। इनकी लकड़ी से आग जला कर भोजन पकाया। मकान और झोंपड़ियां बनाई। नावें बनीं, मकानों की छतों के लिए शहतीर बने, दरवाजे और खिड़कियां बनीं। वर्तमान युग में लकड़ी का जिन रूपों में उपयोग बढ़ा है, उसका वर्णन करना सरल काम नहीं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कोई ऐसा भवन नहीं जहां लकड़ी की वस्तुओं का उपयोग न होता हो। वृक्षों की उपयोगिता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अगर वृक्ष न होते तो संसार में कुछ भी न होता।
वृक्षों के बल दिया। पीपल की पूजा इस तथ्य का प्रमाण है। आज भी यह प्रथा प्रचलित है। पीपल को काटना पाप की कोटि में आता है। इससे वृक्ष-सम्पत्ति की रक्षा का भाव प्रकट होता है। पृथ्वी को हरा-भरा, सुन्दर तथा आकर्षक बनाने में वृक्षों का बहुत बड़ा योगदान है। इस हरियाली के कारण ही बाग-बगीचों का महत्त्व है।
वृक्षों की अधिकता पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाती है। मरुस्थल के विकास को रोकने के लिए वृक्षारोपण की बड़ी आवश्यकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां का जीवन खेती पर ही निर्भर करता है। खेतों के लिए जल की आवश्यकता है। सिंचाई का सबसे उत्तम स्रोत वर्षा है। वर्षा के जल की तुलना में नदियों, नालों, झरनों तथा ट्यूबवैलों के जल का कोई महत्त्व नहीं। इनके अभाव की पूर्ति भी वर्षा ही करती है। वर्षा न हो तो इनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। अनुकूल वर्षा तो उस प्रभु का प्रसाद है, जिसे पा कर चराचर को तृप्ति का अनुभव होता है। आकाश में चलती हुई मानसून हवाओं को वृक्ष अपनी ओर खींचते हैं। वे वर्षा के पानी को चूसकर उसे धरा की भीतरी परतों तक पहुंचा देते हैं जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होती है।
वृक्षों से हमारे स्वास्थ्य को भी लाभ पहुंचता है, हम अपनी सांस के द्वारा जो विषैली हवा बाहर निकालते हैं। उसे वृक्ष ग्रहण कर लेते हैं और बदले में हमें स्वच्छ और स्वास्थ्यप्रद वायु प्रदान करते हैं । वृक्ष एक प्रकार से हवा को स्वच्छ रखने में सहायता देते हैं । आँखों के लिए हरियाली अत्यन्त लाभकारी होती है। इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है। यही कारण है कि जीवन में हरे रंग का बड़ा महत्त्व दिया जाता है। वृक्षों की छाल तथा जड़ें दवाइयों के निर्माण में भी प्रयुक्त होती है।
वृक्षों की शोभा नयनाभिराम होती है। तभी तो हम अपने घरों में भी छोटे-छोटे पेड़पौधे लगवाते हैं। उनकी हरियाली और कोमलता हमें मन्त्र-मुग्ध कर देती है। वृक्षों पर वास करने वाले पक्षियों की मधुर ध्वनियां वातावरण में संगीत भर देती हैं। वृक्षों से प्राप्त होने वाले फल, आदि खाद्य समस्या के समाधान में सहायता करते हैं। कुछ पशु ऐसे हैं जो वृक्षों से ही अपना आहार प्राप्त करते हैं। ये पशु हमारे लिए बड़े उपयोगी हैं।
वृक्षों की वृद्धि के लिए ही वन महोत्सव का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । वन सुरक्षा तथा उसकी उन्नति के सम्बन्ध में सन् 1952 में एक प्रस्ताव पास कर के यह मांग की गई थी कि समस्त क्षेत्रफल के एक तिहाई भाग में वनों एवं वृक्ष को लगाया जाए। वृक्षों का अभाव जीवन में व्याप्त अभावों की खाई को गहरा करता है। प्राकृतिक सभ्यता को मनमाने ढंग से नष्ट करने का अभिप्राय सभ्यता को ह्रास की ओर ले जाना है। भारत में 15,000 विभिन्न जातियों के पेड़-पौधों पाए जाते हैं। यहां लगभग 7 करोड़, 53 लाख हेक्टेयर भूमि वनों से ढकी हुई है। इस प्रकार पूरे क्षेत्रफल के 23 प्रतिशत भाग में वन भूमि है। आवश्यकता वनों को बढ़ाने के लिए है। सभी प्रदेशों की सरकारें इस दिशा में जागरूक हैं। देश के विद्वान् तथा वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे हैं कि वन-सम्पदा की वृद्धि भी उतनी ज़रूरी है जितनी अन्य प्रकार के उत्पादनों की वृद्धि की आवश्यकता है। अतः जनता का तथा सरकार का यह कर्तव्य है कि पेड़-पौधों की संख्या बढ़ाई जाए। सूने तथा उजाड़ पर वृक्ष लगाए जाएं। नदी नालों पर वृक्ष लगाने से उनकी प्रवाह दिशाओं की स्थिर किस जा सकता है। वृक्षों की लकड़ी से अनेक उद्योग-धन्धों को विकसित किया जा सकता है। अनेक प्रकार की औषधियों के लिए जड़ी-बूटियां प्राप्त की जा सकती है।
स्पष्ट हो जाता है कि वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं, अतः उनक संरक्षण एवं उनकी वृद्धि में प्रत्येक भारतवासी को सहयोग देना चाहिए। वृक्ष हमारा जीवन हैं। इसके अभाव में हमारे जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। वृक्षों को काटे बिना गुजारा नहीं पर उनको काटने के साथ-साथ नये वृक्ष लगाने की योजना भी बनानी चाहिए। जितने वृक्ष काटे जाएं, उससे अधिक लगाए जाएं। वृक्षारोपण की प्रवृत्ति को प्रबल बना कर ही हम अकाल तथा महामारी जैसे प्रकोपों से मुक्त हो सकते हैं।
37. जम्मू के दर्शनीय स्थान
अथवा
मेरी जम्मू यात्रा
भारत एक महान् देश है। यह अपने अतीत वैभव के लिये ही नहीं बल्कि अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक परम्परा के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां का हर प्रदेश तथा हर नगर कुछ उल्लेखनीय विशेषताएं रखता है। जम्मू प्रान्त अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण आकर्षण का केन्द्र है, जो पर्यटक कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शनों के लिये जाते हैं, वे जम्मू के कुछ आकर्षक स्थलों को देखने का भी कार्यक्रम बनाते हैं। जम्मू क्षेत्र के लोग अक्खड़ हैं, यहां के डोगरा राजपूत शूरवीर सैनिकों के रूप में प्रसिद्ध हैं। यहां की भाषा डोगरी है जो पंजाबी भाषा का ही एक रूप है। डोगरी भाषा हिन्दी से भी मिलती है। यहां के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है—
मानसर झील जम्मू जिला की प्रसिद्ध झील है। यह शिवालिक पर्वत शृंखलाओं के मध्य विद्यमान है। यह झील अपने अद्भुत सौन्दर्य के कारण पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। इसका जल शीतल तथा पीने योग्य है । यह 2-1/2 किलोमीटर लम्बी तथा 1-1/2 किलोमीटर चौड़ी है। इसके तट पर उमापति महादेव तथा नृसिंह भगवान् के प्राचीन मन्दिर हैं। इसके तट पर आमों का एक बाग है। आम्र मंजरियों की सुगन्ध वातावरण को मोहक बना देती है। झील में भ्रमण करने के लिए नौकाएं उपलब्ध रहती हैं। पर्यटकों के ठहरने के लिए यहां एक डाक बंगला भी है।
सरुइसर – सरुइसर नामक झील यहां की अन्य प्रसिद्ध झील है। यह जम्मू से पूर्व दिशा की ओर 40 किलोमीटर की दूरी पर पर्वतीय आंचल में स्थित है। इस झील की लम्बाई 1-1/2 किलोमीटर तथा चौड़ाई 3- 3/4 किलोमीटर है। प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण होने के 2 4 कारण यह झील भी दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र है।
कैलाश झील – यह झील समुद्र से 13000 फुट से भी अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण सौंदर्य और आकर्षण का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करती है। यह झील भद्रवाह से लगभग 16 किलोमीटर उत्तर-दक्षिण में स्थित है। यह झील एक तीर्थ-स्थान के समान भी मान्य है।
भद्रवाह – इसका अपना प्राकृतिक महत्त्व है। नीरु नामक नदी इस स्थान के सौंदर्य को चार चांद लगा देती है। यह स्थान जम्मू से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
सनासर – यह झील छोटी होने पर भी प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। – कुछ प्रकृति के आंचल में लम्बे-लम्बे छायादार वृक्षों से घिरा हुआ है। जम्मू-कश्मीर राजपथ पर स्थित यह गाँव अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। यहां मीठे पानी के कई झरने हैं। यहां का जलवायु स्वास्थ्य के लिए बड़ा लाभप्रद है।
बटोत – यह एक सुन्दर उपनगर है। यह जम्मू-कश्मीर राजपथ पर स्थित है। यह नगर समुद्र तल से 5000 फुट की ऊँचाई पर पर्वत की ढलान पर बसा है। क्षय रोगियों के उपचार के लिए यहां एक औषधालय भी है। यात्रियों के ठहरने के लिए यहां प्रबन्ध है। बटोत के निकट ही ‘अमृत चश्मा’ है जिसका जल अजीर्ण रोग के लिए बड़ा उपयुक्त है।
नूरी छम्ब अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। यह राजौरी जिले के अन्तर्गत पर्वतीय श्रृंखला के पूर्व में स्थित है। जहांगीर की मलिका नूरजहां को यह स्थान बहुत प्रिय था। उसी के नाम पर इस स्थान का नाम नूरी छम्ब पड़ा है। नूरी छम्ब एक जल प्रपात है। यहां गिरते हुए जल का सौंदर्य देखते ही बनता है । यह जम्मू से 229 किलोमीटर की दूरी पर है।
बबौर के मन्दिर – यह भी यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र है। यहां के मन्दिर जीर्ण होने पर भी अपने कलात्मक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। यह जम्मू से 58 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पांच पुराने मन्दिर हैं। देवी का मन्दिर तथा काला देहदा देखने योग्य है । देवी के मन्दिर के द्वारा स्तम्भ पर मगर आरूढ़ एक मीटर ऊँची प्रतिमा है जो सर्वश्रेष्ठ मूर्तियों में गिनी जाती है।
