JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 2 निबंध-रचना

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 2 निबंध-रचना

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 2 निबंध-रचना

Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 10th Class Hindi Solutions

1. विज्ञान के हानि-लाभ अथवा

विज्ञान अभिशाप या वरदान अथवा

विज्ञान के चमत्कार अथवा

विज्ञान और हम अथवा

मनुष्य और विज्ञान

[ भूमिका, विज्ञान एक वरदान, विज्ञान एक अभिशाप, विज्ञान का सदुपयोग कैसे हो, उपसंहार ]
आज का युग विज्ञान के चमत्कारों का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान ने क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। इस युग में विज्ञान की उन्नति ने संसार को विस्मित कर दिया है। विज्ञान के ऐसे-ऐसे अद्भुत आविष्कार हुए हैं कि मनुष्य दाँतों तले उंगली दबाए उन्हें देखता और उनके बारे में सोचता ही रह जाता है उनकी चकाचौंध देखकर स्तब्ध रह जाता है। विज्ञान की अद्भुत उपलब्धि पर प्रकाश डालते हुए राष्ट्र कवि ‘दिनकर’ ने कहा है-
पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार,
आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार,
यह समय विज्ञान का, सब भान्ति पूर्ण समर्थ,
खुल गए हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरु अर्थ ।
चीरता तम को सम्भाले बुद्धि की पतवार,
आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार ।
विज्ञान ने मानव को जो सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं, उनका वर्णन सहज नहीं । जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप में विज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान प्राप्त है। विज्ञान ने हमारी कल्पनाओं को वास्तविकता में बदल दिया है। चन्द्र विजय जैसा अभूतपूर्व कार्य विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। विज्ञान ने असम्भव को सम्भव कर दिया है।
विज्ञान ने लोगों का जीवन सुखमय तथा आनन्द – युक्त बना दिया है। बिजली के बल्ब, पंखे, हीटर, ग्रामोफोन, रेडियो, टेलीविज़न, आदि से हमें कई तरह के आराम तथा सुविधाएं प्राप्त हैं। बिजली स्वयं विज्ञान का चमत्कार है, उसके द्वारा कई जीवनोपयोगी काम होते हैं। बिजली आज हमारा भोजन पकाती है, कमरा बुहारती है, पंखा चलाती है, प्रकाश प्रदान करती है। अनेक कारखाने बिजली की सहायता से चलते हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान के चमत्कारों ने आद्योपांत परिवर्तन कर दिया है। विज्ञान के आविष्कार ‘एक्स-रे’ द्वारा शरीर के अन्दर के चित्र लिये जाते हैं और बीमारियों का पता लगाया जाता है। फेफड़े, दिल, गुर्दे आदि के आप्रेशन होने लगे हैं। अन्धों को दूसरों की आंखें दे कर देखने योग्य बनाया जाता है। भयंकर बीमारियों की चिकित्सा होने लगी है। विज्ञान के वरदान से ही कई असाध्य रोग साध्य हो गए हैं।
विज्ञान ने मनुष्य की यात्रा बहुत आसान कर दी है। प्राचीन युग में लोग पैदल या बैलगाड़ी आदि पर दिनों, महीनों या वर्षों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचते थे, किन्तु अब रेलगाड़ी मोटर, वायुयान आदि द्वारा थोड़े समय में पहुंच जाते हैं। वायुयान, हैलीकाप्टरों आदि द्वारा युद्ध के स्थान पर सैनिक, अस्त्र-शस्त्र, भोजन-सामग्री, पेट्रोल आदि झटपट पहुंचाया जा सकता है। भूकम्प या बाढ़ द्वारा पीड़ित लोगों को भोजनादि की सहायता पहुंचाई जा सकती है और उन्हें बचाया जा सकता है। राडार द्वारा शत्रु विमान की हरकतों का पता चल जाता है।
विज्ञान के मानव के लिए मनोरंजन के बहुत से साधन पैदा दिए हैं। फोटो, चित्रपट, ग्रामोफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि से मनुष्य का जीवन सरस, रोचक और मधुर हो उठा है। सिनेमा का उपयोग जहां मनोरंजन की पूर्ति करता है, वहां इस सदुपयोग द्वारा शिक्षा-जगत् को भी पर्याप्त लाभ पहुंचाया जा सकता है। सिनेमा की लोकप्रियता से कौन परिचित नहीं है।
हम टेलीफोन आदि द्वारा दूर बैठे व्यक्ति से बातचीत करते हैं। व्यापारिक क्षेत्र के साथ व्यवस्था बनाये रखने में इसका बड़ा उपयोग है। टाइप राइटर, टेलीप्रिंटर, प्रेस आदि बड़े उपयोगी आविष्कार हैं।
विज्ञान ने कृषि विषयक आविष्कारों में नये-नये प्रकार के हल, ट्रैक्टर, काटने-छांटने के यन्त्र प्रदान किये हैं। इनकी सहायता से समय एवं शक्ति की बचत होती है। अब विज्ञान के तरीके से बीज बो कर चार घंटे में फसल तैयार की जा सकती है। चौबीस घण्टे में अण्डे से मुर्गी का बच्चा निकाला जा सकता है। कुछ घण्टों में गेहूं पैदा किया जा सकता है। वैज्ञानिक खाद से फसल की मात्रा तथा पैदा होने वाली चीज़ का आकार बढ़ गया है।
विज्ञान की सहायता से बड़े-छोटे कारखाने तथा कई तरह की मशीनें चलती हैं। भट्टियां चलाई जाती हैं। क्रेनों के द्वारा बड़ी भारी भरकम चीजें उठाकर जहाज़ों में भरी जाती हैं तथा ऊंची जगहों पर पहुंचाई जाती हैं। विज्ञान के इन आविष्कारों को देखकर हम कह सकते हैं कि विज्ञान वरदान है।
मनुष्य का ध्यान जब विज्ञान की भयानकता की ओर जाता है तो उसका सारा उत्साह समाप्त हो जाता है। विज्ञान द्वारा सम्भव होने वाले विध्वंस की कल्पना मात्र से उसका हृदय कांप उठता है। विज्ञान ने नेपाम बम, ऐटम बम, हाइड्रोजन बम, मिसाइल्ज़, तोपें आदि ऐसे-ऐसे विनाशकारी अस्त्र-शस्त्र बनाए हैं कि जिनसे संसार क्षण भर में नष्ट हो सकता है। द्वितीय महायुद्ध में अमेरिका ने ऐटम बम (अणु बम) गिरा कर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों को भस्म कर दिया था। इनमें से कुछ विरले ही लोग बचे थे। उनमें से कई अपंग हो गये थे। पशु-पक्षी भी मारे गए थे। वृक्ष तक राख हो गये थे। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि कर उठी थी। उस नाशकारी दृश्य को संसार आज भी नहीं भूला ।
विज्ञान द्वारा विषैली गैस देशों में छोड़ी जा सकती है, जिससे वहां की जलवायु को विषाक्त करके लोगों को समाप्त किया जा सकता है। विज्ञान द्वारा बनाई हुई डुबकिनी किश्ती ऐसा तारपीडो छोड़ती है कि उसकी चोट से बड़े-बड़े समुद्री जहाज़ पलों में समुद्र में डूब जाते हैं। हवाई जहाज़ों से बमों की वर्षा करके निरीह जनता तथा उनके घर-बार तबाह कर दिए जाते हैं। राकेट द्वारा दूर देश पर हमला करके उसे मिनटों में मिट्टी में मिलाया जा सकता है। विज्ञान की सबसे बड़ी हानि यह है कि उसने मनुष्य को नास्तिक, आलसी और बेकार बना दिया है। वह ईश्वर, आत्मा, धर्म, पुण्य, परलोक आदि को नहीं मानता । जब रेल, मोटर, हवाई जहाज़ नहीं बने थे तब लोग कई मील पैदल चल लेते थे, आज उनसे चला नहीं जाता। कई मनुष्यों का काम एक मशीन कर लेती है, इसलिए बेकारी बढ़ गई है। विज्ञान ने लोगों के चरित्र को भी गिराया है। कई तरह के अनुचित काम करने के लिए विज्ञान मदद करता है तथा उकसाता है। इसलिए विज्ञान एक अभिशाप बनकर प्रकट हुआ है।
यदि विज्ञान की उपलब्धियों पर विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि यह वरदान है। परन्तु निष्कर्ष रूप में यह दिखाई देता है कि विज्ञान ने मानवता और संस्कृति को बड़ी ठेस पहुंचाई है, क्योंकि उसने दुनिया को अशान्त तथा व्याकुल कर दिया है। संसार के सर्वनाश का खतरा भी दिखाई पड़ता है। सम्भव है कि भविष्य में धर्म और संस्कृति का आंचल पकड़ने से विज्ञान की हानियां घट जाएं और उससे संसार में शान्ति की स्थापना में सहायता मिले। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
जिसने नई सभ्यता दी है मानव की सन्तान को ।
श्रद्धायुत प्रणाम है मेरा उस विज्ञान महान् को ॥
विष्णु सरीखा जो पालक है शंकर जैसा संहारक ।
पूजा उसकी भाव से करो आज से आराधक ॥ 

2. मनोरंजन के प्रमुख साधन

अथवा

मनोविनोद के साधन

[ भूमिका, प्राचीन काल के मनोरंजन, वर्तमान युग के मनोरंजन, मनोरंजन द्वारा ज्ञानार्जन, उपसंहार ]
मनोरंजन मानव जीवन का अनिवार्य अंग है। केवल काम जीवन में नीरसता लाता है। कार्य के साथ-साथ यदि मनोरंजन के लिए भी अवसर रहे तो काम में और गति आ जाती है। मनुष्य प्रतिदिन आजीविका कमाने के लिए कई प्रकार के काम करते हैं। उन्हें बहुत श्रम करना पड़ता है। काम करते-करते उनका मस्तिष्क, मन, शरीर, अंग-अंग थक जाता है। उन्हें अनेक प्रकार की चिन्ताएं भी घेरे रहती हैं। एक ही काम में निरन्तर लगे रहने से जी उक्ता जाता है। अतः जी बहलाने तथा थकान मिटाने के लिए किसी-न-किसी साधन को ढूंढा जाता है। इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए मनोरंजन के साधन बने हैं।
जब से मनुष्य ने इस पृथ्वी पर पदार्पण किया है तभी से वह किसी-न-किसी साधन द्वारा मनोरंजन का आश्रय लेता रहा है।
सदा मनोरंजन देता है, मन को शान्ति वितान ।
कांटों के पथ पर ज्यों मिलती फूलों की मनहर छाया ॥
प्राचीनकाल में मनोरंजन के अनेक साधन थे। पक्षियों को लड़ाना, भैंसे की लड़ाई, रथों की दौड़, धनुषबाण से निशाना लगाना, लाठी- तलवार का मुकाबला, दौड़, तैरना, वृक्ष पर चढ़ने का खेल, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गुड़िया का विवाह, रस्सी कूदना, रस्सा खिंचाई, चौपट, गाना-बजाना, नाचना, नाटक, प्रहसन, नौका-विहार, भाला चलाना, शिकार आदि। फिर शतरंज, गंजफा आदि खेलें आरम्भ हुईं। सभ्यता एवं संस्कृति विकास के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन आता रहा है।
आधुनिक युग में मनोरंजन के अनेक नये साधन उपलब्ध हैं। आज मनुष्य अपनी रुचि एवं सामर्थ्य के अनुरूप मनोरंजन का आश्रय ले सकता है। विज्ञान ने हमारी मनोवृत्ति को बहुत बदल दिया है। आज के मनोरंजन के साधनों में मुख्य हैं—ताश, शतरंज, रेडियो, सर्कस, चित्रपट, नाटक, प्रदर्शनी, कॉर्निवल, रेस, गोल्फ, रग्बी, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, वालीबाल, बास्कटबाल, टेनिस, बेडमिन्टन, शिकार आदि। इनमें से कई साधनों से मनोरंजन के साथ-साथ पर्याप्त व्यायाम भी होता है ।
वर्तमान समय में ताश, शतरंज, चित्रपट और रेडियो, संगीत सम्मेलन, कवि-सम्मेलन, मैच देखना, सर्कस देखना मनोरंजन के सर्वप्रिय साधन हैं। इनसे आबाल वृद्ध लाभ उठाते हैं। खाली समय में ही नहीं, अपितु कार्य के लिए आवश्यक समय को भी अनावश्यक बनाकर लोग इनमें रमे रहते हैं। बच्चे, युवक, बूढ़े जब देखो तब ताश खेलते दिखाई देंगे। शतरंज खेलने का भी कइयों को शौक है । चित्रपट तो मनोरंजन का विशेष साधन बन गया है। मजदूर चाहे थोड़ा कमाये, तो भी चित्रपट देखने अवश्य जाएंगे। युवक-युवतियों और विद्यार्थियों के लिए तो यह एक व्यसन बन गया है। कई लड़के पैसे चुराकर चित्रपट देखते हैं। माता-पिता बाल-बच्चों को लेकर चित्रपट देखने जाते हैं और अपनी चिन्ता तथा थकावट दूर करने का प्रयत्न करते हैं।
इस समय मनोरंजन के साधनों में रेडियो प्रमुख साधन है। इससे घर बैठे ही समाचार, संगीत, भाषण, चर्चा, लोकसभा या विधानसभा की समीक्षा, वाद-विवाद, नाटक, रूपक, प्रहसन आदि सुनकर लोग अपना मनोरंजन प्रतिदिन करते हैं। स्त्रियां घर का काम कर रही हैं साथ ही उन्होंने रेडियो चलाया हुआ है। बहुत से लोग प्रतिदिन प्रहसन अवश्य सुनेंगे। कई विद्यार्थी कहते हैं कि एक ओर रेडियो से गाने सुनाई दे रहे हों तो पढ़ाई में हमारा मन खूब लगता है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि रेडियो चलाए बिना हम तो पढ़ नहीं सकते। टेलीविज़न तो निश्चय ही मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन है। संगीत सम्मेलनों और कवि-सम्मेलनों में भी बड़ा मनोरंजन होता है। नृत्य आदि भी होते हैं। सर्कस देखना भी मनोरंजन का अच्छा साधन है।
मनोरंजन के साधनों से मनुष्य के मन का बोझ हल्का होता है तथा मस्तिष्क और नसों का तनाव दूर होता है। इससे नवजीवन का संचार होता है। पाचन क्रिया भी ठीक होती है। देह को रक्त संचार में सहायता मिलती है। कहते हैं कि सरस संगीत सुनकर गौएं प्रसन्न होकर अधिक दूध देती हैं। हरिण अपना आप भूल जाते हैं। बैजू बावरे का संगीत सुनकर मृग जंगल से दौड़ आए थे।
परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि अति सर्वत्र बुरी होती है। यदि विद्यार्थी अपना मुख्य अध्ययन कार्य भूलकर, दिनरात मनोरंजन में लगे रहें तो उससे हानि होगी। सारा दिन ताश खेलते रहने वाले लोग अपना व्यापार चौपट कर लेते हैं। इसलिए समयानुसार ही मनोरंजन व साधनों से लाभ उठाना चाहिए। मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानार्जन भी होना चाहिए। हमें ऐसे मनोरंजन का आश्रय लेना चाहिए जिससे हमारे ज्ञान में वृद्धि हो। सस्ता मनोरंजन बहुमूल्य समय को नष्ट करता है। कवि एवं कलाकारों को भी ऐसी कला कृतियां प्रस्तुत करनी चाहिएं जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्द्धन में भी सहायता करें। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
एक बात और विचारणीय है। कुछ लोग ताश आदि से जुआ खेलते हैं। आजकल यह बीमारी बहुत बढ़ती जा रही है। रेलगाड़ी में, तीर्थों पर, वृक्षों के नीचे, जंगल में बैठक में, क्लबों में जुए के दाव चलते हैं। कई लोगों ने शराब पीना तथा दुराचार के गड्ढे में गिरना भी मनोरंजन का साधन बनाया हुआ है। विनाश और पतन की ओर ले जाने वाले ऐसे मनोरंजनों से अवश्य बचना चाहिए। मनोरंजन के साधन के चयन से हमारी रुचि, दृष्टिकोण एवं स्तर का पता चलता है। अतः हम मनोरंजन के ऐसे साधन को अपनाएं जो हमारे ज्ञान एवं चरित्र बल को विकसित करें।

3. वर्षा ऋतु

[ भूमिका, श्याम घटाओं का वर्णन, प्राणी जगत् पर प्रभाव, लाभ, हानियां, उपसंहार ]
मानव जीवन के समान ही प्रकृति में भी परिवर्तन आता रहता है। जिस प्रकार जीवन में सुख-दुःख, आशा निराशा की विपरीत धाराएं बहती रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति भी कभी सुखद रूप को प्रकट करती है तो कभी दुःखद | सुख के बाद दुःख का प्रवेश कुछ अधिक कष्टकारी होता है। बसन्त ऋतु की मादकता के बाद ग्रीष्म का आगमन होता है। ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति का दृश्य बदल जाता है। बसन्त ऋतु की सारी मधुरता न जाने कहां चली जाती है। फूल-मुरझा जाते हैं। बागबगीचों से उनकी बहारें रूठ जाती हैं। गर्म लुएं सबको व्याकुल कर देती हैं। ग्रीष्म ऋतु के भयंकर ताप के पश्चात् वर्षा का आगमन होता है। वर्षा ऋतु प्राणी जगत् में नये प्राणों का संचार करती है। बागों की रूठी बहारें लौट आती हैं। सर्वत्र हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है।
धानी चूनर ओढ़ धरा की दुलहिन जैसे मुस्कराती है।
नई उमंगें, नई तरंगें, लेकर वर्षा ऋतु आती है।
वैसे तो आषाढ़ मास से वर्षा ऋतु का आरम्भ हो जाता है लेकिन इसके असली महीने सावन तथा भादों हैं। धरती का ‘शस्य श्यामलाम् सुफलाम्’ नाम सार्थक हो जाता है। इस ऋतु में किसानों की आशा – लता लहलहा उठती है। नईनई सब्ज़ियां एवं फल बाज़ार में आ जाते हैं। लहलहाते धान के खेत हृदय को आनन्द प्रदान करते हैं। नदियों, सरोवरों एवं नालों के सूखे हृदय प्रसन्नता के जल से भर जाते हैं। वर्षा ऋतु में प्रकृति मोहक रूप धारण कर लेती है । इस ऋतु में मोर नाचते हैं। औषधियां- वनस्पतियां लहलहा उठती हैं। खेती हरी-भरी हो जाती है। किसान खुशी में झूमने लगते हैं। पशु- पक्षी आनन्द – मग्न हो उठते हैं। बच्चे किलकारियां मारते हुए इधर से उधर दौड़ते-भागते, खेलते-कूदते हैं । स्त्रीपुरुष हर्षित हो जाते हैं। वर्षा की पहली बूंदों का स्वागत होता है। वर्षा प्राणी मात्र के लिये जीवन लाती है। जीवन का अर्थ पानी भी है। वर्षा होने पर नदी-नाले, तालाब, झीलें, कुएं पानी से भर जाते हैं। अधिक वर्षा होने पर चारों ओर जल ही जल दिखाई देता है। कई बार भयंकर बाढ़ आ जाती है, जिससे बड़ी हानि होती है। पुल टूट जाते हैं, खेती तबाह हो जाती है, सच है कि अति प्रत्येक वस्तु की बुरी होती है। वर्षा न होने को ‘अनावृष्टि’ कहते हैं, बहुत वर्षा होने को ‘अतिवृष्टि’ कहते हैं। दोनों ही हानिकारक हैं। जब वर्षा न होने से सूखा पड़ता है तब अकाल पड़ जाता है। वर्षा से अन्न, चारा, घास, फल आदि पैदा होते हैं जिससे मनुष्यों तथा पशुओं का जीवन निर्वाह होता है। सभी भाषाओं के कवियों ने ‘बादल’ और ‘वर्षा’ पर बड़ी सुन्दर सुन्दर कविताएं रची हैं, अनोखी कल्पनाएं की हैं। संस्कृत, हिन्दी आदि के कवियों ने सभी ऋतुओं के वर्णन किए हैं। ऋतु – वर्णन की पद्धति बड़ी लोकप्रिय हो रही है। महाकवि तुलसीदास ने वर्षा ऋतु का बड़ा सुहावना वर्णन किया है। वन में सीता हरण के बाद उन्हें ढूंढ़ते हुए भगवान् श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर ठहरते हैं। वहां लक्ष्मण से कहते हैं-
वर्षा काले मेघ नभ छाये देखो लागत परम सुहाये।
दामिनी दमक रही धन माहीं। खल की प्रीति जथा थिर नाहीं ॥
कवि लोग वर्णन करते हैं कि वर्षा ऋतु में वियोगियों की विरह-वेदना बढ़ जाती है। अर्थात् बादल जीवन (पानी) देने आए थे किन्तु वे वियोगिनी का जीवन (प्राण) लेने लगे हैं। मीरा का हृदय भी पुकार उठता है-
सावण आवण कह गया रे ।
हरि आवण की आस
रैण अंधेरी बिजरी चमकै,
तारा गिणत निरास ।
कहते हैं कि प्राचीन काल में एक बार बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई थी । त्राहि-त्राहि मच गई थी। जगह-जगह प्यास के मारे मुर्दा शरीर पड़े थे। लोगों ने कहा कि यदि नरबली दी जाए तो इन्द्र देवता प्रसन्न हो सकते हैं, पर कोई भी जान देने के लिए तैयार न हुआ। तब दस-बारह साल का बालक शतमन्य अपनी बलि देने के लिए तैयार हो गया। बलि वेदी पर उसने सिर रखा, बधिक उसका सिर काटने के लिए तैयार था। इतने में बादल उमड़ आए और वर्षा की झड़ी लग गई । बिना बलि दिए ही संसार तृप्त हो गया ।
वर्षा में जुगनू चमकते हैं। वीर बहूटियां हरी हरी घास पर लहू की बूंदों की तरह दिखाई देती हैं।
वर्षा कई प्रकार की होती है – रिमझिम, मूसलाधार, रुक-रुककर होने वाली, लगातार होने वाली। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन – इन चार महीनों में साधु-संन्यासी यात्रा नहीं करते। एक स्थान पर टिक कर सत्संग आदि करके चौमासा बिताते हैं। श्रावण की पूर्णमासी को मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन वर्षा ऋतु का प्रसिद्ध त्योहार है। – वर्षा में कीट-पतंग मच्छर बहुत बढ़ जाते हैं। सांप आदि जीव बिलों से बाहर निकल आते हैं। वर्षा होते हुए कई दिन हो जाएं तो लोग तंग आ जाते हैं। रास्ते रुक जाते हैं। गाड़ियां बन्द हो जाती हैं । वर्षा की अधिकता कभी-कभी बाढ़ का रूप धारण कर जन-जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है । निर्धन व्यक्ति का जीवन तो दुःख की दृश्यावली जाता है।
बन इन दोषों के होते हुए भी वर्षा का अपना महत्त्व है । यदि वर्षा न होती तो इस संसार में कुछ भी न होता। न आकाश में इन्द्रधनुष की शोभा दिखाई देती और न प्रकृति का ही मधुर संगीत सुनाई देता । यह पृथ्वी की प्यास बुझाकर उसे तृप्त करती है। प्रसाद जी ने बादलों का आह्वान करते हुए कहा है-
शीघ्र आ जाओ जलद, स्वागत तुम्हारा हम करें।
ग्रीष्म से संतप्त मन के, ताप को कुछ कम करें।

4. वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे

अथवा

परहित सरिस धर्म नहिं भाई

अथवा

परोपकार

[ भूमिका, प्रकृति द्वारा परोपकार, परोपकार का महत्त्व, परोपकार एक सर्वोच्च धर्म, उपसंहार ]
औरों को हँसते देखो मनु,
हँसों और सुख पाओ। 
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।
आदिकाल से ही मानव-जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियां काम करती रही हैं। कुछ लोग स्वार्थ भावना से प्रेरित होकर अपना ही हित-साधन करते रहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूसरों के हित में ही अपना जीवन लक्ष्य स्वीकार करते हैं। परोपकार की भावना दूसरों के लिये अपना सब कुछ त्यागने के लिए प्रोत्साहित करती है। यदि संसार में स्वार्थभावना ही प्रबल हो जाए तो जीवन की गति के आगे विराम लग जाए। समाज सद्गुणों से शून्य हो जाए। धर्म, सदाचार और सहानुभूति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। परोपकार जीवन का मूलमन्त्र तथा भावना विश्व की प्रगति का आधार है, समाज की गति है और जीवन का संगीत परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप गोस्वामी तुलसीदास ने इस भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।
दूसरों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने से बड़ा कार्य दूसरा नहीं हो सकता। अपने लिए तो पशु-पक्षी और कीड़े-मकौड़े भी जी लेते हैं। यदि मनुष्य ने भी यह किया तो क्या किया? अपने लिए हंसना और रोना तो सामान्य बात है जो दूसरे के दुःख को देखकर रोता है उसी की आंखों से गिरने वाले आंसू मोती के समान हैं। गुप्त जी ने कहा भी है-
गौरव क्या है, जनभार सहन करना ही ।
सुख क्या है, बढ़कर दुःख सहन करना ही ||
परहित का प्रत्यक्ष दर्शन करना हो तो प्रकृति पर दृष्टिपात कीजिए। फूल विकसित होकर संसार को सुगन्धि प्रदान करता है। वृक्ष स्वयं अग्नि वर्षा पीकर पथिक को छाया प्रदान करते हैं। पर्वतों से करुणा के झरने और सरिताएं प्रवाहित होती हैं जो संतप्त धरा को शीतलता और हरियाली प्रदान करती हैं। धरती जब कष्टों को सहन करके भी हमारा पालनपोषण करती है। सूर्य स्वयं तपकर संसार को नव जीवन प्रदान करता है। संध्या दिन-भर की थकान का हरण कर लेती है। चांद अपनी चांदनी का खजाना लुटाकर प्राणी जगत् को निद्रा के मधुर लोक में ले जाकर सारे शोक-संताप को भुला देता है। प्रकृति का पल-पल, कण-कण परोपकार में लीन है । यह व्यक्ति को भी अपने समान परहित के लिए प्रेरित करती है-
वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ॥
स्वार्थ में लिप्त रहना पशुता का प्रतीक नहीं तो क्या है –
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे |
परोपकार सर्वोच्च धर्म है जो इस धर्म का पालन करता है, वह वन्दनीय बन जाता है। इसी धर्म के निर्वाह के लिए राम वन-वन भटके, ईसा सलीब पर चढ़े, सुकरात को विष-पान करना पड़ा। गांधी जी को गोलियों की बौछार सहन करनी पड़ी। स्वतन्त्रता के यज्ञ में अनेक देश-भक्तों को आत्मार्पण करना पड़ा। उन्हीं वीर रत्नों के जलते अंगार से ही आज का स्वातन्त्र्य उठा है। कोई शिव ही दूसरों के लिए हलाहल पान करता है-
मनुष्य दुग्ध से दनुज रुधिर से अगर सुधा से जीते हैं,
किन्तु हलाहल भवसागर का शिव शंकर ही पीते हैं।
परोपकार अथवा परहित से बढ़कर न कोई पुण्य है और न कोई धर्म । व्यक्ति, जाति और राष्ट्र तथा विश्व की उन्नति, प्रगति और शान्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने का इससे बड़ा उपकरण दूसरा नहीं। आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य से लेकर राष्ट्र तक स्वार्थ केन्द्रित हो गए हैं। यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी क्लेश एवं अशान्ति का बोल-बाला है। यदि मनुष्य सूक्ष्म दृष्टि से विचार करे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि परोपकार के द्वारा वह व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों क्षेत्रों में प्रगति कर सकता है। स्वार्थ में और परोपकार में समन्वय एवं सन्तुलन की आवश्यकता है। सामाजिक दृष्टि से परोपकार लोकमंगल का साधक है तो व्यक्तिगत दृष्टि से आत्मोन्नति का संबल है पर उपकार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति अपने लिए जिए ही नहीं। वह अपने लिए जीवन जीता हुआ भी दूसरों के आंसू पोंछ सकता है, किसी दुःखी के अधरों पर मुस्कान ला सकता है। किसी गिरते को सम्भाल कर खुदा के नाम से विभूषित हो सकता है-
आदमी लाख संभलने पै भी गिरता है मगर
झुक के उसको जो उठा ले वो खुदा होता है ।।
जो दूसरों का भला करता है, ईश्वर उसका भला करता है। कहा भी है, ‘कर भला हो भला’ तथा ‘सेवा का फल मीठा होता है’। परोपकार की भावना से मनुष्य की आत्मा का विस्तार होता है तथा धीरे-धीरे उसमें विश्व बन्धुत्व की भावना का उदय होता है। परोपकारी व्यक्ति का हृदय मक्खन से भी कोमल होता है। मक्खन तो ताप (गर्मी) पाकर पिघलता है परन्तु सन्तु दूसरों के ताप अर्थात् दुःख से ही द्रवीभूत हो जाता है। महात्मा बुद्ध को कोई दुःख न था पर दूसरों के रोग, बुढ़ापे एवं मौत ने उन्हें संसार का सबसे बड़े दुःखी बना दिया था। ऐसी कितनी ही विभूतियों के नाम गिनवाए जा सकते हैं जिन्होंने स्वयं कांटों के पथ पर चलकर संसार को सुखद पुष्प प्रदान किए।f fo आज विज्ञान की शक्ति से मत्त होकर शक्तिशाली राष्ट्र कमज़ोर राष्ट्रों को डरा रहे हैं। ऐसे अन्धकारपूर्ण वातावरण को लोकमंगल की भावना का उदय ही दूर कर सकता है। भारतीय संस्कृति आदि काल से ही विश्व – कल्याण की भावना से प्रेरित रही है। धन-दौलत का महत्त्व इसी में है कि वह गंगा के प्रवाह की तरह सब का हित करे। सागर की उस महानता और जल राशि का क्या महत्त्व जिसके रहते संसार प्यासा जा रहा है। अन्त में पन्त जी के शब्दों में कहा जा सकता है-
आज त्याग तप संयम साधन
सार्थक हों पूजन आराधन,
नीरस दर्शनीय-
मानव वपु पाकर मुग्ध करे भव

5. मेरे सपनों का भारत

[ भूमिका, देश प्रेम का भाव, हमारी मर्यादाएँ, स्वरूप, समस्याएँ, भविष्य, आशावादी, दृष्टिकोण ]
बसते वसुधा पर देश कई,
जिनकी सुषमा सविशेष नई ॥
पर भारत की गुरुता इतनी,
इस भूतल पर न कहीं जितनी ॥
प्रत्येक प्राणी को अपने देश, अपने आवास तथा अपने जन्म स्थान से प्यार होता है। राष्ट्र हमारी अमूल्य सम्पत्ति है। उसके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रकट करने और उसकी पूजा-अर्चना करने के निमित्त ही हम मूर्तियां, मन्दिर, मस्जिद, धर्म-3 -ग्रन्थ, राष्ट्र-ध्वज, राष्ट्र-गान एवं संविधान आदि प्रतीक बना लेते हैं। इन सब के प्रति आदर भाव रखने का अभिप्राय देश-प्रेम के भावों को पुष्टि एवं विकसित करना है। ‘वन्दे मातरम्’, ‘जयहिन्द’ आदि उद्घोष भी हमारे देश-प्रेम के परिचायक हैं। जो मनुष्य अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सचेत नहीं रहता और उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता, उसे मनुष्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का ध्यान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।
प्रत्येक देश के वासी अपने राष्ट्र को ‘मातृ-भूमि’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं। संस्कृति में तो यहां तक कहा गया है-
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी (अपनी माता और मातृ भूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बड़ी होती हैं।) हमारा प्राचीन भारत प्रत्येक दृष्टि से समुन्नत था। यहां दूध की नदियां बहती थीं। धर्म-पालन जीवन का सर्वोत्तम ध्येय था। हमारा समाज गुणों की दृष्टि से एक स्वर्णिम समाज था। वैदिक युग से लेकर गुप्त युग तक का भारत अनेक उतार-चढ़ाव पार करता हुआ भी अपने गौरव को अक्षुण्ण बनाए हुए था, यह देश सभ्यता एवं संस्कृति का आदर्श था। विदेशियों ने भी इसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। ज्ञान-विज्ञान में तो इसकी समता ही नहीं थी। तभी तो इसे जगद्गुरु की संज्ञा से विभूषित किया गया। यह ठीक है कि हूण, द्रविड़, कुषाण आदि विदेशी आक्रांताओं ने हमारी सामाजिक मर्यादाओं एवं धार्मिक आस्थाओं पर अत्रात किए पर हमने अपनी मूलभूत क्षमताओं को अक्षुण्ण बनाए रखा।
‘नहीं था यद्यपि उसकी यह क्षमता भी खूब बड़ी-चढ़ी थी। प्राचीन भारत का गौरव आज तक अक्षुण्ण है और उसका आत्मिक विकास । उसके लिए आत्मा ही दृष्टव्य मन्तव्य और श्रोतव्य था । “
शताब्दियों की पराधीनता एवं शोषण के बाद देश स्वतन्त्र हुआ । इसने नव-निर्माण की ओर अनेक कदम बढ़ाए हैं । आज फिर यह विश्व के महान् राष्ट्रों में गिना जाता है। हमारे देश का मानचित्र बड़ा आकर्षक है। इसके उत्तर में हिमालय है जो रात-दिन प्रहरी की भान्ति इसकी रक्षा में सचेत रहता है। कितने ही घने जंगल एवं उपवन इसके हृदय में छाये हैं। गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, गोमती आदि पावन नदियां कल-कल ध्वनि करती हुई इसका गुणगान करती हैं । वे देश की भूमि को हरा भरा बनाती हैं। प्रशांत महासागर इसके चरणों का प्रक्षालन करता है। इसका प्राकृतिक वैभव दर्शनीय है । इसके भौतिक एवं सांस्कृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ही तो प्रसाद जी का हृदय कह उठा था-
अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ।
मैं भी भारत का एक नागरिक हूं। मैं इस देश के मंगल के लिए नित्य नई-नई कल्पनाएं करता हूं। मैं इसे सुन्दर से सुन्दर देखना चाहता हूं। इसने मेरे ऊपर जो उपकार किया है, मैं उससे उऋण नहीं हो सकता। अनेक देश-भक्तों, शहीदों और कर्मठ व्यक्तियों की सेवा, त्याग एवं कठोर परिश्रम के बल पर मेरे देश ने एक बार फिर नया ठाठ धारण किया है। लेकिन मेरे सपनों का भारत इससे भिन्न है, मेरे सपनों के भारत की तस्वीर देखिए
इसमें सन्देह नहीं कि आज भारतवासी स्वतन्त्र हैं लेकिन अभी तक हमें स्वतन्त्रता का पूर्ण आनन्द उपलब्ध नहीं हुआ। आज भी सरकार के अधिकारी निर्धनों का शोषण करते हैं। निर्धनों की दशा बड़ी शोचनीय बनती जा रही है। सरकार ने भी अनेक बार निरंकुश होकर जनता की उपेक्षा की है। उसने जनता के हित की उपेक्षा करके अपनी गद्दी एवं सत्ता को बनाए रखने की तरफ अधिक ध्यान दिया है। कभी-कभी तो राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं जो प्रजातन्त्र के ऊपर कलंक की गहरी छाप छोड़ जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों में जो कुछ हुआ है; वह हमारे सामने है। मैं चाहता हूं कि मेरे देश का प्रजातंत्र का आदर्श रूप हो ताकि प्रत्येक नागरिक को सच्ची स्वतन्त्रता का अनुभव हो ।
मेरे देश में आर्थिक विषमता की खाई भी दिन-प्रतिदिन गहरी होती जा रही है। निर्धन अभाव की चक्की में पिस रहा है जब तक यह आर्थिक विषमता समाप्त नहीं होती और देश के निर्धन और धनी को एक जैसा सुख प्राप्त नहीं होता तब तक मेरे सपनों का भारत भी यथार्थ रूप धारण नहीं कर सकता।
कभी-कभी प्रान्तीयता एवं साम्प्रदायिकता के भाव प्रबल हो जाते हैं जिससे मेरे देश की एकता खंडित हो जाती है। कभी भाषा के नाम पर आन्दोलन होते हैं तो कभी धर्म की संकीर्णता वैमनस्य का कारण बन जाती है। राजनीतिक पार्टियां परस्पर मतभेद होने के कारण भी देश की उन्नति में बाधक बन जाती हैं। जब तक यह गुटबन्दी समाप्त नहीं होती तब तक राजनीतिक वातावरण में भी स्वस्थता एवं स्थिरता नहीं आ सकती । जब तक राजनीतिक दल देश के हितसम्पादन को अपना लक्ष्य स्वीकार नहीं करते तब तक मेरा सपना भी साकार नहीं हो सकता।
आज के भारत में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है जिसके कारण राष्ट्रीय चरित्र पर आघात पहुंच रहा है। जब तक भारतवासी चरित्रबल की आवश्यकता को नहीं समझते तब तक भारत का स्तर ऊंचा नहीं उठ सकता।
वर्तमान भारत की शिक्षा-पद्धति भी दोषपूर्ण है। छात्र अपने जीवन का दीर्घ समय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में व्यतीत करके भी अपने भविष्य के प्रति निश्चित नहीं हो सकते। मैं अपने देश में ऐसी शिक्षा पद्धति चाहता हूं जो छात्र के भविष्य को स्वर्णिम बना दे। उसके हृदय में देश भक्ति एवं समाज सेवा की भावनाएं हिलोरे लेती रहें।
भारत अपने प्राचीन गौरव को समझे, पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध से अपने को बचाए, सादा जीवन और उच्च विचार ग्रहण करे, अपनी भाषा को प्राथमिकता दे, प्राचीनता एवं नवीनता के समन्वय से अपने ज्ञान-विज्ञान को चरम सीमा तक पहुंचा दे तभी मैं समझंगा कि मेरा सपना साकार हुआ है।
मैं आशावादी हूं। मुझे विश्वास है कि वह दिन अवश्य आएगा जब हमारे भारत की संस्कृति विश्व के चौराहे पर चमक कर सभी दिशाओं को आलोकित करेगी। भारत आत्म-निर्भर बनेगा। प्रत्येक नागरिक सुख-सुविधा एवं आनन्द का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् से मेरी नम्र प्रार्थना है कि वे मेरी राष्ट्रोत्थान सम्बन्धी कल्पनाओं को यथार्थ रूप प्रदान करे। मेरी यह हार्दिक कामना है-
सभी निज संस्कृति के अनुकूल,
एक हों रचे राष्ट्र उत्थान ।

