JKBOSE 9th Class Hindi Solutions chapter – 1 उपभोक्तावाद की संस्कृति —श्यामाचरण दुबे
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JKBOSE 9th Class Hindi Solutions chapter – 1 उपभोक्तावाद की संस्कृति —श्यामाचरण दुबे
Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 9th Class Hindi Solutions
Jammu & Kashmir State Board class 9th Hindi Solutions
J&K State Board class 9 Hindi Solutions
लेखक – परिचय
जीवन – परिचय— सुप्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दुबे का जन्म सन् 1922 ई० में मध्य प्रदेश में हुआ था। इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की थी । इन्होंने देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया था। इनका अनेक संस्थानों से भी संबंध रहा था । सन् 1996 ई० में इनका निधन हो गया था ।
रचनाएँ— डॉ० श्यामाचरण दुबे ने भारत की जनजातियों तथा ग्रामीण समाज का गहन अध्ययन किया है। इन से संबंधित इन की रचनाओं ने समाज का ध्यान इन की समस्याओं की ओर आकर्षित किया है। इन की प्रमुख रचनाएँ – मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, संस्कृति तथा शिक्षा, समाज और भविष्य, भारतीय ग्राम, विकास का समाजशास्त्र, संक्रमण की पीड़ा और समय और संस्कृति हैं।
भाषा-शैली— डॉ० श्यामाचरण दुबे का अपने विषय और भाषा पर पूर्ण अधिकार है। ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ में लेखक ने विज्ञापन की चमक-दमक के पीछे भागते हुए लोगों को सावधान किया है कि इस प्रकार से अंधाधुंध विज्ञापनों से प्रभावित हो करकुछ खरीदना समाज में दिखाने की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देगी तथा सर्वत्र सामाजिक अशांति और विषमता फैल जाएगी । लेखक ने मुख्य रूप से तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे- उपभोक्ता, संस्कृति, समर्पित, चमत्कृत, प्रसाधन, परिधान, अवमूल्यन, अस्मिता, दिग्भ्रमित, संसाधन, उपनिवेश आदि । कहीं-कहीं लोक प्रचलित विदेशी शब्दों का प्रयोग भी प्राप्त होता है, जैसे- माहौल, टूथ – पेस्ट, ब्रांड, माउथवाश, सिने स्टार्स, परफ्यूम, म्यूज़िक सिस्टम आदि । लेखक ने अत्यंत रोचक एवं प्रभावपूर्ण शैली में अपनी बात कही है। कहीं-कहीं तो चुटीले कटाक्ष भी किए गए हैं, जैसे— ‘संगीत की समझ हो या नहीं, कीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है। कोई बात नहीं यदि आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें। कंप्यूटर काम के लिए तो खरीदे जाते हैं, महज़ दिखावे के लिए उन्हें खरीदने वालों की संख्या भी कम नहीं है।’ इस प्रकार लेखक ने सहज एवं रोचक भाषा शैली का प्रयोग किया है।
पाठ का सार
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के लेखक डॉ० श्यामाचरण दुबे हैं । इस पाठ में लेखक ने विज्ञापनों की चमक-दमक से प्रभावित होकर खरीददारी करने वालों को सचेत किया है कि इस प्रकार गुणों पर ध्यान न दे कर बाहरी दिखावे से प्रभावित होकर कुछ
खरीदने की प्रवृत्ति से समाज में दिखावे को बढ़ावा मिलेगा तथा सर्वत्र अशांति और विषमता फैल जाएगी। लेखक का मानना है कि आज चारों ओर बदलाव नज़र आ रहा है। जीवन जीने का नया ढंग अपनाया जा रहा है। सभी सुख प्राप्त करने के लिए उपभोग की वस्तुओं को खरीद रहे हैं। बाज़ार में विलासिता की सामग्रियों की खूब बिक्री हो रही है। विज्ञापनों के द्वारा इन वस्तुओं का प्रचार हो रहा है, जैसे टूथ-पेस्ट के ‘दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है’, ‘मुँह की दुर्गंध हटाता है’, ‘मसूड़े मज़बूत बनाता है’, ‘बबूल या नीम के गुणों से युक्त है’ आदि विज्ञापन उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हैं। इसी प्रकार से टूथ-ब्रुश, माउथ वाश तथा अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापन भी देखे जा सकते हैं। साबुन, परफ्यूम, तेल, ऑफ्टर शेव लोशन, कोलोन आदि अनेक सौंदर्य प्रसाधन की सामग्रियों के लुभावने विज्ञापन उपभोक्ता को इन्हें खरीदने के लिए आकर्षित करते रहते हैं। उच्च वर्ग की महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल तीस-तीस हज़ार से भी अधिक मूल्य की सौंदर्य सामग्री से भरी रहती है।