बलबार नामक स्थान पर भी एक प्राचीन मन्दिर है । यह मन्दिर जीर्ण ( टूटी-फूटी) अवस्था में है। इस मन्दिर को देखने के लिए भी यात्रियों की भीड़ उमड़ती रहती है ।
किर्मची के मन्दिर वास्तुकला का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ये मन्दिर ऊधमपुर नगर से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर वीरवां उपनदी के तट पर स्थित हैं। इन मन्दिरों का शिल्प भुवनेश्वर के मन्दिरों से मिलता-जुलता है। ये मन्दिर भी अत्यन्त प्राचीन हैं। दर्शक इन्हें देखने के लिये दूर-दूर से आते हैं।
कुछ यात्री अखनूर नगर के निकट चन्द्रभागा नदी के तट पर एक प्राचीन दुर्ग के निकट थेह नामक स्थान पर हड़प्पा युग के अवशेषों को देखने के लिए आते हैं। यहां से प्राप्त कुछ वस्तुएं लाहौर म्यूज़ियम में रखी गई हैं। यहां पर एक पुराने शिव मन्दिर के अवशेष भी विद्यमान हैं।
जम्मू क्षेत्र के कुछ महल भी यात्रियों के लिए मनोरंजन की सामग्री जुटाते हैं। जम्मू प्रान्त में जसवोटे के महल, बसोहली के महल, चनैनी के महल, रामनगर के महल, रियासी के महल तथा जम्मू के कुछ पुराने महल भी यात्रियों के लिए आकर्षण केन्द्र बने हुए हैं l
जम्मू क्षेत्र में कुछ धार्मिक स्थल भी अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। रघुनाथ मन्दिर, रणवीरेश्वर मन्दिर तथा परिखोह के दर्शन कर यात्री स्वयं को धन्य मानते हैं। वैष्णो देवी का महत्त्व तो अक्षण्य है। देश ही नहीं विदेश तक से लोग इस तीर्थ स्थान के दर्शन करने के लिए पधारते हैं ।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि जम्मू का क्षेत्र अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यह एक ऐतिहासिक, धार्मिक तथा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण क्षेत्र है। इस स्थल की यात्रा जहां यात्री के ज्ञान – क्षितिज का विस्तार करती है, वहां उसके लिए मनोरंजन की सामग्री भी जुटाती है।
38. कश्मीर के पर्यटन स्थल
अथवा
कश्मीर के दर्शनीय स्थान
अथवा
मेरी पर्वतीय यात्रा
प्रकृति यहां एकांत बैठि निज रूप संवारति ।
पल-पल पलटति भेस, छनकि छवि छिन्न- छिन्न धारति ।
विमल-अम्बू सर मुकुरन महमुख बिम्ब निहारति ।
अपनी छवि पै मोही आप ही तन-मन वारति ॥
भारत की महानता उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक परम्पराओं में ही नहीं बल्कि प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से भी इसका अपना विशेष महत्त्व है। कश्मीर प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण प्रदेश है। प्रकृति इस पर विशेष रूप से कृपालु रही है। प्राचीन काल से ही भारत के इतिहास में कश्मीर का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। भारत के मानचित्र में कश्मीर उसी तरह शोभायमान है, जिस तरह रेशमी वस्त्र पर सुरुचि तथा सुन्दरता से कढ़ा हुआ कोई बूटा सुशोभित होता है।
कश्मीर के निवासी स्वभाव से सरल, सीधे-सादे तथा कर्मठ होते हैं। ठंडे प्रदेशों में बसने वाले लोगों की तरह इनका रंग गोरा होता है। ऊँची, नुकीली नाक इनके चेहरे की विशेषता है। यहां के लोगों ने हस्तकला को पर्याप्त विकसित किया है, जिसमें गर्म शाल, बिछाने के नमदे की कढ़ाई, लकड़ी पर नक्काशी तथा कागज़ की लुग्दी से बनती रंगबिरंगी वस्तुएं मुख्य हैं। ग्रीष्म ऋतु में जब सपाट मैदानी क्षेत्र तपते हैं तभी लोगों का मन कश्मीर की शीतलता प्राप्त करने के लिये बेचैन हो उठता है। शीत ऋतु में भी कश्मीर की यात्रा लाभदायक होती है। कश्मीर में यात्रियों के आकर्षण के कई स्थल हैं। इनमें कुछ का विवरण इस प्रकार है—
वेरीनाग – पीर पंचाल की गोदी में अवस्थित यह स्थल अत्यन्त सुन्दर है। यहां अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से सुसज्जित उद्यान हैं। यहीं से वितस्ता नदी अपने लघु आकार में आरम्भ होती है। प्रसिद्ध है कि मुगल सम्राट् अकबर ने वेरी कुण्ड बनवाया तथा एक बाग भी लगवाया। यह स्थल यात्रियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
अच्छाबल- यह प्रसिद्ध बाग है। यह अनन्तनाग से थोड़ी दूर है। यह भी अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है।
शालीमार बाग – काश्मीर के सुन्दर बागों में अपना विशेष स्थान रखता है। सुगन्धित फूलों की महक इस बाग के महत्त्व को और भी बढ़ा देती है। इसमें अनेक फलदार वृक्ष हैं। यह बाग डल झील के तट पर स्थित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर लगता है।
निशात बाग- श्रीनगर से सात-आठ किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह भी एक मुगल बाग है तथा डल झील के तट पर ही स्थित है। इसकी शोभा भी दर्शनीय है। यह मुगल राजकुमारियों का प्रिय बाग रहा है। यह बाग सीढ़ीनुमा है और फूलों से सुसज्जित है।
चश्माशाही- यह भी एक सुन्दर मुगल बाग है। यह बाग इतना सुन्दर है कि इसे देखकर आँखों के सामने स्वर्ग का सा दृश्य घूमने लगता है।
कुक्कर नाग- अच्छाबल से आगे एक पर्वतीय आंचल में बसा स्थान है। यह यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र है। यह स्वास्थ्यवर्द्धक स्थान है। यहां पानी के कई छोटे-छोटे झरने झर-झर करते कानों तथा आँखों को सुखद लगते हैं। इन झरनों का पानी अजीर्ण रोगियों के लिए लाभकारी माना जाता है। यात्रियों के ठहरने के लिए यहां विश्रामालय तथा होटल उपलब्ध हैं।
मटन तथा मार्तण्ड- अनन्त नाग के निकट है। मटन हिन्दुओं का एक प्राचीन तीर्थ स्थान है। यहां एक जल कुण्ड है, जिसमें तैरती हुई मछलियां बड़ी सुन्दर दिखाई देती हैं। मटन के पास एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मार्तण्ड मन्दिर है। यह मन्दिर भारत के प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिरों में से एक है। कहा जाता है कि इसका निर्माण प्रतापी राजा ललितादित्य ने करवाया था। यह मन्दिर लगभग 20 मीटर ऊँचा था।
पहलगाम – हिम नदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध प्राकृतिक स्थल है। यहां का जलवायु स्वास्थ्य के लिए बड़ा लाभकारी माना जाता है। यह स्थान न केवल भारतवासियों के लिए बल्कि विदेशों में बसने वाले लोगों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। यहां पयर्टकों के ठहरने का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध है।
शेषनाग झील- यहां की एक प्रसिद्ध झील है। पहलगांव से चन्दनबाड़ी तक सड़क यात्रा द्वारा तथा आगे पगडंडी की चढ़ाई चढ़ने के बाद यात्री शेषनाग नामक झील पर पहुंचते हैं। यह झील पहलगांव से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। इसका जल अत्यन्त निर्मल है । अवन्तिपुर के मन्दिर की शोभा भी दर्शनीय है। प्रसिद्ध है कि इन मन्दिरों को कश्मीर के राजा अवान्तार्मन ने बनवाया था। यहां एक अवन्तेश्वर शिव मन्दिर है तथा दूसरा अवन्तिस्वामिन का मन्दिर है। ये मन्दिर कश्मीर की वास्तु कला का सुन्दर नमूना प्रस्तुत करते हैं।
झील डल – यात्रियों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। यात्री हाऊस बोट तथा नावों द्वारा इस झील के भीतर का आनन्द लेते हैं।
झील वुल्लर – यह भी अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। इसमें भी दिन भर नौकाएं तैरती रहती हैं।
गुलमर्ग- यहां तक पहुंचने का रास्ता तथा उस रास्ते में पड़ने वाले दृश्य अत्यन्त मोहक हैं। यहां का खुला मैदान सर्दियों में बर्फ से ढक जाता है। यात्री इसके ऊपर फिसलने लेते हैं। गुलमर्ग के समान सोनमर्ग भी प्राकृतिक शोभा का घर है। इन स्थानों के अतिरिक्त खीर भवानी, शंकराचार्य का मन्दिर, हरि पर्वत का किला भी दर्शनीय हैं। कश्मीर का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटक के हृदय पर अपना स्थाई प्रभाव अंकित कर देता है। इस स्थान को बार-बार देखने के लिए जी ललचाता है।
39. दैवी प्रकोप- बाढ़
मनुष्य आदिकाल से ही प्रकृति की शक्तियों से संघर्ष करता चला आ रहा है। उसने अपनी बुद्धि के बल पर प्रकृति के अनेक रहस्यों का उद्घाटन करने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन प्रकृति पर पूर्ण विजय प्राप्त करना उसके लिये कदापि सम्भव नहीं हो सकता । प्रकृति अजेय है। यह परिवर्तनशील है। यह अनेक रूपों में हमारे सामने आती है। यह कभी कोमल रूप में दृष्टिगोचर होती है तो कभी कठोर रूप धारण कर मनुष्य को विवश एवं असहाय बना देती है।
प्रकृति की लीला अद्भुत है। जब यह प्रसन्न होकर घूमती है तो नन्दन वन की शोभा छा जाती है। कभी उसकी हरीतिमा पर मन मुग्ध हो जाता है तो कभी मंद, शीतल और सुगन्धित वायु तन के ताप को दूर कर देती है। लगता है कि प्रकृति आनन्द का स्रोत है लेकिन जब यह ममतालु और दयालु प्रकृति कुपित होती है तो मनुष्य त्राहि-त्राहि कर उठता है। उसके अहं और शक्ति का पर्वत चूर-चूर हो जाता है। आंधी-तूफान, भूकम्प, अकाल, अनावृष्टि, अतिवृष्टि प्रकृति के क्रोध के परिचायक हैं। अतिवृष्टि का परिणाम है – ‘बाढ़’ ।