6. विद्यार्थी जीवन

अथवा

आदर्श विद्यार्थी

अथवा

विद्यार्थी – जीवन एक संघर्ष

[ भूमिका, विद्यार्थी जीवन, सफलता का रहस्य, विद्यार्थी के कर्त्तव्य, उपसंहार ]
छात्र राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं । ये देश की आशा होते हैं। देश का भविष्य इन्हीं के अनुशासन और परिश्रम पर निर्भर करता है। देश के जितने महान् नेता, कार्यकर्त्ता, समाज सुधारक एवं धार्मिक पुरुष हुए हैं, वे इसी अवस्था से निकले हैं। छात्रों की समर्थता एवं शक्ति में सन्देह करना भारी भूल है। ये अपने जीवन के विविध सोपानों को सफलतापूर्वक पार करते हुए नर-रत्न बनते हैं। यदि इनका उचित मार्ग दर्शन किया जाए तो ये शिवा, प्रताप, गुरु गोबिन्द सिंह बनकर आततायियों के दांत खट्टे करते हैं, सुभाष एवं भक्त सिंह के समान बनकर शत्रु के नाक में दम कर देते हैं, गांधी तथा नेहरू बनकर राजनीति के क्षेत्र में डंका बजा देते हैं तथा सत्य एवं अहिंसा के बल पर विश्व में भारत की शान्तिप्रियता का डंका बजा देंगे।
स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द एवं श्रद्धानन्द के आदर्शों को जीवित करने की शक्ति केवल छात्रों में है। मनुष्य के जीवन की चार मुख्य अवस्थाएं मानी गई हैं। उनमें पहली अवस्था विद्या प्राप्त करने की है। इसे ही विद्यार्थी जीवन कहते हैं। पढ़ना-लिखना, कला-कौशल सीखना, युद्ध – विद्या में निपुण होना, ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना, अच्छे संस्कार अपनाना, इसी आयु में पूरी तरह सम्भव होता है, क्योंकि बाल, किशोर और युवा अवस्था में बुद्धि तीव्र, मन निर्मल, मस्तिष्क साफ़ एवं बलवान् और शरीर स्वस्थ होता है। हृदय में उत्साह और उमंग होने से आशाएं भरी होती हैं। विद्यार्थी जीवन की सबसे मीठी, सुन्दर और आनन्द-मय अवस्था है। विद्यार्थी जीवन मुख्यतया पांच वर्ष से लेकर पच्चीस वर्ष तक होता है। पर धन्य हैं वे लोग जो जीवन भर विद्यार्थी और जिज्ञासु बने रहकर अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं।
विद्यार्थी जीवन मनुष्य के सारे जीवन की नींव है। नींव पक्की हो तो उसके ऊपर भवन भी पक्का बनता है। यदि नींव कच्ची रह जाए तो उसके ऊपर भवन देर तक नहीं टिकता। इसी प्रकार विद्यार्थी जीवन में यदि विद्या भली भांति प्राप्त न की जाए, तो भविष्य में मनुष्य का जीवन सूना-सूना, अधूरा और पिछड़ा हुआ रह जाता है। विद्यार्थी जीवन में चिन्ता जरा भी नहीं होती। विद्यार्थी सदा प्रसन्न रहते हैं। हंसते-खेलते उनका समय बीतता है। चेहरे पर चमक और ताज़गी होती है। उन्हें आनन्द मग्न देखकर बड़े-बूढ़े लोग विद्यार्थी जीवन के लिए तरसा करते हैं पर अब वह चपलता कहां, वह थिरकन कहां। कितना सरस और सुहावना है विद्यार्थी जीवन । डॉ० रामेश्वरलाल खण्डेलवाल ने छात्रवर्ग की निर्मलता से प्रभावित होकर कहा – “वे मुझे सदा सुगन्धित उपजाऊ माटी से मिले हैं- जब देखो तब जीवनरसमयी हरियाली की दूब फोड़ने-उगाने को तैयार, छुओ तो कंचन बन जावें।”
परन्तु कई बालक, बहुत से किशोर, अनेक युवक इस जीवन की महत्ता को नहीं जानते। वे अपनी इस सुनहरी अवस्था को बेदर्दी से व्यर्थ गंवा देते हैं। उन्हें पता नहीं कि ऐसा अमूल्य समय फिर हाथ नहीं आयेगा, बाद में केवल पछताना पड़ेगा। उन्हें जान लेना चाहिये कि विद्यार्थी जीवन का एक-एक पल कीमती होता है। अन्दर की शक्तियां इसी जीवन में फलती-फूलती हैं। इसीलिए इस जीवन में बड़ी रुचि और लग्न से विद्याएं सीखनी चाहिएं।
विद्यार्थी-जीवन को सफल बनाने के मुख्य रहस्य हैं- कर्त्तव्य पालन, आज्ञाकारी होना, ब्रह्मचर्य, संयम, कुसंगति से बचना, खेल-तमाशों का त्याग, व्यायाम, उत्तम स्वास्थ्य, गुरु और माता-पिता के प्रति श्रद्धा, ईश्वरभक्ति, आलस्य का त्याग एवं समय का सदुपयोग ।
आलस्य तो विद्यार्थी जीवन का बहुत बड़ा शत्रु है। एक नीतिकार ने लिखा है कि जो सुख आराम चाहता है वह विद्या प्राप्त नहीं कर सकता और जो विद्या प्राप्त करना चाहता है उसे सुख आराम छोड़ देना चाहिए। एक और विचारक ने कहा है कि हाय पुत्र! तूने आराम से बीती हुई उन रात्रियों में पढ़ा नहीं, इसलिए अब तू विद्वानों के बीच में ऐसे दुःखी हो रहा है, जैसे दलदल में फंसी हुई गाय दुःखी होती है।
विद्या ग्रहण करते हुए अपने स्वास्थ्य का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए व्यायाम और खेल-कूद आवश्यक है। कई विद्यार्थी पुस्तकों के कीड़े बनकर अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लेते हैं। इसके विपरीत कई लड़के केवल खेल-कूद में ही सारा दिन नष्ट कर देते हैं और विद्या ग्रहण करने में बहुत पिछड़ जाते हैं। पढ़ने और खेलने दोनों में समयानुसार भाग लेकर निपुण बनना हितकर है। शिक्षा एवं खेलों में समन्वय की आवश्यक है। अतिशयता हर वस्तु की बुरी होती है।
कुसंगति, खेल तमाशे, व्यर्थ की गप्पें, दुर्व्यसन आदि से सदा बचने वाले और अनुशासित विद्यार्थी का जीवन चमकता है। जो विद्यार्थी इनके अधीन हो जाता है वह स्वयं अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारता है। अपना भविष्य धुंधला कर लेता है। अनुचित आहार-विहार से विद्यार्थी अपना सत्व गुण गंवा बैठता है। महात्मा गांधी का कथन है कि विद्यार्थीजीवन में पान-सिगरेट तथा शराब की बुरी आदतें डालना आत्मघात करना है।
विद्यार्थी जीवन कच्चे घड़े के समान होता है। इस अवस्था में जैसे संस्कार डाले जाएं वे पक्के हो जाते हैं। यह सोचकर विद्यार्थी को सदा अच्छे और सच्चे साथी तथा मित्र बनाने चाहिए क्योंकि वे जीवन को ऊंचा और सुखी बना देते हैं। बुरे साथी और आचरणहीन मित्र विद्यार्थी की जीवन नैया को डुबो देते हैं ।
विद्यार्थी को मितव्ययी होना चाहिए। सम्भल कर खर्च करने वाले विद्यार्थी माता-पिता पर बोझ नहीं बनते, स्वयं ऋण से बचकर सदा सुखी रहते हैं। मर्यादा का ध्यान रखना विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य है। उसे निर्लज्ज नहीं बनना चाहिए। हंसी-मज़ाक एक सीमा तक ही अच्छा होता है। हां, झूठी शर्म, दब्बूपन छोड़ देना चाहिए। साहस, वीरता तथा निडरता से विद्यार्थी की विशेषताएं बढ़ती हैं। प्रत्येक विद्यार्थी को देशभक्त होना चाहिए। उसे झगड़े-बखेड़े वाली राजनीति की चालों में भाग नहीं लेना चाहिए । देश की राजनीतिक अवस्था और नीतियों के बारे में जागरूक और सचेत होना तो आवश्यक है, पर राजनीति की दलदल में फंसना ठीक नहीं ।
अनुशासन की राह पर न चलने वाले और उपद्रव, हिंसा, तोड़-फोड़, उद्दण्डता भरे आन्दोलनों में पड़ने से विद्यार्थी जीवन का महत्त्व बहुत नीचे गिर जाता है। विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण आज सारा वातावरण दूषित हो गया है। इन बातों से विद्या प्राप्ति में बड़ी बाधाएं आ रही हैं। आज भारत ही नहीं, लगभग सारा संसार ही छात्रों की अनुशासनहीनता से त्रस्त और परेशान है। यह छात्र समस्या कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेती है—’दिनकर’ जी ने इस समस्या का चित्रण करते हुए कहा है-
और छात्र बड़े पुरज़ोर हैं,
कालिजों में सीखने को आए तोड़-फोड़ हैं।
कटते हैं, पाप है समाज में,
धिक हम पै! जो कभी पढ़े इस राज में,
अभी पढ़ने का क्या सवाल है ?
अभी तो हमारा धर्म एक हड़ताल है। 
अनुशासनहीनता – यह छात्र वर्ग एवं राष्ट्र दोनों के लिए घातक है। आज तो ऐसे छात्रों की आवश्यकता है जो आदर्श जीवन से मोह करने वाले हों और जो स्वर से यह कहें-
सामाजिक, जलधार बनेंगे नैतिक नेता
होवेंगे सुप्रसिद्ध सुधारक ग्रन्थ प्रणेता,
कर दरिद्रता दूर द्रव्य से घर भर लेंगे,
भारत को फिर विश्व-शिरोमणि हम कर देंगे।
विद्यार्थी जीवन अमृत से भरा जीवन है । यही बाद के जीवन को बनाता या बिगाड़ता है। इसी के आधार पर अच्छे नागरिक उत्पन्न होते हैं। इसी के सहारे राष्ट्र में राष्ट्रीयता बढ़ती है। महान् नेता बनने के अंकुर इसी अवस्था में उगते हैं। क्योंकि कहा भी है ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’। ऐसे सामर्थ्य-भरे जीवन को आदर्श बनाना प्रत्येक विद्यार्थी का एकमात्र कर्तव्य है। अनुशासन की राह विद्यार्थी को सदा सुख से भरी राह पर अग्रसर कराता है और भविष्य में महानता प्रदान करता है।

7. ऐतिहासिक स्थान की यात्रा

अथवा

कोई यात्रा वृत्तान्त

[ भूमिका, निर्माण, ताजमहल का बाहरी और भीतरी रूप, ताजमहल का अपूर्व सौन्दर्य, उपसंहार ]
कला चाहे किसी भी रूप में हो, जीवन की ही अभिव्यंजना है। मानवीय सुख-दुःख की अनुभूति, विरह-वेदना तथा हास्य-विनोद सब कला के रूप में कुसुम-गुच्छ की भांति गुंथे रहते हैं । ऐतिहासिक भवन भी अपने युग की कला पूर्ण अभिव्यक्ति करता है । यह कला कभी मानव जीवन के बाह्य ठाठ-बाट की अभिव्यंजना करती है तो कभी उसके अन्तर्जगत् पर प्रकाश डालती है। ताजमहल कुछ ऐसी ही भावना का प्रतीक है। यह मुग़ल बादशाह शाहजहां तथा साम्राज्ञी मुमताज के प्रेम का प्रतीक है। यह समय की शिला पर रखा हुआ वह दीपक है जिस पर प्रेमी-पतंगे सदैव मंडराते रहते हैं।
ताजमहल उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध नगर आगरा में स्थित है। इसके दर्शनार्थ देश-विदेश से असंख्य यात्री आते हैं। संसार के सात आश्चर्यों में इसका स्थान है। इसका निर्माण आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व सम्राट् शाहजहां ने अपनी प्रेयसी मुमताज की स्मृति में करवाया था। शाहजहां मुमताज से अत्यधिक प्रेम करते थे । मुमताज बीमार पड़ गई। प्रसव पीड़ा से उसके प्राण निकलने लगे । शाहजहां भीगी आंखों से अपनी मुमताज के पास बैठा था । मुमताज ने मरने से पूर्व सम्राट् से अनुरोध किया कि उसकी स्मृति में एक ऐसा स्मारक बनाया जाए जिसे देखकर संसार आश्चर्यचकित हो उठे। शाहजहां ने ऐसा ही स्मारक बनाने का वचन दिया। समय के विकराल हाथ ने एक प्रेमी से उसकी प्रेमिका छीन ली। शाहजहां मुमताज को खोकर मानो, सब कुछ खो बैठा । विकलता और निराशा उसे चैन न लेने देती थी । मुमताज की स्मृति में स्मारक बनवाने के लिए देश-विदेश से कारीगर बुलाए गये । आखिर ताजमहल का निर्माण आरम्भ हुआ। हज़ारों मज़दूरों ने 20-22 वर्ष तक सतत परिश्रम करके इस सुन्दर स्मारक का निर्माण किया । शाहजहां के उद्गारों को साकार रूप मिल गया।
ताजमहल के चारों ओर सुन्दर उद्यान हैं। सबसे पूर्व प्रवेश द्वार है जिसके दोनों पावों में फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी में कुछ शब्द अंकित हैं जो शाहजहां तथा मुमताज के जीवन तथा उनके अगाध प्रेम पर प्रकाश डालते हैं। वहां के वातावरण में बड़ी सौम्यता है। वहां सौन्दर्य के सैंकड़ों आनन हंसते और मुस्कराते हुए दिखाई देते हैं। इस सौन्दर्य को आंखों में समा लेने के लिए मनुष्य की गति इतनी धीमी हो जाती है कि 100 गज तक चलने में उसे घण्टों लग जाते हैं। एक पंक्ति में उछलते हुए फव्वारे, मखमल की भांति घास, सीधी रेखा में सरू के वृक्ष, सब में एक नया आकर्षण दिखाई देता है। ताज की विशद जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रवेश द्वार पर मार्ग-दर्शक भी मिल जाते हैं। विदेशी लोग प्रायः मार्ग-दर्शकों को साथ लेकर ही ताज के भीतर प्रवेश करते हैं ।
ताज के बाहरी रूप की भान्ति ही भीतरी रूप भी आकर्षण रखता है। भवन में शाहजहां और मुमताज की बनी हुई संगमरमर की कब्रें हैं। इनके ऊपर विभिन्न प्रकार के बेल-बूटे खुदे हुए हैं। इनके चारों ओर संगमरमर की सुन्दर जाली है जो मुसलमानों की मूर्ति-कला पर प्रकाश डालती है। भवन के चारों कोनों पर चार मीनारें हैं जो ताज की सुन्दरता को चार चांद लगा देती है। ताज कवियों, कलाकारों और चित्रकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। इसके पार्श्व में कलकल नाद से बहती यमुना मानो, इसी का गुणगान कर रही है। मानव हृदय भी यमुना की धारा के साथ ही आनन्द की लहर में बहने लगता है। ताज के अपूर्व सौन्दर्य से प्रभावित होकर किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
नील चन्द्रातप तले,
यह संगमरमर का महल,
ज्योति-जमुना में खिला है,
दुधिया कोई कमल
शरद पूर्णिमा में तो ताज का सौन्दर्य अवर्णनीय होता है। वह कितना स्वच्छ, सुन्दर और कला से परिपूर्ण है, उसे जिसने भी देखा मुग्ध हो गया। कला की अधिष्ठात्री मानो, उसके सम्मुख आ गई। शरद पूर्णिमा में झूलता हुआ यह महल सब को आत्म-विभोर कर देता है। दुधिया चाँदनी के स्नान में लीन प्रत्येक वस्तु स्वर्गीय दिखाई देती है। स्वच्छ चांदनी में नहाई हुई सड़क ऐसी दिखाई देती है, मानो स्वर्ग नगरी तक पहुंचने के लिए मखमली चादर बिछा दी हो। चाँद भी इन प्रेमियों के स्मारक पर हृदय खोलकर चाँदनी बरसाता है। संगमरमर के पत्थरों में अपना प्रतिबिम्ब देखकर दर्शक का मन-मयूर नाचने लगता है। वायु की सनसनाहट से दो प्रेमियों की वेदना का आभास होने लगता है। वास्तव में ताज है भी विरह वेदना का साकार रूप । डॉ० राम कुमार वर्मा ने ठीक ही कहा है-
था शाहजहां वह एक व्यक्ति,
जिसने तो किया इतना काम ।
दे दिया विरह को एक रूप,
है ताज जिसका व्यथित नाम ।
कहते हैं कि सौन्दर्य क्षण – भंगुर है । सुन्दर वस्तुओं की आयु कम होती है, पर ताज को देखकर लगता है, सौन्दर्य स्थायी है । अस्थायी है मन की चंचलता और वासना । कला का सौन्दर्य सतत और चिरंतन है। सैंकड़ों वर्ष हो गये। राज्य उथल-पुथल हो गए। आन्धी, वर्षा, भूकम्प से पृथ्वी की आकृति भी बदल गई है, पर ताज आज भी वैसा ही है जैसा तीन सौ वर्ष पहले था । यह समय के लिए चुनौती है। यह समय की शिला पर जलने वाली अमर ज्योति है।

8. भारत की बढ़ती जनसंख्या : समस्या और समाधान

अथवा

परिवार नियोजन

[ भूमिका, प्राचीन एवं वर्तमान, हानियां, परिवार नियोजन का महत्त्व एवं उपाय, उपसंहार ]
भारत की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई जनसंख्या राष्ट्र की एक भयानक समस्या है। देश की समृद्धि के लिए सरकार द्वारा किए श्रेष्ठ कार्यों में गतिरोध उत्पन्न होने का एक प्रमुख कारण जनसंख्या का निरन्तर बढ़ना है। अतः राष्ट्रीय सरकार ने इसके समाधान के लिए ‘परिवार नियोजन’ का आह्वान किया है ।
वेदों में दस पुत्रों की कामना की गई है। सावित्री ने यमराज से अपने लिए सौ भाइयों तथा सौ पुत्रों का वर मांगा था। कौरव सौ भाई थे। ये उस समय की बात है जब जनसंख्या इतनी कम थी कि समाज की समृद्धि, सुरक्षा और सभ्यता के विकास के लिए जनसंख्या वृद्धि – नितान्त आवश्यक थी ।
आज की स्थिति बदल गई है। एक स्त्री और एक पुरुष मिलकर दो हैं, और इन दोनों की दो सन्तानें यदि दो लड़के और दो लड़कियां हुईं तो चार हो जाएंगी, फिर उनकी तीसरी पीढ़ी में आकर आठ बच्चे हो जाएंगे यह सामान्य क्रम है। उस स्थिति में अन्न के अभाव और आवास की जटिल समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। सम्भवतः लोगों को घास-फूस खाने पर विवश होना पड़ेगा।

वस्तुत: देश की जनसंख्या ही उसकी शक्ति का आधार होती है, परन्तु जब यह अनियन्त्रित गति से बढ़ेगी तो निश्चय ही देश के लिए बोझ सिद्ध होगी। सीमा से अधिक आबादी किसी देश के लिए गौरव की बात कदापि नहीं कही जा सकती। ऐसी दशा में तो जनसंख्या एक अभिशाप ही कही जाएगी। भारत इस समय भी आबादी की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश है। यदि वृद्धि की गति इस तरह रही तो यह चीन (सबसे अधिक आबादी वाले देश) से आगे निकल जाएगा।

स्वाधीनता के उपरान्त भारत में सम्पत्ति के उत्पादन व वितरण की ग़लत नीतियों के कारण रोज़गार इतना नहीं कि सबको किसी सीमा तक समान रूप से खाने, पहनने और स्वस्थ रहकर अपना योग देने का अवसर मिले। यह भी अनुचित है कि शिक्षा तथा आर्थिक विकास के परिणामों की प्रतीक्षा करते परिवार नियोजन का प्रश्न अनदेखा कर दें। वास्तविक तथ्य यह है कि जब तक आर्थिक विकास होगा, तब तक जनसंख्या इतनी बढ़ चुकी होगी कि समग्र विकास को वह निगल जाएगी। प्रगति की सभी सीमाएं धरी की धरी रह जाएंगी। जनसंख्या का कीड़े-मकोड़ों की तरह बढ़ना समग्र मानवता को नष्ट कर डालेगा।
देश के नेताओं और कर्णधारों का मत उचित है -‘सन्तान उत्पन्न करना आर्थिक असुरक्षा का बड़ा कारण है।’ जनसंख्या के बढ़ने से परिवार का जीवन स्तर गिरता है, जिससे नैतिक तथा चारित्रिक पतन होता है। जीवन का विकास रुक जाता है।
जनसंख्या में गुणन प्रणाली में वृद्धि होती है। जनसंख्या 2 x 2 = 4, 4 × 4 = 16 जब कि कारोबार 1 + 1. 4 + 4 के अनुपात से बढ़ता है। परिणामस्वरूप मांग अधिक और उत्पादन व पूर्ति कम होती है, जिसके कारण कीमतें बढ़ती हैं और महंगाई व बेकारी की समस्याएं प्रकट होती हैं। देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ जाती है। अधिक सन्तान से जननी का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अस्वस्थ जननी के बच्चों में स्वस्थता कैसे सम्भव हो सकती है ?
परिवार नियोजन का महत्त्व आर्थिक तथा मानवीय दोनों दृष्टियों से है। आर्थिक दृष्टि से कि सीमा से अधिक जनसंख्या बोझ बन जाती है और मानवीय दृष्टि से इसलिए कि शक्ति से अधिक लोगों को पालन-पोषण देकर मनुष्य बनाना सम्भव नहीं। जनसंख्या को बढ़ने से रोकने के लिए एक अमानवीय उपाय यह है कि जीवन स्तर को गिरा दिया जाए, मृत्यु की दर बढ़ा दी जाए, परन्तु यह बात एक सभ्य समाज में नहीं चल सकती ।
भारत में विभिन्न धर्मावलम्बी लोग रहते हैं। देश में कुछ धार्मिक पुरुष हिन्दुओं की जनसंख्या घटने के कारण परिवार-नियोजन का विरोध करते हैं। ईसाई तथा इस्लाम धर्म को मानने वाले भी धार्मिक दृष्टि से इसका विरोध करते हैं। ऐसी देश-विरोधी भावनाओं को राष्ट्र के उत्थान के लिए नष्ट करना नितान्त आवश्यक है।
परिवार नियोजन में वर्तमान कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन अपेक्षित हैं। आज भी निर्धन वर्ग जनसंख्या वृद्धि में गौरव अनुभव करता है। केवल राष्ट्र का शिक्षित समुदाय पूर्वाग्रह को छोड़कर नियोजित परिवार में विश्वास रखता है। इस प्रकार दो दशाब्दी के पश्चात् देश में अनचाहे असभ्य लोगों की बहुसंख्या हो जाएगी । अतः एक निश्चित आय से कम अथवा आयकर न देने वाले लोगों को कानूनी नसबन्दी के लिए बाध्य करना चाहिए।
एक बात की ओर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है कि परिवार नियोजन के प्रचार में बहुत हल्कापन आ गया है। यह राष्ट्र के चरित्र का ह्रास करेगा। जीवन में उच्छृंखलता आएगी। भारत का मानस भोगवादी बन जाएगा। भोग में शान्ति व सुख कहां ? इसलिए देश के चरित्र निर्माण की दृष्टि से हल्कापन दूर करना अत्यावश्यक है।
इस तथ्य की ओर ध्यान देना भी परमावश्यक है कि सैन्य दृष्टि से युद्ध – प्रिय एवं वीर जातियों का बन्ध्याकरण न किया जाए। आज नसबन्दी करते समय इस दृष्टिकोण की उपेक्षा का परिणाम यह होगा कि दो दशाब्दी बाद सेना के लिए साहसी सैनिकों का अभाव राष्ट्र को अखरेगा।
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जनसंख्या की अनियन्त्रित वृद्धि देश के विकास में एक बड़ी बाधा सिद्ध हो सकती है। इसका समाधान परिवार नियोजन ही है । परन्तु इस तथ्य से भी देश के कर्णधारों को अपनी आंखें नहीं मूंद लेनी चाहिए कि बढ़ी हुई जनसंख्या को काम मिले। रोज़गार के अधिक अवसर जुटाए जाएं।