इसी प्रकार से परिधान के क्षेत्र में जगह-जगह खुल रहे बुटीक महँगे और नवीनतम फैशन के वस्त्र तैयार कर देते हैं । डिज़ाइनर घड़ियां लाख- डेढ़ लाख की मिलती हैं। घर में म्यूजिक सिस्टम और कंप्यूटर रखना फैशन हो गया है। विवाह पाँच सितारा होटलों में होते हैं तो बीमारों के लिए पाँच सितारा अस्पताल भी हैं। पढ़ाई के लिए पाँच सितारा विद्यालय तो हैं ही शायद कॉलेज और विश्व विद्यालय भी पाँच सितारा बन जाएँगे। अमेरिका और यूरोप में तो मरने से पहले ही अंतिम संस्कार का प्रबंध भी विशेष मूल्य पर हो जाता है ।
लेखक इस बात से चिंतित है कि भारत में उपभोक्ता संस्कृति का इतना विकास क्यों हो रहा है? उसे लगता है कि उपभोक्तावाद सामंती संस्कृति से ही उत्पन्न हुआ है। इस से हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को खोते जा रहे हैं । हम पश्चिम की नकल करते हुए बौद्धिक रूप से उन के गुलाम बन रहे हैं। हम आधुनिकता के झूठे मानदंड अपना कर मानसम्मान प्राप्त करने की अंधी होड़ में अपनी परंपरा को खो कर दिखावटी आधुनिकता के मोह बंधन में जकड़े जा रहे हैं । परिणामस्वरूप दिशाहीन हो गए हैं और हमारा समाज भी भटक गया है। इससे हमारे सीमित संसाधन भी व्यर्थ ही नष्ट हो रहे हैं। लेखक का मानना है कि जीवन में उन्नति आलू के चिप्स खाने अथवा बहुविज्ञापित शीतल पेयों को पीने से नहीं हो सकती। पीज़ा, बर्गर को लेखक कूड़ा खाद्य मानता है। समाज में परस्पर प्रेम भाव समाप्त हो रहा है। जीवनस्तर में उन्नति होने से समाज के विभिन्न वर्गों में जो अंतर बढ़ रहा है उस से समाज में विषमता और अशांति फैल रही है । हमारी सांस्कृतिक पहचान में गिरावट आ रही है। मर्यादाएँ समाप्त हो रही हैं तथा नैतिक पतन हो रहा है। स्वार्थ ने परमार्थ पर विजय प्राप्त कर ली है और भोग प्रधान हो गया है। गांधी जी ने कहा था कि हम सब ओर से स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्य ग्रहण करें परंतु अपनी पहचान बनाए रखें। यह उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही है। इसलिए हमें इस बड़े खतरे से बचना होगा क्योंकि भविष्य में यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
कठिन शब्दों के अर्थ
उपभोक्ता = उपभोग करने वाला। उपभोग = किसी वस्तु के व्यवहार का सुख या आनंद लेना, काम में लाना। वर्चस्व = श्रेष्ठता, प्रधानता। सूक्ष्म = बहुत कम, बहुत छोटा। माहौल = वातावरण | दुर्गंध = बदबू । बहुविज्ञापित = बहुत अधिक प्रचारित सौंदर्यप्रसाधन = सुंदरता बढ़ाने वाली वस्तुएँ । चमत्कृत = हैरान, चकित, विस्मित | माह = = महीना। परिधान = वस्त्र । हैसियत = आर्थिक योग्यता । हास्यास्पद = हँसी उत्पन्न करने वाला। विशिष्टजन = खास लोग । सामंत = ज़मींदार, सरदार । अस्मिता = अस्तित्व, पहचान । अवमूल्यन = गिरावट । आस्था = श्रद्धा । क्षरण = क्षीण होना, धीरे-धीरे नष्ट होना।। उपनिवेश = एक देश के लोगों की दूसरे देश में आबादी । अनुकरण = नकल । प्रतिमान = मानदंड । प्रतिस्पर्धा = होड़, मुकाबला। छद्म = नकली, बनावटी। गिरफ़्त = पकड़। दिग्भ्रमित = दिशाहीन, भटक जाना । सम्मोहन = मुग्ध करना | वशीकरण = वश । में करना। ह्रास = गिरावट | तुष्टि = संतुष्टि । अपव्यय = फ़िज़ूलखर्ची । तात्कालिक तुरंत का, उसी समय का । स्वार्थ = अपना भला । परमार्थ दूसरे का भला ।
गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या एवं अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न
1. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन दर्शन उपभोक्तावाद का दर्शन | उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है, आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है । ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक-सूक्ष्म बदलाव आया है नयी स्थिति में उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आपउत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