बाढ़ प्रकृति का एक बहुत भीषण स्वरूप है। भारत एक विशाल देश है। यहां प्रकृति विभिन्न क्षेत्रों में अपना विभिन्न प्रभाव दिखाती है। प्रत्येक वर्ष भारत के किसी-न-किसी भाग में अतिवृष्टि के परिणामस्वरूप बाढ़ अपना प्रकोप दिखाती है। अधिक वर्षा के कारण धरती जलमय हो जाती है। नदियों के बांध टूट जाते हैं। बाढ़ का जल प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ने लगता है। उसकी भूख इतनी भयंकर हो उठती है कि वह सब कुछ निगल जाना चाहता है। उसकी क्रूर लपेट में जो कुछ भी आता है मिट जाता है, चूर-चूर हो जाता है, अस्तित्वहीन हो जाता है। जल के तीव्र वेग से बड़े-बड़े वृक्ष उखड़ जाते हैं । मनुष्य, पशुपक्षी बाढ के भीषण प्रवाह में बह जाते हैं। घास-फूस की झोपड़ियां तथा कच्चे मकान ही नहीं, ईंट और पत्थर के बने बड़े-बड़े भवन तक धराशायी हो जाते हैं । धन-दौलत तथा अमूल्य सामग्री जल देवता की भेंट चढ़ जाती है।
बाढ़ का कुप्रभाव सारे जीवन के रंग को बेरंग बना देता है। बाढ़ – ग्रस्त क्षेत्र जन-शून्य हो जाता है। बाढ़ चली जाती है पर अपने नाश और क्रोध की गहरी छाप छोड़ जाती है। लोग बेघर हो जाते हैं। फसलें बरबाद हो जाती हैं। उद्योग-धन्धे अस्त-व्यस्त हो जाते हैं लोगों को रहने के लिए कैम्पों का सहारा लेना पड़ता है। पहनने के लिए कपड़ों का अभाव, अन्न-जल की समस्या आदि बाढ़-ग्रस्त लोगों का जीना दूभर कर देती है। बाढ़ धनवानों को निर्धनों की कोटि में तथा निर्धनों को अकिंचनों में ला खड़ा करती है। सर्वत्र दुःख, अभाव और निराशा का वातावरण छा जाता है।
बाढ़ जैसे भयंकर प्रकोप के समय ही मनुष्य की मनुष्यता की परख होती है। साहसी मनुष्य अपनी जान पर खेल कर बाढ़ में घिरे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाते हैं।
सरकार सैनिकों को सक्रिय कर देती है। समाज सेवी संस्थाएं तथा स्वयं सेवक आगे बढ़कर बाढ़ पीड़ितों की सहायता में जुट जाते हैं। नावों एवं हैलीकाप्ट्रों की सहायता से बाढ़ से घिरे लोगों को बाहर निकाला जाता है। ऐसी विपत्ति के अवसर पर सब का कर्त्तव्य बन जाता है कि वे आपसी वैमनस्य का परित्याग कर परोपकार का मार्ग अपनाएं । जनता की उदारता तथा सहायता के बिना सरकार भी कुछ नहीं कर सकती ।
भारत को प्रतिवर्ष किसी-न-किसी भाग में बाढ़ के प्रकोप का कुपरिणाम भुगतान पड़ता है। कभी माँ की संज्ञा पाने वाली गंगा अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर अपनी सन्तान को पीड़ित करती है तो कभी यमुना का प्रकोप दिल्ली तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को भयभीत करता है। कभी गोमती का पागलपन बढ़ जाता है तो कभी दक्षिण भारत की नदियां अंधी दौड़ लगाना शुरू कर देती हैं। कभी ब्रह्मपुत्र ताण्डव रूप धारण कर आसाम को पीस डालता है तो कभी पंजाब की नदियां भृकुटि तान कर उसे भयभीत कर देती हैं । गत वर्ष भारत के कई क्षेत्रों में बाढ़ का प्रभाव रहा है। इससे धन, माल तथा जान की पर्याप्त हानि हुई।
बाढ़ एक प्राकृतिक प्रकोप है। इसको रोका नहीं जा सकता। इससे बचने के उपाय किए जा सकते हैं। भारत सरकार इस दिशा में सक्रिय है। उसने अनेक डैमों का निर्माण कर जल पर नियन्त्रण ही नहीं किया बल्कि उससे बिजली उत्पन्न कर अनेक उद्योगों-धन्धों के विकास में भी अपना योगदान दिया है।
देश पर जब कभी भी बाढ़ के रूप में आपत्ति आये, हमारा कर्त्तव्य है कि हम तन, मन और धन से बाढ़ पीड़ितों से सहायता करें। मनुष्य परोपकार द्वारा ही अपनी मनुष्यता को सार्थक बना सकता है।
40. प्रदर्शनी
प्रदर्शनी ज्ञान और मनोरंजन का स्रोत है। प्रदर्शनी में समय का भी सदुपयोग होता है। प्रदर्शनी में व्यतीत किया गया समय कभी निष्प्रयोजन नहीं कहा जा सकता। यहां तो ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ वाली लोकोक्ति चरितार्थ होती है। अनेक पुस्तकों के अनेक पन्ने पढ़ने पर भी जो ज्ञान लाभ नहीं होता, वह प्रदर्शनी में कुछ घण्टे बिताने पर प्राप्त हो जाता है।
कुछ दिन पहले मुझे अपने माता-पिता के साथ देहली में आयोजित प्रदर्शनी देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रदर्शनी के लिये एक विस्तृत तथा विशाल क्षेत्र चुना गया था। उसके चारों ओर कृत्रिम किन्तु आकर्षक दीवार बनाई गई थी। प्रदर्शनी के आस-पास का वातावरण बड़ा मोहक था। वहां की चहल-पहल जादू का-सा प्रभाव डालती थी ।
प्रदर्शनी का मुख्य द्वार इतना सुन्दर बनाया गया था कि उसे देखकर लगता था कि मानो यहां कोई मंगल वर्ष मनाया जा रहा है। प्रदर्शनी में प्रवेश करने पर ऐसा विदित होता था जैसे हम किसी दिव्य लोक में आ गये हों। प्रदर्शनी में भारत के विभिन्न प्रदेशों की झलक दिखाई दे रही थी ।
किसी स्टाल के आगे गुजरात दर्शन लिखा था तो किसी के आगे ‘पंजाब-दर्शन’ लिखा गया था। कहीं ‘बिहार-यात्रा’ लिखा था तो कहीं ‘उत्तर प्रदेश’ की ‘झलक’ झलक रही थीं। एक स्थान पर ‘पृथ्वी’ का स्वर्ग कश्मीर’ लिखा था । वह स्थान कश्मीर के दर्शनीय स्थलों के चित्रों से घिरा हुआ था।
एक स्थान पर समाचार-पत्रों का ढेर था। इसे देखकर समाचार पत्र की कला के क्रमिक विकास का बोध होता था। एक स्थान पर विभिन्न विषयों की पुस्तकों का अम्बार लगा था। इनमें कुछ पुस्तकें अत्यन्त आकर्षक थीं। ये पुस्तकें अलग-अलग प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की गई थीं। कविता, उपन्यास, कहानी संग्रह, निबन्ध, आलोचना तथा जीवनी के ऊपर अलग-अलग लेखों की रची हुई पुस्तकें थीं।
प्रदर्शनी में स्थान – स्थान पर अनेक संस्थाओं ने अपने अतीत की सफलताओं पर प्रकाश डालने तथा भावी प्रगति के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की पूरी कोशिश की थी। विज्ञान के चमत्कारों को सूचित करने वाला विभाग अलग था। अनेक प्रकार के मॉडल तथा चार्ट बनाकर रखे गये थे। कृषि विभाग के लोग भी वहां उपस्थित थे। नाना प्रकार के बीज, खाद आदि बड़ी सजावट के साथ रखे गये थे। कुछ क्यारियां बनाकर उनमें कपास, चना, ईख, धान, गेहूँ आदि के पौधे भी लगाये गये थे। विभिन्न पौधों का आकर्षण मन को मोह रहा था। कृषि संबंधी आधुनिक यंत्रों को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे।
प्रदर्शनी में अनेक दुकानें थीं। इन दुकानों में अनेक प्रकार की चीजें सजाकर रखी गई थीं । अनेक प्रकार के कपड़े, बर्तन, गहने, फर्नीचर, मिठाइयां इन दुकानों की शोभा बढ़ा रही थीं ।
प्रदर्शनी में लोग इस प्रकार आ जा रहे थे मानो कोई जुलूस आ जा रहा हो । अविरल प्रवाह को देखकर ऐसा लगता था मानो कोई नगर ही अपनी चहल-पहल के साथ यहां आकर बस गया हो। बच्चे, बूढ़े, युवक, युवतियां तथा प्रौढ़ स्त्रियां – पुरुष सभी उम्र के लोग यहां थे । इस प्रदर्शनी में अपार भीड़ का एक कारण यह भी था कि प्रायः प्रदर्शनी के हर विभाग में दूरदर्शन के सैट पर कोई-न-कोई चलचित्र दिखाया जा रहा था। कुछ दुकानों पर संगीत की हल्की-हल्की धुनें सुनाई दे रही थीं ।
बच्चे खिलौनों और मिठाइयों की दुकानों से हटने का नाम न लेते थे। स्त्रियां कपड़ों और गहनों की दुकानों पर भीड़ बनाये खड़ी थीं ।
इस प्रकार की प्रदर्शनियों का बड़ा महत्त्व होता है । इनसे देश की विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति का परिचय मिलता है। ये देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक तथा आर्थिक प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। कौन-सी चीज बनाने के लिए कौन-सा स्थान प्रसिद्ध है। देश में ऐसी प्रदर्शनियों का आयोजन समय-समय पर होता रहना चाहिए । प्रदर्शनी भूतकाल का भी परिचय देती है और वर्तमान तथा भविष्य की झांकी भी प्रस्तुत करती है ।
41. ईद
ईद मुसलमानों का बहुत बड़ा त्योहार है। सभी लोग महीनों से इसकी प्रतीक्षा करते हैं। गरीब-अमीर सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस त्योहार पर नए कपड़े बनवाते हैं और नए कपड़े पहनकर ही ईद की नमाज़ पढ़ने के लिए ईदगाह जाते हैं। घर-घर में स्वादिष्ट मीठी सिवइयाँ बनती हैं। इन्हें वे स्वयं खाते हैं और इष्ट मित्रों और को भी खिलाते हैं। दुकानें तो बीसों दिन पहले से सिवइयों के बड़े-बड़े ढेरों से पटी रहती हैं।
ईद का पूरा नाम ईदुलफ़ितर है। दूसरी ईद ईदुल्जुहा या बकरीद कहलाती है। ईदुलफ़ितर का त्योहार रमजान के महीने के बाद आता है। उन्तीसवीं और तीसवीं रमजान से ही ‘चाँद कब होगा’, ‘चाँद कब होगा’ की आवाज चारों ओर से सुनाई देने लगती है। जिस संध्या को शुक्ल पक्ष का पहला चाँद दिखाई पड़ता है, उसके अगले दिन ‘ईदुलफ़ितर’ का पर्व उल्लास मनाया जाता है। कभी-कभी चंद्रोदय के समय पश्चिमी आकाश में बादल आ जाते हैं तब अटारियों पर चढ़कर चंद्र-दर्शन के लिए लालायित लोगों को बड़ी निराशा होने लगती है, परंतु तभी प्रायः ढोल पर डंके की चोट पड़ने की आवाज़ सुनाई देती है और बताया जाता है कि इमाम से खबर आ गई है कि चाँद दिखाई दे गया। रमज़ान का महीना समाप्त हुआ, कल ईद है। सभी लोगों के चेहरे पर एक नई चमक आ जाती है। रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना मुसलमानों का फर्ज़ बताया गया है। रोज़े के दिनों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक कुछ भी खाने-पीने की इजाज़त नहीं है। सूर्यास्त के समय ही कुछ खा-पी कर रोज़ा खोला जाता है।