9. हमारे त्योहार

अथवा

त्योहार का महत्त्व

[ भूमिका, विभिन्न त्योहार एवं संस्कृति, महत्त्व, उपसंहार ]
आज के वैज्ञानिक युग में मानव चांद का पदार्पण कर चुका है। इसमें सन्देह नहीं कि यह बीसवीं शताब्दी में मानव की एक अभूतपूर्व उपलब्धि है । अन्तरिक्ष स्टेशन बनने की योजना को भी सम्भव बनाया जा रहा है। निश्चय ही एक मानव के मस्तिष्क के विकास की चरम सीमा है। लेकिन मानव के समुचित विकास के लिए मस्तिष्क के साथ हृदय के विकास की भी आवश्यकता है। हमारे त्योहार एवं पर्व हृदय के विकास में विशेष सहायक हैं। उत्सव हमारे मन में सरलता, करुणा, अतिथि सेवा एवं परोपकार की भावनाएं उत्पन्न करते हैं। यही कारण है कि भारत जैसा देश त्योहारों को अधिक महत्त्व देता है । वह किसी भी वैज्ञानिक उपलब्धि की अपेक्षा अपने त्योहार को अधिक महत्त्व देता है। त्योहार जीवन और जाति का प्राण हैं। प्रत्येक ऋतु कोई न कोई त्योहार अपने साथ अवश्य लेकर आती है। त्योहारों से जीवन की नीरसता दूर होती है तथा भारतीय धर्म, संस्कृति एवं महापुरुषों के प्रति आस्था बढ़ती है। बच्चों के जीवन में तो त्योहार उल्लास की सरिता बहा देते हैं। बच्चों में भारतीयता उत्पन्न करने का सर्वश्रेष्ठ साधन ये पर्व और त्योहार हैं ।
त्योहार जीवन में मनोरंजन लाते हैं। जिस प्रकार एक ही खिलौने से खेलते-खेलते बच्चे के मन में उसके प्रति विरक्त होना स्वाभाविक है, उसी प्रकार एकरसता का जीवन मनुष्य में नीरसता का भाव जगाता है। सुख की अधिकता भी कभीकभी मन की उदासी का कारण बन जाती है। ऐसी स्थिति में मानव कष्टों की अभिलाषा करने लगता है। जब जीवनआकाश कष्टों के बादलों से घिर जाता है तो वह सुख के अरुण प्रभात की कामना करता है।
भारतीय त्योहार भारतीय संस्कृति की उज्वलता के प्रतीक हैं। इन्होंने ही संस्कृति को अजर-अमर बनाया है। ये हमें सत्य, अहिंसा, परोपकार, सहनशीलता, एकता एवं बन्धुत्व का सन्देश देते हैं । इन त्योहारों को मुख्यतया चार भागों में बांटा जा सकता है – ( 1 ) सांस्कृतिक ( 2 ) सामाजिक ( 3 ) ऐतिहासिक ( 4 ) धार्मिक, राष्ट्रीय एवं महापुरुषों सम्बन्धी। इन त्योहारों में दीपावली, दशहरा, होली, रक्षा बन्धन आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। दीपावली भारत का एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पर्व है । इस त्योहार के साथ अनेक कहानियां जुड़ी हुई हैं। एक धारणा के अनुसार जब श्री रामचन्द्र 14 वर्ष के बनवास के बाद लंका विजय कर लौटे थे, तब उनके स्वागत की खुशी में अयोध्या के निवासियों ने यह त्योहार बड़े उत्साह से मनाया था । दीपावली की जगमगाहट जीवन को भी जगमग कर देती है । यह पर्व सफ़ाई, सजावट का सुनहला सन्देश लेकर आता है। दीपावली का त्योहार भारतवासियों में आत्मीयता के भाव जगाता है।
विजय दशमी भी हिन्दू- जाति का एक गौरवपूर्ण त्योहार है । यह आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाया जाता है। इस दिन श्री रामचन्द्र जी ने लंकापति को मारकर निरीह जनता को अत्याचारों से मुक्त कराया था। यह पर्व आसुरी प्रवृत्ति पर सात्विक प्रवृत्ति की विजय का प्रतीक है। सचमुच यह पर्व हमारा राष्ट्रीय ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्व है। यह पर्व हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता को बल प्रदान करता है ।
रक्षाबन्धन भी हिन्दुओं का बड़ा पवित्र त्योहार है। यह श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है । यह विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है । यह भाई बहन के पावन प्रेम का द्योतक है। यह भाई को अपनी बहन तथा अपने राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य की याद दिलाता है –
बाँधे बहन, बंधे भाई, यह अमर स्नेह का नाता,
बन्धन से रक्षा रहती, रक्षा से बन्धन आता।
राखी के इन धागों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां करवाई हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने एक स्थान पर लिखा है-
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी,
जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने, दौड़ पड़े थे,
राखी – बन्ध वे भाई ॥
होली भी भारत का एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है । यह नृत्य, संगीत एवं रंगों का त्योहार है। इस अवसर पर भारत के तमाम प्रदेशों में प्रादेशिक नृत्यों की तथा संगीत की धूम मच जाती है। यह ऋतुराज बसन्त की मादकता के बीच मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में प्रसिद्ध है कि यह उसी काल से मनाया जाता है, जब हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका अग्नि में न जलने का वरदान होते हुए भी जलकर भस्म हो गई और उसकी गोद में बैठे हुए भक्त प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ। इस प्रकार यह त्योहार भी बुराई पर भलाई की विजय का प्रतीक है।
त्योहारों का हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व है। त्योहारों के अवसर पर घरों में सफ़ाई की जाती है। कुछ लोग व्रत एवं उपवास रखते हैं। इस अवसर पर अच्छे-अच्छे पकवान बनते हैं। ये हमारे मन में आस्तिकता के भावों को दृढ़ करते हैं। ये भारतीय संस्कृति की रक्षा के सबसे बड़े प्रहरी हैं। ये भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी के पर्वों का तो कहना ही क्या । यह पर्व हमें अपने प्राणों से भी प्रिय है। ये देश भक्ति के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं । ये देश-भक्तों एवं शहीदों की स्मृति का प्रतीक हैं। ये राष्ट्रीय एकता का पाठ पढ़ाते हैं। ये भ्रष्टाचार, अन्याय, दुराचार, बेकारी, रोग-शोक को समाप्त करने के लिए हमें प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं। इनसे त्याग एवं तपस्या का जीवन व्यतीत करने का सन्देश मिलता है ।
स्पष्ट हो जाता है कि हमारे त्योहार हमारे जीवन का सहारा हैं। ये जीवन को आलोकित करने वाले टिमटिमाते दीपक हैं। ये भारत का गौरव हैं। भाषा, प्रान्त, जाति के भेद वाले इस देश में हमारे त्योहार हमारे ध्येय की एकता, हमारे आदर्शों और हमारे प्राचीन और नवीन इतिहास का हमें स्मरण कराते हैं । अतः इन त्योहारों के महत्त्व को बनाए रखना प्रत्येक भारतवासी का कर्त्तव्य है ।

10. स्वतन्त्रता दिवस

अथवा

कोई राष्ट्रीय त्योहार

[ भूमिका, पराधीनता एक अभिशाप, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष, स्वतन्त्रता दिवस पर हर्ष और उल्लास, हमारा कर्त्तव्य, उपसंहार ]
विकास की आस भरा नवेन्दु- सा,
हरा-भरा कोमल पुष्पमाल सा ।
प्रमोद-दाता विमल प्रभात सा,
स्वतन्त्रता का शुचि पर्व आ लसा ।
जीवन के समान ही राष्ट्र का इतिहास भी उन्नति – अवनति और हर्ष-विषाद की कहानियों से बनता है लेकिन दुर्भाग्य के कारण जब कोई राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ लिया जाता है तो उसका जीवन अभिशाप बन जाता है। भारत को भी शताब्दियों तक इस पराधीनता की लोह शृंखलाओं में बंध कर पीड़ा और घुटन का जीवन व्यतीत करना पड़ा है । अंग्रेज़ों के शासनकाल में तो पराधीनता की पीड़ा चरम सीमा पर पहुंच गयी थी । स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी भी पूरी सजगता के साथ सरकार का विरोध कर रहे थे । दिन-प्रतिदिन ‘स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और उसे हम लेकर रहेंगे’ का नारा बुलन्द होता जा रहा था । सारा देश स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए लालायित हो उठा था । सर्वत्र एक ही गूंज सुनाई देती थी। ।
रणभेरी बज उठी, वीरवर पहनो केसरिया बाना ।
मिट आओ वतन पर इस तरह, जिस तरह शमा पर परवाना ॥
अंग्रेज़ी सरकार भी अपने शासन की नींव को हिलते देखकर बौखला उठती थी । सिपाही लाठियों और गोलियों की वर्षा करते। देशभक्तों के सिर फूटते, हड्डियां टूटतीं और कुछ सड़क पर ही दम तोड़ देते पर लोगों का जोश कम न होता । वे तो एक रट लगाए हुए थे –
नहीं रखनी सरकार, भाइयो, नहीं रखनी ।
अंग्रेज़ी सरकार भाइयो, नहीं रखनी ॥
आखिर शहीदों का खून रंग लाया, जिस सरकार के राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था ऐसी शक्तिशाली साम्राज्यवादी सरकार भी आखिर निहत्थे भारतवासियों के सामने झुक गई । 15 अगस्त का पावन दिन आया । परतन्त्रता की काल-रात्रि समाप्त हुई और स्वतन्त्रता का नवसूर्य निकला | भारत माता अपने सौभाग्य पर एक युग के बाद हंस उठी । यह दिन भारतीय जीवन का मंगलमय दिन बन गया है। भारत के राजनीतिक इतिहास का तो यह स्वर्णिम दिन है। इस दिन ही हमारे नेताओं के चिरसंचित स्वप्न चरितार्थ थे ।
15 अगस्त का शुभ पर्व देखने के लिए अनेक भारतीयों ने आत्मसमर्पण किया। इसी दिन के लिए अनगिनत माताओं की गोदियों के लाल लुट गए, अनेक बहिनों से उनके भाई छिन गए और सुहागिनों की मांग का सिंदूर पुछ गया। गांधी, पटेल, जवाहर, राजेन्द्र प्रसाद सरीखे देशभक्तों को एक बार नहीं अनेक बार जेल यातनाएं सहन करनी पड़ीं । नेता जी सुभाष, शहीद भगत सिंह तथा लाला लाजपत राय के बलिदान को कौन भुल सकता है ? अनेक वीर स्वतन्त्रता भवन की नींव की ईंटें बन गए । भले ही उनका नाम इतिहास के पृष्ठों में नहीं पर उनके ही बलिदान से स्वतन्त्रता का यह दीपक प्रज्वलित हुआ है। बापू के नेतृत्व में लड़े हुए अहिंसात्मक संग्राम की कहानी बड़ी लम्बी है । सविनय अवज्ञा आन्दोलनों, असहयोग आन्दोलनों, भारत छोड़ो आन्दोलनों आदि ने सुप्त भारतीयों में नव चेतना भर दी । 15 अगस्त से पूर्व के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें बलिदानों का एक तांता दिखाई देगा। बलिदानों की एक लम्बी परम्परा के बाद आज हम स्वतन्त्र वातावरण में सांस ले रहे है ।
भारतवासियों के सतत प्रयत्नों एवं संगठित आन्दोलनों ने अंग्रेज़ी सरकार के नाक में दम कर दिया था। अंग्रेज़ी सरकार भी समझ गई थी कि भारत के सोए शेर जाग उठे हैं। अब इनका सामना करना सम्भव नहीं । अतः 15 अगस्त, सन् 1947 को अंग्रेज़ यहां से बोरिया बिस्तर गोल कर गए। ठीक 12 बजकर एक मिनट पर 14 अगस्त के समाप्त होते और 15 अगस्त के आरम्भ होते ही विदेशी शासन के प्रतिनिधि वायसराय ने सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंप दी। राजकीय भवनों पर ‘यूनियन बैंक’ के स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा स्वतन्त्रता की हवा के झोंकों से लहराने लगा।
स्वतन्त्रता प्राप्ति का समाचार सुनकर भारतवासी प्रसन्नता से झूम उठे। भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक हर्ष के आवेग की लहर दौड़ गई। 15 अगस्त की भोर भी क्या मनोरम भोर थी । प्रत्येक गली संगीत से गूंज उठी । यह संगीत हृदय का संगीत था । इससे कोई भी अछूता नहीं रहा ।
उठो सोने वालो, सबेरा हुआ है।
वतन के शहीदों का फेरा हुआ है ।।
दिल्ली तो उस दिन नवेली दुल्हन बन गई थी । ठीक प्रातः आठ बजे स्वतन्त्रता संग्राम के महान् सेनानी श्री जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया । उस दिन प्रत्येक क्षण ने एक उत्सव का रूप धारण कर लिया था। अनेक कार्यक्रम रखे गए। शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलियां अर्पित की गईं। भारत के स्वर्णिम भविष्य के लिए अनेक योजनाएं बनाई गईं। 15 अगस्त की रात्रि को ऐसी दीपमालिका की गई कि आकाश में चमकने वाले असंख्य तारों ने भी अपना मुंह छिपा लिया। यह दिन जहां इतना सुखद है वहां इसके साथ दुःख की कालिमा भी अपना स्थान बनाए हुए है। इस दिन भारत का विभाजन हो गया। भारत के एक अंग को काटकर उसे पाकिस्तान की संज्ञा दी गई । यह देखकर बापू की आत्मा रो उठी | साम्प्रदायिकता की आग भड़क उठी । अपहरण, मार-काट, अत्याचार और लूट का बाज़ार गर्म हो उठा । होनी ही बन आई थी, सब लाचार थे। पंजाब एवं बंगाल ने इस अवसर पर जो बलिदान दिया, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। हमारे देश के सजग नेताओं के किसी तरह इस आग को शान्त किया ।
भारत स्वतन्त्र तो हो गया लेकिन अभी उसके सामने देश के निर्माण का बहुत बड़ा काम था । यह काम धीरेधीरे हो रहा है। खेद की बात है कि 65 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी भारत अपने सपने को साकार नहीं कर पाया। इसका कारण वैयक्तिक स्वार्थों की प्रबलता है । दलबन्दी के कारण भी काम में विशेष गति नहीं आती। हमारा कर्त्तव्य है कि देश के उत्थान के लिए, इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए ईमानदारी का परिचय दें। प्रत्येक नागरिक कर्मठता का पाठ सीखे और अपने चरित्र बल को ऊंचा उठाए । जनता एवं सरकार दोनों को मिलकर देश के प्रति अपने कर्त्तव्य को पूरा करना है। युवक देश की रीढ़ की हड्डी के समान हैं। उन्हें देश के गौरव को बनाए रखने के लिए तथा उसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली बनाने में अपना योगदान देना चाहिए। राष्ट्र की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि हम साम्प्रदायिकता के विष से सर्वथा दूर रहें।
सभी निज संस्कृति के अनुकूल,
एक ही रचें राष्ट्र उत्थान ।
स्वतन्त्रता दिवस का मंगल पर्व इस बात का साक्षी है कि स्वतन्त्रता एक अमूल्य वस्तु है । इसके लिए हमने महान् त्याग किया है। अनेक देशभक्तों ने भारत माता के सिर पर ताज रखने के लिए अपना उत्सर्ग कर दिया है। इस दिन हमें एकता का पाठ पढ़ना चाहिए और देश की रक्षा का व्रत धारण करना चाहिए-
हर पन्द्रह अगस्त पर साथी, हम सब व्रत धारें ।
जननि जन्मभूमि की खातिर, अपना सब कुछ वारें ।

11. गणतन्त्र दिवस

अथवा

गणतन्त्र दिवस की महत्ता

अथवा

गणतन्त्र दिवस – राष्ट्रीय पर्व

[ भूमिका, गणतन्त्र का अर्थ, 26 जनवरी का रहस्य, 26 जनवरी का नया संविधान, 26 जनवरी का महत्त्व और हमारा कर्त्तव्य, उपसंहार ]
छब्बीस जनवरी कहती आकर हर बार,
संघर्षों से ही मिलता है जीने का अधिकार,
स्वतन्त्रता किसे प्रिय नहीं? स्वतन्त्रता वरदान है और परतन्त्रता अभिशाप । क्षणभर की परतन्त्रता भी असहनीय बन जाती है। पशु-पक्षी तक पराधीनता के बन्धन में छट-पटाने लगते हैं तब मानव जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है पराधीनता को कैसे सहन करता है? कभी-कभी विवश एवं साधनहीन होने के कारण उसे पराधीनता की शिला में पिसना पड़ता है। शिवमंगल सिंह सुमन ने पिंजरे में बन्द पक्षी के माध्यम से पराधीनता के उत्पीड़न को प्रकट करते हुए कहा है-
नीड़ न दो चाहे टहनी का, आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
जो राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र द्वारा पराधीन बना लिया जाता है, उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। उसका केवल राजनीतिक दृष्टि से ही पतन नहीं होता अपितु उसका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टि से भी पतन होने लगता है। भारत देश को भी शताब्दियों तक पराधीनता का अभिशाप सहन करना पड़ा। लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त, सन् 1947 को जब देश स्वतन्त्र हुआ तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न था। ऐसा लग रहा था जैसे अन्धे को प्रकाश मिल गया हो, निर्जीव व्यक्ति में प्राणों का संचार हो गया हो अथवा मूक बांसुरी में किसी ने संगीत भर दिया हो । भारत स्वतन्त्र तो हो गया पर उसका कोई अपना संविधान नहीं था। सन् 1950 में देश के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नया संविधान बनने पर 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस घोषित किया गया ।
गणतन्त्र का अर्थ है सामुदायिक व्यवस्था । भारत में ऐसे शासन की स्थापना हुई जिसमें देश के विभिन्न दलों, वर्गों एवं जातियों के प्रतिनिधि मिलकर शासन चलाते हैं। इसीलिए भारत की शासन-पद्धति को गणतन्त्र की संज्ञा दी गई और इस दिन को गणतन्त्र दिवस के नाम से सुशोभित किया गया ।
26 जनवरी का दिन बहुत पहले ही मनाना आरम्भ कर दिया गया था। इसलिए यह दिन राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में भी अमर है। 26 जनवरी, सन् 1929 ई० को लाहौर में रावी नदी के तट पर एक विशाल जन-समूह के सामने स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह घोषणा की थी – “हम भारतवासी आज से स्वतन्त्र हैं, ब्रिटिश सरकार को हम अपनी सरकार नहीं मानते। यदि ब्रिटिश शासक अपनी खैर चाहते हैं तो वे यहां से चले जाएं और खैरियत से नहीं जाएंगे तो हम आखिरी दम तक भारत की आज़ादी के लिए लड़ते रहेंगे और अंग्रेजों को चैन से नहीं बैठने देंगे।” इस घोषणा से भारतीयों के हृदय जोश से भर गए । स्वतन्त्रता संग्राम का संघर्ष तीव्र हो गया । अंग्रेज़ी सरकार पागल हो गई। उसने देशभक्तों पर मनमाने अत्याचार किये । सरकार का दमन-चक्र चरम सीमा पर पहुंच गया था। परन्तु भारतीय अपने संकल्प में दृढ़ थे । वे हिमालय के समान अडिग बने रहे । आखिर 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को स्वतन्त्रता का सूर्योदय हुआ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व 26 जनवरी मनाने का लक्ष्य और था और स्वतन्त्रता के बाद कुछ और। पहले हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी प्रतिज्ञा दुहराते थे और स्वतन्त्रता संग्राम को गति देने के लिए अनेक प्रकार की योजनाएं बनाते थे। अब 26 जनवरी के दिन हम भारत की खुशहाली के लिए कामना करते हैं और अपनी स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं। हम, हमारी सरकार ने जो कुछ किया है, उस पर दृष्टिपात करते हैं । भविष्य में क्या करना है, इसके लिए योजनाएं बनाते हैं। यह पर्व बड़े हर्ष एवं उल्लास से मनाया जाता है।
भारत को पूरी तरह से गणराज्य बनाने के लिए राष्ट्रीय संविधान की आवश्यकता थी । संविधान के निर्माण में लगभग 2½ वर्ष लगे गए। 26 जनवरी, सन् 1950 को इस संविधान को लागू किया गया और भारत को पूर्ण रूप से गणराज्य की मान्यता प्राप्त हो गई। देशरत्न बाबू राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने और पं० जवाहर लाल नेहरू प्रथम प्रधानमन्त्री । यह दिवस प्रथम बार बड़े समारोह से मनाया गया । हर्षातिरेक से नागरिक झूम उठे। ऐसा लगता था जैसे किसी निर्धन को रत्नों की निधि मिल गई हो । कुटिया तक जगमगा उठी । यह उत्सव दिल्ली में जिस शान से मनाया गया, उसे दर्शक कभी भूल नहीं सकते। उसके बाद प्रत्येक वर्ष यह मंगल पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। देश भर में अनेक स्थानों पर विविध कार्यक्रमों की योजना बनाई जाती है। सांस्कृतिक प्रदर्शन और नृत्य होते हैं। सैनिकों की परेड होती है। वायुयानों से पुष्प वर्षा की जाती है।
26 जनवरी के दिन आज़ादी को कायम रखने के लिए देशवासी प्रतिज्ञा करते हैं । वे देश के निर्माण एवं उत्थान के लिए कृत-संकल्प होते हैं । यह राष्ट्रीय पर्व देश के निवासियों में नया उत्साह, नया बल, नई प्रेरणा और नई स्फूर्ति भरता है। देशभक्त शहीदों को श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं। 26 जनवरी के दिन राष्ट्रपति भवन में विशेष कार्यक्रम होते हैं। वे देश के सैनिकों, साहित्यकारों, कलाकारों आदि को उनकी उपलब्धियों पर विभिन्न प्रकार के पदक प्रदान करते हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी देश ने अभी तक भरपूर उन्नति नहीं की। इसका कारण भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, भाषा-भेद, जातिवाद एवं संकीर्ण दृष्टिकोण है। हमें चाहिए कि हम इन दोषों को परित्याग कर देशोद्धार के कार्यों में लीन हो जाएं। तभी हमारे देश में वैभव का साम्राज्य स्थापित हो सकता है और देश में सर्वांगीण उन्नति हो सकती है। अज्ञेय जी ने 26 जनवरी को आलोक-मंजूषा की संज्ञा देते हुए भारतीय नागरिकों को सम्बोधित करते हुए कहा है-
सुनो हे नागरिक !
अभिनव सभ्य भारत के नये जनराज्य के
सुनो ! यह मंजूषा तुम्हारी है ।
पला है आलोक चिर- दिन यह तुम्हारे स्नेह से
तुम्हारे ही रक्त से ।

12. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी

अथवा

मेरा प्रिय नेता

अथवा

मेरा आदर्श महापुरुष

[ भूमिका, परिचय, राजनीति में प्रवेश, महान् कार्य, व्यक्तित्व, उपसंहार ]
“समय का दिव्य झूला कभी-कभी पृथ्वी की ओर झुक जाता है और अकस्मात् ही किसी दिव्य विभूति को भूमि पर छोड़ जाता है । वह विभूति कालान्तर में अपनी असाधारण प्रतिभा से विश्व को चमत्कृत कर देती है।” महात्मा गांधी भारत की ऐसी ही विभूति हैं। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोग से अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। सम्भवतः ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिल सकता जबकि भौतिक शक्ति को इस तरह झुकना पड़ा हो । दुनिया के इतिहास में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। आइन्सटीन ने गांधी जी के विषय में लिखा है—“आने वाली पीढ़ियां कठिनता से विश्वास करेंगी कि हाड-मांस का बना ऐसा व्यक्ति भी कभी इस भूतल पर आया था । “
इस महान् पुरुष को जन्म देने का श्रेय गुजरात कठियावाड़ के पोरबन्दर स्थान को है। भारत इस प्रान्त का चिरऋणी रहेगा। 2 अक्तूबर, सन् 1869 का वह पवित्र दिन था, जिस दिन इस महापुरुष ने पृथ्वी पर अवतार धारण किया। आप मोहनदास कर्मचन्द गांधी के नाम से प्रख्यात हुए। आपके पिता राजकोट राज्य के दीवान थे। इसलिए आप का बाल्यकाल भी वहीं व्यतीत हुआ। माता पुतली बाई बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की एवं सती – साध्वी स्त्री थी जिन का प्रभाव गांधी जी पर आजीवन रहा ।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पोरबन्दर में हुई । कक्षा में ये साधारण विद्यार्थी थे । श्रेणी में किसी सहपाठी से बातचीत नहीं करते थे। पढ़ाई में मध्यम वर्गीय छात्रों में से थे । अपने अध्यापकों का पूर्ण सम्मान करते थे। आप ने मैट्रिक तक की शिक्षा स्थानीय स्कूलों में ही प्राप्त की । तेरह वर्ष की आयु में कस्तूरबा के साथ आपका विवाह हुआ। आप आरम्भ से ही सत्यवादी थे ।
जब आप कानून पढ़ने विलायत गए उस समय आप एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। आपने माता को दिए गए वचनों का पालन पूरी तरह किया। अन्त में वे ही वचन सत्यनिष्ठ, धर्मात्मा एवं महात्मा का उच्च पद प्राप्त करने में सहायक बने। विलायत में शिक्षा ग्रहण करने के समय वे विलासिता से कोसों दूर रहे। वहां से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। गांधी जी ने बम्बई (मुम्बई) में आ कर वकालत का कार्य आरम्भ किया । किसी विशेष मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए वे दक्षिणी अफ्रीका गये । वहां भारतीयों के साथ अंग्रेज़ों का दुर्व्यवहार देखकर इनमें राष्ट्रीय भाव जागृत हुआ। वहां पर उन्होंने सबसे पहले सत्याग्रह का प्रयोग किया, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई ।
जब सन् 1915 ई० में भारत वापिस आए तो अंग्रेज़ों का दमनचक्र ज़ोरों पर था । रोल्ट एक्ट जैसे काले कानून लागू थे। सन् 1919 में जलियांवाला बाग की नरसंहारी दुर्घटनाओं ने मानवता को नतमस्तक कर दिया था। उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस केवल पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों की एक जमात थी । देश की बागडोर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के हाथ में थी। उस समय कांग्रेस की स्थिति इतनी अच्छी न थी । वह दो दलों में विभक्त थी । गांधी जी ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेते ही इतिहास का एक नया अध्याय शुरू किया। सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात करके भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया। इसके बाद 1921 ई० में जब ‘साइमन कमीश्न’ भारत आया तो गांधी जी ने उसका पूर्ण बहिष्कार किया और देश का सही नेतृत्व किया। सन् 1930 में नमक आन्दोलन तथा डांडी यात्रा का श्रीगणेश किया।
सन् 1942 के अन्त में द्वितीय महायुद्ध के साथ ‘अंग्रेज़ो’ ! भारत छोड़ो’ आन्दोलन का बिगुल बजाया और कहा, “यह मेरी अन्तिम लड़ाई है।” वे अपने अनुयायियों के साथ गिरफ्तार हुए। इस प्रकार अन्त में 15 अगस्त, 1947 ई० को अंग्रेज यहां से विदा हुए। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दो देश बने । जब भारतीय लोग अपनी नवागन्तुक आज़ादी देवी की स्वागत हर्षोन्मत्त होकर कर रहे थे, तो यह मानवता का पुजारी, शान्ति का अग्रदूत, भाई-भाई के खून से पीड़ित मानवता को अपने सदुपदेश रूप मरहम का लेपन करता हुआ गली-गली और कृचे कूचे में शान्ति की अलख जगा रहा था ।
गांधी जी का व्यक्तित्व महान् था । वे एक आदर्श पुरुष थे। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था वे सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अछूतोद्वार के लिए उनके कार्य स्मरणीय हैं। वे मानव मात्र के प्रति स्नेह और सहानुभूति रखते थे। वे शान्ति के पुजारी थे। उन्होंने विश्व बन्धुत्व की भावना का उदय करने के लिए अथक प्रयास किया। वे गीता, कुरान, गुरु, ग्रन्थ साहिब, बाइबिल सभी धर्म ग्रन्थों में से पढ़कर कुछ सुनाते थे। उन्होंने कहा था“मैं हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, यहूदी सब कुछ हूं।”
गांधी जी जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उन्होंने कहा था- भारत के अधिक लोग गांवों में रहते हैं, इन गांवों में अशिक्षा है, बीमारी है । इन गांवों की दशा सुधारो, चर्खा कातो, हिंसा के भाव छोड़ो। इससे हमें आन्तरिक स्वतन्त्रता मिलेगी, फिर हम आत्मिक बल और आन्तरिक स्वतन्त्रता के सहारे अंग्रेज़ी सत्ता को भी समाप्त कर सकेंगे।”
स्वतन्त्रता का पुजारी बापू गांधी 30 जनवरी, सन् 1948 को एक मनचले नौजवान नात्थू राम गोडसे की गोली का शिकार हुआ। अहिंसा का सबसे बड़ा उपासक हिंसा की भेट चढ़ गया। उनकी मृत्यु पर बर्नाड शॉ ने लिखा था, “इससे पता चलता है कि बहुत नेक बनना कितना भयंकर है।” चाहे बापू भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं हैं तो भी उनके आदर्श इस महान् देश का पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे। गांधी जी मरकर भी अमर हैं, क्योंकि उनके आदर्श आज भी हम मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

13. मेरा देश

अथवा

अरुण यह मधुमय देश हमारा

अथवा

हमारा प्यारा भारतवर्ष

[ भूमिका, मेरा देश, मेरे देश की कहानी, महत्त्व, उपसंहार ]
राष्ट्र मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति है । जिस भूमि के अन्न-जल से यह शरीर बनता एवं पुष्ट होता है उसके प्रति अनायास ही स्नेह एवं श्रद्धा उमड़ती रहती है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों की अपेक्षा करता है, वह कृतघ्न है। उसका प्रायश्चित सम्भव ही नहीं। उसका जीवन पशु के सदृश बन जाता है। मरुभूमि में वास करने वाला व्यक्ति ग्रीष्म की भयंकरता के कारण हांफ- हांफ कर जी लेता है, लेकिन अपनी मातृभूमि के प्रति दिव्य प्रेम संजोए रहता है । शीत प्रदेश में वास करने वाला व्यक्ति कांप-कांप कर जी लेता है लेकिन जब उसके देश पर कोई संकट आता है तो वह अपनी जन्म भूमि पर प्राण न्यौछावर कर देता है । ‘यह मेरा देश है’ कथन में कितनी मधुरता है। इस पर जो कुछ है, वह सब मेरा है । जो व्यक्ति ऐसी भावना से रहित है, इसके लिए ठीक ही कहा गया है-
जिसको न निज गौरव तथा
निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है
और मृतक समान है |
मेरा महान् देश भारत सब देशों में शिरोमणि है। इसका अतीत स्वर्णिम रहा है। एक समय था जब इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। इसे प्रकृति देवी ने अपने अपार वैभव, शक्ति एवं सौन्दर्य से विभूषित किया है । इसके आकाश के नीचे मानवीय प्रतिभा ने अपने सर्वोत्तम वरदानों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया है। इस देश के मनीषियों ने शाश्वत एवं गूढ़तम प्रश्न की तह में पहुंचने का सफल प्रयास किया है। इसकी प्राकृतिक शोभा पर मुग्ध होकर गुप्त जी ने कहा है-
भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगा जल जहां !
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस, देश का उत्कर्ष है ?
उसका कि जो ऋषि- भूमि है, वह कौन भारतवर्ष है !!
यह अति प्राचीन देश है। इसे सिन्धु देश, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान भी कहते हैं। इसके उत्तर में ऊंचा हिमालय पर्वत इसके मुकुट के समान है। उससे परे तिब्बत तथा चीन है। दक्षिण में समुद्र इसके पांव धोता है। श्रीलंका द्वीप वहां समीप ही है। उसका इतिहास भी भारत से सम्बद्ध है। पूर्व में बंगला देश और ब्रह्मदेश है। पश्चिमी में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान देश हैं। प्राचीन समय में तथा आज से दो हज़ार वर्ष पहले सम्राट् अशोक के राज-काल में और उसके बाद भी गन्धार (अफ़गानिस्तान) भारत का ही एक प्रान्त था । कुछ वर्ष पहले बंगला देश, ब्रह्मदेश, पाकिस्तान तथा लंका भारत के ही अंग थे ।
इस देश पर मुसलमानों, मुग़लों, अंग्रेज़ों ने आक्रमण करके यहां पर विदेशी राज्य स्थापित किया और इसे खूब लूटा तथा पद-दलित किया पर अब वे दुःख भरे दिन बीत चुके हैं। हमारे देश के वीरों, सैनिकों, देश-भक्तों और क्रान्तिकारियों के त्याग और बलिदान से 15 अगस्त, सन् 1947 ई० में भारत स्वतन्त्र होकर दिनों-दिन उन्नत और शक्तिशाली होता जा रहा है। 26 जनवरी, सन् 1950 में भारत में नया संविधान लागू हुआ है और यह ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व – सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ बन गया है। अनेक ज्वार-भाटों का सामना करते हुए भी इसका सांस्कृतिक गौरव अक्षुण्ण रहा है।
यहां गंगा, समुना, सरयू, सोन, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, सतलुज ब्यास, रावी आदि पवित्र नदियां बहती हैं, जो कि इस देश को सींचकर हरा-भरा करती है। इनमें स्नान कर देशवासी वाणी का पुण्य लाभ करते हैं। यहां बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर, ये छः ऋतुएं क्रमशः आती है। अनेक तरह की जलवायु इस देश में है। भांतिभांति के फल-फूल वनस्पतियां, अन्न आदि यहां उत्पन्न होते हैं । इस देश को देखकर हृदय गद्गद् हो जाता है। यहां अनेक दर्शनीय स्थान हैं।
यह एक विशाल देश है। इस समय इसकी जनसंख्या 125 करोड़ से अधिक हो गई है, जो संसार में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि मतों के लोग परस्पर हिल मिल कर रहते हैं। उनमें कभी-कभी वैमनस्य भी पैदा हो जाता है, तो आम लोग उसे बहुत बुरा समझते हैं। यहां हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, पंजाबी उर्दू, बंगला, तमिल, तेलुगू आदि अनेक भाषाएं हैं। दिल्ली इसकी राजधानी है। वहीं संसद् है। जिसके लोकसभा और राज्यसभा दो अंग हैं। मेरे देश के प्रमुख ‘राष्ट्रपति’ कहलाते हैं। एक उप राष्ट्रपति भी होते हैं। देश का शासन प्रधानमन्त्री तथा उसका मन्त्रिमण्डल चलाता है । इस देश में 28 राज्य या प्रदेश हैं जहां विधानसभाएं हैं तथा मुख्यमन्त्री और उसके मन्त्रिमण्डल द्वारा शासन होता है ।
प्राचीन युग में इस देश का चरित्र बड़ा आदर्श होता था । हमारे पूर्वज मनस्वी, त्यागी, परोपकारी एवं बलिदान की भावना से सम्पन्न थे। उनके विषय में ठीक ही कहा गया है –
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे,
वे स्वार्थ रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।
संसार के उपकार – हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी ?
अन्य देशों के लोग यहां से चरित्र की शिक्षा लेते थे । यह धर्म प्रधान देश है। यहां बड़े-बड़े धर्मात्मा, तपस्वी, त्यागी, परोपकारी, वीर, बलिदानी महापुरुष हुए हैं। यहां की स्त्रियां पतिव्रता, सती, साध्वी, वीर, साहसी और योद्धा हुई हैं। उन्होंने कई बार जौहर व्रत किये हैं। वे योग्य और दृढ़ शासक भी हो चुकी हैं और आज भी हैं। यहां के ध्रुव, प्रह्लाद, लव-कुश, अभिमन्यु, हकीकतराय आदि बालकों ने अपने ऊंचे जीवनादर्श से अपने देश का नाम उज्ज्वल किया है।
मेरा देश गौरवशाली है। इसका इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। इस देश का गौरव अनन्त है। स्वर्ग के समान सभी सुखों को प्रदान करने में समर्थ है। मैं इस पर तन-मन-धन न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहता हूं। श्रीधर पाठक के शब्दों में-
जय उज्ज्वल कीर्ति विशाल हिंद,
जय करुण सिंधु कृपालु हिंद ।
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद,
यह जयति जयति प्राचीन हिंद ।

14. चलचित्र – गुण-दोष

अथवा

सिनेमा के हानि-लाभ

[ भूमिका, सिनेमा कला, चलचित्रों का इतिहास, लाभ, हानियां ]
विज्ञान के आधुनिक जीवन में क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। मानव जीवन से सम्बद्ध कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसको विज्ञान ने प्रभावित न किया हो । आज मानव का जीवन अत्यन्त व्यस्त है । उसे एक मशीन की तरह ही निरन्तर काम में लीन रहना पड़ता है। भले ही यह काम मशीन चलाने का हो, मशीन निरीक्षण का हो अथवा उसकी देखभाल करने का हो । अभिप्राय यह है कि मनुष्य किसी न किसी रूप में इसके साथ जुड़ा हुआ है। आज के व्यस्त जीवन को देखकर ही कहा गया —
बोझ बनी जीवन की गाड़ी बैल बना इन्सान
अतः मनुष्य को अपनी शारीरिक एवं मानसिक थकान मिटाने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता है। मनोरंजन के क्षेत्र में रेडियो, ग्रामोफोन, टेलीविज़न आदि अनेक आविष्कारों में चलचित्र या सिनेमा मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन है।
सिनेमा या चित्रपट शब्द सुनते ही लोगों के, विशेषतः युवकों और विद्यार्थियों के मन में एक लहर सी हिलोरें लेने लगती है। इस युग में सिनेमा देखना जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। जब कोई आनन्द मनाने का अवसर हो, कोई घरेलू उत्सव हो, या कोई मंगल कार्य हो तब भी सिनेमा देखने की योजना बीच में आ धमकती है। यही कारण है कि उत्सवों के दिनों में मंगलपर्व के अवसर पर तथा परीक्षा परिणाम की घोषणा के अवसरों पर चलचित्र देखने वालों की प्राय: भीड़ रहती है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब चित्रपट देखने के लिए लालायित रहते हैं। आज कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने कभी सिनेमा न देखा हो । तभी तो कहा गया है-
चमत्कार विज्ञान जगत् का,
और मनोरंजन जन साधन
चारों ओर हो रहा जग में,
आज सिनेमा का अभिनन्दन ।
आज सिनेमा मनोरंजन का बहुत बड़ा साधन है । दिन-भर के काम-धन्धों, झंझटों और चिन्ताओं से अकुलाया हुआ मनुष्य जब सिनेमा देखने जाता है तब पहले तो जाने की उमंग से ही उसकी चिन्ता और थकान लुप्त-सी हो जाती है । सिनेमा भवन में जाकर जब वह सामने सफ़ेद पर्दे पर चलती-फिरती, दौड़ती – भागती, बातें करती, नाचती गाती, हावभाव दिखाती, लड़ाई तथा संघर्ष से जूझती एवं रोती-हंसती तस्वीरें देखता है तो वह यह भूल जाता है कि वह सिनेमा हाल में कुर्सी पर बैठा कोई चित्र देख रहा है, बल्कि यह अनुभव करता है कि सारी घटनाएं प्रत्यक्ष देख रहा है। इससे उसका हृदय आनन्द में झूम उठता हैं ।
किसी भी दृश्य अथवा प्राणी का चित्र लेकर उसे सजीव रूप में प्रस्तुत करना सिनेमा कला है। चलचित्र का अर्थ है गतिशील चित्र । चलचित्रों के लिए असाधारण एवं विशेष शक्तिशाली कैमरों का प्रयोग किया जाता है । चलचित्र प्रस्तुत करने के लिए विशिष्ट भवन बनाया जाता है। सिनेमा हाल में एक विशेष प्रकार का पर्दा होता है जिस पर मशीन द्वारा प्रकाश फेंक कर चित्र दिखाया जाता है।
चलचित्र का प्रचार दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। बड़े-बड़े देशों में तो फिल्म उद्योग स्थापित हो गए हैं। फिल्मनिर्माण के क्षेत्र में आज भारत दूसरे स्थान पर है। बम्बई (मुम्बई) और मद्रास (चेन्नई) चित्र निर्माण के क्षेत्र में विश्व भर में विख्यात है। आरम्भ में हमारे यहां मूक चित्रों का प्रदर्शन होता था । धीरे-धीरे सवाक् चित्र भी बनने लगे । आलमआरा पहला सवाक् चित्र था जिसे रजत पट पर प्रस्तुत किया गया धीरे धीरे चलचित्रों का स्तर बढ़ता गया। आज चलचित्र का प्रत्येक अंग विकसित दिखाई देता है। हमारे यहां कई भाषाओं के चित्र बनते हैं। तकनीक एवं कला की दृष्टि से भारतीय चलचित्रों ने पर्याप्त उन्नति की है। हमारे कई चित्र तो अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं।
संसार में प्राय: अधिकांश वस्तुएं ऐसी हैं जिनमें गुण एवं दोष दोनों होते हैं । सिनेमा भी इस तथ्य का अपवाद नहीं । चलचित्रों से यहां अनेक लाभ हैं वहां उनमें कुछ दोष भी हैं-
देश-विदेश के दृश्य और आचरण सिनेमा द्वारा पता चलते हैं । भूगोल की शिक्षा का यह एक बड़ा साधन है। चित्रपट में दिखाए गए कथानकों का लोगों के मन पर गहरा असर पड़ता है। वे उनसे अपने जीवन को सामाजिक बनाने की शिक्षा लेते हैं । सिनेमा में करुणा-भरे प्रसंगों और दीन-दुःखी व्यक्तियों को देखकर दर्शकों के दिल में सहानुभूति के भाव उत्पन्न होते हैं। बच्चों, युवकों और विद्यार्थियों का ज्ञान बढ़ाने के लिए सिनेमा एक उपयोगी कला है। बड़े-बड़े कल-कारखानों और सबके द्वारा आसानी से न देखे जा सकने वाले स्थानों को सब लोग सिनेमा द्वारा सहज ही देख लेते हैं। विद्यार्थियों को नाना प्रकार की ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा सिनेमा द्वारा दी जा सकती है। सिनेमा एक उपयोगी आविष्कार है। सिनेमा द्वारा भूगोल, इतिहास आदि विषयों को शिक्षा छात्र को सरलता से दी जा सकती है। देश में भावनात्मक एकता उत्पन्न करने और राष्ट्रीयता का विकास करने में भी चलचित्र सहायता प्रदान कर सकते हैं। सिनेमा स्लाइड्स के द्वारा व्यापार को भी उन्नत बनाया जा सकता है। ये शांति एवं मनोरंजन का दूत है। इनके द्वारा हमारी सौन्दर्यनुभूति का विकास होता है। हमारे मन में अनेक कोमल भावनाएं प्रकट होती हैं। अनेक प्रकार के चित्र अनेक प्रकार के भावों को उत्तेजित करते हैं ।
सिनेमा की हानियां भी कम नहीं है। चित्रपटों के कथानक अधिकतया शृंगार – प्रधान होते हैं। उनमें कामुकता वाले अश्लील चित्र, सम्वाद और गीत होते हैं । इन बातों का विशेषतः युवकों और विद्यार्थियों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उनमें संयम घटता है। उनकी एकाग्रता नष्ट होती है। पढ़ने तथा कार्य करने से उनका मन हटता है। उनके चरित्र की हानि होती है। वे दिन-रात परस्पर स्त्री-पुरुष कलाकारों तथा कथानकों की ही चर्चा और विवेचना किया करते हैं। वे दृश्यों और गीतों का अनुकरण करते हैं। उनका मन अशान्त और अस्थिर हो जाता है। बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। कई लोग धोखा देने, डाका डालने, बैंक लूटने, स्त्रियों का अपहरण, बलात्कार, नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, शराब पीने आदि की शिक्षा सिनेमा से ही लेते हैं । सिनेमा देखना एक दुर्व्यसन हो जाता है । यह घुन की तरह युवकों को अन्दर से खोखला करता जाता है। चरित्र की हानि के साथ-साथ धन, समय और शक्ति का भी नाश होता है। स्वास्थ्य बिगड़ता है। आंखों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थियों में अनुशासन-हीनता उच्छृंखलता और लम्पटता पैदा करने में सिनेमा का विशेष हाथ है। छात्र-छात्राएं सस्ते संगीत एवं गीतों के उपासक बन जाते हैं। वे हाव-भाव और अन्य अनेक बातों में अभिनेता तथा अभिनेत्रियों का अनुकरण करते हैं। फैशन एवं विलास भावना को बढ़ाने में भी सिनेमा का ही हाथ रहा है। निर्धन वर्ग इस पर विशेष लट्टू हैं। अतः उसका आर्थिक संकट और भी बढ़ जाता है। युवक-युवतियां सिनेमा से प्रभावित होकर भारतीयता से रिक्त एवं सौन्दर्य के उपासक बनते जा रहे हैं ।
इस प्रकार सिनेमा के कुछ लाभ भी हैं और हानियां भी हैं। यदि कामुकता पूर्ण अश्लील दृश्य, गीत, सम्वाद की जगह ज्ञान वर्द्धक दृश्य आदि अधिक हों, विद्यार्थियों को शृंगार – प्रधान सिनेमा देखने की मनाही हो, सैंसर को और कठोर किया जाए, तो हानि की मात्रा काफ़ी घट सकती है। इसे वरदान या अभिशाप बनाना हमारे हाथ में है। यदि भारतीय आदर्शों के अनुरूप चलचित्रों का निर्माण किया जाए तो यह निश्चय ही वरदान साबित हो सकते हैं।