प्रसंग— प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ० श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित पाठ ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ से ली गई हैं। इस पाठ में लेखक ने विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीददारी करने वालों को सचेत किया है ।
व्याख्या— लेखक का कथन है कि समय के साथ ही सब कुछ बदल रहा है। जीने के नए तरीकों से लोग प्रभावित हो रहे हैं और इसके साथ ही उपभोग करने वालों के जीवन के ढंग में भी बदलाव आ रहा है। सभी उत्पादन बढ़ाने में लगे हैं। यह उत्पादन आधुनिक जीवन जीने वालों के उपभोग के लिए ही हो रहा है, जिससे हमें सुख मिले । मिले। सुख उपभोग करने में हो रहा है। यही बदलाव इस नई दशा में हो रहा है। उत्पादन हमारे लिए होते हैं इस बात को भूल कर हमारी सोच और चरित्र में यह परिवर्तन हो रहा है कि हम उत्पादों के सामने स्वयं को समर्पित करते जा रहे हैं ।
विशेष— उपभोगतावाद से आज की जीवन पद्धति प्रभावित है। भाषा शैली सरल तथा सहज है।
अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर—
(i) पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) कौन-सी नयी जीवन-शैली आ गई है ? इस का क्या प्रभाव हो रहा है ?
(iii) उपभोक्तावाद क्या है ?
(iv) आज सुख की परिभाषा क्या हो गई है ?
(v) हमारे चरित्र में क्या परिवर्तन हो रहा है और क्यों ?
उत्तर— (i) पाठ – उपभोक्तावाद की संस्कृति, लेखक – डॉ० श्यामाचरण दुबे।
(ii) उपभोक्तावाद की नयी जीवन शैली आ गई है। इसके कारण चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, जिससे उत्पादों का अधिक से अधिक भोग किया जा सके। सभी उत्पाद बढ़ाने और उत्पादों के भोग में लगे हुए हैं ।
(iii) उपभोक्तावाद वह दशा है जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति उत्पादित की गई वस्तु के उपभोग से आनंद अथवा सुख की प्राप्ति मानने लगता है। व्यक्ति को जीवन में केवल भोग के द्वारा ही संतोष मिलता है । वह सदा भोग-विलास में डूबा रहता है।
(iv) आधुनिक युग में सुख की परिभाषा यह हो गई है कि विलासितापूर्ण उत्पादों का अधिक-से-अधिक भोग किया जाए। इस प्रकार किसी वस्तु के व्यवहार से प्राप्त आनंद को ही आज सुख मान लिया गया है।
(v) अधिक-से-अधिक उत्पादों का आनंद लेने में सुख अनुभव करने के कारण हमारे चरित्र में भी परिवर्तन हो रहा है। प्रत्येक उत्पाद हमारे लिए होता है इसलिए हम उस का उपभोग करते हैं परंतु हमारी दशा ऐसी हो रही है कि हम उत्पाद को ही समर्पित होते जा रहे हैं।
2. कल भारत में भी यह संभव हो । अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों । यह है एक छोटी सी झलक उपभोक्तावादी समाज की । यह विशिष्ट जन का समाज है पर सामान्य जन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं ।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ० श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित पाठ ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ से ली गई हैं। इस पाठ में लेखक ने विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीददारी करने वालों को सचेत किया है कि इस जाल में नहीं फंसे।
व्याख्या – उपभोक्तावाद विदेशों में बढ़ रहा था और अब भारत में भी यही हो रहा है । जो आज अमरीका में हो रहा है कल भारत में भी हो सकता है। लोग स्वयं को प्रतिष्ठित दिखाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं चाहे उनका वह कार्य हास्यास्पद ही क्यों न हो । यह उपभोक्तावाद की ही तस्वीर है । जो वास्तव में खास लोगों का समाज है। इसे आम आदमी अपनी ललचाई नज़रों से देखते हैं ।
विशेष – आम आदमी भी उपभोक्तावाद से प्रभावित हो रहा है। भाषा सहज, सरल है ।
अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर—
(i) लेखक किस संभावना की बात कर रहा है ?
