JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 5 अलंकार तथा छंद

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 5 अलंकार तथा छंद

JKBOSE 10th Class Hindi Solutions chapter – 5 अलंकार तथा छंद

Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 10th Class Hindi Solutions

(क) अलंकार – अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति ।
(ख) छन्द – सोरठा, दोहा, चौपाई, सवैया, कवित्त ।
नोट – अलंकारों और छन्दों के लक्षण नहीं पूछे जाएंगे। केवल उदाहरण कविता के पदों में पहचाना या उदाहरण देना आवश्यक होगा।

छन्द

1. छन्द से सम्बन्धित कुछ सामान्य बातें।
2. छन्द की रचना अथवा छन्द के अनिवार्य अंग ।
3. छन्द के प्रकार।

छन्द से सम्बन्धित कुछ सामान्य बातें

पद्य, छन्द, गीत, कविता – ये प्रायः समानार्थक शब्द हैं।
पद्य (छन्द) अथवा कविता का इतिहास अधिक प्राचीन है। संस्कृत साहित्य की प्राचीनतम रचना ऋग्वेद, छन्दों में ही रची गई है। इससे स्पष्ट होता है कि छन्द आदि मानव के भावों की अभिव्यक्ति का आदिम साधन है। छन्द में एक अद्भुत आकर्षण है। छन्द अथवा पद्य बद्ध रचना शीघ्र कंठस्थ हो जाती है और वह चिरकाल तक याद भी रहती है। गीत हमें कितनी शीघ्र याद हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि पद्य में मात्रा, वर्ण विराम गति, लय, स्वर और तुक आदि नियमों का पालन होता है, संगीत तत्व के गुण से युक्त होने के कारण छन्द सहज ही याद हो जाता है। मानवीय हर्ष, शोक, प्रेम एवं घृणा आदि की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम साधन भी छन्द ही है।
मानव ही नहीं पशु-पक्षी तक कविता, पद्य, छन्द की लय पर मुग्ध हो जाते हैं। विषधर (सांप) बीन की मधुर आवाज़ पर मुग्ध होकर कुछ देर के लिए अपने स्वभाव को ही भूल जाता है। हिरण तो संगीत के लिए अपने प्राण दे देता है। गीत और संगीत अभिन्न हैं। छन्द अजर-अमर होने के कारण प्राचीन काल से मानवीय सम्पत्ति के रूप में सुरक्षित रहे हैं। छन्द का प्रभाव हृदय एवं मस्तिष्क दोनों पर पड़ता है।
छन्द शब्द छिदि धातु से बना है जिसका अर्थ है ढकना । छन्दों की उपयोगिता ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ में एक रूपक द्वारा इस प्रकार स्पष्ट की गई है, “देवताओं ने मौत से डरकर अपने आपको (अपनी रचनाओं को) छन्द में ढांप लिया।” यह भी कहा गया है “कलाकार और कलाकृति को छन्द अपमृत्यु (शीघ्र मृत्यु) से बचा लेता है।” सामान्य अर्थ में कहा जा सकता है कि छन्द कविता-कामिनी के शरीर को ढकने का साधन है। जिस प्रकार नग्न शरीर शोभा नहीं देता, उसी प्रकार छन्द विहीन रचना भी शोभा नहीं देती। छन्द एक प्रकार से सांचा है जिसमें भाव ढलकर सुन्दर एवं आकर्षक रूप धारण करते हैं। अत: “जिस रचना में अक्षरों मात्राओं, यति, गति, तुक आदि नियमों का पालन हो, उसे छन्द कहते हैं । “