15. बसन्त ऋतु

[ भूमिका, प्रकृति पर प्रभाव, जीव-जन्तुओं पर प्रभाव, मनुष्य-जगत् पर प्रभाव, महत्त्व, उपसंहार ]
भारत अपनी प्राकृतिक शोभा के लिए विश्व विख्यात है। इसे ऋतुओं का देश कहा जाता है। ऋतु परिवर्तन का जो सुन्दर क्रम हमारे देश में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रत्येक ऋतु की अपनी छटा और अपना आकर्षण है।
बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त शिशिर इन सबका अपना महत्त्व है। इनमें से बसन्त ऋतु की शोभा सबसे निराली है। वैसे तो बसन्त ऋतु फाल्गुन मास से शुरू हो जाती है। इसके असली महीने चैत्र और वैसाख हैं। बसन्त ऋतु को ऋतुराज कहते हैं, क्योंकि यह ऋतु सबसे सुहावनी, अद्भुत आकर्षक और मन में उमंग भर देने वाली है। इस ऋतु में पौधों, वृक्षों, लताओं पर नए-नए पत्ते निकलते हैं, सुन्दर सुन्दर फूल खिलते हैं। सचमुच बसन्त की बासन्ती दुनिया की शोभा ही निराली होती है। बसन्त ऋतु प्रकृति के लिए वरदान बन कर आती है। बागों में, वाटिकाओं में, वनों में सर्वत्र नव जीवन आ जाता है । पृथ्वी का कण-कण एक नये आनन्द, उत्साह एवं संगीत का अनुभव करता है। ऐसा लगता है जैसे मूक वीणा ध्वनित हो उठी हो, बांसुरी को होठों से लगातार किसी ने मधुर तान छेड़ दी हो। शिशिर से ठिठुरे हुए वृक्ष मानो निद्रा से जाग उठे हों और प्रसन्नता से झूमने लगे हों। शाखाओं एवं पत्तों पर उत्साह नज़र आता है। कलियां अपना घूंघट खोलकर अपने प्रेमी भंवरों से मिलने के लिए उतावली हो जाती हैं। चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियों की अनोखी शोभा दिखाई देती है। प्रकृति में सर्वत्र यौवन के दर्शन होते हैं, सारा वातावरण सुवासित हो उठता है। चम्पा, माधवी, गुलाब और चमेली आदि की सुन्दरता मन को मोह लेती है। कोयल की ध्वनि कानों में मिसरी घोलती है ।
आम, जामुन आदि के वृक्षों पर बौर आता है और उसके बाद फल भर जाते हैं। सुगन्धित और रंग-बिरंगे फूलों पर बौर तथा मंजरियों पर भौरे गुंजारते हैं, मधुमक्खियां भिनभिनाती हैं। ये जीव उनका रस पीते हैं। बसन्त का आगमन प्राणी जगत् में परिवर्तन ला देता है । जड़ में भी चेतना आ जाती है और चेतन तो एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव करता है।
मनुष्य-जगत् में भी यह ऋतु विशेष उल्लास एवं उमंगों का संचार करती है । बसन्त ऋतु का प्रत्येक दिन एक उत्सव का रूप धारण कर लेता है । कवि एवं कलाकार इस ऋतु से विशेष प्रभावित होते हैं। उनकी कल्पना सजग हो उठती है। उन्हें उत्तम से उत्तम कला कृतियां रचने की प्रेरणा मिलती है ।
इस ऋतु में दिशाएं साफ़ हो जाती हैं, आकाश निर्मल हो जाता है। चारों ओर स्निग्धता और प्रसन्नता फैल जाती है। हाथी, भौरे, कोयलें, चकवे विशेष रूप से ये मतवाले हो उठते हैं। मनुष्यों में मस्ती छा जाती है। कृषि के लिए भी यह ऋतु बड़ी उपयोगी है। चना, गेहूं आदि की फसल इस ऋतु में तैयार होती है।
बसन्त ऋतु में वायु प्राय: दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है। क्योंकि यह वायु दक्षिण की ओर से आती है, इसलिए इसे दक्षिण पवन कहते हैं । यह शीतल, मन्द और सुगन्धित होती है। सर्दी समाप्त हो जाने के कारण बसन्त ऋतु में जीवमात्र की चहल-पहल और हलचल बढ़ जाती है। सूर्य की तीव्रता अधिक नहीं होती । दिन-रात एक समान होते हैं। जलवायु उत्तम होती है। सब जगह नवीनता, प्रकाश, उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, नई इच्छा नया जोश तथा नया बल उमड़ आता है। लोगों के मन में आशाएं तरंगित होने लगती हैं, अपनी लहलाती खेती देखकर किसानों का मन झूम उठता है कि अब वारे-न्यारे हो जाएंगे ।
इस ऋतु की एक बड़ी विशेषता यह है कि इन दोनों शरीर में नये रक्त का संचार होता है और आहार-विहार ठीक रखा जाए तो स्वास्थ्य की उन्नति होती है। स्वभावतः ही बालक-बालिकाएं, युवक-युवतियां, बड़े-बूढ़े, पशु-पक्षी सब अपने हृदय में एक विशेष प्रसन्नता और मादकता अनुभव करते हैं । इस ऋतु में बाहर खुले स्थानों, मैदानों, जंगलों, पर्वतों, नदी-नालों, बागT- बगीचों में घूमना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। कहा भी है कि, ‘बसन्ते भ्रमणं पथ्यम्’ अर्थात् बसन्त में भ्रमण करना पथ्य है । इस ऋतु में मीठी और तली हुई वस्तुएं कम खानी चाहिए। चटनी, कांजी, खटाई आदि का उपयोग लाभदायक रहता है। इसका कारण यह है कि सर्दी के बाद ऋतु परिवर्तन से पाचन शक्ति कुछ मन्द हो जाती है। बसन्त पंचमी के दिन इतनी पतंगें उड़ती हैं कि उनसे आकाश भर जाता है। सचमुच यह ऋतु केवल प्राकृतिक आनन्द का ही स्रोत नहीं बल्कि सामाजिक आनन्द का भी स्रोत है।
बसन्त ऋतु प्रभु और प्रकृति का एक वरदान है। इसे मधु ऋतु भी कहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि मैं ऋतुओं में बसन्त हूं। बसन्त की महिमा का वर्णन नहीं हो सकता। इसकी शोभा अद्वितीय होती है। जिस प्रकार गुलाब का फूल पुष्पों में, हिमालय का पर्वतों में, सिंह का जानवरों में, कोयल का पक्षियों में अपना विशिष्ट स्थान है उसी प्रकार ऋतुओं में बसन्त की अपनी शोभा और महत्त्व है। कहा भी है-
आ आ प्यारी बसन्त सब ऋतुओं से प्यारी ।
तेरा शुभागमन सुनकर फूली केसर क्यारी ||

16. जीवन में परिश्रम का महत्त्व

अथवा

श्रम की महत्ता

अथवा

परिश्रम बेरोज़गारी की समस्या का एकमात्र हल

[ भूमिका, परिश्रम का महत्त्व, आलस्य से हानियां, परिश्रम और भाग्य, उपसंहार ]
इस संसार में जितने भी चेतना प्राणी हैं, उनमें से कोई भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता । यहां तक कि प्रकृति के सभी पदार्थ भी नियमपूर्वक अपना कार्य करते हैं। सूर्य प्रतिदिन समय पर निकलकर संसार का उपकार करता है। वह कभी अपने नियम का उल्लंघन नहीं करता । नदियां भी दिन-रात यात्रा करती रहती हैं। वनस्पतियां भी समय और वातावरण के अनुसार परिवर्द्धित होती रहती हैं। कीड़े तथा पक्षी तक अपने दैनिक जीवन में व्यस्त रहते हैं। जब संसार के अन्य प्राणी व्यस्त हैं अथवा परिश्रम करते रहते हैं तब मनुष्य जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, काम किये बिना कैसे रह सकता है। वास्तव में कर्म अथवा श्रम के बिना मानव जीवन की गाड़ी चल भी नहीं सकती। श्रम की उन्नति, प्रगति, विकास और निर्माण कर सकता है। परिश्रम और प्रयास की बड़ी महिमा है। यदि मनुष्य परिश्रम न करता तो संसार में कुछ भी न होता । आज संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह परिश्रम का ही परिणाम है।
परिश्रम का अत्यधिक महत्त्व है । परिश्रम के अभाव में जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। यहां तक कि स्वयं का उठना-बैठना, खाना-पीना भी सम्भव नहीं हो सकता । फिर उन्नति और विकास की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज संसार में जो राष्ट्र सर्वाधिक उन्नत हैं, वे परिश्रम के बल पर ही इस उन्नत दशा को प्राप्त हुए हैं ।
परिश्रम का अभिप्राय ऐसे परिश्रम से है जिससे निर्माण हो, रचना हो । जिस परिश्रम से निर्माण नहीं होता, उसका कुछ अर्थ नहीं। जो व्यक्ति आलस का जीवन बिताते हैं, वे कभी उन्नति नहीं कर सकते ।
आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है। आलसी व्यक्ति परावलम्बी होता है । वह कभी पराधीनता से मुक्त नहीं हो सकता । हमारा देश सदियों तक पराधीन रहा। इसका आधारभूत कारण भारतीय जीवन में व्याप्त आलस्य एवं हीन भावना थी। जैसे ही हमने परिश्रम के महत्त्व को समझा वैसे ही हमारी हीनता दूर होती गई और हम में आत्मविश्वास बढ़ता गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमने एक दिन पराधीनता की केंचुली उतार कर फेंक दी । परिश्रम ही छोटे से बड़े बनने का साधन है। यदि छात्र परिश्रम न करे तो परीक्षा में कैसे सफल हो । मज़दूर भी मेहनत का पसीना बहाकर, सड़कों, भवनों, डैमों, मशीनों तथा संसार के लिये उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, कवि, लेखक सब परिश्रम द्वारा ही अपनी रचनाओं से संसार को लाभ पहुंचाते हैं। कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपीयर, टैगोर आदि परिश्रम के बल पर ही अमर हो गए हैं। परिश्रम के बल पर ही वे अपनी रचनाओं के रूप में अजर-अमर हैं ।
कुछ लोग परिश्रम की अपेक्षा भाग्य को महत्त्व देते हैं। उनका तर्क है कि जो भाग्य में है वह अवश्य मिलेगा, अतः दौड़-धूप करना व्यर्थ है । यह तर्क निराधार है। यह ठीक है कि भाग्य का भी हमारे जीवन में महत्त्व है लेकिन आलसी बनकर बैठे रहना और असफलता के लिए भाग्य को कोसना किसी प्रकार भी उचित नहीं। परिश्रम के बल पर मनुष्य भाग्य की रेखाओं को भी बदल सकता है। आलसी एवं कामचोर व्यक्ति ही ईश्वर के लिखे लेख को पढ़ते हैं। सच्चे वीर तो भ्रुवों से पसीने की धार बहाकर मस्तक के बुरे अंक को भी धो डालते हैं । ‘दिनकर’ जी ने ठीक ही कहा है-
ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है ।
उसने अपना सुख अपने ही भुजबल से पाया है ।
आज हमारे देश में अनेक समस्याएं हैं। उन सबके समाधान का साधन परिश्रम है। परिश्रम के द्वारा ही बेकारी की, खाद्य की और अर्थ की समस्या का अन्त किया जा सकता है। परिश्रम के बल पर निर्धन धनवान् बन सकता है, मूर्ख विद्वान् बन सकता है। परिश्रम के द्वारा मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति कर सकता है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितने भी महान् व्यक्ति हुए हैं, वे सब परिश्रम के बल पर ही ऊपर उठे हैं। सामान्य से असामान्य स्थिति प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन परिश्रम है।
परिश्रमी व्यक्ति स्वावलम्बी, ईमानदार, सत्यवादी, चरित्रवान् और सेवा -भाव से युक्त होता है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपनी, परिवार की, जाति की तथा राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दे सकता है। अतः मनुष्य को परिश्रम करने की प्रवृत्ति बचपन अथवा विद्यार्थी जीवन से ग्रहण करनी चाहिए। परिश्रम से ही मिट्टी सोना उगलती है। यह व्यक्ति एवं देश की उन्नति एवं सफलता का रहस्य है।

17. समाचार-पत्रों का महत्त्व

[ भूमिका, समाचार-पत्रों का इतिहास, विभिन्न रूप, लाभ, दुरुपयोग से हानियां, उपसंहार ]
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जैसे-जैसे उसकी सामाजिकता में विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी अपने साथियों के दुःख-सुख जानने की इच्छा भी तीव्र होती जाती है। इतना ही नहीं वह आस-पास के जगत् की गति-विधियों से परिचित रहना चाहता है। मनुष्य अपनी योग्यता तथा साधनों के अनुरूप समय-समय पर समाचार जानने के लिए प्रयत्नशील रहा है। इन प्रयत्नों में समाचार पत्रों एवं छपाई मशीनों का आविष्कार सबसे महत्त्वपूर्ण है। आज समाचार – पत्र सर्वसुलभ हो गए हैं। इन समाचार पत्रों ने संसार को एक परिवार का रूप दे दिया है। एक मोहल्ले से लेकर राष्ट्र तक की ओर और राष्ट्र से लेकर विश्व तक की गतिविधि का चित्र इन पत्रों के माध्यम से हमारे सामने आ जाता है। आज समाचार-पत्र शक्ति का स्त्रोत माने जाते हैं-
झुक आते हैं उनके सम्मुख, गर्वित ऊंचे सिंहासन ।
बांध न पाया उन्हें आज तक, कभी किसी का अनुशासन ॥
निज विचारधारा के पोषक हैं प्रचार के दूत महान् ।
समाचार पत्रों का करते, इसीलिए तो सब सम्मान ||
प्राचीन काल में समाचार जानने के साधन बड़े स्थूल थे । एक समाचार को पहुंचने में पर्याप्त समय लग जाता था। कुछ समाचार तो स्थायी से बन जाते थे । सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को दूर तक पहुंचाने के लिए लाटें बनवाईं। साधु-महात्मा चलते-चलते समाचार पहुंचाने का कार्य करते थे, पर यह समाचार अधिकतर धर्म एवं राजनीति से सम्बन्ध रखते थे। छापेखाने के आविष्कार के साथ ही समाचार पत्र की जन्म कथा का प्रसंग आता है । मुगल काल में ‘अखबारात – इ-मुअल्ले’ नाम से समाचार पत्र चलता था । अंग्रेज़ों के आगमन के साथ-साथ हमारे देश में समाचार-पत्रों का विकास हुआ । सर्वप्रथम 20 जनवरी, सन् 1780 ई० में वारेन हेस्टिंग्ज़ ने ‘इण्डियन गजट’ नामक समाचार-पत्र निकाला। इसके बाद ईसाई प्रचारकों ने ‘समाज दर्पण’ नामक अखबार प्रारम्भ किया। राजा राममोहन राय ने सती–प्रथा के विरोध में ‘कौमुदी’ तथा ‘चन्द्रिका’ नामक अखबार निकाले । ईश्वर चन्द्र ने ‘प्रभाकर’ नाम से एक समाचार-पत्र प्रकाशित किया । हिन्दी के साहित्यकारों ने भी समाचार पत्रों के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। स्वाधीनता से पूर्व निकलने वाले समाचार पत्रों ने स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका निभाई, वह सराहनीय है। उन्होंने भारतीय जीवन में जागरण एवं क्रान्ति का शंख बजा दिया। लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ वास्तव में सिंह गर्जना के समान था।
समाचार पत्र अपने विषय के अनुरूप कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समाचार पत्र दैनिक समाचारपत्र हैं। ये प्रतिदिन छपते हैं और संसार भर के समाचारों का दूत बनकर प्रातः घर-घर पहुंच जाते हैं । हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों में नवभारत टाइम्स, आज, विश्वमित्र, वीर अर्जुन, पंजाब केसरी, वीर प्रताप, दैनिक ट्रिब्यून आदि का बोलबाला है। साप्ताहिक – पत्रों में विभिन्न विषयों पर लेख, सरस कहानियां, मधुर कविताएं तथा साप्ताहिक घटनाओं तक का विवरण रहता है। पाक्षिक पत्र भी विषय की दृष्टि से साप्ताहिक पत्रों के ही अनुसार होते हैं। मासिक पत्रों में अपेक्षाकृत जीवनोपयोगी अनेक विषयों की विस्तार से चर्चा रहती है। वे साहित्यिक अधिक होते हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों पर भाव एवं कला की दृष्टि से प्रकाश डाला जाता है। इनमें विद्वत्तापूर्ण लेख, उत्कृष्ट कहानियां, सरस गीत, विज्ञान की उपलब्धियां, राजनीतिक दृष्टिकोण, सामायिक विषयों पर आलोचना एवं पुस्तक समीक्षा आदि सब कुछ होता है।
उपर्युक्त पत्रिकाओं के अतिरिक्त त्रैमासिक, अर्द्ध- वार्षिक आदि पत्रिकाएं भी छपती हैं। ये भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। विषय की दृष्टि से राजनीतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विभाग हैं। इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों पर भी पत्रिकाएं निकालती हैं । धार्मिक, मासिक पत्रों में कल्याण विशेष लोकप्रिय है।
समाचार-पत्रों से अनेक लाभ हैं। आज के युग में इनकी उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । इनका सबसे बड़ा लाभ यह है कि विश्व भर में घटित घटनाओं का परिचय हम घर बैठे प्राप्त कर लेते हैं । यह ठीक है कि रेडियो इनसे भी पूर्व समाचारों की घोषणा कर देता है, पर रेडियो पर केवल संकेत होता है उसकी सचित्र झांकी तो अखबारों द्वारा ही देखी जा सकती है । यदि समाचार पत्रों को विश्व जीवन का दर्पण कहें तो अत्युक्ति न होगी। जीवन के विभिन्न दृष्टिकोण, विभिन्न विचारधाराएं हमारे सामने आ जाती हैं। प्रत्येक पत्र का सम्पादकीय विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। आज का युग इतना तीव्रगामी है कि यदि हम दो दिन अखबार न पढ़ें तो हम ज्ञान-विज्ञान में बहुत पीछे रह जाएं।
इनसे पाठक का मानसिक विकास होता है। उसकी जिज्ञासा शांत होती है और साथ ही ज्ञान-पिपासा बढ़ जाती है। समाचार-पत्र एक व्यक्ति से लेकर सारे देश की आवाज़ है जो दूसरे देशों तक पहुंचती है जिससे भावना एवं चिन्तन के क्षेत्र का विकास होता है। व्यापारियों के लिए ये विशेष लाभदायक हैं। वे नापन द्वारा वस्तुओं की बिक्री में वृद्धि करते हैं। इनमें रिक्त स्थानों की सूचना, सिनेमा जगत् के समाचार, क्रीड़ा जगत् की गतिविधि, परीक्षाओं के परिणाम, वैज्ञानिक उपलब्धियां, वस्तुओं के भावों के उतार-चढ़ाव, उत्कृष्ट कविताएं, चित्र कहानियां, धारावाहिक उपन्यास आदि प्रकाशित होते रहते हैं | समाचार पत्रों के विशेषांक बड़े उपयोगी होते हैं। इनमें महान् व्यक्तियों की जीवन-गाथा, धार्मिक, सामाजिक आदि उत्सवों का बड़े विस्तार से परिचय रहता है। देश-विदेश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक भवनों के चित्र पाठक के आकर्षण का केन्द्र हैं ।
समाचार-पत्र अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी कुछ कारणों से हानिकारक भी है । इस हानि का कारण इनका दुरुपयोग है। प्रायः बहुत से समाचार पत्र किसी न किसी धार्मिक अथवा राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अखबार का आश्रय लेकर एक दल दूसरे दल पर कीचड़ उछालता है। अनेक सम्पादक सत्ताधीशों की चापलूसी करके सत्य को छिपा रहे हैं। कुछ समाचार पत्र व्यावसायिक दृष्टि को प्राथमिकता देते हुए इनमें कामुकता एवं विलासिता को बढ़ाने वाले नग्न चित्र प्रकाशित करते हैं। कभी-कभी अश्लील कहानियां एवं कविताएं भी देखने को मिल जाती हैं। साम्प्रदायिक समाचार पत्र पाठक के दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाते हैं तथा राष्ट्र में अनावश्यक एवं ग़लत उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। पक्षपात पूर्ण ढंग से और बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित किए गए समाचार-पत्र जनता में भ्रांति उत्पन्न करते हैं। झूठे विज्ञापनों से लोग गुमराह होते हैं । इस प्रकार इस प्रभावशाली साधन का दुरुपयोग कभीकभी देश के लिए अभिशाप बन जाता है ।
सच्चा समाचार पत्र वह है जो निष्पक्ष होकर राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाए । वह जनता के हित को सामने रखे और लोगों को वास्तविकता का ज्ञान कराए । वह दूध का दूध और पानी का पानी कर दे। वह सच्चे न्यायाधीश के समान हो । उसमें हंस जैसा विवेक हो जो दूध को एक तरफ तथा पानी को दूसरी तरफ कर दे। वह दुराचारियों एवं देश के छिपे शत्रुओं की पोल खोले । एक ज़माना था जब सम्पादकों को जेलों में डालकर अनेक प्रकार की यातनाएं दी जाती थीं। उनके समाचार पत्र अंग्रेज़ सरकार बन्द कर देती थी, प्रेसों को ताले लगा दिए जाते थे लेकिन सम्पादक सत्य के पथ से नहीं हटते थे । दुःख की बात है कि आज पैसे के लोभ में अपने ही देश का शोषण किया जा रहा है ।
यदि समाचार पत्र अपने कर्त्तव्य का परिचय दें तो निश्चय ही ये वरदान हैं। इसमें सेवा भाव है । इनका मूल्य कम हो ताकि सर्वसाधारण भी इन्हें खरीद सके । ये देश के चरित्र को ऊपर उठाने वाले हों, न्याय का पक्ष लेने वाले तथा अत्याचार का विरोध करने वाले हों। ये राष्ट्र भाषा के विकास में सहायक हों । भाषा को परिष्कृत करें, नवीन साहित्य को प्रकाश में लाने वाले हों, नर्वोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने वाले हों, समाज तथा राष्ट्र को जगाने वाले हों तथा उनमें देश की संसद् तथा राज्य सभाओं की आवाज़ हो तो निश्चय हो यह देश की काया पलट करने में समर्थ हो सकते हैं ।