ईद हमारे देश का एक पर्व है। जिस प्रकार होली मिलन का त्योहार है। उसी प्रकार ईद भी भाई-चारे का त्योहार है। ईद की नमाज़ के बाद मिलन कार्यक्रम ईदगाह से ही आरंभ हो जाता है। लोग आपस में गले मिलते हैं और एक-दूसरे को ईद की बधाई देते हैं। यह क्रम दिन भर चलता रहता है। बिना किसी भेद-भाव के लोग प्रेम से एकदूसरे को गले लगाते हैं और अपने घर आने वालों को सिवइयाँ खिलाते हैं। हम जानते हैं कि हमारे देश में हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, जैन, ईसाई आदि विभिन्न धर्मावलंबी साथसाथ रहते हैं। ईद और होली जैसे मिलन त्योहारों पर वे विशेष रूप से प्रेमपूर्वक एकदूसरे से गले मिलते हैं।
ईद के दिन ईदगाह के आस-पास मेले भी लगते हैं। बच्चों और स्त्रियों के लिए वे विशेष रूप से आकर्षण के केंद्र होते हैं। इन मेलों में तरह-तरह की आकर्षक चीज़ें बेचने वाले दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें सजाकर बैठते हैं। घर गृहस्थी की भी बहुत-सी चीजें यहाँ मिलती हैं, जिन्हें खरीदने के लिए महिलाएँ महीनों पहले से ईद का इंतज़ार करती हैं। बड़े लोग तो बच्चों की ही खातिर इन मेलों में पहुँचते हैं।
सभी भारतीय पर्व चाहे ईद हो या होली, वैसाखी हो या बड़ा दिन, पूरे समाज के त्योहार बन जाते हैं और देशवासियों में एक नई चेतना, जीवन में एक नई दिशा और परस्पर सौहार्द्र और सहयोग का एक नया वातावरण प्रस्तुत करते हैं। अपने जीवन की कठिनाइयों से मुक्त होकर वे पर्व के हर्ष और उल्लास में निमग्न हो जाते हैं।
42. क्रिसमस
विश्व भर में ईसा मसीह का जन्मदिन ‘क्रिसमस’ नाम से जाना जाता है। दीनदुःखियों के दर्द को समझने वाले इस महान् संत ईसा मसीह का जन्म पच्चीस दिसंबर को मनाया जाता है। हिंदी में क्रिसमस को ‘बड़ा दिन’ कहते हैं। ईसा सचमुच महान् महापुरुष थे। उनका जन्मदिन निश्चय ही बड़ा दिन है। ईसाइयों के धर्म ग्रंथ ‘बाइबिल’ में ईसा मसीह की जन्मकथा विस्तार से वर्णित है।
मरियम को स्वर्ण-दूत के प्रदर्शन–’बाइबिल’ के अनुसार नाज़रेथ नगर (फिलिस्तीन) के निवासियों में यूसुफ नामक व्यक्ति थे, जिनके साथ मरियम नामक कन्या की मँगनी (सगाई) हुई थी। एक दिन मरियम को स्वर्ग दूत ने दर्शन देकर कहा, “आप पर प्रभु की कृपा है। आप गर्भवती होंगी, पुत्र रत्न को जन्म देंगी तथा नवजात शिशु का नाम ‘ईसा’ रखेंगी। वे महान् होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलाएँगे।” मरियम को देवदूत के कथन पर विश्वास नहीं हुआ। स्वर्गदूत ने मरियम की शंका का समाधान करके उन्हें प्रभु की अद्भुत शक्ति के बारे में समझाकर शांत किया। मरियम ने सहज भाव से कहा, “मैं प्रभु की दासी हूँ। आपका कथन मुझसे पूरा हो जाए यह हमारी मनोकामनाएँ ।”
कुछ समय बाद वहाँ के शासक ने अपने राज्य में जनगणना का आदेश दिया। यूसुफ और मरियम ‘बेथेलहेम’ नगर में नाम लिखवाकर लौट रहे थे कि मार्ग में मरियम को प्रसव पीड़ा होने लगी। संयोग से एक सराय के मालिक ने उन्हें सराय में जगह दे दी। वहीं मरियम ने संसार के अद्भुत बालक को अस्तबल की चरनी में जन्म दिया। वह प्रदेश चरवाहों का क्षेत्र था । वहाँ चरवाहे रात में अपने जानवरों की सुरक्षा के लिए जाग रहे थे। स्वर्गदूत ने प्रकट होकर चरवाहों से कहा, “आज बेथेलहेम में तुम्हारे मुक्तिदाता प्रभु ईसा मसीह का जन्म हुआ है। तुम बालक को कपड़ों में लिपटा और चरनी में लेटा हुआ पाओगे। उसी को मसीह समझो।” ग्वाले स्वर्गदूत को देखकर डर गए, परंतु उसकी घोषणा से बहुत खुश हुए। संदेश सुनते ही वे तुरंत बेथेलहेम के लिए चल पड़े। उन्होंने यूसुफ, मरियम और बालक को देखा।
ईसा के जन्म के समय आकाश में एक तारा उदित हुआ। तीन ज्योतिषयों ने उस तारे को देखा और देखते-देखते वे येरुसलम पहुँच गए। वे लोगों से पूछ रहे थे कि यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं ? हम उन्हें प्रणाम करना चाहते हैं। वे खोजते खोजते बेथेलहेम के अस्तबल में पहुँचे। वहाँ उन्होंने बालक तथा मरियम को प्रणाम किया।
जन्म के ठीक आठवें दिन उस बालक का नाम जीसस (ईसा) रखा गया । वह दिव्य बालक था । मात्र बारह वर्ष की अवस्था में ही उसने शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े पंडितों को परास्त किया। ईसा मसीह के जीवन के अनेक वर्ष पर्यटन, एकांतवास एवं चिंतन-मनन में बीते। अनेक वर्षों की अथक साधना के बाद ईसा अपनी पवित्र आत्मा के साथ गलीलिया लौटे। उनका यश सुगंध की तरह सारे प्रदेश में फैल गया। वे सभागारों में शिक्षाप्रद एवं ज्ञानवर्धक उद्बोधन देने लगे। उन्होंने अनेक दुःखियों, रोगियों एवं पीड़ितों का दुःख दूर किया, अज्ञानियों को ज्ञान दिया और अंधों को दृष्टि दी। फलतः लोगों को पूरा विश्वास हो गया कि ईसा प्रभु के ही दूत हैं। ईसा ने अपने समय में व्याप्त अनाचारों एवं पापाचारों से समाज को त्राण दिलाया और गिरजाघरों को पवित्रता प्रदान कराई।
ईसा के बढ़ते प्रभाव से तत्कालीन राजा हेरोद चिंतित हो उठे। उन्होंने ईर्ष्यावश ईसा को बंदी बनाकर यहूदी महासभा में अपराधी के रूप में उपस्थित कराया। सभाध्यक्ष ईसा को निर्दोष मानकर उन्हें बंधनमुक्त करना चाहते थे। इस पर सभा के पुरोहितों और सदस्यों ने चिल्ला-चिल्लाकर कहा, ‘इसे क्रूस दीजिए, इसे क्रूस दीजिए।’ सभाध्यक्ष के सामने कोई विकल्प न था। उसने ईसा को सैनिकों के हवाले कर दिया। ईसा मसीह को क्रूस का दंड दिया गया- सिर पर कौंटो का किरीट और हाथ-पाँव में कीलें। उनके अंगों से खून बहने लगा। दर्द से ईसा मन-ही-मन छटपटा रहे थे। ईसा को इस दशा में देखकर जनता रो रही थी। ईसा ने लोगों को सांत्वना दी। शुक्रवार को ईसा मसीह ने प्राण त्याग किया। 20 विश्व भर में ईसाइयों का सबसे बड़ा त्योहार ‘क्रिसमस’ है। प्रभु ईसा के भूमंडल में अवतरित होने से उनके अनुयायियों को शांति मिली। ‘क्रिसमस’ एक महान् पर्व है। इस अवसर पर विभिन्न राष्ट्रों के मध्य बड़े-बड़े और भयंकर युद्ध तक रोक दिए जाते हैं। क्रिसमस के अवसर पर राजाओं के राजा’ ईसा मसीह का स्वागत बड़ी धूमधाम के साथ किया जाता है। इस दिन क्रिसमस के स्तुति गीत (करोल) गाते हुए लोग घर-घर पहुँचते हैं। बालक ईसा के जन्म पर स्वर्ग दूतों ने जो गीत गाया था वही सबसे पहला ‘क्रिसमस करोल’ माना जाता है।
क्रिसमस के दिन सारे विश्व के गिरजाघर अपनी अनोखी सजावट एवं रोशनी के कारण आकर्षण के केंद्र बन जाते हैं। इस दिन विशेष प्रार्थनाओं एवं गीत-संगीत के कार्यक्रमों का भव्य आयोजन होता है। ईसाई बंधुओं के घरों में क्रिसमस केक बनाए जाते हैं, जिन्हें ये लोग अपने ईसाई और ग़ैर-ईसाई मित्रों में भेंट स्वरूप बाँटते हैं। क्रिसमस के दिन नव वर्ष के समान ही विश्व भर में ईसाई जन परस्पर शुभ कामनाएँ भी प्रेषित करते हैं, अतः क्रिसमस कार्ड भी धीरे-धीरे समूचे विश्व में प्रचलन में आते जा रहे हैं। यों तो सारे संसार में क्रिसमस का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, किंतु रोम के वेटिकन नगर में क्रिसमस का उत्सव अत्यंत आकर्षक होता है। यही कैथोलिक धर्म के परम पिता पोप का निवास स्थान है।
वस्तुतः क्रिसमस मानने का मूल उद्देश्य महान् संत ईसा मसीह का पावन स्मरण है जो दया, प्रेम, क्षमा और धैर्य के अवतार थे। संसार में ईसा मसीह के दिव्य संदेश से हर व्यक्ति को विश्व शांति की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।
43. कम्प्यूटर- आज की आवश्यकता
विज्ञान ने मनुष्य को अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान की हैं। इन सुविधाओं में कम्प्यूटर का विशिष्ट स्थान है। इसने विश्व के सभी इन्सानों को गहरा प्रभावित किया है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक इसके बिना स्वयं को अधूरा समझने लगे हैं। कम्प्यूटर के प्रयोग से प्रत्येक कार्य को अविलम्ब किया जा सकता है। यही कारण है कि दिन प्रतिदिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। प्रत्येक उन्नत और प्रगतिशील देश स्वयं को कम्प्यूटरमय बनाने का प्रयास कर रहा है। भारत में भी कम्प्यूटर के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। भारत सरकार देश को कम्प्यूटरमय बनाने के लिये अमेरिका तथा जापान से सम्पर्क स्थापित कर रही है ।
कम्प्यूटर क्या है ? यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है । वस्तुतः कम्प्यूटर ऐसे यांत्रिक मस्तिष्कों का रूपात्मक तथा समन्वयात्मक योग तथा गुणात्मक घनत्व है, जो तीव्रतम गति से न्यूनतम समय में अधिक से अधिक काम कर सकता है। गणना के क्षेत्र में इसका विशेष महत्त्व है। विज्ञान ने गणितीय गणनाओं के लिए अनेक गणनायंत्रों का आविष्कार किया है पर कम्प्यूटर की तुलना किसी से भी सम्भव नहीं।
चार्ल्स बेवेज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में सबसे पहला कम्प्यूटर बनाया। इस कम्प्यूटर की यह विशेषता थी कि यह लम्बी-लम्बी गणनाओं को करने तथा उन्हें मुद्रित करने की क्षमता रखता था। कम्प्यूटर स्वयं ही गणना कर जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान शीघ्र ही कर देता है। कम्प्यूटर द्वारा की जाने वाली गणनाओं के लिये एक विशेष भाषा में निर्देश तैयार किये जाते हैं। इन निर्देशों और प्रयोगों को ‘कम्प्यूटर का प्रोग्राम’ की संज्ञा दी जाती है। कम्प्यूटर का परिणाम शुद्ध होता है। अशुद्ध उत्तर का उत्तरदायित्व कम्प्यूटर पर नहीं बल्कि उसके प्रयोक्ता पर है। कम्प्यूटर के सफल प्रयोग ने अनेक क्षेत्रों में अपनी उपयोगिता सिद्ध की है।