(ii) प्रतिष्ठा का हास्यास्पद रूप क्या है ?
(iii) लेखक ने उपभोक्तावादी समाज की कौन-सी झलक प्रस्तुत की है ?
(iv) सामान्य जन ललचाई निगाहों से किसे और क्यों देखते हैं ?
उत्तर— (i) लेखक यह संभावना व्यक्त कर रहा है कि भारत में भी अमरीका की तरह लोग अपने मरने से पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध एक निश्चित मूल्य देकर करने लग सकते हैं ।
(ii) प्रतिष्ठा का हास्यास्पद रूप इसी को कह सकते हैं कि अपने मरने से पहले ही अपने अंतिम संस्कार का ऐसा प्रबंध करना कि देखने वाले देखते रह जाएँ। अपनी कब्र के आस-पास हरी घास, फूलों, फव्वारों तथा मंद-मधुर संगीत का प्रबंध करने के लिए मोटी रकम खर्च करना।
(iii) लेखक ने उपभोक्तावादी समाज की यह झलक प्रस्तुत की है कि उपभोक्तावादी समाज में लोग अपने मरने से पहले ही अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार अपने अंतिम संस्कार का प्रबंध भी अपने खर्चे पर कर जाएँगे ।
(iv) सामान्य जन उन विशिष्ट जनों को ललचाई निगाहों से देखते हैं जो जीवन भर तो उपभोग का सुख प्राप्त करते ही हैं, अपने मरने के बाद के अपने अंतिम संस्कार का भी वैभवपूर्ण प्रबंध कर जाते हैं।
3. हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें, परम्पराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं। पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नयी संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं । प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खो कर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं ।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ० श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित पाठ ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ से ली गई हैं । लेखक ने विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीददारी करने वालों को सचेत किया है।
व्याख्या — लेखक कहता है कि हम चाहे अपनी सांस्कृतिक पहचान की चाहे कितनी भी बातें क्यों न करते रहें परन्तु हमारी परम्पराओं में निरन्तर गिरावट आ रही है। हमारी आस्थाएँ टूट रही हैं। असली बात तो यह है कि हम बौद्धिक रूप से पश्चिमी संस्कृति के गुलाम बनते जा रहे हैं। इस नई संस्कृति की नकल करना पश्चिम की गुलामी करना ही है । हम आधुनिक विचारों के स्थान पर आधुनिकता को दिखावे के रूप में अपना रहे हैं जो प्रतिष्ठा पाने की अंधी प्रतियोगिता का दुष्परिणाम है। इससे हम नकली आधुनिकता को अपना रहे हैं ।
विशेष – आधुनिकता के मोह में हम अपनी संस्कृति भूल रहे हैं। भाषा सरल, सहज है।
अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर—
(i) सांस्कृतिक अस्मिता से क्या तात्पर्य है ?
(ii) बौद्धिक दासता किसे कहते हैं ?
(iii) सांस्कृतिक उपनिवेश क्या है ?
(iv) छद्म आधुनिकता का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— (i) अस्मिता का शाब्दिक अर्थ पहचान है। भारतवासियों की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान है। भारतवासियों की यह सांस्कृतिक पहचान भारत की विभिन्न संस्कृतियों के मेल-जोल से बनी है। इसी मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान को ही भारत की सांस्कृतिक अस्मिता कहते हैं।
(ii) किसी दूसरे व्यक्ति को अपने से अधिक बुद्धिमान् समझकर उस के द्वारा कहे हुए को बिना किसी तर्क-वितर्क अथवा आलोचना के ज्यों-का-त्यों स्वीकार का लेना तथा जैसा वह कहे उसी प्रकार का आचरण करना बौद्धिक दासता है। इस स्थिति में हम अपनी बुद्धि का बिल्कुल प्रयोग नहीं करते हैं तथा दूसरों के कथनानुसार चलते हैं।
(iii) जो देश किसी दूसरे को जीत कर उस देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है तो जीता हुआ देश जीतने वाले देश का उपनिवेश बन जाता है । विजेता देश अपनी संस्कृति जीते हुए देश पर लाद देता है। पराजित होने के कारण स्वयं को हीन समझकर हारा हुआ देश जीतने वाले देश की संस्कृति को अपना लेता है। इस प्रकार विजेता देश की संस्कृति को विजित देश द्वारा अपनाए रखना सांस्कृतिक उपनिवेश है।
