JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 हिंदी साहित्य का इतिहास

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 हिंदी साहित्य का इतिहास

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 1 हिंदी साहित्य का इतिहास

Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 10th Class Hindi Solutions

हिन्दी कविता : एक संक्षिप्त परिचय

परीक्षा में इस विषय पर छः अंकों का एक प्रश्न पूछा जाएगा जिसका उत्तर लिखना अनिवार्य होगा।

हिन्दी कविता का आरंभ कब हुआ, इसके विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान् हिन्दी कविता का आरम्भ आठवीं शताब्दी से मानते हैं तो कुछ दसवीं शताब्दी से हिन्दी का पहला कवि कौन था? इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। पं० राहुल सांकृत्यायन ‘सरहपाद’ (सन् 769 ई०) को तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘पुष्य’ (सन् 993 ई०) को हिन्दी का पहला कवि मानते हैं। सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच जिस प्रकार की हिन्दी में रचना हुई उसे पुरानी हिन्दी कहा गया। इसी में नाथों, सिद्धों और जैन साधकों तथा रासो साहित्य के कवियों ने काव्य रचना की है। तेरहवी- चौदहवीं शती में जाकर हिन्दी का रूप बदला और यह सरल सुबोध रूप धारण कर सारे भारत में लोकप्रिय हुई। पिछले एक हज़ार वर्षों में हिन्दी की विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों, जैसे राजस्थानी, अवधी, मैथिली, ब्रज, खड़ी बोली आदि समय-समय पर प्रमुखता ग्रहण करती रही। आज हिन्दी की खड़ी बोली राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है।

कविता के तत्व

कविता करने की कला का स्थान सभी कलाओं में सब से ऊपर है। इसके चार तत्व माने जाते हैं-
राग तत्व, कल्पना तत्व, बुद्धि तत्व और शैली तत्व ।
  1. राग तत्व – कवि अपनी कविता से किसी सहृदय के हृदय में रस का संचार करता है। कविता का उद्देश्य मनोरंजन के द्वारा उचित उपदेश देना भी है। उदारता, गहनता, विविधता और मार्मिकता के कारण ही कविता को श्रेष्ठता की प्राप्ति होती है।
  2. कल्पना तत्व – कविता का सारा रूप विधान कल्पना की क्रिया से ही होता है। कल्पना ही कवि को अपना उद्देश्य पूरा करने में सहायक सिद्ध होती है। इससे भाव नया रूप ग्रहण कर पाते हैं।
  3. बुद्धि तत्व – मानवी ज्ञान और विचार के बिना भावों का कोई महत्त्व नहीं होता। लोक व्यवहार और शास्त्र ज्ञान बुद्धि के ही विषय हैं। भावों की प्रस्तुति बुद्धि से ही होती हैं। कविता की रचना के लिए मौलिकता, उदारता, परोक्षता, सीमितता और उपयोगिता की आवश्यकता होती है और इन सब का आधार बुद्धि तत्व ही है।
  4. शैली तत्व – पोप ने भाषा को Dress of thought कहा है। किसी भी भाव को व्यक्त करने के लिए भाषा और शैली की परम आवश्यकता होती है। इसे कविता का बाह्य तत्व भी कहा जाता है। इसी की सहायता से स्वस्थ भाव सुंदर काव्य के रूप में व्यक्त होते हैं।

हिन्दी कविता के इतिहास का काल विभाजन

पिछले बारह सौ वर्षों के करीब की हिन्दी कविता को हम  चार कालों में बांट सकते हैं-
  1. आदि काल — सन् 800 ई० से 1400 ई० तक
  2. भक्ति काल — सन् 1400 ई० से सन् 1600 ई० तक
  3. रीति काल — सन् 1600 ई० से सन् 1800 ई० तक
  4. आधुनिक काल — सन् 1800 ई० से आज तक ।
1. आदि काल ( वीर गाथा काल) — आदिकाल के दौरान देश विदेश आक्रमणकारियों से जूझता रहा। इस काल के कवि राज दरबारों में रह कर अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में कविता लिखते रहे, पर साथ ही वीरता भरी कविता भी लिखते रहे। इसी काल में बौद्ध धर्म की महायानी शाखा और हिन्दु के शाक्त सम्प्रदाय का समन्वय शुरू हुआ। इसी के फलस्वरूप सरहपा, मछंदरपा आदि सिद्धों तथा गोरखनाथ जैसे नायें ने काव्य रचना की। उसी काल में देवसेन, शालिप्रभसूरी आदि जैन साधकों ने धार्मिक काव्य की रचना की। इसी काल में अमीर खुसरो जैसे मुसलमान कवियों ने खड़ी बोली में कविता रची। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां विशेष लोकप्रिय हुईं। इसी काल में मैथिल कोकिल कहे जाने वाले कवि विद्यापति ने श्री राधा कृष्ण के लौकिक प्रेम को अपन कविता में चित्रित किया। कुल मिलाकर आदि काल में धार्मिक, अर्धधार्मिक, वीर रस युक्त तथा लोकप्रिय विषयों पर महाकाव्य लिखे गये। दोहा तथा मुक्तक काव्य शैली में भी काव्य की रचना हुई।
2. भक्ति काल – इस काल में दो प्रकार की भक्ति की कविता रची गई–पहली निर्गुण भक्ति तथा दूसरी सगुण भक्ति निर्गुण भक्ति की भी दो शाखाएँ थीं – एक ज्ञान मार्गी भक्ति तथा दूसरी प्रेम मार्गी भक्ति ज्ञान मार्गी भक्ति की कविता लिखने वालों में प्रमुख थे संत कबीर, गुरु नानक देव जी, रैदास (गुरु रविदास जी), मलूक दास आदि तथा प्रेम मार्गी भक्ति की कविता रचना वालों में प्रमुख थे सूफ़ी संत मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन तथा मंझन। निर्गुण भक्ति के कवि पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा गुरु द्वारा दिये ज्ञान को महत्त्व देते थे। ये कवि ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना के पक्ष में थे। इन कवियों ने अपनी कविता द्वारा हिन्दु मुस्लिम एकता स्थापित करने की कोशिश की।
सगुण भक्ति की कविता की भी दो शाखाएं हुईं। एक कृष्ण भक्ति शाखा तथा दूसरी राम भक्ति शाखा। कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास, नंददास, मीरा, रसखान प्रमुख थे तथा राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसी दास हुए। सगुण भक्त कवि ईश्वर के सगुण रूप की उपासना के पक्ष में थे।
ज्ञान मार्गी संत कवियों ने भोजपुरी, ब्रज और खड़ी बोली के मिश्रित रूप में कविता लिखी जबकि प्रेम मार्गी सूफ़ी संतों ने अवधी भाषा में कविता लिखी। कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा में तथा राम भक्त कवियों ने अवधी और ब्रब दोनों ही भाषाओं में कविता लिखी।
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएं — इस काल में दो प्रकार की भक्ति की कविता रची गईपहली निर्गुण भक्ति तथा दूसरी सगुण भक्ति । निर्गुण भक्ति की भी दो शाखाएँ थीं – एक ज्ञान मार्गी भक्ति तथा दूसरी प्रेम मार्गी भक्ति। ज्ञान मार्गी भक्ति की कविता लिखने वालों में प्रमुख थे संत कबीर, गुरु नानक देव जी, रैदास (गुरु रविदास जी), मूलक दास आदि तथा प्रेम मार्गी भक्ति की कविता रचना वालों में प्रमुख थे सूफ़ी संत मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन तथा मंझन । निर्गुण भक्ति के कवि पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा गुरु द्वारा दिये ज्ञान को महत्त्व देते थे। ये कवि ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना के पक्ष में थे। इन कवियों ने अपनी कविता द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की कोशिश की।
सगुण भक्ति की कविता की भी दो शाखाएं हुईं। एक कृष्ण भक्ति शाखा तथा दूसरी राम भक्ति शाखा कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास, नंददास, मीरा, रसखान प्रमुख थे तथा राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसी क दास हुए। सगुण भक्त कवि ईश्वर के सगुण रूप की उपासना के पक्ष में थे।
ज्ञान मार्गी संत कवियों ने भोजपुरी, ब्रज और खड़ी बोली के मिश्रित रूप में कविता लिखी जबकि प्रेम मार्गी सूफ़ी संतों ने अवधी भाषा में कविता लिखी। कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा में तथा राम भक्त कवियों ने अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में कविता लिखीं।
3. रीति काल – सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास मुग़ल साम्राज्य का पतन होना शुरू हो गया था। मुग़ल शासकों के साथ-साथ अन्य राजाओं और रजवाड़ों में विलासिता चरम तक पहुँच चुकी थी। इस काल के लगभग सारे कवि राजाओ के आश्रय में रहकर कविता रचते थे। राजाओं के भोग-विलास की प्रवृत्ति को शांत करने के लिए कवि शृंगार उक्ति-चमत्कार से भरी कविता लिखकर अपने आश्रयदाताओं को खुश करते थे। कुछ कवियों ने संस्कृत काव्य शास्त्र के अनुसार छंद, अलंकारों पर भी कविता लिखी । ऐसे कवियों को आचार्य कहा जाता था। इस काल के कवियों में केशव, बिहारी, देव, मतिराम, चिंतामणि, भूषण आदि कवि प्रमुख हैं। इस काल में रीति की रूढ़ि में बंधी कविता लिखी गई। इस कारण इस काल को रीतिकाल कहा जाता है। किंतु विद्वान् इस काल में शृंगार रस की प्रधानता होने के कारण इसे शृंगार काल भी कहते हैं।
प्रश्न- निर्गुण काव्य-धारा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – भक्तिकाल की निर्गुण काव्य-धारा ने ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है। इस काव्य-धारा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) निर्गुणवाद- निर्गुण कवि मानते हैं कि परमात्मा एक और निराकार है। वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त अजर-अमर-अविनाशी है परन्तु घट-घट में समाया हुआ है, उन के अन अनुसार-
निर्गुण राम जपहु रे भाई, अविगत की गति लखी न जाई ।
(ख) गुरु का महत्त्व – निर्गुण भक्त कवियों ने गुरु को बहुत महत्त्व दिया है। वे मानते हैं कि गुरु के माध्यम से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। इसलिए गुरु महान् है :
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ॥
(ग) आडंबरों का विरोध – निर्गुण काव्यधारा में सर्वत्र आडंबरों तथा रूढ़ियों का विरोध प्राप्त होता है। मूर्ति पूजा,. रोज़ा, तीर्थ- हज यात्रा आदि का वे डट कर खंडन करते हैं। उन्होंने जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना है तथा कहा है-
जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई ।
(घ) रहस्यवाद – निर्गुण काव्यधारा में परमात्मा के प्रति जिज्ञासा का भाव प्रबल है। वे उस परमात्मा के साथ अद्वैत भाव के समर्थक हैं-
जल में कुंभ कुंभ में जल है भीतर बाहर पानी ।
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना यह तत कहो गयानी ॥
प्रश्न – जीवनी और आत्मकथा में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – जीवन में किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के जीवन का विवरण लिखा जाता है। जीवनी प्रायः सुप्रसिद्ध व्यक्तियों की लिखी जाती है जो अपने कार्यक्षेत्र में अग्रणी होते हैं। जीवनी लेखक जिसकी जीवनी लिखता है उसे उस व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों की पूरी जानकारी होती है। इसके विपरीत आत्मकथा में व्यक्ति स्वयं अपने अतीत और वर्तमान के संबंध में लिखता है। इसमें वह अपने गुण-अवगुणों आदि का यथार्थ वर्णन करता है। इस प्रकार जीवनी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा रचित होती है जबकि आत्मकथा लेखक की स्वयं लिखी हुई रचना होती है। जीवनी में तथ्यों की पुष्टि लेखक उपलब्ध सामग्री के आधार पर करता है जबकि आत्मकथा में लेखक स्वयं ही अपने विषय में तथ्य प्रस्तुत करता है।
प्रश्न- राममार्गी शाखा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – राममार्गी शाखा के कवियों ने श्रीराम को अवतार मानकर उन की आराधना की है। तुलसीदास इस काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं। इस काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) भक्ति का स्वरूप-राममार्गी शाखा के कवियों ने श्रीराम की भक्ति को ही अपने जीवन का केन्द्र बिन्दु माना है। वे श्रीराम से सेवक- स्वामी संबंध स्वीकार कर उन से संसार रूपी सागर से मुक्ति प्रदान करने की कामना करते हैं
‘सेवक-सेव्य भाव बिनु, भव न तारिय उरगारि’
(ख) व्यापक दृष्टिकोण-राममार्गी शाखा के कवियों का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक है। वे श्रीराम के साथ ही शिव, कृष्ण, गणपति, शक्ति आदि की पूजा भी करते हैं। राम चरित मानस में श्रीराम स्वयं कहते हैं
‘शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुँ न सुख पावा।’
(ग) लोक कल्याण की भावना- राममार्गी शाखा के कवियों ने श्रीराम को आदर्श मानव, मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में चित्रित करते हुए समाज में आदर्श पुत्र, भाई, सखा, पति, योद्धा, राजा, स्वामी, सेवक आदि का उदाहरण प्रस्तुत कर लोक कल्याण का कार्य किया है।
(घ) भाषा-शैली – इन कवियों ने महाकाव्य तथा मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाएँ अवधी तथा ब्रज भाषाओं में लिखी हैं। दोहा, चौपाई, सोरठा, सवैया, कवित्त आदि इनके प्रिय छंद हैं। अलंकारों का चमत्कार सर्वत्र विद्यमान है। भाषा-शैली की दृष्टि से महाकाव्य अत्यंत समृद्ध है।
प्रश्न – वीरगाथा काल की किन्हीं तीन विशेषताओं का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर – आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार वीरगाथा का समय संवत् 1050 से 1375 तक है। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(क) युद्धों का सजीव वर्णन – वीरगाथा काल के काव्य में युद्धों का सजीव वर्णन प्राप्त होता है। इस युग के ima कवि राज्याश्रित थे, इसलिए ये युद्धों में भी भाग लेते थे, जिस कारण इनके युद्ध वर्णनों में सजीवता है। युद्धों का कारण परस्पर वैमनस्य, राज्यविस्तार, विलासिता, नारी आदि होते थे ।
(ख) सामंती जीवन का चित्रण – वीरगाथा काल के काव्यों में सामंती जीवन एवं संस्कृति का विस्तार से चित्रण प्राप्त होता है, जिसमें राजसी साज-सज्जा, भोग-विलास, दरबारी संस्कृति का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इस काव्य में सामान्य जन-जीवन के चित्रण का सर्वत्र अभाव है।
(ग) डिंगल – पिंगल भाषा – वीरगाथात्मक काव्य डिंगल-पिंगल भाषा में रचित है। डिंगल भाषा राजस्थानी मिश्रित CAMER कैलाल पुरानी हिंदी तथा पिंगल भाषा ब्रज भाषा का मिश्रित रूप है। विदेशी आक्रमणकारियों के प्रभाव से इन काव्यों में अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।