भारतीय बैंकों के खातों का संचालन तथा हिसाब-किताब रखने के लिये कम्प्यूटर का प्रयोग आरम्भ हो गया है फिर भी कम्प्यूटर ने उन्नत देशों के बैंकों में जो स्थान बनाया है, वह अभी भारत में नहीं बना। समाचार पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन में भी कम्प्यूटर अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह कर रहा है। कम्प्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के माध्यम से छपने वाली सामग्री को टंकित किया जा सकता है। टंकित होने वाले मैटर को कम्प्यूटर के पर्दे पर देखा जा सकता है । कम्प्यूटर संचार का भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है। ‘कम्प्यूटर नेटवर्क’ के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है। आधुनिक कम्प्यूटर डिज़ाइन तैयार करने में भी सहायक हो रहा है। भवनों, मोटर – गाड़ियों, हवाई जहाज़ों आदि के डिज़ाइन तैयार करने में ‘कम्प्यूटर ग्राफिक’ का व्यापक प्रयोग हो रहा है । कम्प्यूटर में एक कलाकार की भूमिका का निर्वाह करने की भी क्षमता है। अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने अपना अद्भुत कमाल दिखाया है। इसके माध्यम से अन्तरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं। इन चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर के माध्यम से ही किया जा रहा है ।
औद्योगिक क्षेत्र में, युद्ध के क्षेत्र में तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग परीक्षा – फल के निर्माण में, अन्तरिक्ष यात्रा में मौसम सम्बन्धी जानकारी में, चिकित्सा में तथा चुनाव में भी किया जा रहा है ।
अब प्रश्न उठता है कि क्या कम्प्यूटर और मानव मस्तिष्क की तुलना सम्भव है ? यदि सम्भव है तो इनमें कौन श्रेष्ठ है ? आखिर कम्प्यूटर के मस्तिष्क का निर्माण भी तो मनुष्य द्वारा ही हुआ है। तुलना में मनुष्य ही श्रेष्ठ है क्योंकि कम्प्यूटर उपयोगी होते हुए भी मशीन के समान है। वह मानव के समान संवेदनशील नहीं बन सकता । कम्प्यूटर भी मनुष्य के हाथ की मशीन है। मनुष्य के बिना उसका कोई अस्तित्त्व नहीं ।
भारत में कम्प्यूटर का प्रयोग अभी आरम्भिक अवस्था में है पर धीरे-धीरे इसका प्रयोग और महत्त्व बढ़ता जा रहा है। मनुष्य को कम्प्यूटर को एक सीमा तक ही प्रयोग में लाना चाहिए । मनुष्य स्वयं निष्क्रिय न बने बल्कि वह स्वयं को सक्रिय बनाये रखे तथा अपनी क्षमता को सुरक्षित रखे ।
44. युवा वर्ग और नशीले पदार्थ
विज्ञान ने अनेक प्रकार की पीड़ाहारी दवाइयों की खोज इसलिए की ताकि उन से मानव जीवन सुखमय हो सके। अत्यन्त जटिल और कठिन आपरेशन भी बिना पीड़ा के सम्भव हो सकें, पर समय ने इन्हीं दवाइयों को भौतिकवादी नशे के रूप में स्वीकार कर लिया है जिससे मानव ने अपने सर्वनाश का रास्ता स्वयं खोल लिया है। आज का युवा वर्ग नशीली दवाइयों के चक्रव्यूह में इस भांति उलझ चुका है कि उसका इससे छुटकारा पाने का कोई आसार ही दिखाई नहीं देता। नई पीढ़ी इसके परिणामस्वरूप कुण्ठा- संत्रास का शिकार बन चुकी है। दिल्ली जैसे महानगर में ही दो से तीन लाख के बीच लोग नशे के जाल में छटपटा रहे हैं। अफीम, गांजा, चरस, स्मैक, हशीश, एल० ए० डी० और डैक्साड्रिन जैसे नशे सारे समाज को दीमक की भान्ति भीतर-ही-भीतर खोखला करते जा रहे हैं। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियां समान रूप से इनका शिकार होते जा रहे हैं।
नशे का रास्ता वह अन्धेरा रास्ता है जिस पर चलने वाला कभी उजाला पा ही नहीं सकता । देश में हालात भी कुछ ऐसे बन रहे हैं कि नशीली दवाओं की बिक्री हर गली नुक्कड़ पर होने लगी है। आम धारणा के विपरीत यह विनाश सिर्फ समृद्ध और उच्च वर्ग के युवाओं तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले मजदूर, रिक्शा – ठेला खींचने वाले निम्न आय के लोग, तिपहिया स्कूटर और टैक्सी चालक, छोटेछोटे दुकानदार और पान-सिगरेट बेचने वालों से लेकर स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, बेरोज़गार युवक और दफ्तर के क्लर्क, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के अध्यापक और यहां तक की कुछ चिकित्सक भी शामिल हैं। परिभाषा की दृष्टि से मादक पदार्थ (ड्रग) वह पदार्थ है, जो मन और शरीर की भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं पर किसी न किसी रूप में प्रभाव डालता है। रुग्ण अवस्था में दी गयी दवाएं भी ड्रग्स ही हैं पर जब बिना डॉक्टरी सलाह के निरोग अवस्था में आदमी अपने मन, शरीर और व्यवहार में तबदीली लाने के लिए प्राकृत या रासायनिक पदार्थ का सेवन करता है, तो यह ड्रग्स का अवांछनीय सेवन कहलाता है।
ये मादक पदार्थ कई तरह से लिए जाते हैं। कुछ गोली के रूप में निगले जाते हैं, कुछ चिलम या सिगरेट में भरकर सुलगाने के बाद पीए जाते हैं, कुछ दूसरे नासिका के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। कुछ को खान-पान की चीज़ों के साथ मिलाकर भी लिया जाता है— अफीम और कुछ को इंजेक्शन द्वारा कुछ को पन्नी पर जला कर भी लिया जाता है। मादक पदार्थों का सेवन करने का तरीका जो भी हो, परिणाम एक ही होता है – एक टूटा हुआ जीवन और यातनामय अन्त ।
नशीली दवाओं के सेवन के परिणामों को जानते हुए भी इन दवाओं का जाल देश में तेज़ी से फैलता जा रहा है। नशा उत्पादक देशों में पश्चिमी देशों के बाज़ार तक नशीली दवाएं पहुंचाने के लिए बड़े-बड़े तस्कर भारत को पार गमन देश की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं ।
देश का यह दुर्भाग्य है कि उसके एक तरफ नशीली दवाओं का वह बड़ा स्रोत है जो स्वर्णत्रिकोण ( गोल्डन ट्रांयगल) के नाम से जाना जाता है। यह स्वर्णत्रिकोण बर्मा, लाओस और कम्बोडिया के मेल से बना है और देश की पश्चिमी सीमा पर गोल्डन क्रिसेंट कहलाने वाला वह क्षेत्र है जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईराक़ के मेल से बना है। ये दोनों क्षेत्र नशीले पदार्थों की खेती और उत्पादन के सबसे प्रमुख स्थान हैं। इनसे भारत में भारी मात्रा में नशीले पदार्थ पहुंच रहे हैं, जो पश्चिमी देशों की तरफ रवाना होने के साथ-साथ देश में भी बाज़ार बनाते जा रहे हैं।
नशा करने वाले व्यक्ति के चाल-चलन, रहन- सहन और व्यवहार में काफ़ी फर्क देखा जा सकता है। वह काम-काज और दूसरी सामाजिक गतिविधियों में दिलचस्पी गंवा बैठता है। उसे हर समय आलस्य घेरे रहते हैं और नींद में उसे कठिनाई महसूस होती है। इसके साथ ही उसे एक विचित्र किस्म की उदासी घेरे रहती है और वह बेचैन और थका हुआ दिखाई पड़ता है। उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है और स्मरण शक्ति कमजोर पड़ जाती है। जरा-जरा सी बात पर झूठ बोलना उसकी आदत हो जाती है और उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। छोटी-छोटी बातों पर खिन्न हो उठना और लड़ पड़ना उसकी आदत बन जाती है। वह अपने मित्रों और सगे सम्बन्धियों से मुंह छिपाने लगता है और व्यक्तिगत स्वच्छता की तरफ से लापरवाह हो जाता है। यदि यह लत स्कूल-कॉलेज के दिनों में लग जाए, तो वह प्रायः कक्षा से गायब रहने लगता है, पढ़ाई-लिखाई से उसका ध्यान हट जाता है और खेल-कूद तथा दूसरी गतिविधियों में भी उसकी रुचि नहीं रहती है। शारीरिक स्तर पर भी लक्षण देखे जा सकते हैं। भूख कम हो जाती है, वज़न गिरने लगता है, चाल में लड़खड़ाहट आ जाती है, आँखें लाल और सूजी हुई दिखाई देती हैं, पुतली सिकुड़ सकती है, मुंह अधखुला रहता है तथा चेहरा और आँखें बिल्कुल सपाट, अंगुलियों पर जलने के निशान हो सकते हैं, और यदि वह टीकों द्वारा नशीली दवाएं ले रहा हो, तो शरीर में उन तमाम स्थानों पर टीकों के दाग और कपड़ों पर खून के धब्बे देखे जा सकते हैं।
नशेबाज कुपोषण का शिकार हो जाता है, जिससे टी० बी० और दूसरे संक्रामक रोग लगने की आशंका बढ़ जाती है। ओवरडोज़ घातक भी बन सकती है और नशे की अवस्था में दुर्घटना होने की आशंका भी रहती है। वह डिप्रेशन (खिन्न) और दूसरे मनोरोगों से भी ग्रस्त हो सकता है। ऐसे लोगों में आत्म हत्या की घटनाएं भी आम देखी गयी हैं। पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों में बिखराव आना, मार-पीट पर उतर आना, दाम्पत्य सम्बन्धों में आई दरार से तलाक हो जाना, मित्रों का साथ छूट जाना, नौकरी से हटा दिया जाना जैसी समस्याओं के आने से उसका जीवन बिल्कुल टूट जाता है। इस पर आर्थिक समस्याएं दिनोदिन बढ़ती जाती हैं। पुरुषों में नशीली दवाओं का सेवन नपुंसकता भी पैदा कर सकता है। इंजेक्शन द्वारा नशा करने वाले लोगों में पीलिया और एड्स जैसे घातक संक्रामक रोग होने की आशंका भी बनी रहती है। कुल मिलाकर जीवन बिल्कुल अंधकारमय हो जाता है, जिसमें मौत ही सवेरा बन कर आती है।