(iv) आधुनिकता का संबंध विचार और व्यवहार से है। आधुनिकता को तर्कशीलता, वैज्ञानिकता एवं आलोचनात्मक दृष्टि से परख कर स्वीकार करना उचित है। जब हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार नहीं करते अपितु उसे फैशन के रूप में अपना लेते हैं तो उसे छद्म आधुनिकता कहते हैं।
4. जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है । जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं । व्यक्तिकेंद्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ० श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित पाठ ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ से ली गई हैं। इस पाठ में लेखक ने विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीददारी करने वालों को सचेत किया है।
व्याख्या – लेखक का मानना है कि जीवन के स्तर में होने वाली इस बढ़ोत्तरी से चारों ओर आक्रोश और अशांति फैल रही है। दिखावे के बढ़ने से समाज में अशांति बढ़ रही है। हमारी सांस्कृतिक विरासत में गिरावट आ रही है तथा हमारे उद्देश्य भ्रमित हो गए हैं। विकास के स्थान पर अस्थाई सुख हमें अच्छे लग रहे हैं। सामाजिक और नैतिक मर्यादाओं का विघटन हो रहा है। आदमी अपने तक सीमित होकर स्वार्थी बन रहा है। परमार्थ की भावना लुप्त हो गई है । सर्वत्र भोग-जिलास की प्रधानता हो गई है।
विशेष – उपभोक्तावाद के कारण भारतीय संस्कृति का विघटन हो रहा है तथा उपभोक्तावाद बढ़ रहा है। भाषा सहज, सरल है।
अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर—
(i) जीवन स्तर में उत्पन्न अंतर से क्या हानियाँ हैं ?
(ii) ‘लक्ष्य भ्रम’ से क्या तात्पर्य है ? इस से क्या होगा ?
(iii) झूठी तुष्ठी क्या है? इस का क्या परिणाम होता है?
(iv) व्यक्ति केंद्रिकता का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— (i) जीवन स्तर में बढ़ने वाले अंतर से चारों ओर आक्रोश और अशांति फैल रही है। वर्तमान जीवन स्तर दिखावे की होड़ में आगे बढ़ रहा है। इस कारण एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ईर्ष्या की भावना समाज में अशांति को बढ़ावा दे रही है।
(ii) ‘लक्ष्य भ्रम’ का अर्थ अपने लक्ष्य को ठीक से न पहचान कर इधर-उधर भटकते रहना है। इस भ्रम के कारण मनुष्य अपने उद्देश्य से भटक गया है और केवल भोग-विलास को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य मान रहा है। इस कारण समाज का नैतिक पतन हो रहा है।
(iii) झूठी तुष्ठी से तात्पर्य क्षणिक सुख अथवा अस्थाई सुख की अनुभूति से है। मनुष्य जब झूठे सुख को सच्चा मान बैठता है तो उसे वास्तविक सुख अथवा आनंद का अनुभव कभी नहीं होता है। वह सदा भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने में और उन्हीं में सुख ढूंढ़ता रहता है।
(iv) जब मनुष्य समाज के सुख की न सोचकर केवल अपने ही सुख-सुविधाओं को जुटाने तथा उन सुख-सुविधाओं का उपभोग करने में लगा रहता है और समाज कल्याण के स्थान पर केवल अपना ही कल्याण सोचता रहता है तब मनुष्य आत्म-केंद्रित हो जाता है। अपने स्वार्थ में लिप्त रहने के कारण ही आज समाज में व्यक्ति केंद्रिकता बढ़ रही है।
अभ्यास के प्रश्नों के उत्तर
प्रश्न 1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— लेखक के अनुसार आज के जीवन में सुख से अभिप्राय उत्पादों का भोग कर उन से सुख प्राप्त करना। इस प्रकार उपभोग-भोग ही आज मुख है।
प्रश्न 2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ?
उत्तर— आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे जीवन को बहुत अधिक प्रभावित कर रही है। लोग प्रत्येक वस्तु विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीदते हैं। वे वस्तु के गुण-अवगुण विचार किए बिना ही उस वस्तु के प्रचार से प्रभावित हो जाते हैं। वे बहुविज्ञापित वस्तु खरीदने में ही अपनी विशिष्टता अनुभव करते हैं।
प्रश्न 3. गाँधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है ?