18. मेरे जीवन का उद्देश्य / लक्ष्य

अथवा

जीवन में ध्येय की आवश्यकता

अथवा

मेरी महत्त्वाकांक्षा

अथवा

आदर्श अध्यापक

[ भूमिका, उद्देश्यों की विभिन्नता, मेरा जीवन उद्देश्य, महत्त्व, उपसंहार ]
मनुष्य संसार का एक सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । ईश्वर ने उसे चिन्तन एवं मनन की अद्भुत शक्ति प्रदान की है। वह जिस संसार में रहता है उसके आधार पर वह एक और संसार बसा लेता है । वह संसार है उसके सपनों का संसार । मनुष्य के साथ कुछ आदर्श होते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाएं होती हैं जिनको वह अपने जीवन में सफल देखने के लिए उतावला बन जाता है। हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपना-अपना लक्ष्य निर्धारित करता है । कोई डॉक्टर बनने की इच्छा से प्रेरित है तो कोई इंजीनियर बनने के सपने को साकार करना चाहता है। कोई उद्योगपति बनकर लाखों की सम्पत्ति में खेलना चाहता है तो कोई देश का नेता बन कर देशोद्धार करना चाहता है। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई कवि और लेखक बनकर देश के जन-जीवन को चित्रित करना चाहता है। कुछ ऐसे भी हैं जो राष्ट्र एवं समाजसेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। वे इस नश्वर शरीर को देश सेवा में अर्पित कर अपना जीवन सार्थक बनाना चाहते हैं। भाव यह है कि संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो कुछ न कुछ बनना चाहता हो । ध्येय अथवा लक्ष्य के बिना जीवन निरर्थक है । ध्येयहीन जीवन ऐसा ही है जैसे कोई नाविक समुद्र में बिना पतवार और डांडों के नाव को भाग्य के भरोसे छोड़े दे। उसका परिणाम भयंकर ही होगा। जीवन में लक्ष्य का चुनाव अपनी इच्छाओं एवं अपने साधनों के अनुरूप करना चाहिए। ध्येय चुनते समय स्वार्थ और परमार्थ में समन्वय रखना चाहिए। अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति को भी सामने रखना चाहिए। दूसरों का अन्धानुकरण करना उपयुक्त नहीं। मेरे जीवन का भी एक लक्ष्य है। मैं एक आदर्श शिक्षक बनना चाहता हूं। भले ही लोग इसको एक सामान्य लक्ष्य कहें, पर मेरे लिए यह एक महान् लक्ष्य है जिसकी पूर्ति के लिए मैं भगवान् से नित्य प्रार्थना करता हूं। अध्यापक बनकर भावी भारत का भार उठाने वाले नागरिक तैयार करना मेरी महत्त्वाकांक्षा है ।
आज जब मैं ऐसे अनेक शिक्षकों को देखता हूं जो शिक्षा का सच्चा मूल्य नहीं समझते तो मेरा मन खिन्नता से भर जाता है। आज इस पवित्र पेशे को निरादर की दृष्टि से देखा जाता है। इसका कारण स्वयं अध्यापक है। वह धन कमाना ही अपने जीवन का उद्देश्य माना बैठा है । वह यह भूल गया है कि अध्यापन कार्य बड़ा पवित्र और महान् कार्य है। अध्यापक ही राष्ट्र की भावी सन्तान के जीवन को बनाते, सुधारते और संवारते हैं। ये दुनिया से अज्ञान का अन्धेरा दूर करके उसमें ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं । विद्यार्थियों को नाना प्रकार की विद्याएं सिखाकर उन्हें विद्वान् और योग्य बनाते हैं। ये निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करते हैं। थोड़-थोड़े धन लाभ में ही सन्तुष्ट रहकर आने वाली पीढ़ी को तैयार करते हैं उन्हें अपने में उत्तम गुणों का विकास करना पड़ता है। उनके सामने राष्ट्र सेवा का आदर्श रहता है। कहा भी है ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे’ और मैं ऐसा ही मनुष्य बनने का अभिलाषी हूं। आदर्श शिक्षक मानव जाति का नम्र सेवक होता है। छात्रों में छिपी शक्ति को जगाना और उन्हें राष्ट्र सेवा के लिए तैयार करना कोई सामान्य बात नहीं है। मैं अध्यापक बनकर इन्हें स्वावलम्बन, सेवा, सादगी, स्वाभिमान, अनुशासन और स्वच्छता का पाठ पढ़ाऊंगा। आज के विद्यार्थी ही राष्ट्र के भावी नागरिक, नेता और उद्धारक हैं। उन्हें कर्मयोगी बनाकर ही देश के भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है।
भारत की नींव को मज़बूत बनाना एक असामान्य कार्य है। मैं शिक्षक बनकर छात्रों में विद्या प्राप्ति की सच्ची लगन पैदा करूंगा। आज का छात्र शिक्षा को भार समझता है। मैं उनकी इस भावना को दूर करूंगा। जो अध्यापक छात्र में शिक्षा के प्रति रुचि नहीं जगा सकता उसे शिक्षक नहीं माना जा सकता। छात्रों में अनुशासनहीनता का कारण शिक्षा के प्रति अरुचि है। छात्र जब शिक्षा में लीन हो जाते हैं तो उनकी बुराइयां अपने-आप दूर हो जाती हैं। शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। मैं अपने विषय को बड़ी लगन से पढ़ाऊंगा । विज्ञान पढ़ाकर छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करूंगा। इतिहास पढ़ाकर छात्रों में अपने पूर्वजों के प्रति आस्था एवं श्रद्धा उत्पन्न करूंगा। बुद्ध, अशोक, हर्ष, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोबिन्द सिंह जी की चारित्रिक निर्मलता, दृढ़ता एवं वीरता को अपनाने की प्रेरणा दूंगा। मैं अपनी श्रेणी में अध्ययन का ऐसा वातावरण बनाऊंगा कि प्रत्येक छात्र उनमें रम जाएगा। वह अध्ययन के वास्तविक आनन्द को प्राप्त कर सकेगा।
मैं अपनी कक्षा को एक परिवार के समान समझुंगा । अनुशासन का पूरा ध्यान रखूंगा। कमज़ोर छात्रों को ऊपर उठाने के लिए मैं विशेष प्रयत्न करूंगा। मैं मनोविज्ञान के आधार पर यह जानने का प्रयत्न करूंगा कि छात्रों के कमज़ोर होने के कारण क्या हैं ? कारण को जानने के बाद उनका समाधान ढूंढूंगा । होनहार छात्रों को भी मैं प्रोत्साहित करूंगा ताकि वे अपने जीवन में कोई चमत्कार प्रस्तुत कर सकें। छात्रों के समुचित विकास के लिए उन्हें पाठ्यक्रम के अतिरिक्त भी पुस्तकों के अध्ययन की प्रेरणा दूंगा। मैं उन्हें देश के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थानों पर भी ले जाऊंगा, ताकि उनमें भारतीयता के भाव उत्पन्न हों और वे सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकें। अभिनय, वाद-विवाद, चित्र तथा निबन्ध प्रतियोगिता द्वारा उनमें स्पर्धा के भाव जगाऊंगा । शिक्षा के साथ क्रीड़ा का भी उचित समन्वय स्थापित करूंगा। मैं सादगी एवं विचारों की उच्चता की ओर विशेष ध्यान दूंगा। अपनी सादगी, सरलता, नम्रता एवं सहृदयता से उन्हें प्रभावित करूंगा।
आदर्श अध्यापक ही आदर्श छात्र उत्पन्न कर सकता है। विवेकानन्द बनाने के लिए रामकृष्ण परमहंस के समान बनने की ज़रूरत होगी । शिवाजी जैसे योद्धा उत्पन्न करने के लिए रामदास जैसी दृढ़ता अपनानी होगी । भाव यह है कि चरित्रवान् अध्यापक ही छात्रों में चरित्र – बल का विकास कर सकता है । यदि मेरी इच्छा पूरी हो गई तो मैं अपने जीवन को सार्थक समझुंगा। देश के प्रगति-यज्ञ में भाग लेना मेरे लिए गौरव की बात होगी ।

19. ग्राम निवास अथवा नगर निवास

अथवा

ग्राम जीवन

[ भूमिका, ग्राम्य जीवन, नगर जीवन, समन्वय, उपसंहार ]
अंग्रेज़ी में एक कहावत प्रचलित है “God made the country and man made the town”. अर्थात् गांव को ईश्वर ने बनाया है और नगर को मनुष्य ने बनाया है। ग्राम का अर्थ समूह है— उसमें कुछ एक घरों और नरनारियों का समूह रहता है। नगर का सम्बन्ध नागरिकता से है जिसका अर्थ है कौशल से रचाया हुआ | ग्राम कृषि और नगर व्यापार के कार्य क्षेत्र हैं। एक में जीवन सरल एवं सात्विक है तो दूसरे में तड़क-भड़कमय और कृत्रिम । गांव प्रकृति की शांत गोद है पर उसमें अभावों का बोलबाला है। शहर में व्यस्तता है, रोगों का भण्डार है, कोलाहल है, किन्तु लक्ष्मी का साम्राज्य होने के कारण आमोद-प्रमोद के राग-रंग की ज्योति जगमगाती रहती है।
ग्रामीण व्यक्तियों का स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसका कारण यह है कि उन्हें स्वस्थ वातावरण में रहना पड़ता है। खुले मैदान में सारा दिवस व्यतीत करना पड़ता है। अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता है। स्वास्थ्यप्रद कुओं का पानी पीने को मिलता है। प्राकृतिक सौन्दर्य का पूर्ण आनन्द ग्राम के लोग ही ले सकते हैं। अधिकतर नगरों में देखा जाता है कि लोग प्रकृति के सौन्दर्य को देखने के लिए तरसते रहते हैं। ग्रामों की जनसंख्या थोड़ी होती है। वे एक-दूसरे से खूब परिचित होते हैं। एक-दूसरे के सुख-दुःख में सम्मिलित होते हैं। इनका जीवन सीधा-सादा तथा सात्विक होता है। नगरों में रहने वालों की भांति वे बाह्य आडम्बरों में नहीं फंसते ।
ग्रामवासियों को कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है। ग्रामों में स्वच्छता की अत्यन्त कमी होती है। घरों में गंदा पानी निकालने का उचित प्रबन्ध नहीं होता। अशिक्षा के कारण ग्रामवासी अपनी समस्याओं का समाधान भी पूरी तरह नहीं कर पाते। अधिकतर लोग वहां निर्धनता में जकड़े रहते हैं जिसके कारण वे जीवन – निर्वाह भी पूरी तरह से नहीं कर पाते। जीवन की आवश्यकताएं अधूरी ही रहती हैं। पुस्तकालय तथा वाचनालय का कोई प्रबन्ध नहीं होता। बाहरी वातावरण से वे पूर्णतया अपरिचित होते हैं। छोटी-छोटी बीमारी के लिए उन्हें शहर भागना पड़ता है। शहर की तरफ प्रत्येक वस्तु नहीं मिलती, प्रत्येक आवश्यकता के लिए शहर जाना पड़ता है।
नगर शिक्षा के केन्द्र होते हैं। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक नगर में हम प्राप्त कर सकते हैं । शिक्षा से नगर निवासियों में विचार – शक्ति की वृद्धि होती है । जीविकोपार्जन के अनेक साधन होते हैं। प्रत्येक वस्तु हर समय मिल सकती है। यात्रियों के लिए भोजन, निवास स्थान, विश्रामगृह तथा दवाखानों का तो पूछना ही क्या है। गली में डॉक्टर और वैद्य बैठे रहते हैं। डाकखाना, पुलिस स्टेशन आदि का प्रबन्ध प्रत्येक शहर में होता है । वकील, बैरिस्टर और अदालतें शहरों में होती हैं । इस प्रकार नगर का जीवन बड़ा सुखमय है, परन्तु इस जीवन में भी अनेक कठिनाइयां होती हैं ।
नगरवासियों को प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुभव तो होता ही नहीं। नगरों में सभी व्यक्ति इतने व्यस्त रहते हैं कि एकदूसरे से सहानुभूति प्रकट करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता। अक्सर देखा जाता है कि कई वर्षों तक बगल के कमरे में रहने वाले को हम पहचान ही नहीं पाते, उनसे परिचय की बात तो दूर रही ।
किसी भी देश की उन्नति के लिए यह परम आवश्यक है कि उसके नगरों और ग्रामों का सन्तुलित विकास हो। यह तभी सम्भव हो सकता है जब नगरों और ग्रामों की कमियों को दूर किया जाए। नगरों की विशेषताएं ग्राम वालों को उपलब्ध हों और ग्रामों में प्राप्त शुद्ध खाद्य सामग्री नगर वालों तक पहुंचाई जा सके। ग्रामों में शिक्षा का प्रसार हो। लड़ाईझगड़ों और कुरीतियों का निराकरण हो ।
ग्राम जीवन तथा नगर जीवन दोनों दोषों एवं गुणों से परिपूर्ण हैं | इनके दोषों को सुधारने की आवश्यकता है। गांवों में शिक्षा का प्रसार होना चाहिए । सरकार की ओर से इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। नगर निवासियों का यह कर्त्तव्य है कि वे ग्रामों के उत्थान में अपना योगदान दें। ग्राम भारत की आत्मा हैं। शहरों की सुख-सुविधा ग्रामों की उन्नति पर ही निर्भर करती है। दोनों में उचित समन्वय की आवश्यकता है।
चुनना तुम्हें नगर का जीवन, या चुनना है ग्राम निवास,
करना होगा श्रेष्ठ समन्वय, होगा तब सम्पूर्ण विकास |

20. टेलीविज़न (दूरदर्शन) 

[ भूमिका, प्रक्रिया, उपयोगिता अनुपयोगिता, उपसंहार ]
टेलीविज़न महत्त्वपूर्ण आधुनिक आविष्कार है। यह मनोरंजन का साधन भी है और शिक्षा ग्रहण करने का सशक्त उपकरण ही । मनुष्य के मन में दूर की चीज़ों को देखने की प्रबल इच्छा रहती है चित्र कला, फ़ोटोग्राफी और छपाई के विकास से दूरस्थ वस्तुओं, स्थानों, व्यक्तियों के चित्र सुलभ होने लगे । परन्तु इनके दर्शनीय स्थान की आंशिक जानकारी ही मिल सकती है। टेलीविजन के आविष्कार ने अब यह सम्भव बना दिया है। दूर की घटनाएं हमारी आंखों के सामने उपस्थित हो जाती हैं ।
टेलीविज़न का सिद्धान्त रेडियो के सिद्धान्त से बहुत अंशों में मिलता है। रेडियो प्रसारण में वक्ता या गायक स्टूडियो में अपनी वार्ता या गायन प्रस्तुत करता है। उसकी आवाज़ से हवा में तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें उसके सामने रखा हुआ माइक्रोफोन बिजली की तरंगों में बदल देता है। इन बिजली की तरंगों को भूमिगत तारों के द्वारा शक्तिशाली ट्रांसमीटर तक पहुंचाया जाता है जो उन्हें रेडियो तरंगों में बदल देता है। इन तरंगों को टेलीविज़न एरियल पकड़ लेता है। टेलीविज़न के पुर्जे इन्हें बिजली तरंगों में बदल देते हैं। फिर उसमें लगे लाउडस्पीकर से ध्वनि आने लगती है जिसे हम सुन सकते हैं। टेलीविज़न कैमरे में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले चित्र आने लगते हैं।
टेलीविज़न के पर्दे पर हम वे ही दृश्य देख सकते हैं जिन्हें किसी स्थान पर टेलीविज़न कैमरे द्वारा चित्रित किया जा रहा हो और उनके चित्रों को रेडियो तरंगों के द्वारा दूर स्थानों पर भेजा रहा हो। इसके लिए टेलीविज़न के विशेष स्टूडियो बनाए जाते हैं, जहां वक्ता, गायक, नर्तक आदि अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। टेलीविज़न के कैमरामैन उनके चित्र विभिन्न कोणों से प्रतिक्षण उतारते रहते हैं। स्टूडियो में जिसका चित्र जिस कोण से लिया जाएगा टेलीविज़न सैट के पर्दे पर उसका चित्र वैसा ही दिखाई पड़ेगा। प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। जहां फूल हैं वहां कांटे भी अपना स्थान बना लेते हैं। टेलीविज़न भी इसका अपवाद नहीं है। छात्र तो टेलीविज़न पर लट्टू दिखाई देता है। कोई भी और कैसा भी कार्यक्रम क्यों न हो, वे अवश्य देखेंगे । दीर्घ समय तक टेलीविज़न के आगे बैठे रहने के कारण उनके अध्ययन में बाधा पड़ती है। उनका शेष समय कार्यक्रमों की विवेचना करने में निकल जाता है। रात को देर तक जागते रहने के कारण प्रात: देर से उठना, विद्यालय में विलम्ब से पहुंचना, सहपाठियों से कार्यक्रमों की चर्चा करना, श्रेणी में ऊंघते रहना आदि उनके जीवन के सामान्य दोष बन गए हैं। टेलीविज़न महंगा भी है। यह अभी तक धनियों के घरों की ही शोभा है। अधिकांश लोग मनोरंजन के इस सर्वश्रेष्ठ साधन से वंचित हैं। यदि टेलीविज़न पर मनोरंजनात्मक कार्यक्रमों के साथसाथ शिक्षात्मक कार्यक्रम भी दिखाए जाएं तो यह विशेष उपयोगी बन सकता है। पाठ्यक्रम को चित्रों द्वारा समझाया जा सकता है। आशा है, भविष्य में कुछ सुधार अवश्य हो सकेंगे ।
टेलीविज़न का पहला प्रयोग सन् 1925 ई० में ब्रिटेन के जान एल० बेयर्ड ने किया था । इतने थोड़े समय में संसार के विकसित देशों में टेलीविज़न का प्रचार इतना अधिक बढ़ गया है वहां प्रत्येक सम्पन्न घर में टेलीविज़न सैट रहना आम बात हो गई है। भारत में टेलीविज़न का प्रसार 15 दिसम्बर, सन् 1959 ई० से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रारम्भ किया गया था । अब देश के कोने-कोने में दूरदर्शन केन्द्र तथा निजी चैनल स्थापित हो गए हैं, जिनसे केबल डिश आदि द्वारा घर-घर में दूरदर्शन के कार्यक्रम देखे जा सकते हैं ।
टेलीविज़न के अनेक उपयोग हैं- लगभग उतने ही जितने हमारी आंखों के नाटक, संगीत सभा, खेलकूद आदि के दृश्य टेलीविज़न के पर्दे पर देखकर हम अपना मनोरंजन कर सकते हैं । राजनीतिक नेता टेलीविज़न के द्वारा अपना सन्देश अधिक प्रभावशाली ढंग जनता तक पहुंचा सकते हैं । शिक्षा के क्षेत्र में भी टेलीविज़न का प्रयोग सफलता से किया जा रहा है कुछ देशों में टेलीविज़न के द्वारा किसानों को खेती की नई-नई विधियां दिखाई जाती हैं।
समुद्र के अन्दर खोज करने के लिए टेलीविज़न का प्रयोग होता है। यदि किसी डूबे हुए जहाज़ की स्थिति का सहीसही पता लगाना हो तो जंज़ीर के सहारे टेलीविज़न कैमरे को समुद्र के जल के अन्दर उतारते हैं। उसके द्वारा भेजे गये चित्रों से समुद्र तक की जानकारी ऊपर के लोगों को मिल जाती है । टेलीविज़न का सबसे आश्चर्यजनक चमत्कार तब सामने आया जब रूस के उपग्रह में रखे गए टेलीविज़न कैमरे ने चन्द्रमा की सतह के चित्र ढाई लाख मील दूर से पृथ्वी पर भेजे। इन चित्रों से मनुष्य को पहली बार चन्द्रमा के दूसरी ओर उस तल की जानकारी मिली जो हमें कभी दिखाई नहीं देती। जब रूस और अमेरिका चन्द्रमा पर मनुष्य को भेजने की तैयारी कर रहे थे तो इसके लिए चन्द्रमा की सतह के सम्बन्ध में सभी उपयोगी जानकारी टेलीविज़न कैमरों द्वारा पहले ही प्राप्त कर ली गई थी ।
निश्चय ही टेलीविज़न आज के युग का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मनोरंजन का साधन है। इसका उपयोग देश की प्रगति के लिए किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में भारत की कांग्रेस सरकार ने बहुत ही प्रशंसनीय पग उठाए। यह कहना उपयुक्त ही होगा की निकट भविष्य में भारत के प्रत्येक क्षेत्र में टेलीविज़न कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाने लगेंगे।