नशा करने वाले ही शीघ्रातिशीघ्र इलाज किया जाना चाहिए। मनोचिकित्सक की सहायता से उसको समझाया जाना चाहिए। सरकार तथा सामाजिक संस्थाओं ने नशा उन्मूलन के लिए अनेक प्रयास किये हैं पर ये प्रयास अभी पूर्ण नहीं है। रेडियो, दूरदर्शन, पत्रपत्रिकाओं आदि के माध्यम से इसके विरोध में प्रचार किया जाना चाहिए ताकि युवा वर्ग इस की हानियों के प्रति सचेत हो सके। इसका उन्मूलन सम्मिलित प्रयासों से ही सम्भव हो सकता है।
45. प्रभात का भ्रमण
किसी विद्वान् ने सच ही कहा है कि शीघ्र सोने और शीघ्र उठने से व्यक्ति स्वस्थ, सम्पन्न और बुद्धिमान बनता है। (Early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and wise.) यदि कोई देर से सोयेगा तो उसे सुबह सवेरे उठने में कष्ट अनुभव होगा। अतः समय पर सोकर प्रातः बेला में उठना (जागना) आसान होता है। सुबह सवेरे उठने से मनुष्य स्वस्थ रहता है। स्वस्थ मनुष्य ही अच्छी तरह काम कर सकता है पढ़ सकता है, कमा सकता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क की बात तो बहुत पुराने समय से मानी आ रही है।
प्रातः काल का समय बहुत सुहावना होता है। रात बीत जाने की सूचना हमें पक्षियों की चहचहाट सुन कर मिलती है। उस समय शीतल, मन्द और सुगन्धित तीनों ही तरह की हवा बहती है। सुबह सवेरे फूलों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें बड़ी लुभावनी प्रतीत होती हैं। हरीहरी घास पर पड़ी ओस की बूंदें ऐसे प्रतीत होती हैं मानो रात्रि ने जाते समय अपनी झोली के सारे मोती धरती पर बिखेर दिये हों। प्रकृति का कण-कण सचेत हो उठता है। कविवर प्रसाद भी लिखते हैं—
खग- कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का आंचल डोल रहा,
लो यह लितका भी भर लाई,
मधु मुकुल नवल रस गागरी ।
प्रभात का समय अति श्रेष्ठ समय है, इसी कारण हमारे शास्त्रों में इस काल को देवताओं का समय कहा जाता है। प्राचीनकाल में ऋषि मुनि से लेकर गृहस्थी लोग तक इस समय में जाग जाया करते थे। सूर्योदय से पूर्व ही वे लोग पूजा पाठ आदि नित्यकर्म से निवृत हो जाया करते थे। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि व्यक्ति को प्रातः काल में भ्रमण के लिए जाना चाहिए इससे स्वास्थ्य लाभ होने के साथ-साथ व्यक्ति प्राकृतिक सुषमा का भी अवलोकन कर सकता है।
प्रातः भ्रमण के अनेक लाभ हैं, जिन्हें आज के युग के वैज्ञानिकों ने भी स्वीकारा है। प्रातः बेला में वायु अत्यन्त स्वच्छ एवं स्वास्थ्यवर्धक होती है। उस समय वायु प्रदूषण रहित होती है। अतः उस वातावरण में भ्रमण करने से (सैर करने से) मनुष्य कई प्रकार के रोगों से सुरक्षित रहता है। शरीर में चुस्ती व फुर्ती आती है जिसकी सहायता से मनुष्य सारा दिन अपने काम काज में रुचि लेता है।
प्रातः भ्रमण से मस्तिष्क को शक्ति और शान्ति मिलती है। व्यक्ति की स्मरण शक्ति बढ़ती है और मन ईश्वर की भक्ति की ओर प्रवृत्त होता है। प्रातःकालीन भ्रमण विद्यार्थियों के लिए तो लाभकारी है ही अन्य सभी वर्गों के स्त्री-पुरुषों के लिए भी लाभकारी है। हमारे शास्त्रों में कुछ आलसी किस्म के लोगों के लिए एक उपाय भी बताया है। शास्त्रानुसार यदि कोई व्यक्ति प्रातः सूर्योदय से एक घड़ी पहले पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े होकर 21 बार गायत्री का जाप करे तो उसके न केवल कई रोग दूर हो जाते हैं बल्कि उसका वह दिन भी अत्यन्त चुस्ती और फुर्ती से बीतता है। आधुनिक वैज्ञानिक खोज ने हमारे शास्त्रों की इस बात को मान लिया है कि पीपल का वृक्ष यों तो चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है परन्तु प्रातः बेला में वह वृक्ष दुगुनी ऑक्सीजन छोड़ता है और गायत्री मन्त्र का यदि सही ढंग से उच्चारण किया जाए तो ऑक्सीजन हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में प्रवाहित हो जाती है। ऐसा करके मनुष्य को ऐसे लगता है मानो किसी ने उसकी बैटरी चार्ज कर दी हो ।
आज के प्रदूषण, युक्त वातावरण में तो प्रातः भ्रमण स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रातः भ्रमण के समय हमारी गति मन्द-मन्द हो । प्रातः भ्रमण हमें नियमित रूप से करना चाहिए तभी उसका यथेष्ठ लाभ होगा। यदि प्रातः भ्रमण के समय आपका कोई साथी (मित्र या भाई बहन आदि) हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है। प्रातः भ्रमण से आनन्द अनुभव होता है। विद्यार्थी के लिए तो विशेषकर लाभकारी है। प्रातःकाल में पढ़ा हुआ याद रहता है जबकि रात को जाग- जाग कर पढ़ा शीघ्र भूल जाता है। आप को यदि अपने स्वास्थ्य से प्यार है तो प्रातः भ्रमण अवश्य करें और परिमाण स्वयं भी देखें और दूसरे को भी बताएं।
46. मित्रता
जब से मनुष्य ने समाज का निर्माण किया है, उसने दूसरों से मिल-जुल कर रहना सीखना शुरू किया। इस मेल-जोल में मनुष्य को एक ऐसे साथी की आवश्यकता अनुभव हुई जिसके साथ वह अपने सुख-दुःख सांझे कर सके, अपने मन की बात कह सके। अत: वह किसी न किसी साथी को चुनता है जो उसके सुख-दुःख को बांट सके तथा मुसीबत के समय उसके काम आए। उस साथी को ही हम ‘मित्र’ की संज्ञा से याद करते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु (Aristotle) ने मित्रता की परिभाषा देते हुए कहा है ‘A single soul dwelling in two bodies’ अर्थात् मित्रता दो शरीर एक प्राण का नाम है। अंग्रेज़ी की एक सूक्ति है ‘A friend in need is a friend indeed’ अर्थात् मित्र वही है जो मुसीबत के समय काम आए। वास्तव में सच्चे मित्र की पहचान या परख ही मुसीबत के दिनों में होती है। बाइबल में कहा गया है कि ‘सच्चा मित्र’ जीवन में एक दवाई की तरह काम करता है जो व्यक्ति के प्रत्येक रोग का निदान करता है ।
होश सम्भालते ही मनुष्य को किसी मित्र की आवश्यकता अनुभव होती है किन्तु उसे मित्र चुनने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। यह कठिनाई व्यक्ति के सामने युवावस्था में अधिक आती है क्योंकि तब उसे जीवन में प्रवेश करना होता है। यों तो जवानी तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति अनेक लोगों से सम्पर्क में आता है। कुछ से तो उसकी जान-पहचान भी घनिष्ठ हो जाती है परन्तु उन्हें मित्र बनाया जा सकता है या नहीं, यही समस्या व्यक्ति के सामने आती है। सही मित्र का चुनाव व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग और गलत मित्र का चुनाव नरक भी बना सकता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कहना है कि “आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण-दोष को कितना परख कर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रकृति आदि का कुछ भी विचार और अन्वेषण नहीं करते ।” किसी व्यक्ति का हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई व साहस ये ही दो चार बातें देखकर लोग झटपट किसी को अपना मित्र बना लेते हैं, वे यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। एक प्रसिद्ध विद्वान् ने कहा है—”विश्वास पात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है, जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया। ऐसी ही मित्रता करने का हमें यत्न करना चाहिए।”
विद्यार्थी जीवन में तो छात्रों को मित्र बनाने की धुन सवार रहती है। अनेक सहपाठी उसके मित्र बनते हैं किन्तु तब वे दुनिया के कड़े संघर्ष से बेखबर होते हैं किन्तु कभीकभी बचपन की मित्रता स्थायी सिद्ध होती है। बचपन की मित्रता में एक खूबी यह है कि दोनों मित्रों के भविष्य में प्रतिकूल परिस्थितियों में होने पर भी उनकी मित्रता में कोई अन्तर नहीं आता। बचपन की मित्रता में अमीरी-गरीबी या छोटे-बड़े का अन्तर नहीं देखा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण की निर्धन ब्राह्मण सुदामा से मित्रता बचपन की ही तो मित्रता थी, जिसे आज भी हम आदर्श मित्रता मानते हैं। उदार तथा उच्चाश्य कर्ण की लोभी दुर्योधन से मित्रता की नींव भी तो बचपन में ही पड़ी थी। किन्तु आजकल के सहपाठी की मित्रता स्थायी नहीं होती क्योंकि उसका आधार स्वार्थ पर टिका होता है और स्वार्थ को ध्यान में रख कर किया गया कोई भी कार्य टिकाऊ नहीं होता।
संसार के अनेक महान् महापुरुष मित्रों के कारण ही बड़े-बड़े कार्य करने में समर्थ हुए । सच्चा मित्र व्यक्ति टूटने नहीं देता। वह उसे जोड़ने का काम करता है, उसके लड़खड़ाते पांवों को सहारा देता है। संकट और विपत्ति के दिनों में सहारा देता है, हमारे सुख-दुःख में हमारा साथ देता है। कर्त्तव्य से विमुख होने की नहीं कर्त्तव्य का पालन करने की सलाह देता है। जान-पहचान बढ़ाना और बात है मित्रता बढ़ाना और । जान-पहचान बढ़ाने से कुछ हानि होगी न लाभ किन्तु यदि हानि होगी तो बहुत भारी होगी। अतः हमें मित्र चुनते समय बड़ी सावधानी एवं सोच-विचार से काम लेना चाहिए ताकि बाद में हमें पछताना न पड़े। अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि औलिवर गोल्ड स्मिथ (Oliver Gold Smith) ने ठीक ही कहा है—
“And what is friendship but a name
A charm that lulls to sleep
A shade that follows wealth or fame
But leake the wretch to weep ?”