उत्तर— गाँधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती इसलिए कहा है क्योंकि वे चाहते थे कि हम अपनी परंपराओं पर दृढ़ रहें तथा नवीन सांस्कृतिक मूल्यों को अच्छी प्रकार से जाँच-परख कर ही स्वीकार करें। हमें बिना सोचे-समझे किसी का भी अंधानुकरण नहीं करना चाहिए अन्यथा हमारा समाज पथभ्रष्ट हो जाएगा।
प्रश्न 4. आशय स्पष्ट कीजिए—
(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
उत्तर— उपभोग भोग को ही सुख मानने के कारण आज का मनुष्य अधिक-सेअधिक भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने में लगा हुआ है। इस प्रकार आज के इस उपभोक्तावादी वातावरण में न चाहते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र भी बदल रहा है और न चाहने पर भी हम सभी उत्पाद को प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं और उस के भोग को ही सुख मान बैठे हैं।
(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों।
उत्तर— लेखक का मानना है कि लोग प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के कार्य करते हैं। उन के कुछ कार्य तो इतनी अधिक मूर्खतापूर्ण हरकतों से युक्त होते हैं कि उन्हें देखकर ही हँसी आ जाती है। इससे उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि नहीं होती बल्कि उनका मज़ाक ही बन जाता है ।
रचना और अभिव्यक्ति—
प्रश्न 5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी० वी० पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं ? क्यों ?
उत्तर— टी० वी० पर किसी भी वस्तु का विज्ञापन इतने आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि उस विज्ञापन को देखकर हम उस विज्ञापन से इतने अधिक प्रभावित हो जाते हैं कि आवश्यकता न होने पर भी हम उस वस्तु को खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं। विज्ञापन का प्रस्तुतिकरण हमें उस अनावश्यक वस्तु को खरीदने के लिए बाध्य कर देता है।
प्रश्न 6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर— मेरे विचार में किसी भी वस्तु को खरीदने से पहले उस की गुणवत्ता पर विचार करना चाहिए । इस के साथ ही उस वस्तु की उपयोगिता के संबंध में भी सोचना चाहिए । केवल विज्ञापन से प्रभावित होकर कुछ नहीं खरीदना चाहिए। क्योंकि विज्ञापन में तो उत्पादक अपनी वस्तु को इस प्रकार के लुभावने रूप में प्रस्तुत करता है कि उपभोक्ता उसकी चमक-दमक देखकर ही उसे खरीदने के लिए लालायित हो उठता है । वह उस वस्तु की उपयोगिता तथा गुणों पर विचार नहीं करता है। यदि वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी नहीं है तथा उस की गुणवत्ता से हम संतुष्ट नहीं हैं तो वह वस्तु हमें खरीदनी नहीं चाहिए ।
प्रश्न 7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए ।
उत्तर— आज के इस उपभोक्तावादी युग में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से होड़ लगाने में लगा हुआ है। वह अपनी छोटी गाड़ी के सुख से सुखी नहीं है बल्कि दूसरे की बड़ी गाड़ी देखकर दुःखी होता रहता है । एक ने विवाह में जितना खर्च किया तथा शान दिखाई दूसरा उस से दुगुनी शान दिखाना चाहता है चाहे इसके लिए उसे कर्ज ही क्यों न लेना पड़े। इस प्रकार आज के इस उपभोक्तावादी युग में दिखावे की संस्कृति पनप रही है।
प्रश्न 8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाज और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर— कुछ दिन पहले मुझे श्री संतोष कुमार के पुत्र के मुंडन का निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। यह निमंत्रण पत्र सुनहरे अक्षरों में छपा हुआ तथा बहुमूल्य मखमल के बने लिफाफे में था। जब मैं आयोजन स्थल पाँच सितारा क्लब में पहुँचा तो वहाँ की सजावट देखकर दंग रह गया | मुंडन से पूर्व शहनाई वादन, संगीत-नृत्य तथा अन्य कार्यक्रम होते रहे । बाद में भव्य पंडाल के नीचे मंत्रोच्चारण