छन्द की रचना

पाद या चरण-
प्रत्येक छन्द में प्रायः चार चरण या पाद होते हैं। चरण की रचना निश्चित वर्णों (अक्षरों) या मात्राओं के अनुसार होती है।
कुछ छन्दों में होते तो चार चरण हैं पर वे लिखे दो पंक्तियों में जाते हैं।
उदाहरणार्थ – दोहा, सोरठा एवं बरवै ।
चौपाई के चार पाद होते हैं जो प्राय: दो पंक्तियों में लिखे जाते हैं।
कुछ छन्दों में चरण होते हैं जैसे कुण्डलिया तथा छप्पय |
छन्द के चार चरणों में पहले और तीसरे पाद को विषम पाद तथा दूसरे और चौथे को सम पाद कहते हैं –
1        2 I
3 ,     4 II
1, 3 = विषम पाद
2, 4 = सम पाद
वर्ण और मात्रा –
वर्ण – वह छोटी-से-छोटी ध्वनि जिसके टुकड़े न हो सकें, उसे वर्ण या अक्षर कहते हैं । वर्णों की गणना करते समय वर्ण चाहे ह्रस्व हो चाहे, दीर्घ, उसे एक ही माना जाएगा।
जैसे – नद, नाद, नदी इन तीनों शब्दों में दो-दो वर्ण हैं।
मात्रा- – अक्षर या वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं । मात्राओं को गिनते समय लघु स्वर की एक मात्रा तथा दीर्घ स्वर की दो मात्राएं मानी चाहिये।
उदाहरणार्थ-
क = एक मात्रा
का = दो मात्राएं
काज = तीन मात्राएं
काजल = चार मात्राएं
लघु और गुरु परिचय
लघु – एक मात्रा वाला अक्षर लघु अक्षर कहलाता है। इसके लिए यह चिह्न (।) प्रयुक्त होता है । ।
।      ।      ।
जैसे – कमल ।
गुरु — दो मात्राओं वाला अक्षर गुरु कहलाता है । इसके लिये यह चिह्न (ऽ) प्रयुक्त होता है ।
ऽ    ऽ
जैसे – का ला
यति — यति का अर्थ है विराम या विश्राम | कविता अथवा छन्द को पढ़ते समय जहां हम रुकते हैं या विराम लेते हैं, यति- प्रयोग होता है ।
उदाहरणार्थ
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सब का लिया सहारा ।
पर नर व्याघ्र, सुयोधन तुमसे
कहो, कहां, कब हारा ।                                            -‘दिनकर’
यति प्रयोग से छन्द में मधुरता, सरसता और स्पष्टता आ जाती है।
यति के नियम का पालन बड़े छन्दों में अनिवार्य होता है । यति भंग अथवा इसके अनुचित प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
गीत – कविता में नदी के समान एक प्रकार का प्रवाह होता है, उस प्रवाह को ही गति कहते हैं ।