निबन्धों का संक्षिप्त रूप
यहां कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण निबन्धों का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया जा रहा है। छात्र आवश्यकतानुसार इनका विस्तार कर सकता है।
47. पुस्तकालय
ज्ञान ही ईश्वर है। ज्ञान ही सत्य है । ज्ञान ही आनन्द है। ज्ञान ही मुक्ति है। गीता में कहा गया है। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते’ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र वस्तु कोई नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के अनेक साधन हैं। मनुष्य दर्शन से (देखकर) ज्ञान प्राप्त करता है । सत्संग भी ज्ञान प्राप्ति का साधन है। पुर्यटन (भ्रमण) के द्वारा भी ज्ञानार्जन किया जा सकता है। पठन के द्वारा अर्थात् पुस्तकों के अध्ययन द्वारा भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
पुस्तकें ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। ये ज्ञान का खजाना है। हजारों वर्षों से मनुष्य अपने ज्ञान की पुस्तकों में एकत्र करता आया है। इसके द्वारा हम घर बैठे हज़ारों वर्षों के ज्ञान-विज्ञान से परिचित हो सकते हैं।
आजकल प्रतिदिन हजारों पुस्तकें छपती हैं। प्रत्येक पुस्तक को खरीदना सम्भव नहीं। पुस्तकालय इस कठिनाई को दूर करता है। पुस्तकालय का अर्थ है पुस्तकों का घर। साधारण शुल्क देकर हम इसके सदस्य बन सकते हैं। यह एक अनोखा स्वर्ग है। यहां साहित्य, कला, विज्ञान, नीति आदि अनेक विषयों पर पुस्तकें मिलती हैं जिनके द्वारा हम अपनी ज्ञानपिपासा शांत कर सकते हैं। प्रत्येक पुस्तक ज्ञान का जलता हुआ दीपक है।
पुस्तकालय अनेक प्रकार के हैं-विद्यालय का पुस्तकालय, महाविद्यालय का पुस्तकालय तथा सार्वजनिक पुस्तकालय । पुस्तकालय के नियमों का पालन करना चाहिए । पुस्तकालय आत्मा तथा वृद्धि के विकास का श्रेष्ठ साधन है। हमारे देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों की कमी है। इनकी संख्या बढ़नी चाहिए ताकि सर्वसाधारण अपने समय का सदुपयोग कर अपने ज्ञान वृद्धि कर सके।
48. रेल यात्रा
जीवन अपने आप में एक यात्रा है। कभी-कभी दूर जाने के लिए रेल का भी सहारा लेना पड़ता है। टिकट घर के आगे भारी भीड़, अनुशासन का अभाव । कठिनाई से टिकट का प्राप्त होना ।
प्लेटफार्म पर भीड़ । गाड़ी की प्रतीक्षा । कुछ लोगों का चाय-पान करना । परस्पर गप्पें मारना।
गाड़ी आने पर स्थिति बदल जाना। डिब्बे में घुसने का प्रयत्न एवं संघर्ष l
डिब्बे के अन्दर स्वार्थ का वातावरण। कुछ लोगों का आपस में झगड़ा करना । कुछ का ताश खेलना। कुछ का राजनीतिक विषयों पर चर्चा करना । धीरे-धीरे एक-दूसरे के सहायक बनना। मित्र बनकर विदा होना।
रेल यात्रा का अनुभव रोचक एवं प्रभावशाली । सुधार की आवश्यकता । गाड़ी में सुविधाएं अधिक हों। गाड़ियों की संख्या बढ़ाई जाए ताकि लोग सुविधापूर्वक यात्रा कर सकें। सफ़ाई की ओर भी ध्यान दिया जाए। यात्रियों को भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। उन्हें अनुशासन से काम लेना चाहिए।
49. विद्यार्थियों का देश के प्रति कर्त्तव्य
छात्र राष्ट्र की मूल्यवान् सम्पत्ति हैं। ये उसकी प्रगति का आधार हैं। इन्हें अपने आपको राष्ट्र के लिए तैयार करना है।
छात्रों के अनेक कर्त्तव्य हैं। सबसे पहला कर्त्तव्य अपने आपको उन्नत करना है। उन्हें अपने मानसिक और शारीरिक विकास में कोई कसर न उठा रखनी चाहिए।
छात्रों को अपने माता-पिता के प्रति उदार भावना रखनी चाहिए। वे उनकी आज्ञा का पालन करें समय के महत्त्व को समझें। गुरुओं का सम्मान करें और नम्रता से उनसे शिक्षा ग्रहण करें। अनुशासन पालन उनके जीवन का अनिवार्य अंग हैं।
समाज के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए यह आवश्यक है कि वे सामाजिक जीवन से परिचित हों। अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का विरोध करें। छोटे लोगों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करें तथा उनको ऊपर उठाने में सहयोग दें।
आर्थिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में, नैतिक क्षेत्र में एवं राष्ट्रीय क्षेत्र में व्याप्त कठिनाइयों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
इस प्रकार छात्र अपने कर्त्तव्यों का समुचित पालन करते हुए अपने परिवार तथा अपने राष्ट्र का उत्थान कर सकते हैं ।
50. समय का सदुपयोग
अथवा
समय सबसे बड़ा धन है
दार्शनिकों ने जीवन को क्षणभंगुर कहा है। इसकी तुलना प्रभात के तारे और पानी के बुलबुले से की गई है। अतः यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि हम अपने जीवन को सफल कैसे बनाएं ? इसका एकमात्र उपाय समय का सदुपयोग है।
समय एक अमूल्य वस्तु है। इसे काटने की वृत्ति जीवन को काट देती है। खोया समय पुनः नहीं मिलता। दुनिया में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं जो बीते हुए समय को वापस लाए। हमारे जीवन की सफलता-असफलता समय के सदुपयोग तथा दुरुपयोग पर निर्भर करती है ।
क्षण को क्षुद्र न समझो भाई, यह जग का निर्माता है।
हमारे देश में अधिकांश लोग समय का मूल्य नहीं समझते। देर से उठना, व्यर्थ की बातचीत करना, खेल, शतरंज आदि में रुचि होना आदि के द्वारा समय को नष्ट करना है । यदि हम मनोरंजन चाहते हैं तो पहले अपना काम पूरा करें।
बहुत से लोग समय को नष्ट करने में ही आनन्द का अनुभव करते हैं। मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट करना बहुत बड़ी भूल है।
समय का सदुपयोग करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने दैनिक कार्य को करने का समय निश्चित कर लें। फिर उस कार्य को उसी समय में करने का प्रयत्न करें। इस तरह का अभ्यास होने से समय का मूल्य समझ जाएंगे और देखेंगे कि हमारा जीवन निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ता जा रहा है। समय का सदुपयोग करने से जीवन का पथ सरल हो जाता है।
महान् व्यक्तियों के महान् बनने का रहस्य समय का सदुपयोग ही है। समय के सदुपयोग के द्वारा ही मनुष्य अमर कीर्ति का पात्र बन सकता है। समय का सदुपयोग ही जीवन का सदुपयोग है। इसी में जीवन की सार्थकता है—
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होयगी, बहुरि करैगी कब ।
51. मेरा प्रिय खेल
मेरी खेलों में रुचि है लेकिन क्रिकेट का खेल मुझे अधिक प्रिय है। संसार में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। जब कभी दो देशों के बीच क्रिकेट का मैच होता है तो लोग क्रिकेट की कमैट्रो सुनने के लिए अपने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों की उपेक्षा कर देते हैं। यह खेल एक विशाल समतल मैदान में खेला जाता है। बाइस गज के अन्तर पर तीनतीन विकेट लगाए जाते हैं। दोनों ओर 11-11 खिलाड़ी होते हैं। गेंद एवं बैट से यह खेला
क्रिकेट का अनेक दृष्टियों से महत्त्व है। इससे मेरा व्यायाम भी हो जाता है और मनोरंजन भी। इस खेल में कोई खिलाड़ी सुस्ता नहीं सकता। उसे एकदम सचेत रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अन्य खेलों के समान इस खेल से भी खिलाड़ी में अनुशासनबद्धता, आज्ञापालन कर्त्तव्य-पालन एवं एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना उत्पन्न होती है। खिलाड़ी जीवन संग्राम में भी साहस के साथ आगे बढ़ता है।
आज मुझ में जो गुण हैं, वे क्रिकेट के कारण हैं। इसीलिए यह खेल मुझे अधिक प्रिय है। यह मेरी रूचि के भी अनुसार है।
52. अध्ययन का आनन्द