में मुंडन संस्कार हुआ। बच्चे के ननिहाल के द्वारा हीरेसोने के उपहारों के अतिरिक्त लाखों के अन्य उपहार दिए गए । अन्य लोगों ने छोटे साइकिल से लेकर बच्चे के वस्त्रों सहित अनेक उपहार दिए गए। इसके पश्चात् भोजन की अनेक प्रकार की व्यवस्था थी । भारतीय से लेकर चाइनीज़ तक । मैं उपभोक्ता संस्कृति में पनपते दिखावे की प्रवृत्ति को देखता ही रह गया । मुंडन पर ही लाखों रुपये खर्च कर दिए गए, जबकि पहले किसी तीर्थ स्थान पर जाकर अथवा घर में ही पूजा करके परिवार जनों के बीच सादगी से मुंडन संस्कार संपन्न हो जाता था।
भाषा अध्ययन—
प्रश्न 9. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है ।
इस वाक्य में ‘बदल रहा है’ क्रिया है । यह क्रिया कैसे हो रही है – धीरे-धीरे अतः यहाँ धीरे-धीरे क्रिया-विशेषण है। जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, क्रिया – विशेषण कहलाते हैं। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है, वहाँ वह शब्द क्रिया – विशेषण कहलाता है ।
(क) ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया – विशेषण से युक्त लगभग पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
उत्तर— (i) एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में ।
(ii) जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन के परिधान बाजार में आ गए
(iii) संगीत की समझ हो या नहीं, कीमती, म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है।
(iv) शीघ्र ही शायद कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए।
(v) हमारे सीमित संसाधनों का घोर अप-व्यय हो रहा है।
(ख) धीरे-धीरे, जोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज्यादा, यहाँ, उधर, बाहर–इन क्रिया विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
उत्तर— धीरे-धीरे = धीरे-धीरे चलो, नहीं तो गिर जाओगे ।
ज़ोर से = कल ज़ोर से बारिश हो रही थी ।
लगातार = सोहन लगातार तीन घंटे साइकिल चलाता रहा ।
हमेशा = सुषमा हमेशा कक्षा में देर से आती है। आजकल = आजकल महंगाई बढ़ गई है।
कम = लाला रामलाल कम तोलता है।
ज्यादा = रमेश को ज्यादा बुखार नहीं था।
यहाँ = यहाँ सर्दी अधिक नहीं है।
उधर = उधर बर्फ पड़ रही है।
बाहर = तुम्हें कोई बाहर बुला रहा है।
(ग) नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए—
वाक्य | क्रिया विशेषण | विशेषण |
1. कल रात से निरन्तर बारिश हो रही है। | निरंतर | |
2. पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ गया। | पके | |
3. रसोईघर से आती पुलाव की हलकी खुशबू से मुझे ज़ोरों की भूख लग आई। | हलकी |
4. विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाज़ार भरा पड़ा है। | आजकल |
पाठेत्तर सक्रियता—
• ‘दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का बच्चों पर बढ़ता प्रभाव’ विषय पर अध्यापक और विद्यार्थी के बीच हुए वार्तालाप को संवाद शैली में लिखिए।
उत्तर— अध्यापक– अच्छे स्वास्थ्य के लिए हरी सब्जियां अवश्य खानी चाहिए। इन से पेट ही नहीं भरता बल्कि विटामिन भी मिलते हैं।
अनुज– सर, मैगी खाने में क्या बुराई है ? उसमें भी तो कार्बोहाइड्रेट्स हैं।
अध्यापक– इससे शरीर को उतने लाभ नहीं मिलते जितने तुम्हें चाहिए। तुम्हें लंबा कद भी तो चाहिए। –
अनुज– उसके लिए तो हॉर्लिक्स ले लेंगे। टी०वी० रोज यही तो कहता है किं लटकने. से कद नहीं बढ़ेगा। बल्कि हार्लिक्स से कद बढ़ेगा ।
• इस पाठ के माध्यम से आपने उपभोक्ता संस्कृति के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की। अब आप अपने अध्यापक की सहायता से सामंती संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करें और नीचे दिए गए विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कक्षा में अपने विचार व्यक्त करें।
क्या उपभोक्ता संस्कृति सामंती संस्कृति का ही विकसित रूप है ?