रीति काल की प्रमुख विशेषताएं

  1. शृंगारिकता – इस काल के अधिकांश कवि राज्याश्रय प्राप्त दरबारी कवि थे जो आश्रयदाताओं की विलासी प्रवृत्तियों को उभारने के लिए कविता की रचना किया करते थे। भूषण जैसे कुछ कवि इसके अपवाद हैं। उन्होंने अपने आश्रयदाता शिवाजी के हृदय में सुप्त राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने के पवित्र उद्देश्य से काव्य-रचना की, किन्तु वे भी युग प्रवृत्ति – शृंगार से अपने को सर्वथा मुक्त नहीं रख सके।
  2. काव्यांग विवेचन – रीतिकाल में रस और अलंकार आदि काव्यांगों का विवेचन खूब हुआ, किन्तु इसके प्रतिपादन में अधिकांश कवियों को सफलता न मिली। कहीं-कहीं इसका अशुद्ध और भ्रामक प्रतिपादन भी हुआ।
  3. मुक्तक रचनाएँ – राजाओं की काम-क्रीड़ा और काम-वासना को उत्तेजित करने एवं उनकी मानसिक थकान दूर करने के लिए जिस कविता का आश्रय लिया गया, वह ‘मुक्तक’ ही रही । अतः इस काल में कविता और सवैया की प्रधानता रही। ‘कवित्त’ का प्रयोग वीर और शृंगार रसों में तथा सवैयों का शृंगार और करुण रस में हुआ।
  4. ब्रज भ ब्रज भाषा – इस रीतिकाल में साहित्यिक भाषा ब्रज भाषा ही रही। उसका शब्द भण्डार अत्यन्त समृद्ध हुआ, इसका क्षेत्र विस्तृत हुआ। भक्त कवियों के काव्य की किशोरी ब्रजभाषा इस समय अपने पूर्ण यौवन – साहित्य से ललित हो उठी।
  5. लक्षण ग्रन्थ—संस्कृत काव्य-साहित्य की समृद्धि भूमि के आधार पर कुछ कवियों ने काव्य-शास्त्रों के लक्षणों को पद्यबद्ध करके लक्ष्य रूप में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं। अतः इन लक्षण-ग्रन्थों में मौलिकता का अभाव है। कुछ कवियों ने लक्षण-ग्रन्थ न लिखकर सारा काव्य रीति परिपाटी पर लिखा है।
  6. प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण — रीतिकाल के कवियों ने प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण बहुत कम किया विभिन्न ऋतुओं के माध्यम से कवियों ने काम को उद्दीपन करने वाली उक्तियां कही हैं। बसन्त की मादकता नायक नायिका की आसक्ति को उद्दीप्त कर देती है। इसी प्रकार वर्षा एवं शरद् ऋतु का भी उद्दीपन रूप में ही चित्रण है।
4. आधुनिक काल –सन् 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम विफल होने के फलस्वरूप समूचे भारत का शासन अंग्रेजों के हाथों में चला गया। अंग्रेजी शासन में अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों का लाभ भारतीयों को प्राप्त हुआ जैसे रेल, डाकतार, प्रेस, समाचार पत्र आदि। पद्य के साथ-साथ गद्य में भी साहित्य सृजन होने लगा।
इस काल के आरम्भ में राष्ट्रभक्ति और समाज सुधार की कविताएं लिखी गई। बीसवीं शताब्दी के शुरू होते ही छायावादी कविता ने जन्म लिया। छायावादी कविता में प्रकृति चित्रण, कोमल पदावली और कल्पना को अधिक स्थान दिया गया। मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्द पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा प्रमुख छायावादी कवि हुए हैं।
छायावादी कविता के साथ-साथ राष्ट्रवादी कविता की धारा भी चली। इन कवियों ने भी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अपना योगदान दिया। ऐसे कवियों में मैथिलीशरण गुप्त सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी आदि कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं।
संसार में साम्यवादी विचारधारा के प्रचार और प्रसार का प्रभाव भारत में हिन्दी कवियों पर भी पड़ा। फलस्वरूप प्रगतिवादी कविता की धारा शुरू हुई। इसी विचारधारा के विरोध में प्रयोगवादी और नई कविता धारा शुरू हुई। इन कवियों ने व्यक्ति के मन की समस्याओं की ओर अधिक ध्यान दिया। छन्द का बन्धन तोड़ दिया गया। ऐसे कवियों में अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि कवि प्रमुख हैं।
इक्कीसवीं सदी शुरू होने के साथ-साथ हिन्दी कविता में भी अनेक धाराएं शुरू हो रही हैं जिनमें जनवादी कविता, अकविता, समकालीन कविता आदि प्रमुख है।
प्रश्न- हिन्दी की कविता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर – हिन्दी की कविता का आरम्भ सातवीं-आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच माना जाता है। इसे पुरानी हिन्दी, उत्तर अपभ्रंश या अवहट्ठ में रचित काव्य माना जाता है। पिछले बाहर सौ वर्ष में रचित कविता को चार भागों में बांटा जाता है— आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल ।
आदिकाल में कवि अपने आश्रयदाताओं को उत्साहित करने के लिए उनकी वीरता से सम्बन्धित कविता गाते रहे थे। इसी समय बौद्धों, सिद्धों, नाथों और जैनों ने धार्मिक और संप्रदाय से सम्बन्धित कविता की रचना की थी। इसी समय अमीर खुसरो ने लोक साहित्य की रचना की थी और विद्यापति ने राधा-कृष्ण के प्रेम का मैथिली में कविता में चित्रण किया था।
भक्तिकाल में निर्गुण और सगुण दो रूपों में भक्ति से सम्बन्धित काव्य-रचना की गई थी। निर्गुण काव्य में कबीर जी, गुरु नानक देव जी, रविदास जी आदि ने ज्ञान मार्ग को महत्त्व दिया था तो जायसी, कुतुबन आदि सूफियों ने प्रेम का मार्ग चुना था। उनके प्रेम में समर्पण का भाव विद्यमान था। सगुण भक्ति के अन्तर्गत तुलसीदास जैसे महान् कवियों ने राम-भक्ति का गायन किया था तो सूरदास जैसे भक्तों ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया था। भक्तिकाल में मानव-समता और प्रेम का प्रचार किया गया था।
सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य धीरे-धीरे भोग-विलास और शृंगार की ओर बढ़ने लगा था। कवि विशेष रीति में बंध से गए थे। इस समय की कविता में दरबारी राग-रंग की ही अधिकता है। कुछ कवियों ने संस्कृत काव्य शास्त्र के आधार पर रचना की थी पर उसमें गम्भीरता नहीं है।
आधुनिक काल के आरम्भ में राष्ट्रभक्ति और समाज सुधार की कविताएं लिखी गई । बीसवीं शताब्दी के शुरू होते. ही छायावादी कविता ने जन्म लिया। छायावादी कविता में प्रकृति चित्रण, कोमल दावली और कल्पना को अधिक स्थान दिया गया। मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पन्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा प्रमुख छायावादी कवि हुए हैं।
छायावादी कविता के साथ-साथ राष्ट्रवादी कविता की धारा भी चली। इन कवियों ने भी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अपना योगदान दिया। ऐसे कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सोहन लाल द्विवेदी आदि कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं।
संसार में साम्यवादी विचारधारा के प्रचार और प्रसार का प्रभाव भारत में हिन्दी कवियों पर भी पड़ा। फलस्वस्थ प्रगतिवादी कविता की धारा शुरू हुई। इसी विचारधारा के विरोध में प्रयोगवादी और नई कविता धारा शुरू हुई। इस कवियों ने व्यक्ति के मन की समस्याओं की ओर अधिक ध्यान दिया। छन्द का बन्धन तोड़ दिया गया। ऐसे कवियों में अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि कवि प्रमुख हैं।
इक्कीसवीं सदी शुरू होने के साथ-साथ हिन्दी कविता में भी अनेक धाराएं शुरू हो रही हैं जिनमें जनवादी कविता, अकविता समकालीन कविता आदि प्रमुख हैं।