आनन्द प्राप्त करना मानव जीवन का लक्ष्य है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। किसी को यह खेल-तमाशे से प्राप्त होता है तो किसी को पुस्तकों के अध्ययन से। अध्ययन से प्राप्त होने वाला आनन्द सच्चा तथा स्थायी आनन्द है। यह आनन्द मानव मन का आनन्द है। मानसिक आनन्द ही दिव्य आनन्द है। तभी तो रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। यह रस अध्ययन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
उत्तम पुस्तक चिन्तामणि के समान है। पुस्तकें मनुष्य को लौकिक चिन्ताओं एवं दुःखों से मुक्त रखती हैं। ये हम में आशा, धैर्य तथा उत्साह का संचार करती हैं । श्रेष्ठ पुस्तकों की दुनिया स्वर्ग लोक के समान है, जहां आनन्द ही आनन्द है। उत्तम से उत्तम मित्र तो धोखा दे सकता है पर अच्छी पुस्तक सुमार्ग पर बढ़ने की ही प्रेरणा देती है। पुस्तकों में जीवन सम्बन्धी अनेक विषयों का वर्णन होता है। अतः आवश्यकता के अनुसार हम पुस्तक का चयन कर उसके अध्ययन द्वारा आनन्द और उल्लास प्राप्त कर सकते हैं।
जिसने अध्ययन का आनन्द प्राप्त कर लिया है। उसे संसार का कोई भी सुख उतना आनन्द प्रदान नहीं कर सकता । पुस्तकें हमारी मानसिक भूख को शांत करती हैं। ये आत्मिक आनन्द के झूले में झुलाती हैं। जो निरक्षर हैं, वे पुस्तकों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं।
53. मेरा गांव
गांधी जी ने ग्राम्य जीवन के महत्त्व के विषय में कहा था ‘भारत गांवों में बसता है।’ गांधी जी का यह कथन जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं बल्कि उत्पादन की दृष्टि से भी उपयुक्त जान पड़ता है। भारत की आत्मा भी गांवों में ही बसती है। मानवता की खुश्बू का अनुभव भी गांवों में ही होता है।
मेरा गांव भारत के लाखों गांवों जैसा ही है। लगभग चार सौ घरों की शोभा लिए हुए है। यह मक्खन पुर के नाम से प्रसिद्ध है। इसके उत्तर में कल-कल ध्वनि करती हुई नदी बहती है। खेतों की हरियाली इसकी शोभा हैं। बाग-बगीचे गांव के सौंदर्य को चार चांद लगा देते हैं। यहां एक मन्दिर और एक गुरुद्वारा भी है। गांव की बाहरी सीमा के निकट किसी नामी फकीर की कब्र है। हिन्दुओं की भी इस फकीर के प्रति श्रद्धा है। यहां एक पंचायत घर भी है, पाठशाला तथा अस्पताल भी है। यहां का बाज़ार अपनी विशेष उपयोगिता रखता है।
गांव में अधिकतर किसान हैं। वे कर्मठ हैं पर उन में कुछ दोष भी हैं। वे अंधविश्वास, रूढ़ियों आदि से ग्रस्त हैं। शिक्षा की कमी दूर होते ही ये दोष भी दूर हो जाएंगे। अब गांव के लोगों में भी जागृति उत्पन्न हो रही है। पंचायत भी इस दिशा में सहयोग दे रही है।
शिक्षा के प्रचार और प्रसार को देखते हुए मैं कह सकता हूं कि शीघ्र ही मेरा गांव एक आदर्श गांव का रूप धारण कर लेगा ।
54. यदि मैं अध्यापक होता
इस संसार में रहने वाले लोगों की महत्त्वाकांक्षाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई अधिकारी बनना चाहता है, तो कोई व्यापारी। कोई इंजीनियर बनने का सपना देखता है तो कोई डॉक्टर बनकर अपना जीवन जीना चाहता है। कोई राजनीति का खिलाड़ी बनना चाहता है तो कोई भ्रष्ट व्यवस्था का लाभ उठाकर धन संचय करने के लिए बावला हो रहा है ।
मेरी भी एक अभिलाषा है। हो सकता है कि कुछ लोग इस अभिलाषा को एक मामूली अभिलाषा समझें, परंतु मेरे लिए तो यह सर्वस्व है। मैं एक शिक्षक बनकर भारत का भार उठाने वाले आदर्श नागरिक तैयार करना चाहता हूं। आज अधिकांश अध्यापक शिक्षा के महत्त्व को न समझ पाने के कारण कर्त्तव्य-विमुख हो रहे हैं।
मैं शिक्षक बनकर अपने कर्त्तव्य का पूरी तरह पालन करूंगा। स्वयं ऊंचा उठे बिना दूसरों को ऊंचा उठाना सम्भव नहीं। सब से पूर्व मैं अपने में उत्तम गुणों का विकास करूंगा ? मैं अपने आदर्शों के द्वारा यह प्रमाणित कर दूंगा कि अध्यापक वास्तव में ही राष्ट्र का निर्माता है। मैं विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति रुचि जगाऊंगा। मैं शिक्षा को अर्थ प्राप्ति का साधन नहीं अपितु सेवा और साधना का साधन मानूंगा। मैं विषय को बड़े रोचक ढंग से पढ़ाऊंगा। मैं बच्चों को अच्छी बातें जीवन में उतारने के लिए प्रेरित करूंगा।
मैं प्राचीन शिक्षण पद्धति का अनुसरण न करता हुआ नवीन पद्धति को अपनाऊंगा। जीवन के अन्य क्षेत्रों के समान अब शिक्षा में भी घिसी-पिटी बातें नहीं चल सकतीं । मेरा मूल मंत्र होगा — ‘सादा जीवन और उच्च विचार ।’
55. होली
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। प्रत्येक त्योहार का अपना महत्त्व तथा गौरव है। प्रत्येक त्योहार मानव जीवन के लिए एक नई प्रेरणा लेकर आता है। होली का त्योहार भारत का एक प्राचीन तथा लोकप्रिय त्योहार है। यह रंगों और शोभा का त्योहार है। यह त्योहार बसंत ऋतु की मादकता तथा मोहकता के बीच मनाया जाता है। किसान अपनी फसलों को देखकर फूला नहीं समाता। यह त्योहार मस्ती तथा उल्लास के साथ फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
प्रसिद्ध है कि होली का त्योहार उसी समय से मनाया जाता है, जब हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान होते हुए भी जलकर राख हो गई। इस प्रकार यह त्योहार बुराई पर भलाई की विजय का भी प्रतीक है। यह भी प्रसिद्ध है कि श्रीकृष्ण ने पूतना राक्षसी को मारकर इसी दिन गोपियों के साथ रासलीला की थी।
होली के अवसर पर धूम मच जाती है। बाजार में रंगों की दुकानें खुल जाती हैं। बच्चों के आनन्द की सीमा नहीं रहती। एक दूसरे पर रंग फेंका जाता है। सब रंग में स्नान दिखाई देते हैं।
दुःख की बात है कि इस त्योहार के साथ कुछ कुरीतियां भी जुड़ गई हैं। भांग, शराब आदि का सेवन होता है। अश्लील भाषा का प्रयोग होता है। कीचड़ और धूल फेंकी जाती है। इस तरह के दोष रंगों की शोभा को मलिन कर देते हैं ।
आवश्यकता इस त्योहार के महत्त्व तथा इसमें छिपी आदर्श भावना को समझने की है। इस त्योहार से भाई-चारे का प्रसार होता है तथा जीवन में सरसता तथा सुन्दरता आती है।
56. स्वास्थ्य रक्षा के साधन
अथवा
स्वास्थ्य तथा व्यायाम
जीवन का पूर्ण आनन्द वही ले सकता है जो स्वस्थ है। स्वास्थ्य के अभाव में सब प्रकार की सुख-सुविधाएं व्यर्थ प्रमाणित होती हैं। तभी तो कहा- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर ही सब धर्मों का मुख्य साधन है। स्वास्थ्य जीवन है और अस्वस्थता मृत्यु है। अस्वस्थ व्यक्ति का किसी भी काम में मन नहीं लगता। बढ़िया से बढ़िया खाद्य पदार्थ उसे विष के समान लगता है। वस्तुतः उसमें काम करने की क्षमता ही नहीं होता। अतः प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहे ।
स्वास्थ्य – रक्षा के लिए नियमितता तथा संयम की सबसे अधिक ज़रूरत है। समय पर भोजन कर समय पर सोना और जागना अच्छे स्वास्थ्य के लक्षण हैं। शरीर की तरफ भी पूरा ध्यान देने की ज़रूरत है। सफाई के अभाव में तथा असमय खाने-पीने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। क्रोध, भय आदि भी स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं। नशीले पदार्थों का सेवन तो शरीर के लिए घातक साबित होता है ।
स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए पौष्टिक एवं सात्विक भोजन भी ज़रूरी है। स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम का भी सबसे अधिक महत्त्व है। व्यायाम से बढ़कर न कोई औषधि है और न कोई टॉनिक व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, शक्ति, उत्साह एवं उल्लास का संचार होता है। शरीर की आवश्यकतानुसार विविध आसनों का प्रयोग भी बड़ा लाभकारी होता है। खेल भी स्वास्थ्य लाभ का अच्छा साधन है। इनसे मनोरंजन भी होता है और शरीर भी पुष्ट तथा चुस्त बनता है। प्रातः भ्रमण का भी विशेष लाभ है। इससे शरीर का आलस्य भागता है, काम में तत्परता बढ़ती है तथा जल्दी थकान का अनुभव नहीं होता।