उत्तर— अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं कीजिएं।
• आप प्रतिदिन टी० वी० पर ढेरों विज्ञापन देखते-सुनते हैं और इनमें से आपकी जबान पर चढ़ जाते हैं। आप अपनी पसंद की किन्हीं दो वस्तुओं पर विज्ञापन तैयार कीजिए।
उत्तर— अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं कीजिए।
यह भी जानें—
सांस्कृतिक अस्मिता– अस्मिता से तात्पर्य है पहचान। हम भारतीयों की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान है। यह सांस्कृतिक पहचान भारत की विभिन्न संस्कृतियों के मेल-जोल से बनी है। इस मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान को ही हम सांस्कृतिक अस्मिता कहते हैं।
सांस्कृतिक उपनिवेश– विजेता देश जिन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, वे देश उसके उपनिवेश कहलाते हैं। सामान्यता विजेता देश की संस्कृति विजित देशों पर लादी जाती है, दूसरी तरफ हीनता ग्रंथिवश विजित देश विजेता देश की संस्कृति को अपनाने भी लगते हैं। लंबे समय तक विजेता देश की संस्कृति को अपनाए रखना सांस्कृतिक उपनिवेश बनना है।
बौद्धिक दासता– अन्य को श्रेष्ठ समझकर उसकी बौद्धिकता के प्रति बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए उसे स्वीकार कर लेना बौद्धिक दासता है।
छद्म आधुनिकता– आधुनिकता का सरोकार विचार और व्यवहार दोनों से है। तर्कशील, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक दृष्टि के साथ नवीनता का स्वीकार आधुनिकता है। जब हम है आधुकिता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न कर उसे फ़ैशन के रूप में अपना लेते हैं तो वह छद्म आधुनिकता कहलाती है।
परीक्षोपयोगी अन्य प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ निबंध का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ निबंध में श्यामाचरण दुबे ने विज्ञापन की चकाचौंध में भ्रमित समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। लेखक का विचार है कि आज हम विज्ञापनों से प्रभावित हो कर वस्तुओं को खरीदने में लगे हैं, उन वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते हैं। समाज का उच्चवर्ग प्रदर्शनपूर्ण जीवनशैली अपना रहा है जिस कारण उच्च और निम्न वर्ग में दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। इस से जो संपन्न नहीं हैं वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए गलत मार्ग अपना लेंगे। इस से समाज में सामाजिक अशांति और विषमता बढ़ेगी। इसलिए लेखक गांधी जी के द्वारा दिखाए गए स्वस्थ सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देता है जिससे हमारे समाज की नींव सुदृढ़ हो सके।
प्रश्न 2. उपभोक्तावाद की संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा ?
उत्तर— उपभोक्तावाद की संस्कृति के फैलाव से आपस में दिखावे की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलेगा। जीवन बहुविज्ञापित वस्तुओं को खरीदने में लगा रहेगा। वस्तुओं की गुणवत्ता पर हमारा ध्यान नहीं रहेगा। इससे धन का अपव्यय होगा। डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों को खाने से हमारे स्वास्थ्य की हानि होगी। एक-दूसरे से अधिक दिखावा करने की होड़ से सामाजिक संबंधों में तनाव उत्पन्न हो जाएगा। व्यक्ति केंद्रिकता बढ़ेगी । स्वार्थ के लिए सब कुछ किया जाएगा। मर्यादाएँ टूटेंगी तथा नैतिक मानदंड ढीले पड़ जाएँगे। सर्वत्र भोग की प्रधानता हो जाएगी। इससे हमारी सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1. लेखक ने किस से सचेत किया है ?
उत्तर— विज्ञापनों से प्रभावित होकर खरीददारी करने से।
प्रश्न 2. एक नया जीवन दर्शन क्या है ?
उत्तर— उपभोक्तावाद का दर्शन ।
प्रश्न 3. आज सुख की परिभाषा क्या है ?
उत्तर— आज भोग ही सुख है।
प्रश्न 4. बाज़ार किन चीजों से भरा पड़ा है ?
उत्तर— विलासिता की वस्तुओं से।
प्रश्न 5. वस्त्रों के लिए जगह-जगह क्या खुल गए हैं ?
उत्तर— बुटीक ।
प्रश्न 6. आज परम्पराओं का क्या हो रहा है ?
उत्तर— अवमूल्यन ।
प्रश्न 7. हम पश्चिम की कौन-सी दासता स्वीकार कर रहे हैं ?
उत्तर— बौद्धिक ।
प्रश्न 8. पीज़ा और बर्गर को लेखक ने कैसे खाद्य बताया है ?
उत्तर— कूड़ा खाद्य
प्रश्न 9. हम किस से पीड़ित हैं ?
उत्तर— लक्ष्य – भ्रम से।
प्रश्न 10. उपभोक्ता संस्कृति किसे हिला रही है ?
उत्तर— हमारी सामाजिक नींव को ।
प्रश्न 11. हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का क्या हो रहा है ?
उत्तर— पतन हो रहा है।
प्रश्न 12. किन की भीड़ चमत्कृत कर देने वाली है ?
उत्तर— सौंदर्य प्रसाधनों की ।
प्रश्न 13. हम पश्चिम के कैसे उपनिवेश बन रहे हैं ?
उत्तर— सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं।
प्रश्न 14. हम किसकी अंधी प्रतिस्पर्धा में दौड़ रहे हैं ?
उत्तर— प्रतिष्ठा की।
प्रश्न 15. विज्ञापन में किस की शक्ति है ?
उत्तर— सम्मोहन और वशीकरण की ।
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