21. विजयादशमी / दशहरा

अथवा

कोई धार्मिक त्यौहार

[ भूमिका, राम द्वारा लंका विजय, महत्त्व ]
जग में सदा जीत होती है, पुण्य, सत्य की और धर्म की ।
यही अमर संदेश दशहरा देता, समझो बात मर्म की ॥
हमारे त्योहारों का किसी न किसी ऋतु के साथ सम्बन्ध रहता है । दशहरा शरद् ऋतु के प्रधान त्योहारों में से एक है। यह आश्विन मास की शुक्ला दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन श्रीराम ने लंकापति रावण पर विजय पाई थी, इसलिए इसको विजयादशमी कहते हैं। यह एक जातीय त्योहार है। इसको हिन्दू ही नहीं अन्य सम्प्रदाय वाले भी मानते हैं। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से क्षत्रियों से है।
भगवान् राम के वनवास के दिनों में रावण छल से सीता को हरकर ले गया था। राम ने हनुमान और सुग्रीव आदि मित्रों की सहायता से लंका पर आक्रमण किया। एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें भगवान् राम और उनके अनुयायियों ने लंका की ईंट से ईंट बजा दी । कुम्भकर्ण, मेघनाद तथा रावण को मार कर लंका पर विजय पाई । तभी से यह दिन मनाया जाता है।
वस्तुत: विजयादशमी का त्योहार पाप पर पुण्य की, अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। भगवान् राम ने अत्याचारी और दुराचारी रावण का विध्वंस कर भारतीय संस्कृति और उसकी महान् परम्पराओं की पुनः प्रतिष्ठा की थी । ऐसे त्योहार हमारे वीरत्व को जगाते हैं । शत्रुओं के दांत खट्टे करने तथा सीमाओं की रक्षा करने की प्रेरणा देते हैं ।
इसके अतिरिक्त इस दिन का और भी महत्त्व है । वर्षा ऋतु के कारण क्षत्रिय राजा तथा व्यापारी अपनी यात्रा स्थगित कर देते थे। क्षत्रिय अपने शस्त्रों को बन्द करके रख देते थे और शरद् ऋतु के आने पर निकालते थे । शस्त्रों की पूजा करते थे और उन्हें तेज़ करते थे । व्यापारी माल खरीदने और फिर वर्षा ऋतु के अन्त में बेचने को चल पड़ते हैं। उपदेशक तथा साधु-महात्मा धर्म प्रचार के लिए अपनी यात्रा को निकल पड़ते हैं ।
दशहरा रामलीला का अन्तिम दिन होता है । भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग प्रकार से यह दिन मनाया जाता है । बड़े-बड़े नगरों में रामायण के पात्रों की झांकियां निकाली जाती हैं। रामायण का सस्वर पाठ किया जाता है। दशहरे के दिन रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद के कागज़ के पुतले बनाये जाते हैं । सायंकाल के समय राम और रावण के दलों में कृत्रिम लड़ाई होती है। राम रावण को मार देते हैं । रावण आदि के पुतले जलाए जाते हैं। पटाखे आदि छोड़े जाते हैं। लोग मिठाइयां तथा खिलौने लेकर घरों को लौटते हैं ।
दशहरा मनाने से हमें उस दिन की याद आती है जब राम ने विदेशों में अपनी संस्कृति का प्रचार किया था और लंका में आर्य साम्राज्य की नींव रखी थी । रामचन्द्र जी के समान पितृभक्त, लक्ष्मण के समान भ्रातृभक्त, सीता के समान पतिव्रता और धैर्यवान् तथा हनुमान के समान स्वामिभक्त बनने की प्रेरणा मिलती है ।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है देश में नई जागृति और नई चेतना पैदा करने की । ऐसा अब त्योहारों से नई स्फूर्ति प्राप्त करके ही कर सकते हैं । विजयादशमी हमें प्रेरणा देती है कि अत्याचारों के समक्ष कभी नत-मस्तक न हों। भ्रष्टाचार व अन्य सामाजिक बुराइयों को कभी आश्रय न दें । कुप्रवृत्तियों के रावण को ध्वस्त करने का दृढ़ निश्चिय रखें ।
इस दिन कुछ असभ्य लोग शराब पीते हैं और लड़ते हैं । यह ठीक नहीं है । यदि ठीक ढंग से त्योहार को मनाया जाए तो आशातीत लाभ हो सकता है। स्थान-स्थान पर व्याख्यानों का प्रबन्ध होना चाहिए, जहां विद्वान् लोग अपने उपदेशों द्वारा जनता का पथ- -प्रदर्शन करें। राम के जीवन पर प्रकार डालें । उस समय का इतिहास याद रखें। इस प्रकार दशहरा हमें उन गुणों को धारण करने का उपदेश देता है जो राम में विद्यमान थे।

22. दीपावली

अथवा

मेरा प्रिय पर्व

[ भूमिका, दीपमाला से सम्बद्ध कहानियां, महत्त्व, उपसंहार ]
पावन पर्व दीपमाला का,
आओ साथी दीप जलाएं,
सब आलोक मन्त्र उच्चारें,
घर-घर ज्योति ध्वज फहरायें ।
भारत देश त्योहारों का देश है । ये त्योहार जीवन और जाति में प्राणों का संचार करते हैं। ये हमारे लिए सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति लेकर आते हैं। ये हमारी सांस्कृतिक परम्परा, धार्मिक भावना, राष्ट्रीयता, सामाजिकता तथा एकता की कड़ी के समान हैं। प्रत्येक त्योहार की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। त्योहार हमारे नीरस जीवन को आनन्द और उमंग से भर देते हैं। भारत के पर्व किसी-न-किसी सांस्कृतिक अथवा सामाजिक परम्परा के प्रत्येक रूप में स्मरण किए जाते हैं। ये हमारी अस्तिकता और आस्था के भी प्रतीक हैं । दीपावली भी भारत का एक सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पर्व है। यह पर्व अन्य पर्वों में प्रमुख है। जगमगाते दीपों का यह त्योहार सबके आकर्षण का केन्द्र बनकर आता है। इस पर्व के आने से पूर्व लोग घरों, मकानों और दुकानों की सफ़ाई करते हैं। प्रत्येक वस्तु में नई शोभा आ जाती है। सब पर्वों का सम्राट् यह पर्व सर्वत्र आनन्द और हर्ष की लहर बहा देता है ।
दीपावली के इस मधुर पर्व के साथ अनेक प्रकार की कहानियां जुड़ी हैं। इन कथाओं में सबसे प्रमुख कहानी भगवान् राम की है। इस दिन श्री रामचन्द्र जी अत्याचारी और अनाचारी रावण का वध कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासी अपने मनचाहे प्रिय तथा श्रेष्ठ शासक राम को पाकर गद्गद् हो गए। उन्होंने उनके आगमन की खुशी में दीप जलाए। ये दीप उनकी प्रसन्नता के परिचायक थे। तब से इस पर्व को मनाने की परम्परा चल पड़ी। कुछ कृष्ण भक्त इस पर्व का सम्बन्ध भगवान् कृष्ण से जोड़ते हैं। उनके अनुसार इसी दिन श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध कर उसके चंगुल से सोलह हज़ार रमणियों को मुक्त करवाया था। इस अत्याचारी शासक का संहार देख कर लोगों का मन मोर नाच उठा और उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए दीप जलाए ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार इसी दिन समुद्र का मंथन हुआ था । समुद्र से लक्ष्मी के प्रकट होने पर भी देवताओं ने उनकी अर्चना की। कुछ भक्तों का कथन है कि धनतेरस के दिन भगवान् विष्णु ने नरसिंह के रूप से प्रकट होकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी । सिक्ख धर्म को मानने वाले कहते हैं कि इसी दिन छठे गुरु हरगोबिन्द जी ने जेल से मुक्ति पाई थी । महर्षि दयानन्द ने भी इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था ।
दीपावली से सम्बन्धित सभी कहानियां दीपावली नामक पर्व का महत्त्व बताती हैं। वास्तव में इस महान् पर्व के साथ जितनी भी कहानियां जोड़ी जाएं कम हैं। यह पर्व जन-जन का पर्व है, फिर भी सभी धर्मों और सभी जातियों के लोग इसे समान रूप से आदर की दृष्टि से देखते हैं।
दीपावली स्वच्छता का भी प्रतीक है। छोटे बड़े, धनी – निर्धन सब इस पर्व को पूर्ण उत्साह से मनाते हैं। इस दिन की साज-सज्जा तथा शोभा का वर्णन करना सहज नहीं। बाजारों में रंग-बिरंगे खिलौनों की दुकानें सज जाती हैं। इस दिन बालकों का उत्साह अपने चरम पर दिखाई देती है। वे पटाखे चलाकर अपनी प्रसन्नता का परिचय देते हैं। मिठाई की दुकानों की सजावट देखने योग्य होती है। दीपावली की रात्रि का दृश्य अनुपम होता है। रंग-बिरंगे बल्बों की पंक्तियां बाज़ारों से होड़ लगाती दिखाई देती हैं। आतिशबाजी के कारण वातावरण में गूंज भर जाती है। दीपावली अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण पर्व है। व्यापारी लोग इस दिन को बड़ा शुभ मानते हैं। जन्म दिन अपनी बहियां बदलते हैं तथा नया व्यापार शुरू करते हैं। यह पर्व एकत्व का भी है। सभी धर्मों के लोग इस पर्व को समान निष्ठाके साथ मनाते हैं। अतः यह पर्व राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता का भी साधन है। दीपावली के अवसर पर जो सफाई की जाती है, वह मनुष्य के लिए भी बड़ी लाभकारी होती है क्योंकि इसके पूर्व वर्षा ऋतु के कारण घरों में दुर्गन्ध आती है। वह दुर्गन्ध इन दिनों सुगन्धि के रूप में बदल जाती है। दीपावली मनुष्य की अन्य भावना को समाप्त कर एकता अपनाने की प्रेरणा देती है। मनुष्य कर्त्तव्य पालन में जनता का अनुभव करता है।
दुःख की बात है कि दीपावली जैसे महत्त्वपूर्ण पर्व पर भी कुछ लोग जुआ खेलते तथा शराब पीते हैं। जो व्यक्ति जुए में हार जाता है, उसके लिए यह पर्व अभिशाप के समान है। ऐसे लोग दीपावली की उज्वलता पर कालिमा पोत कर नास्तिकता, कृतघ्नता तथा अराष्ट्रीयता का परिचय देते हैं ।
दीपावली भारत का एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पर्व है । इसके महत्त्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि हम अपने दोषों का परित्याग करें। जुआ खेलने और शराब पीने वालों का विरोध करें। तभी हम ऐसे पर्वों के प्रति श्रद्धा और आस्तिकता का परिचय दे सकते हैं। पर्व देश और जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं। इनके महत्व को समझना तथा इनके आदर्शों का पालन करना चाहिए । प्रत्येक भारतवासी का यह परम कर्त्तव्य है कि वे इस महान् उपयोगी एवं सांस्कृतिक पर्व को सामाजिक कुरीतियों से बचाएं।

23. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

[ भूमिका, मन एक विचित्र शक्ति, मनोबल का महत्त्व, उपसंहार ]
कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से चाहे कितना ही बलशाली क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से दुर्बल है तो वह जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । मनुष्य को सदैव यही विचार करना चाहिए कि मैं परमात्मा की रचना हूं। मैं अपने अन्दर कोई न्यूनता नहीं आने दूंगा। मन से हार नहीं मानूंगा। बड़े-से-बड़े संकटों से भी टकरा जाऊंगा। मन से हार मान लेना मरण है और मन से विजयी रहने की भावना ही जीवन है।
शास्त्रकारों ने मन को इन्द्रियों का राजा माना है । मन एक महासागर के समान है जिस का कोई ओर-छोर नहीं । इसकी थाह पाना अति कठिन है। मन के किसी एक सर्वमान्य रूप का निश्चय नहीं हो सकता। गीता के मन को चंचल गति बताया गया है। न जाने मन कहां-कहां भटकता रहता है। यह किसी से अपना सम्बन्ध जोड़ता है और किसी से सम्बन्ध विच्छेद करता है ।
मन को वश में करना बड़ा ही कठिन है। कोई विरला ही व्यक्ति इस पर नियन्त्रण पा सकता है। वास्तव में मन ही मानव है। मन के अनेक रूप-रंग हैं। सृष्टि की रचना मन का ही खेल है । बचपन, जवानी और बुढ़ापा मन के ही परिवर्तन हैं। मन मनुष्य को दुनियां में अनेक नाच नचाता है। मनुष्य की हार-जीत सच्चे अर्थों में मन के अन्दर ही निहित होती है। मन से हीरे व्यक्ति की जीत सर्वथा असम्भव है।
साहस या उत्साह मन का सच्चा मित्र कहा जा सकता है। चाहे युद्ध का मैदान हो या खेल का मैदान, यदि मन हार गया तो समझो तन भी हार गया । कोई काम कैसा भी और कितना भी कठिन क्यों न हो यदि मन में उत्साह रहा तो वह निश्चय ही पूर्ण होगा। यदि कहीं मन पहले ही हार बैठा तो साधारण सा काम भी पहाड़ बन जाएगा। कई बार मन के हार जाने पर योग्य छात्र भी परीक्षा में विफल हो जाते हैं । उत्साह का आंचल पकड़ कर साधारण छात्र अधिक अंक प्राप्त करते देखे गए हैं ।
महात्मा गांधी जी ने मन के बल पर आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों से टक्कर ली थी। अंग्रेज़ की विशाल शक्ति को गांधी जी ने नीचे झुका दिया। अंग्रेज़ अपना मन हार बैठे और दूसरी ओर गांधी जी मन नहीं हारे । इतिहास इस बात का साक्षी है कि अतुल बलशाली अंग्रेज़ भी महात्मा गांधी जी के शान्तिपूर्ण आन्दोलन के सामने टिक नहीं सके। विकट परिस्थितियों में भी गान्धी जी ने भारत को स्वतन्त्रता दिलाई। उन्होंने भारतीयों के दिलों में एक नया जोश भर दिया जिसमें हारने की भावना नहीं थी ।
जीवन का यह एक मूल सत्य है कि मन की हार सबसे बड़ी हार है। जीवन के निरन्तर संघर्ष से थके-हारे व्यक्ति का मन थका-हारा होता है। व्यक्ति की सारी हलचल, भाग दौड़ और परेशानियां मन की ही तो हैं । व्यक्ति जब भी गिरता है तो मन से ही गिरता है। वह हारता है तो मन से ही हारता है। गुरु नानक देव जी ने इसी कारण कहा है—मन जीते, जग जीते।
मन से कभी हार न मानना ही महानता की सबसे बडी कसौटी है। भारत के जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी सबसे बड़ी शिक्षा यही थी कि कभी मन में दुर्बलता न आने दो । संकटों की परवाह न करते हुए जीवन के लक्ष्य पाने के लिए संघर्षशील बनो । भगवान् श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को यही उपदेश दिया था कि मन की दुर्बलता को छोड़कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। यदि अर्जुन मन हार बैठता तो महाभारत युद्ध का परिणाम सम्भवतः कुछ और ही होता।
हमें मन को संयमशील बनाकर ऊंची भावनाओं का स्वामी बनना चाहिए। किसी भी कार्य में हीन भावना का शिकार होकर निरुत्साहित नहीं बनना चहिए। सफलता की प्राप्ति के लिए पूरे मन से प्रयत्नशील बने रहो, निश्चय ही आपकी साधना सफल होगी। मन से कभी हार न मानो, इस स्थिति में जीत आपका स्वागत करेगी। कबीर ने ठीक ही कहा हैमन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।

24. मेरा प्रिय लेखक

अथवा

साहित्यकार

अथवा

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द

[ भूमिका, परिचय एवं रचनाएँ, आदर्श, भाषा, सर्वोत्तम कृति ]
हिन्दी कथा-साहित्य को गौरव प्रदान करने, उसे अन्तर्राष्ट्रीय कथा साहित्य के समकक्ष लाने का श्रेय स्वर्गीय मुन्शी प्रेमचन्द को है। यहि उन्हें भारत का गोर्की कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। प्रेमचन्द के उपन्यासों में लोक जीवन के व्यापक चित्रण तथा सामाजिक समस्याओं के गहन विश्लेषण को देखकर कहा गया है कि प्रेमचन्द के उपन्यास भारतीय जनजीवन के मुँह बोलते चित्र हैं। इसी कारण में इन्हें अपना प्रिय लेखक मानता हूं।
माँ भारती के इस आराधक का जन्म वाराणसी के निकट लमही ग्राम में सन् 1880 ई० में हुआ। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उनका बचपन संकटों में बीता। कठिनाई से बी० ए० किया और शिक्षा विभाग में नौकरी की, किन्तु उनकी स्वतन्त्रता विचारधारा आड़े आई । नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखी ‘सोज़े वतन’ पुस्तक अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर ली । इसके पश्चात् उन्होंने प्रेमचन्द के नाम से लिखना शुरू किया ।
प्रेमचन्द ने एक दर्जन सशक्त उपन्यास और लगभग तीन सौ कहानियां लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया । उनके उपन्यासों में गोदान, कर्म-भूमि, गबन तथा सेवासदन आदि प्रसिद्ध हैं। कहानियों में ‘पूस की रात’ तथा ‘कफन’ अत्यन्त मार्मिक हैं तथा विश्व कहानी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती हैं ।
प्रेमचन्द को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्यकार कहा जाता है । साहित्य में अश्लीलता और नग्नता के वह हामी नहीं थे। वह मानते थे कि साहित्य समाज का चित्रण करता है किन्तु साथ ही समाज के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है जिसके सहारे लोग अपने चरित्रों को ऊंचा उठा सकें । उनके उपन्यासों के अनेक पात्र जैसे, होरी-धनिया, सोफी, सुमन, जालपा, निर्मला आज भी हमारे चारों ओर जीते-जागते पात्र लगते हैं। ग्रामीण जीवन का चित्रण करने में प्रेमचन्द को विशेष सफलता प्राप्त हुई है।
प्रेमचन्द की भाषा सरल तथा मुहावरेदार हिन्दी है। भारत में हिन्दी का प्रचार करने में प्रेमचन्द के उपन्यासों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने ऐसी भाषा अपनाई जिसे जनता बोलती और समझती थी । यही कारण है कि हिन्दी में किसी अन्य लेखक के उपन्यास इतने अधिक नहीं बिके जितने प्रेमचन्द के ।
‘गोदान’ प्रेमचन्द का ही नहीं, हिन्दी का सर्वोत्तम उपन्यास माना जाता है । गोदान में कृषक जीवन का जो मर्मस्पर्शी चित्र अंकित किया गया है, वह आज भी हमारा दिल दहला देता है । सूद-खोर बनिये, जागीरदार, ढोंगी ब्राह्मण, सरकारी कर्मचारी सभी की कलई खोलकर उन्होंने अपने साहित्य को शोषित, निर्धन और दुःखी जनता का प्रवक्ता बना दिया।
यह अत्यन्त खेदजनक तथ्य है कि हिन्दी का महान् सेवक जीवन भर आर्थिक संकटों से घिरा रहा । जीवन भर अथक परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और सन् 1936 में हिन्दी के उपन्यास सम्राट् का देहान्त हो गया ।

25. भारतीय समाज में नारी का स्थान

अथवा

भारतीय नारी की महत्ता

जिस प्रकार तार के बिना वीणा और सुर के बिना संगीत व्यर्थ है, उसी प्रकार नारी के बिना पुरुष का सामाजिक जीवन भी अपूर्ण है। इस सत्य को भारतीय ऋषियों ने बहुत पहले ही जान लिया था। वैदिक युग में घोषणा की थी कि “जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।” उन्होंने समाज में नारी के महत्त्व को स्वीकार किया था। उस युग में प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक अनुष्ठान में नारी की उपस्थिति आवश्यक थी । पुत्रियों को भी पुत्रों के समान अधिकार प्राप्त थे तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध होता था | मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषियों की गणना ऋषियों के साथ होती थी । प्राचीन भारत में उस नारियों के लिए जीवन का कोई भी क्षेत्र वर्जित नहीं था। वे रणभूमि से लेकर घर-परिवार तक के अपने सभी उत्तरदायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह करती थीं ।
मध्यकाल में नारी के सम्मान को विशेष क्षति पहुँची थी तथा उसे पर्दे में रख कर केवल घर की चार दीवारों तक ही सीमित कर दिया गया था। उसके शिक्षा के अधिकार छीन लिए गए थे। वह एक मूक प्राणी बन कर रह गई थी । इस युग में भी दुर्गावती, अहल्याबाई, पद्मिनी जैसी वीर नारियों ने अपनी योग्यता और बलिदान से भारतीय नारी का गौरव बढ़ाया था ।
सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सीमित सैनिक शक्ति से अंग्रेज़ों से टक्कर लेने वाली भारत की ‘ज़ोन ऑफ़ आर्क’ झाँसी की महारानी लक्ष्मी बाई के बलिदान को भला कौन भुला सकता है ? अंग्रेज़ी शासन के साथ-साथ देश में अनेक समाज सुधारक आंदोलन आरंभ हुए। राजा राम मोहन राय तथा स्वामी दयानंद ने नारी जागरण तथा उनकी शिक्षा, उन्नति आदि की ओर विशेष ध्यान दिया था। स्वतंत्रता संग्राम तो मानो नारी मुक्ति का ही संदेश लेकर आया था, जिसमें असंख्य महिलाएँ सत्याग्रह का ध्वज लेकर गाँधी जी के आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। आज के भारतीय समाज में वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर देश के नव निर्माण में पूर्ण सहयोग दे रही है । आर्थिक, सामाजिक, चिकित्सा, शिक्षा, सेना, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में वह अग्रणी है। श्रीमती प्रतिभा पाटिल भारत की राष्ट्रपति तथा श्रीमती इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री रहीं । ग्राम पंचायत से लेकर संसद् तक, विभिन्न समितियों, आयोगों, मंत्रालयों आदि में महिलाएँ महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर अपने उत्तरदायित्वों का कुशलतापूर्वक पालन कर रही हैं। विश्व-स्तरीय विभिन्न प्रतियोगिताओं में भारतीय महिलाओं का योगदान सराहनीय रहा है । वह एवरेस्ट विजेता भी है और कल्पना चावला की तरह आकाश की ऊँचाइयों को भी पार कर जाने की क्षमता रखती है।
आज की भारतीय नारी आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी अपने कार्यक्षेत्र एवं पारिवारिक क्षेत्रों में समन्वय बनाए रखने के कारण विश्व – वंदनीय है। आज के इस अशांति पूर्ण युग में हमें उन गुणों के प्रचार और प्रसार की आवश्यकता है, जो भारतीय नारी को परंपरा से प्राप्त हैं । वह नम्रता, लज्जा और मर्यादा की त्रिवेणी है। वह सबका कल्याण चाहती है। वह त्याग, शांति और ममता की देवी है । वह ऐसी शक्ति है, जो आसुरी अवगुणों का नाश कर सत्वगुणों का प्रसार करती है। उस की प्ररेणा, शक्ति, संकल्पना नव-निर्माण कर मानव को देवत्व की ओर ले जाती है। आज के भारतीय समाज में नारी को विश्व की समस्त नारियों से अधिक सम्मान दिया जाता है क्योंकि वह सब प्रकार से मंगलकारिणी है।

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