गद्य-विधाओं का संक्षिप्त परिचय

हिन्दी गद्य : एक संक्षिप्त परिचय वार्षिक परीक्षा में इस पर आधारित छः अंकों का अनिवार्य प्रश्न होगा।

प्रश्न – हिन्दी गद्य : एक संक्षिप्त परिचय पर टिप्पणी लिखें । 
उत्तर – हिन्दी में गद्य-लेख नियमित रूप से 19वीं सदी ईसवी के आरंभ के साथ ही शुरू हुआ। इससे पूर्व कुछ छिट-पुट गद्य ग्रंथ अवश्य लिखे गये थे किंतु हिन्दी गद्य का विकास 19वीं सदी से ही माना जाता है। अंग्रेजी शासन ने कलकत्ता में पहला कॉलेज फोर्ट विलियम कॉलेज खोला। इस कॉलेज में चार प्राध्यापक लल्लू जी लाल, सदलमित्र, सदासुख लाल तथा मुंशी इंशाउल्ला खां नियुक्त किए गए। इन्होंने क्रमशः प्रेमसागर, नासिकेतोपाख्याण, सुखसागर तथा रानी केतकी की कहानी की रचना की। ये गद्य ग्रंथ हिन्दी पद्य के विकास में मील के पत्थर सिद्ध हुए। स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा के प्रचार के साथ-साथ ईसाई मिशनरियों ने भी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए अपना साहित्य हिन्दी गद्य में लिखा। छापाखाना आ जाने से पत्र-पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों का भी प्रकाशन शुरू हुआ। ये सब हिन्दी गद्य के विकास में सहायक हुए। अंग्रेजी भाषा की कहानियों और उपन्यासों के भारत में पठन पाठन के बढ़ने से हिन्दी साहित्य में भी कहानी, उपन्यास और नाटक लिखे जाने लगे।
हिन्दी गद्य के विकास के आरम्भिक काल में राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, राजा लक्ष्मण सिंह आदि के अतिरिक्त भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी नाटक तथा बाबू देवकी नंदन खत्री ने चंद्रकान्ता, चंद्रकान्ता संतति आदि उपन्यास लिख कर इस विद्या के विकास में योगदान दिया।
पद्य के साथ-साथ गद्य भी खड़ी बोली में लिखा जाने लगा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के प्रयत्नों से हिन्दी की खड़ी बोली का संस्कार कर इसे शुद्ध रूप प्रदान किया गया ।
हिन्दी गद्य के विकास को हम चार कालों में बांट सकते हैं-
1. पूर्व भारतेन्दु युग, 2. भारतेन्दु युग, 3. शुक्ल युग, 4. स्वातंत्र्योत्तर युग।
  1. पूर्व भारतेन्दु युग – ईसा की 19वीं शताब्दी के आरंभ में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। इस कॉलेज में नियुक्त चार प्राध्यापकों ने हिन्दी गद्य के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में ईसाई मिशनरियों, ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे समाज सुधार के आंदोलनों ने भी हिन्दी गद्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  2. भारतेन्दु युग – भारतेन्दु युग राष्ट्रीय चेतना का युग था साथ ही इस युग में भारतेन्दु जी के सहयोगी और समकालीन हिन्दी लेखकों ने हिन्दी गद्य में निबन्ध, जीवनी, कहानी, उपन्यास, नाटक, समालोचना आदि विधाओं में लिखकर हिन्दी गद्य के विकास में सहयोग दिया। इस युग के प्रमुख गद्य लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, लाला श्री निवास दास आदि प्रमुख हैं। इस युग में बंगला और अंग्रेज़ी के अनेक नाटकों के अनुवाद भी किये गए।
    भारतेन्दु के बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य को परिमार्जित रूप प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  3. शुक्ल युग – आचार्य रामचंद्र शुक्ल निबंधकार और समालोचक दोनों ही थे। उन्होंने इस विधाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसी युग में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, उपन्यास और नाटक के विकास में अपना योगदान दिया। शुक्ल युग के अन्य कहानीकार हैं-सुदर्शन, कौशिक जी, जैनेन्द्र कुमार। नाटककारों में डॉ० राम कुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, सेठ गोबिंददास आदि ।
  4. स्वातंत्र्योत्तर युग – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो हिन्दी गद्य में अनेक विधाओं का विकास बड़ी तेज़ी से हुआ। कहानी के क्षेत्र में नई कहानी और अकहानी नामक धाराएं चलीं। नाटक के साथ-साथ एकांकी विधा भी पनपी जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तान्त आदि अनेक विधाएं आज विकास की ओर बढ़ रही हैं। इस युग के प्रमुख के साहित्यकारों में मोहन राकेश, लक्ष्मी नारायण लाल, अज्ञेय, इन्द्रनाथ मदान, हरिकृष्ण प्रेमी, सुरेन्द्र वर्मा तथा गरीश कर्नाड आदि साहित्यकारों के नाम आदर के साथ लिए जाते हैं।
    स्वतन्त्रता के बाद देश में अनेक दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू हुआ जो गद्य के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं।

1. कहानी

प्रश्न- कहानी से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – कहने को कहानी एक छोटी-सी कला है, पर इसकी कोई निश्चित और सर्वमान्य परिभाषा देना एक जटिल कार्य है। इसके लक्षण और परिभाषा के सम्बन्ध में अलग-अलग विचारकों एवं कहानीकारों के अलग-अलग मत हैं। किसी ने कहानी के रूप और आकार को प्राथमिकता दी है तो किसी ने उसकी भाव-व्यंजना पर बल दिया है।
एडगर एलन पो के अनुसार, “कहानी एक छोटा-सा आख्यान है, जो एक ही बैठक में पढ़ा जा सके और जो पाठक पर एक ही प्रभाव उत्पन्न करने के लिए लिखा गया हो।” इस परिभाषा से यही ध्वनि निकली है कि कहानी संक्षिप्त हो।
सरह्यवाल पोल के कथनानुसार, “कहानी एक कहानी होनी चाहिए, उसमें घटनाओं और आकस्मिकता का लेखाजोखा होना चाहिए, उसमें क्षिप्रगति के साथ अप्रत्याशित विकास होना चाहिए जो कौतूहल द्वारा चरम बिन्दु और असंतोषजनक अन्त तक ले जाए । “
डॉ० श्यामसुन्दर दास के अनुसार, “आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को कहानी की संक्षिप्तता की ओर लक्ष्य कर मुंशी प्रेमचन्द्र ने कहानी की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है, “कहानी ऐसा उद्यान नहीं जिसमें भांति-भांति के फूल और बेल-बूटे सजे हुए हों बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप से दृष्टिगोचर होता है।”
एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं, “कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। यहां हमारा उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र का एक अंक दिखाना है।”
बाबू गुलाब राय ने सभी परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए एक समन्वयपूर्ण सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत की है-
“छोटी कहानी एक स्वतः पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाला व्यक्ति केन्द्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक, परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले कौतूहलपूर्ण वर्णन हों।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के परिणामस्वरूप कहा जा सकता है—
(क) कहानी में संक्षिप्तता होनी चाहिए ।
(ख) कहानी तीव्रगति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़े।
(ग) कहानी में मानवीय अनुभूतियों का चित्रण हो ।
(घ) कहानी में जिज्ञासा एवं कौतूहल का समावेश हो ।
(ङ) कहानी में जीवन के एक ही पहलू का सफल उद्घाटन हो ।
(च) कहानी में प्रभाव संवेदना की अन्विति हो ।

कहानी और उपन्यास में अन्तर

उपन्यास और कहानी में कुछ समानताएं हैं। इन दोनों का सम्बन्ध कथा साहित्य से है। दोनों में तत्त्वों की समानता है। इसलिए कुछ आलोचकों का मत है, “कहानी को कटा-छंटा उपन्यास या उपन्यास को विस्तारपूर्वक कही गई कहानी कहा जा सकता है।” आज यह कारण निर्मूल है। आज दोनों विधाओं में शिल्पगत अन्तर है। उपन्यास एक प्रकार से जीवन का पूरा चित्र है जबकि कहानी में जीवन के एक पहलू का चित्रण होता है। इसलिए अंग्रेज़ी आलोचक कहानी को जीवन का Snap Shot मानते हैं। कहानी तीव्र गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है जबकि उपन्यास धीरे-धीरे अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है। कहानीकार गागर में सागर भरने की क्षमता रखता है जबकि उपन्यासकार घटनाओं का जाल बिछा कर उपन्यास की कथा को विस्तार की ओर ले जाता है।
उपन्यास और कहानी कथा साहित्य के अंग होते हुए भी अनेक बातों में एक-दूसरे से भिन्न हैं। बाबू गुलाबराय ने कहा है, “दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। दोनों में केवल आकार का ही भेद नहीं है। हम यह नहीं कह सकते कि कहानी छोटा उपन्यास है अथवा उपन्यास बड़ी कहानी है । यह कहना ऐसा ही असंगत होगा, जैसे चौपाए होने की समानता के आधार पर मेंढक को छोटा बैल और बैल को बड़ा मेंढक कहना । दोनों के शारीरिक गठन और संस्कार में अन्तर है। बैल चार पैरों पर बल दे कर चलता है तो मेंढक उछल-उछल कर रास्ता तय करता है। इस प्रकार कहानीकार भी बहुत सी ज़मीन छोड़ता हुआ उछाल मार कर चलता है। “
स्पष्ट हो जाता है कि कहानी और उपन्यास के कथानक, उद्देश्य, संगठन, वातावरण और शैली में पर्याप्त अन्तर है। प्रेमचन्द के शब्दों में-
“कहानी के चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास सब एक ही भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भान्ति उसमें मानव जीवन का सम्पूर्ण वृहद् रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भान्ति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है। वह (कहानी) ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भांति-भांति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हों बल्कि एक गमला है जिनमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।”

2. एकांकी

एकांकी गद्य की लोकप्रिय विधा है। अपने आधुनिक रूप में यह इसी युग की देन है । गत चार दशकों में इतने पर्याप्त प्रगति की है। आज के व्यस्त जीवन में मानव कम-से-कम समय में मनोरंजन चाहता है अतः वह साहित्य की ऐसी विधा की कामना करता है जो अपने लघु कलेवर द्वारा मानव की ज्ञान पिपासा और मनोरंजन की भूख को शान्त कर सके।
डॉ० रामकुमार वर्मा के शब्दों में, “एकांकी में एक घटना होती है और वह नाटकीय कौशल से चरम सीमा तक पहुंचती है। प्रत्येक घटना कली की तरह खिलकर पुष्प की भांति विकसित होती है। उसमें लता के समान फैलने की उच्छृंखलता नहीं।” डॉ० नगेन्द्र जी एकांकी के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, “एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन मिलकर उसके एक पहलू, एक महत्त्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा एक उद्दीप्त क्षण का चित्रण मिलेगा। अतः उसके लिए एकता एवं एकाग्रता अनिवार्य है।” इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है-
(क) एकांकी में एक ही प्रमुख घटना होनी चाहिए।
(ख) एकांकी में बाहरी एवं आन्तरिक संघर्ष होना चाहिए।
(ग) एकांकी में संकलनत्रय का पालन होना चाहिए ।
(घ) कथावस्तु में प्रवाह और अभिव्यक्ति प्रवेग होना चाहिए ।
(ङ) एकांकी अभिनेय हो ।
(च) प्रभाव एवं वस्तु का एक्य होना चाहिए।
(छ) कौतूहल एवं जिज्ञासा एकांकी का प्राण तत्त्व है।

एकांकी की मुख्य विशेषताएं

एकांकी साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसका दिन-प्रतिदिन प्रचार एवं प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह आज के व्यस्त जीवन के अनुकूल है। एक सफल एकांकी में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है-
  1. एकांकी एक विचार, एक घटना अथवा विषय-वस्तु पर आधारित होना चाहिए। एकांकी में विस्तार की सम्भावना नहीं होती। एकांकीकार को कथावस्तु पात्र तथा संवाद आदि की योजना में मितव्ययता से काम लेना चाहिए। इसके लिए संकलनत्रय का निर्वाय अनिवार्य है।
  2. एकांकी में प्रवाह की एकता और घटनाओं की एकसूत्रता भी बनी रहनी चाहिए।
  3. कहानीकार को बड़ी कुशलता का परिचय देते हुए अपने एकांकियों में नाटकीय स्थिति पैदा करनी होती है। नाटक में यह स्थिति द्वन्द्व या संघर्ष से उत्पन्न होती है। द्वन्द्व अथवा संघर्ष एकांकी नाटक का अनिवार्य गुण है। इसके अभाव से सारा नाटक फीका पड़ जाता है। नाटक का विकास द्वन्द्व से होता है। यही कारण है कि एकांकीकार एकांकी रचना के लिए ऐसे कथानक का चयन करता है जिसमें पर्याप्त संघर्ष और द्वन्द्व हो । जिस एकांकी में कथा विकास के साथ अन्तर्द्वन्द्व भी निहित होता है उस एकांकी की गणना श्रेष्ठ एकांकियों में की जाती है ।
  4. प्रत्येक एकांकी में प्रारम्भ, उलझन, विकास, चरम सीमा एवं अन्त की योजना रहती है। एकांकी का प्रारम्भ विशेष आकर्षक होना चाहिए, एकांकी ऐसी नाटकीय परिस्थिति से आरम्भ होना चाहिए, जिसमें सम्बन्धित सूचनाएं कलात्मक ढंग से प्रस्तुत की जा सकें । जिज्ञासा एवं कौतूहल एकांकी के विशिष्ट गुण हैं। यह कौतूहल कथावस्तु के विकास के साथ-साथ संचित हो जाता है । दर्शक या पाठक एक तीव्र आवेश का अनुभव करता है। इसके साथ ही एकांकी अन्त की ओर बढ़ जाता है जहां रहस्य का उद्घाटन हो जाता है। जिज्ञासा तृप्त हो जाती है और कौतूहल शान्त हो जाता है। प्रारम्भ के समान ही एकांकी का अन्त भी महत्त्वपूर्ण होता है।
  5. एकांकी किसी-न-किसी लक्ष्य की ओर बढ़ता है । इस लक्ष्य के कारण ही नाटक समाप्ति पर पाठक या दर्शक के मन पर एक सुखद प्रभाव छोड़ जाता है।
  6. श्रेष्ठ एकांकी की एक विशेषता है कि वह अनेक का अपेक्षा एक ही प्रभाव की सृष्टि करता है। एकांकी में प्रभाव की एकता इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि उसमें जीवन के किसी एक ही पहलू, घटना, विचार अथवा समस्या का उद्घाटन किया जाता है।
  7. एकांकी मंच की वस्तु है । अतः अभिनेयता उसका अनिवार्य धर्म होना चाहिए। एकांकी की सफलता उसके अभिनय कौशल में ही छिपी रहती है। अभिनेयता की सफलता के लिए वातावरण निर्माण, रंग-निर्देश, छाया और प्रकाश का समुचित प्रयोग आवश्यक होता है।
  8. दृश्य-विधान की ओर भी लेखक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। एकांकी में एक भी दृश्य हो सकता है और एक से अधिक भी हो सकते हैं। अच्छे एकांकी में तीन से अधिक दृश्य नहीं होने चाहिए । तीन से अधिक दृश्यों वाला एकांकी पाठ्य अधिक और अभिनेय कम होता है। दृश्य योजना सरल होनी चाहिए।
  9. संवाद – योजना का भी अत्यधिक महत्त्व है। सफल एकांकीकार ऐसे संवादों की योजना करता है जो पात्र अभिनेयता को अभिनय-कौशल प्रदान करने का अवसर प्रदान करते हैं। संवाद संक्षिप्त, औचित्यपूर्ण, व्यंजनात्मक, मनोवैज्ञानिक, देशकाल और परिस्थिति के अनुरूप होने चाहिए।

3. आत्मकथा

अथवा

आत्मकथा का परिचय

आत्मकथा किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं लिखी गई अपनी जीवन कहानी है। इसमें लेखक अपनी आप बीती का वर्णन तथा उसकी व्याख्या करता है। आत्मकथा- लेखक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने गुणों के साथ-साथ अपने दोषों पर भी प्रकाश डालें पर ऐसा सब लेखक नहीं कर पाते। उनकी दृष्टि प्रायः अपने गुणों के बखान पर ही अधिक बल देती है। हाँ, महात्मा गाँधी जैसे कुछ आदर्श आत्म-कथा लेखक अपने गुणों के साथ-साथ अपने दोषों का भी निस्संकोच वर्णन करते हैं।
आत्मकथा लिखने के पीछे यही उद्देश्य रहता है कि पाठक लाभ उठा सके। आत्मकथा लेखक के अनुभव बड़े काम के होते हैं। उनसे पाठक लाभ उठाकर अपने जीवन को सही दिशा दे सकता है। इसके साथ ही आत्मकथा-लेखक के समय पर परिस्थितियों की जानकारी हो जाती है। दूसरे शब्दों में, गद्य की इस विधा से ऐतिहासिक जानकारी भी प्राप्त होती है।
आत्मकथा साहित्य का वास्तविक विकास आधुनिक युग की देन है। आधुनिक युग से पूर्व बनारसी दास जैन द्वारा विरचित ‘अर्द्ध-कथानक’ तथा गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित ‘बचितर नाटक’ नामक पद्यात्मक रचनाओं के रूप में इस विधा के दर्शन होते हैं। लेकिन गद्य में लिखित आत्मकथा परम्परा की पहली रचना स्वामी दयानन्द द्वारा रचित ‘आत्मचरित’ है।
भारतेन्दु युग में बहुत से साहित्यकारों ने आत्मकथात्मक रचनाएं लिखीं। इनमें कुछ उल्लेखनीय आत्मकथात्मक रचनाएं इस प्रकार हैं-
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र – कुछ आपबीती कुछ जगबीती ।
अंबिका दत्त – निज वृत्तान्त ।
श्रीधर पाठक – स्व-जीवनी ।
स्वामी श्रद्धानन्द – कल्याण मार्ग का पथिक ।
द्विवेदी युग की कुछ आत्मकथात्मक रचनाएं इस प्रकार हैं-
महावीर प्रसाद द्विवेदी – मेरी जीवन रेखा ।
रामचन्द्र शुक्ल – आत्म संस्मरण |
सत्यानन्द अग्निहोत्री – मुझे में दैवी जीवन का विकास ।
छायावादी युग में आत्मकथा साहित्य का अधिक विकास हुआ। श्री विनोद शंकर व्यास, विश्वंभर नाथ शर्मा ‘कौशिक’, राधे श्याम कथावाचक, भाई परमानंद, आचार्य रामदेव, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस आदि ने आत्मकथात्मक रचनाएं प्रस्तुत कीं।
छायावादोत्तर युग में इस विधा का तीव्र गति से विकास हुआ। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, अजित प्रसाद जैन, गंगा प्रसाद उपाध्याय, श्यामसुन्दर दास, वियोगी हरि, शांतिप्रिय, द्विवेदी, देवेन्द्र सत्यार्थी, सेठ गोबिन्द दास, वृन्दावन लाल वर्मा, हरिवंश राय ‘बच्चन’, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस युग में कुछ आत्मकथात्मक साहित्य का अनुवाद भी हुआ।

4. संस्मरण

जीवन की किसी महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन संस्मरण कहलाता है। संस्मरण साहित्य का धीरे-धीरे विकास हो रहा है। संस्मरण लेखक किसी घटना अथवा दृश्य की अपने मन पर पड़ी छाप को भावुकता में तन्मय होकर लिखता है। जिससे उसमें सरसता, मधुरता और मार्मिकता का गुण आ जाता है। संस्मरण कहानी से समता रखने के कारण रोचक बन जाता है। लेखक स्वयं भारी स्थिति को स्पष्ट करता चलता है। कहानी में लेखक कभी प्रत्यक्ष होकर बात करता है तो कभी पात्रों के माध्यम से बोलता है। इसके विपरीत संस्मरण लेखक को हमेशा पाठक के सामने रहना पड़ता इसमें लेखक अपनी प्रतिभा का समुचित प्रयोग करते हुए एक – एक शब्द गढ़कर उसे सुडौल बनाकर प्रस्तुत करता है जिससे रचना में कविता जैसा रस भर जाता है। संस्मरण में किसी व्यक्ति के जीवन की उसी घटना का चयन किया जाता है जो वास्तविकता के निकट और रोचक होती है। संस्मरण लेखक इतिहासकार के समान नहीं होता जिसे व्यक्ति के समग्र जीवन को अंकित करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अपने जीवन की किसी घटना को लिखना भी संस्मरण कहलाता है और दूसरे के जीवन की किसी महत्त्वपूर्ण घटना को लेकर उसे मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करना भी कहलाता है।
हिन्दी के प्रथम संस्मरण लेखक श्री पदमसिंह शर्मा हैं। हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध संस्मरण लेखक तथा उनकी रचनाओं का यहां उल्लेख करना उचित होगा ।
श्री राम शर्मा – ‘सन् 42 के संस्मरण ‘
सेठ गोबिन्ददास – ‘स्मृति के कण’
रामवृक्ष बेनीपुरी – ‘जंजीरें और दीवार’
महादेवी वर्मा -पथ के साथी’
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’-‘भूले हुए चेहरे’, ‘जिन्दगी मुस्कराई’
शिवरानी– ‘प्रेमचन्द घर में
विष्णुचन्द शर्मा – ‘इन लोगों के बीच में
कौशल्या ‘अश्क’ द्वारा सम्पादित –’अश्क : एक रंगीन व्यक्तित्व’
किशोरीदास वाजपेयी – ‘साहित्य जीवन के संस्मरण’
भगवती प्रसाद वाजपेयी – ‘महाप्राण निराला’
हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में भी संस्मरण प्रकाशित होते रहते हैं।

5. यात्रावृत्त

यात्रा जीवन का अनिवार्य क्रम है । इन यात्राओं के पीछे अलग-अलग उद्देश्य होते हैं । यात्रा सम्बन्धी रचनाओं का सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन में बड़ा महत्त्व है। हमारे देश में यात्रा करने की प्रवृत्ति तो बहुत पुरानी है पर उनके लिखित साहित्य का अभाव है। गद्य की अन्य विधाओं के साथ यात्रावृत्त का भी पहला सोपान भारतेन्दु युग है। यात्रावृत्त लेखकों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, श्रीमती हरदेवी, भगवान् दास शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
द्विवेदी युग में ठाकुर गंगाधर सिंह, स्वामी सत्यदेव परिवाजक, शिव प्रसाद गुप्त आदि ने स्वदेश विषयक यात्रा वृत्त अधिक लिखे।
छायावादी युग में रामनारायण मिश्र, गणेश नारायण सोमानी, कन्हैयालाल मिश्र, सेठ गोबिन्द दास आदि उस विधा के उल्लेखनीय लेखक हैं ।
छायावादोत्तर युग में इस विधा का पर्याप्त विकास हो गया । इस विधा के प्रमुख लेखकों में राहुल सांस्कृत्यायन, सेठ गोबिन्द दास, बनारसी दास चतुर्वेदी, यशपाल, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, राम वृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, मोहन राकेश आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

6. रेखाचित्र

रेखाचित्र हिन्दी-साहित्य की एक नवीन गद्य-विधा है। वैसे तो प्राचीन काल के साहित्य में व्यक्तियों, दृश्यों एवं पशु-पक्षियों से सम्बन्धित कुछ रेखाचित्र उपलब्ध होते हैं, पर उनमें आजकल के रेखाचित्रों के गुण का सर्वथा अभाव है। अतः रेखाचित्र आधुनिक युग की देन है। इससे किसी व्यक्ति, स्थान अथवा पदार्थ को भावमयता के विभिन्न रेखाचित्रों में अंकित किया जाता है। लेखक पदार्थ अथवा प्राणी का चित्रण इस कुशलता के साथ करता है कि वह पाठक के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है। रेखाचित्र में लेखक की तन्मयता एवं गहरी अनुभूति निहित रहती है। जिस लेखक में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, वह रेखाचित्र लिखने में उतना ही सफल रहता है। महादेवी वर्मा और बेनीपुरी इस दिशा में विशेष सफल रहे हैं। महादेवी जी ने उपेक्षित एवं तिरस्कृत दीन-दुःखियों पर बहुत मार्मिक रेखाचित्र लिखे हैं।

हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध रेखाचित्रकार

श्री राम शर्मा-‘बोलती प्रतिमा’
श्रीमती महादेवी वर्मा – ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएं’
बेनीपुरी – ‘माटी की मूरतें’, ‘मील के पत्थर’
मील के पत्थर में बेनीपुरी जी ने अनेक महापुरुषों के रेखाचित्र लिखे हैं।
देवेन्द्र सत्यार्थी – ‘रेखाएं बोल उठीं’
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर – ‘माटी हो गई सोना’
श्री बनारसी दास चतुर्वेदी, प्रकाशचन्द्र गुप्त, महाप्राण निराला, डॉ० नगेन्द्र, जगदीशचन्द्र माथुर आदि लेखकों ने भी अपने रेखाचित्र लिखे हैं ।
प्रश्न – रेखाचित्र और कहानी में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – रेखाचित्र और कहानी में कालगत अंतर के साथ प्रस्तुती में बड़ा अंतर है। रेखाचित्र को आधुनिक साहित्यिक विधा माना जाता है जबकि कहानी की कहानी तो अति प्राचीन है। कहानी में घटनाओं और आकस्मिकता का तीव्र गति से चलने वाला लेखा-जोखा होता है जबकि रेखाचित्र में लेखक की गहरी भावानभूति, तन्मयता और मानसिक कोमलता छिपी रहती है। जिस लेखक में भावानुभूति की जितनी अधिक तीव्रता होती है वह उतना ही अच्छा रेखाचित्र बन जाता है। कहानी में जिज्ञासा और कौतूहल का अधिक पुट विद्यमान रहता है । रेखाचित्र में अनुभूति की प्रधानता और विशेष भावपूर्ण शब्दावली की अधिकता होती है।

7. जीवनी

हिन्दी-साहित्य में जीवनी – साहित्य की परम्परा भक्तिकाल से मिलती है । नाभादास द्वारा रचित ‘भक्तमाल’, गोसाईं गोकुलनाथ विरचित ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता इस दिशा में प्रथम प्रयास कहे जा सकते हैं। इनमें संख्याओं के अनुरूप ही अनेक वैष्णव भक्तों के चरित्र अंकित किए गए हैं। हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखन में इन ग्रंथों का योगदान महत्त्वपूर्ण है । इसके बाद बेणीमाधव दास द्वारा रचित ‘गोसाईं चरित’ नामक जीवनी उपलब्ध होती है। अकबर-काल के एक कवि बनारसीदास ने ‘अर्द्ध कथानक’ नाम से अपनी आत्मकथा को भी पद्यबद्ध किया था। इन्हें विशुद्ध जीवनी साहित्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। इनका महत्त्व जीवनी लेखन की मात्र एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है।
साहित्य की अन्य अनेक आधुनिक विधाओं के समान जीवनी – साहित्य के स्वस्थ एवं समग्र स्वरूप की सर्जना का आरम्भ भी भारतेन्दु-युग से माना जा सकता है। इस दिशा में भारतेन्दु जी की दो रचनाओं के नामोल्लेख किए जाते हैंचरितावली और पंच पवित्रात्मा । पहली में विक्रम, कालिदास, रामानुज, जयदेव, सूरदास, राजाराम शास्त्री, मिस मेयो, रिपन आदि की संक्षिप्त जीवनियां अंकित की गई हैं। दूसरी में इस्लाम के प्रवर्तकों एवं संवर्धकों का चरित्रांकन किया गया है। इसके बाद काशीनाथ खत्री का नाम आता है। इन्होंने अपनी रचना ‘भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के जीवनचरित्र’ में स्वस्थ ढंग से अनेक महत्त्वपूर्ण नारियों के चरित्रांकन किए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, मीराबाई, विक्रमादित्य, बिहारी, सूरदास और आहल्याबाई आदि के भी प्रशस्त जीवन-चरित्र अनेक पुस्तकों में चित्रित किए हैं।
भारतेन्दु युग के अन्य लेखकों ने भी इस दिशा में विशेष प्रयत्न किए थे। जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ ने ‘पोप कवि का चरित’, प्रतापनारायण मिश्र ने ‘चरकिताष्टक, बालमुकुन्द गुप्त ने ‘हरिदास गुरयानी’ और प्रताप नारायण मिश्र का जीवनचरित्र, राधाकृष्णदास-विरचित ‘आद्य चरितामृत’, रमाशंकर व्यास की रचना, ‘नेपोलियन बोनापार्ट का चरित्र’, गोकुलनाथ शर्मा द्वारा विरचित ‘देवी सहाय चरित्र’ आदि इस विधा की प्रमुख रचनाएं हैं। यह परम्परा यहीं समाप्त नहीं हो गई, आगे भी निरन्तर चलती रही। आगे चलकर अयोध्यासिंह उपाध्याय ने ‘चरितावली’ का सृजन किया। मुन्शी देवीप्रसाद ने महाराजा मानसिंह कछवाह, राजा मालदेव, अकबर और बीरबल के चरित्र चित्रित किए। सन् 1901 में पं० अम्बिकादत्त व्यास ने ‘निज वृत्तान्त’ नाम से अपनी जीवनी लिखने का प्रयास भी किया था जो कि उस समय नितान्त नवीन प्रयास होने पर भी प्रशस्य माना गया है। इसके अतिरिक्त डॉ० विजयेन्द्र स्नातक तथा डॉ० लक्ष्मीसागर वार्णेय ने गार्सा द तॉसी के ‘हिन्दुस्तानी इतिहास’ और शिवसिंह सरोज द्वारा रचे गए इतिहास ग्रंथों की गणना भी जीवनी साहित्य के अंतर्गत ही की है।
जीवनी – साहित्य का सम्यक् विकास परवर्ती युगों में ही हो पाया है। इस दिशा में बनारसीदास चतुर्वेदी के प्रयत्न विशेष सराहनीय हैं। इन्होंने ‘भारत – भक्त ऐण्ड्रयूज’ तथा ‘कवि सत्यनारायण की जीवनी’ जैसे तथ्यों पर आधारित, अनुसंधानात्मक, सारगर्भित जीवनियां प्रस्तुत कीं। सरदार पूर्ण सिंह द्वारा विरचित ‘स्वामी रामतीर्थ की जीवनी’ पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। सीयाराम चतुर्वेदी ने ‘महामना मालवीय जी की जीवनी’ रची। विष्णु प्रभाकर कृत ‘अवारा मसीहा एक विशेष उपलब्धि कही जा सकती है। इसमें शरत्चन्द्र चटर्जी की जीवनी का व्यापक चित्रण हुआ है। इधर जीवनी-मूलक उपन्यासों की रचना की प्रक्रिया ने भी खूब वृद्धि की है। इस प्रकार के सर्जकों में राजेश शर्मा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार के प्रयास बाल – किशोर पाठकों के लिए विशेष रूप से किए गए हैं ।
इधर और कई विशुद्ध जीवनियां भी प्रकाश में आई हैं। कुछ नाम उल्लेखनीय हैं- वियोगी हरि विरचित ‘एक पावन चरित’, ओंकार शरद् – रचित ‘गोर्की’ और ‘इंदिरा गांधी’, कमल शुक्ल रचित ‘ताराबाई’, भोलानाथ तिवारी-रचित ‘अमीर खुसरो’, विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित ‘हम इनके ऋणी हैं’ आशारानी व्होरा रचित ‘भारत-सेवी विदेशी नारियां’, जैनेन्द्ररचित ‘अकाल पुरुष गांधी’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ रचित ‘युग-पुरुष’, रामनिवास जाजू – विरचित ‘मरुभूमि का वह मेघ’ हंसराज रहबर विरचित ‘राष्ट्रनायक गुरु गोबिन्द सिंह’ आदि ।

जीवनी और रेखाचित्र में अन्तर

जीवनी और रेखाचित्र में काफ़ी बड़ा अन्तर है। चाहे ये दोनों गद्य में लिखी जाने वाली विधाएं हैं और इनमें कथा तत्त्व की प्रधानता होती है पर दोनों की प्रस्तुति में स्पष्ट अन्तर होता है । जीवनी किसी जाने-माने व्यक्ति की जीवन कथा पर आधारित होती है और इसमें समाज के क्रमानुसार सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं को कथा सूत्र में पिरोया जाता है। हिन्दी साहित्य में जीवनी साहित्य की परम्परा भक्तिकाल से मिलती है। नाभादास द्वारा रचित ‘भक्तमाल’, गोसाईं गोकुलनाथ विरचित ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता इस दिशा में प्रथम प्रयास कहे जा सकते हैं। इनमें संख्याओं के अनुरूप ही अनेक वैष्णव भक्तों के चरित्र अंकित किए गए हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में इन ग्रन्थों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। इसके बाद बेणीमाधव दास द्वारा रचित ‘गोसाईं चरित’ नामक जीवनी उपलब्ध होती है। लेकिन साहित्य की अन्य अनेक आधुनिक विधाओं के समान जीवनी – साहित्य के स्वस्थ एवं समग्र स्वरूप की सर्जना का आरम्भ भी भारतेन्दु युग से माना जा सकता है। इस दिशा में भारतेन्दु जी की दो रचनाओं के नामोल्लेख किए जाते हैं—चरितावली और पंच पवित्रात्मा । पहली में विक्रम, कालिदास, रामानुज, जयदेव, सूरदास, राजाराम शास्त्री, मिस मेयो, रिपन आदि की संक्षिप्त जीवनियां अंकित की गई हैं। दूसरी में इस्लाम में प्रवत्तकों एवं संवर्धकों का चरित्रांकन किया गया है। इसके बाद काशीनाथ खत्री का नाम आता है। उन्होंने अपनी रचना ‘भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के जीवन-चरित्र’ में स्वस्थ ढंग से अनेक महत्त्वपूर्ण नारियों के चरित्रांकन किए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, मीराबाई, विक्रमादित्य, बिहारी, सूरदास और अहल्याबाई आदि के भी प्रशस्त जीवन-चरित्र अनेक पुस्तकों में चित्रित किए हैं।
रेखाचित्र में चरित्र की बाहरी विशेषताओं की झलक प्रस्तुत की जाती है। इसे शब्द चित्र भी कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसका नाम ‘स्केच’ है । ‘रेखाचित्र’ में किसी व्यक्ति, वस्तु घटना या भाव का कम-से-कम शब्दों में सजीव अंकन किया गया है। लेखक कम-से-कम शब्दों में किसी व्यक्ति या वस्तु की मुख्यतः विशेषता को उभार देता है। रेखाचित्रकार शब्दों और वाक्यों के संकेतों से कुछ कह डालता है। रेखाचित्रकार घटनाओं और परिस्थितियों का उतनी मात्रा में अंकन करता है, जिससे वह उसकी चारित्रिक रेखाओं को उभारने में सहायता प्रदान कर सके। केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किसी का रेखाचित्र नहीं बनाया जा सकता। सम्बन्धित व्यक्ति या वस्तु के साथ हमारा घनिष्ठ सम्बन्ध होना अनिवार्य है। अतः रेखाचित्रकार के लिए मर्मभेदी दृष्टि का होना आवश्यक है। रेखाचित्र में किसी व्यक्ति अथवा वस्तु की विशिष्टताओं का प्रभावशाली ढंग से चित्रण किया जाता है।

उपन्यास की कथावस्तु

कथावस्तु उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि यह उपन्यास का आधार अथवा नींव मानी जाती है। एक श्रेष्ठ कथावस्तु मौलिक होनी चाहिए। कथावस्तु को रोचक बनाने के लिए उसमें घटनाओं को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाए कि पाठक की उत्सुकता बनी रहे। समस्त घटनाएँ परस्पर सुसंगठित भी होनी चाहिए तथा इन्हें कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। कथावस्तु सें सम्भवता का गुण होना चाहिए तभी वह जीवन के निकट लगती है। इसलिए कहा जाता है कि उपन्यास कल्पना प्रधान रचना न होकर मानव जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति होता है।

नाटक और एकांकी में अंतर

नाटक और एकांकी में बहुत अंतर है। नाटक में जीवन का विस्तार, लंबाई एवं परिधि का विस्तार जीवन के समान ही विस्तृत होता है। एकांकी का क्षेत्र सीमित, परिधि संकुचित तथा जीवन के किसी एक पक्ष का ही चित्रण होता है। नाटक में जीवन की बहुलता, अनेकरूपता तथा घटना बाहुल्य होता है, जबकि एकांकी में एकरूपता, एक समस्या, एक पहलू तथा मानव जीवन एक झाँकी मात्र होती है। नाटक में कथानक जटिल, अनेक पात्र, अधिक समय, विस्तृत कार्य व्यापार आदि होते हैं, परन्तु एकांकी का कथानक सरल, कम पात्र, कम समय, संक्षिप्त कार्य व्यापार आदि होते हैं। एकांकी में संकलनत्रय का निर्वाह आवश्यक है जबकि नाटकों में ऐसा नहीं होता है। नाटक के संवाद लंबे, विवेचना प्रधान, ‘स्वगत’ भी होते हैं, किन्तु एकांकी के संवाद संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी तथा चरित्र की विशेषताओं को प्रकट करने वाले होते हैं।

हिंदी कथा का साहित्य

कथा साहित्य को कहानी के नाम से भी जाना जाता है। आधुनिक कहानी का जन्म ईसा की बीसवीं शताब्दी के साथ आरंभ होता है। वेदों, उपनिषदों, संस्कृत और बौद्ध जातकों में अनेक कहानियां देखने को मिलती हैं। आलोचक इंशा अल्ला खां की ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिंदी की सर्वप्रथम कहानी मानते हैं। इसके बाद राजा शिव प्रसाद की कहानी ‘राजा भोज का सपना’ और भारतेंदु की हास्यरस प्रथम कहानी ‘अद्भुत अपूर्व सपना’ सामने आई लेकिन इनमें भी लेखकीय दृष्टिकोण का अभाव है। सन् 1900 में सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ और तब अनेक कहानियां उसमें छपीं। अनेक विद्वानों ने किशोरीलाल की ‘इंदुमती’ को हिंदी की प्रथम कहानी माना। कुछ आलोचकों ने बंग महिला की ‘दुलाई वाली’ को हिंदी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी सिद्ध है।

भक्तिकाल की पृष्ठभूमि

हिंदी-साहित्य का भक्तिकाल वि० सं० 1350 से 1700 तक माना जाता है। राजनीतिक दृष्टि से यह समय तुग़लक, लौधी और मुगल साम्राज्य का था, जिस में देश पर कई आक्रमण हुए तथा देश की सामान्य जनता को अकथनीय अत्याचार सहन करने पड़े। मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद हिन्दू मुस्लिमों में आदान-प्रदान प्रारंभ हो गया। धार्मिक दृष्टि से बौद्ध एवं वैष्णव धर्म की प्रधानता हुई। राम, कृष्ण की भक्ति के साथ ही संतों ने निर्गुण भक्ति तथा सूफ़ियों ने प्रेमभक्ति का प्रचार-प्रसार किया। सांस्कृतिक रूप से इस काल में समन्वय भावना को प्रोत्साहित किया गया तथा भक्ति, ज्ञान, कर्मज्ञ और योग को समन्वित कर विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर मिल-जुल कर चलने की परंपरा प्रारंभ की गई।

कविता के भाव तत्व और शैली तत्व

(क) भाव-तत्व – कविता में भाव-तत्त्व का संबंध सहृदयता और संवेदनात्मकता से है। कवि अपनी निरीक्षण शक्ति द्वारा संसार का अध्ययन करता है और अपनी उर्वर कल्पना शक्ति के माध्यम से उस अध्ययन को अनुभूतियों का रूप प्रदान कर काव्य-सृजन करता है, जिसे पढ़ कर पाठक के हृदय में रस का संचार होता है। सफल रचना वही मानी जाती है जो भावानुभूति को ‘रस’ का सशक्त और मोहक रूप प्रदान करने में सक्षम होती है। रस-दशा ही चरम आनंद की प्राप्ति का क्षण है। इसलिए भाव को कविता का प्रमुख तत्व मानते हैं।
(ख) शैली – तत्व-शैलीकाव्य का मूर्त रूप है। कवि भावों के अनुरूप भाषा का चयन कर उसे रीतियों के अनुसार संगठित कर, गुणों के अनुसार सशक्त बना तथा अलंकारों से सजा कर कविता का रूप देता है। यदि भाव कविता की आत्मा है तो शैली उस का शरीर है । इस प्रकार कवि के अमूर्त भावों को आकर्षक मूर्त रूप प्रदान करने का कार्य शैली तत्व का है।

कहानी की पृष्ठभूमि

कहानी का उद्भव भारतेंदु युग से माना जाता है जबकि कहानी कहने-सुनने की परंपरा आदिकाल से ही चली आ रही है। इंशा अल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ राजा शिव प्रसाद सिंह की ‘राजा भोज का सपना’ तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित ‘अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ ‘हिंदी की प्रारंभिक कहानियाँ हैं परंतु किशोरी लाल गोरस्वामी की ‘इंदुमती’ को हिंदी की प्रथम कहानी मानते हैं जो ‘सरस्वती’ में सन् 1900 ई० में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद कहानी लेखक की परंपरा में रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित ‘ग्यारह वर्ष का समय’, बेग महिला की ‘दुलाई वाली’ प्रमुख कहानियाँ हैं। जयशंकर प्रसाद की ‘ग्राम्या’ प्रेमचंद की ‘पंचपरमेश्वर’, ‘ईदगाह’, ‘नमक का दरोगा’, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था’, सुदर्शन की ‘हार की जीत’ आदि हिंदी की श्रेष्ठ कहानियाँ मानी जाती हैं। जैनेंद्र कुमार, इलाचंद्र जोशी, उपेंद्रनाथ अश्क, यशपाल आदि ने कहानी लेखन को सुदृढ़ किया है। आधुनिक कथाकारों में अज्ञेय, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, शिवानी, फणीश्वरनाथ रेणु, ममता कालिया, नरेश मेहता, ज्ञान रंजन आदि प्रमुख नाम हैं जो कहानी का स्वरूप दिन प्रतिदिन निखार रहे हैं।

कहानी के तत्वों के नाम गिनाते हुए किन्हीं दो तत्वों का संक्षेप में वर्णन

कहानी के छः तत्व – कथावस्तु, चरित्र चित्रण, संवाद, देशकाल, उद्देश्य और शैली-शिल्प माने जाते हैं। इनमें से दो तत्वों का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
(क) कथावस्तु – कथावस्तु कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है क्योंकि इसके अभाव में कहानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथावस्तु विभिन्न घटनाओं का जाल होती है जिसे रचनाकार कहानी के प्रारंभ, विकास, द्वंद्व तथा चरमसीमा द्वारा समुचित रूप से ढाल कर प्रस्तुत करता है। कथावस्तु मानव मन की आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम होनी चाहिए।
(ख ) चरित्र-चित्रण – कहानी विभिन्न पात्रों पर आधारित होती है क्योंकि इसके अभाव में कथावस्तु का विकास संभव नहीं है। कहानी में विभिन्न प्रवृत्तियों के पात्रों का चित्रण होता है जो कहानी को स्वाभाविक तथा यथार्थ बनाते हैं। कहानी में पात्रों के जीवन का कोई एक पक्ष ही उजागर होता है। कहानी में पात्रों का चरित्र चित्रण पात्रों के क्रियाकलापों, संवादों तथा रचनाकारों की टिप्पणियों द्वारा होता है।

जीवनी और आत्मकथा में अंतर

जीवनी में किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के जीवन का विवरण लिखा जाता है। जीवनी प्रायः सुप्रसिद्ध व्यक्तियों की लिखी जाती है जो अपने कार्यक्षेत्र में अग्रणी होते हैं। जीवनी लेखक जिसकी जीवनी लिखता है उसे उस व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों की पूरी जानकारी होती है। इसके विपरीत आत्मकथा में व्यक्ति स्वयं अपने अतीत और वर्तमान के संबंध में लिखता है। इसमें वह अपने गुण-अवगुणों आदि का यथार्थ वर्णन करता है। इस प्रकार जीवनी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा रचित होती है जबकि आत्मकथा लेखक की स्वयं लिखी हुई रचना होती है। जीवनी में तथ्यों की पुष्टि लेखक उपलब्ध सामग्री के आधार पर करता है जबकि आत्मकथा में लेखक स्वयं ही अपने विषय में तथ्य प्रस्तुत करता है।

कहानी

कहानी मानव जीवन का आवश्यक अंग है जो उतनी ही पुरानी है जितना मानव जीवन कहानी के संबंध में विभिन्न विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं के आधार पर कह सकते हैं कि “कहानी एक ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक ऐसे पक्ष, अंग अथवा मनोभाव को प्रदर्शित किया जाता है, जो पाठक को भाव-विभोर कर रससिक्त करने में समर्थ होती है।
बिना उद्देश्य के संसार में कोई कार्य नहीं होता, इसलिए कहानी भी किसी न किसी उद्देश्य को लेकर लिखी जाती है। कहानी मनोरंजन करने के साथ ही मानव-चरित्र पर प्रकाश डालती है और किसी न किसी समस्या पर आधारित होने के कारण उसका समाधान भी प्रस्तुत करती है। इसके जीवन का यथार्थ तथा स्वाभाविक चित्रण रहता है। यह जीवनी को दिशा प्रदान करती है।

हिंदी उपन्यास एवं नाटक का विकास

(I) हिंदी उपन्यास का विकास
उपन्यास – हिंदी उपन्यास का विकास आधुनिक काल की देन है। उपन्यास का अर्थ है- उप (निकट) और न्यास ( रखा हुआ)। इस पर यूरोपीय साहित्य का सीधा प्रभाव है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि भारत में उपन्यास जैसी किसी वस्तु की सत्ता पहले थी ही नहीं। संस्कृत साहित्य में हितोपदेश, पंचतंत्र, दशकुमारचरित, कादंबरी आदि ग्रंथों का इसी श्रेणी में पहले विकास हो चुका था। कुछ विद्वान् कादंबरी को भारत का पहला उपन्यास मानते हैं, पर आधुनिक आधारों पर इसे पूर्ण उपन्यास नहीं माना जा सकता।
यूरोप में उपन्यास साहित्य का विकास रोमांटिक कथा-साहित्य से हुआ है और यह अवश्य ही भारतीय प्रेमाख्यानों से प्रभावित हुआ होगा। भारत में जो क्षेत्र अंग्रेज़ी प्रभाव में पहले आए हैं, वहां उपन्यासों का प्रचलन कुछ पहले हुआ। बंगाल में उपन्यासों की रचना हिंदी से पहले हुई। अतः हिंदी उपन्यास पर बंगला उपन्यासों का प्रभाव अवश्य ही पड़ा। हिंदी साहित्य में उपन्यास का उद्भव भारतेंदु काल से हुआ पर इस परंपरा में मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे केन्द्र बिंदु हैं जिनके दोनों ओर उपन्यास साहित्य की भिन्न-भिन्न रेखाएं स्पष्ट दिखाई देने लगी थीं। इनसे पहले हिंदी साहित्य में आचारनीति, धर्म, उपदेश और सुधार संबंधी उपन्यास लिखे गए जिनका जन-जीवन से कोई संबंध नहीं था। प्रेमचंद ने युग प्रवर्तक का कार्य किया। अतः हिंदी उपन्यास की विकास परंपरा को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पूर्व प्रेमचंद युग, प्रेमचंद युग और प्रेमचंदोत्तर युग ।
(II) हिंदी नाटक का विकास
नाटक – हिंदी में प्रायः नाटक का उद्भव और विकास 19वीं शताब्दी से स्वीकार किया जाता है लेकिन डॉ० दशरथ ओझा ने नाटक को 13वीं शताब्दी से स्वीकार करते हुए ‘सुकुमार रास’ को पहला हिंदी नाटक माना है। उन्होंने मैथिली नाटकों, रासलीला तथा अन्य पद्यबद्ध नाटकों की चर्चा करते हुए मिथिला के नाटकों को हिंदी के प्राचीनतम नाटक माना है। इनमें नाटकीय तत्वों का समावेश उपलब्ध हो जाता है। विद्यापति ने भी कई नाटकों की रचना की थी जिनका गद्य भाग संस्कृत में और पद्य भाग मैथिली में है। मैथिली नाट्य परंपरा का प्रभाव नेपाल, असम तथा उड़ीसा की भाषाओं पर भी पड़ा। रासलीला में नृत्य, जीत और कविताओं की प्रधानता रहती है। 17वीं शताब्दी में भी अनेक पद्यबद्ध नाटकों की रचना हुई और यह परंपरा 19वीं शताब्दी तक चलती रही।

रेखाचित्र और संस्मरण में अंतर

रेखाचित्र में किसी व्यक्ति, स्थान अथवा पदार्थ को भावमयता के विभिन्न शब्दों से इस प्रकार अंकित किया जाता है कि वह पाठक के सम्मुख प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हो जाता है। इसमें लेखक की तन्मयता एवं गहरी अनुभूति निहित रहती है। इसके विपरीत संस्मरण में लेखक किसी व्यक्ति, घटना अथवा दृश्य का अपने मन पर पड़े प्रभाव को तन्मयतापूर्वक लिखता है। इसके लेखन में भी लेखक को भावुकता, सरसता, मधुरता एवं मार्मिकता का पूरा ध्यान रखना होता है। संस्मरण काल्पनिक न होकर वास्तविकता के निकट तथा रोचक होता है।
प्रश्न 1. संस्मरण तथा एकांकी में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – संस्मरण तथा एकांकी में बहुत अंतर है। संस्मरण में लेखक किसी घटना अथवा दृश्य की अपने मन पर पड़ी छाप को भावुकता में तन्मय होकर लिखता है जबकि एकांकी का क्षेत्र सीमित, परिधि संकुचित तथा जीवन के किसी एक पक्ष का ही चित्रण होता है। अपने जीवन की किसी घटना को लिखना भी संस्मरण कहलाता है। एकांकी में संकलनत्रय का निर्वाह आवश्यक है। एकांकी में एकरूपता, एक समस्या, एक पहलू तथा मानव जीवन की एक झाँकी मात्र होती है।
प्रश्न 2. कहानी और उपन्यास में अंतर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – बिना उद्देश्य के संसार में कोई कार्य नहीं होता, इसलिए कहानी भी किसी न किसी उद्देश्य को लेकर लिखी जाती है। कहानी मनोरंजन करने के साथ ही मानव-चरित्र पर प्रकाश डालती है और किसी न किसी समस्या पर आधारित होने के कारण उसका समाधान भी प्रस्तुत करती है । इसे जीवन का यथार्थ तथा स्वाभाविक चित्रण रहता है। यह जीवनी को दिशा प्रदान करती है ।
जबकि कथावस्तु उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि यह उपन्यास का आधार अथवा नींव मानी जाती है। एक श्रेष्ठ कथावस्तु मौलिक होनी चाहिए  कथावस्तु को रोचक बनाने के लिए उसमें घटनाओं को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाए कि पाठक की उत्सुकता बनी रहे । समस्त घटनाएँ परस्पर सुसंगठित भी होनी चाहिए तथा इन्हें कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। कथावस्तु में सम्भवता का गुण होना चाहिए तभी वह जीवन के निकट लगती है। इसलिए कहा जाता है कि उपन्यास कल्पना प्रधान रचना न होकर मानव जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति होता है ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. उपन्यास के कितने तत्व माने जाते हैं ?
उत्तर – पाँच ।
प्रश्न 2. एकांकी में कितने अंक होते हैं ?
उत्तर – एक ।
प्रश्न 3. जीवनी का संबंध किससे है ?
उत्तर – जीवन से ।
प्रश्न 4. रेखाचित्र को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
उत्तर – स्केच (Sketch)।
प्रश्न 5. ‘भक्तमाल’ किस विधा की रचना है ?
उत्तर – जीवनी |
प्रश्न 6. भक्तमाल के लेखक कौन हैं ?
उत्तर – नाभादास ।
प्रश्न 7. भक्तिकाल की चार शाखाओं के नाम लिखिए।
उत्तर – संत काव्य, सूफ़ी काव्य, राम काव्य और कृष्ण काव्य |
प्रश्न 8. तुलसीदास किस काव्यधारा के कवि हैं ?
उत्तर – राम काव्यधारा ( सगुण भक्ति ) ।
प्रश्न 9. हिंदी – साहित्य के दो कालों के नाम लिखिए।
उत्तर – भक्तिकाल और रीतिकाल ।
प्रश्न 10. हिंदी – साहित्य के इतिहास को कितने कालों में बांटा गया है ?
उत्तर – चार – आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल ।
प्रश्न 11. हिंदी साहित्य के सभी कालों के नाम और सीमा लिखिए।
उत्तर – आदिकाल – सन् 800 से 1400 ई० तक
भक्तिकाल – सन् 1400 से 1600 ई० तक
रीतिकाल – सन् 1600 से 1800 ई० तक
आधुनिक काल – सन् 1800 ई० से आज तक ।

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