छन्द के प्रकार

वर्ण एवं मात्रा के आधार पर छन्द दो प्रकार के होते हैं-
(i) वार्णिक छन्द (ii) मात्रिक छन्द
(i) वार्णिक छन्द – वर्णों तथा आश्रित रहने वाले छन्दों को वार्णिक छन्द कहते हैं। इनकी व्यवस्था वर्णों की गणना के आधार पर की जाती है । वार्णिक छन्दों को वृत्त भी कहते हैं ।
गण – तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं ।
।  ।    ।                ऽ    ऽ        ।
जैसे – कमल,        सा का र
पहले शब्द में तीन अक्षर लघु तथा दूसरे शब्द में दो गुरु तथा एक लघु है। दोनों शब्दों में गण का नियम है। वर्ण गण आठ प्रकार के हैं-
गण का नाम       लक्षण                                  उदाहरण
ऽ  ऽ  ऽ
1. मगण              तीनों अक्षर गुरु                    जा मा ता
।  ।  ।
2. नगण             तीनों अक्षर लघु                    क म ल
ऽ ।  ।
3. भगण            आदि अक्षर गुरु शेष लघु        सा ग र
। ऽ  ऽ
4. यगण             आदि लघु शेष गुरु                वि धा ता
।  ऽ  ।
5. जगण             मध्य गुरु                                स मा न
ऽ  ।  ऽ
6. रगण             मध्य लघु                                सा म ना
।  ।  ऽ
7. सगण            अन्त गुरु                                 क म ला
ऽ  ऽ ।
8. तगण            अन्त लघु                                सा का र
आठों गणों को स्मरण रखने के लिए निम्नलिखित सूत्र याद रखें ।
यमाताराजभानसलगा
य मा ता रा ज भा न स ल गा
1. यमाता ………….. । ऽ  ऽ ………… यगण
2. मातारा ……….. ऽ  ऽ  ऽ …….. मगण
3. ताराज ……… ऽ  ऽ ।  ……. तगण
4. राजभा …….. ऽ  ।  ऽ ……  रगण
5. जभान …….… ।  ऽ  । ……… जगण
6. भानस ……… ऽ ।  । ……… भगण
7. नसल ………. ।  ।  । ……. नगण
8. सलगा ……. ।  ।  ऽ ……. सगण
वार्णिक छन्द तीन प्रकार के होते हैं
सम वार्णिक, अर्द्धसम, विषम
सम छन्दों में चारों चरणों में समान वर्णन होते हैं ।
अर्द्धसम में 1, 3 तथा 2, 4 में समान वर्ण होते हैं ।
विषम में चारों चरणों में वर्षों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है ।
(ii) मात्रिक छन्द – ( पाठ्यक्रम में केवल मात्रिक छन्द ही नियत हैं।) – मात्रिक छन्दों की व्यवस्था मात्राओं के आधार पर होती है। इन्हें ‘जाति’ छन्द कहते हैं । मात्रिक छन्द भी तीन प्रकार के हैं-
सम, अर्द्धसम, विषम
1. दोहा – (13, 11 पर यति अर्थात् विषम पादों में 13-13 तथा सम पादों में 11-11 मात्राओं का नियम) लक्षण–दोहा छन्द के विषम पादों (पहले और तीसरे चरण) में तेरह – तेरह मात्राएं तथा सम पादों (दूसरे और चौथे चरण में) में ग्यारह – ग्यारह मात्राएं होती हैं ।
विशेष – दोहा छन्द के सम चरणों के अन्त में गुरु-लघु का विधान हो तथा विषम चरणों के आरम्भ में जगण का अभाव हो ।
उदाहरण 
।  ऽ  ।  ऽ  ।  ।  ऽ  ।  ऽ  ।  ।  ।  ।  ऽ  ।  ।  ऽ  ।
गुरु गोबिंद दौउ खड़े, काके लागू पाय |
बलिहारी गुरु आपनो, गोबिंद दियो बताय ।। 
प्रस्तुत दोहे के विषम पदों में 13-13 तथा समपादों में 11-11 मात्राएं होने के कारण वहां दोहा छन्द है।
अन्य उदाहरण-
।  ।  ।  ।  ऽ  ऽ  ।  ।  ।    ऽ  ऽ  ।  ।  ।  ।  ।  ।   ऽ  ।
1. सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय |
    सात समुन्द की मसि करूं, गुरु-गुण लिखा न जाय ।।
ऽ ।  ।  ऽ  ऽ  ऽ ।  ऽ  ऽ ।  ऽ ।  ऽ   ऽ ।
2. जाति न पूछो साध की, पूछि लीजिए ग्यान ।
    मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
3. मेरी भव – बाधा हरौ, राधा नागरि सोय |
     जा तन की झाई परे, श्याम हरित दूति होय ।
2. सोरठा – ( 11, 13 पर यति अर्थात् सोरठा का विषम पादों में 11-11 तथा सम पादों में 13-13 मात्राएं होती हैं।)
लक्षण – सोरठा दोहा छन्द का उलटा होता है । इस छन्द के विषम पादों (पहले और तीसरे चरण) में ग्यारह-ग्यारह तथा सम पादों में तेरह – तेरह मात्राएं होती हैं ।
विशेष – पहले और तीसरे चरण के अन्त में गुरु-लघु होते हैं तथा तुक भी मिलती है ।
उदाहरण –
ऽ ।    ।  ।  ।  ऽ  ऽ  ।  ।  ।  ऽ  ऽ  ।  ।  ऽ  ।  ऽ
हाय ! हृदय को थाम, पड़ भी मैं सकती कहां ।
दुःस्वप्नों का नाम, लेती है सखि तू वहां ॥ (साकेत)
यहां विषमपादों में तेरह – तेरह तथा सम पादों में ग्यारह – ग्यारह मात्राएं हैं । अतः यहा सोरठा छन्द है। दोहा छन्द को उलट कर लिख देने से सोरठा छन्द बन जाता है।
जैसे-
।  ।  ।  ।  ऽ  ।  ।  ऽ ।  । ऽ ।  । ऽ।  । ऽ।
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए वानर निकर ।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस |
अथवा
।  ।  ऽ  ऽ  ।  ।   ऽ  ।  ऽ  ऽ    ऽ  ऽ   ऽ  ।  ऽ
जित देखूं तित लाल, लाली मेरे लाल की ।
मैं भी हो गइ लाल, लाली देखन मैं गई ॥
अन्य उदाहरण-
1. निज मन मुकुर सुधार, श्री गुर चरन सरोज रज |
जो दायक फल चार बरनौं रघुवर विमल जस ॥
2. मूक होइ वाचाल, पंगु चढ़ गिरिवर गहन ।
जासु कृपा सु दयाल, द्रवौ सकल कलिमल दहन ॥
3. चौपाई (प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं, अन्त में जगण-तगण के प्रयोग का निषेध है।)
लक्षण – चौपाई के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती हैं, चरण के अन्त में जगण तथा तगण का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
।  ।  ।  ।  ऽ  ।  ।   ऽ  ।  ।  ऽ  ऽ
रघु कुल रीत सदा चलि आई
प्राण जायं पर वचन न जाई ।
यहां प्रत्येक चरण में 16 मात्राओं का नियम है । अन्त में जगण तथा तरण का प्रयोग भी नहीं । अतः यहां चौपाई छन्द है।
अन्य उदाहरण –
।  ।  ।  ।    ।  ।  ऽ  ।  ।    ।  ।  ऽ  ऽ
1. सुन कपि जियं मानसि जनि ऊना ।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ ।
सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥
2. जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्रक दुःख रज मेरु समाना ॥
3. नित नूतन मंगल पुर माहीं ।
निमिष सरिस दिन जामिनी जाहीं ॥
बड़ों भोर भूपतिमनि जागे ।
जाचक गुनगन गावन लागे ।
4. कवित्त – लक्षण – कवित्त के प्रत्येक चरण में कुल 31 वर्ण होते हैं, इसमें 16 और 15 वर्गों पर यति होती अन्तिम वर्ण गुरु (O) होना चाहिए । शेष वर्णों के लिए लघु गुरु के क्रम का कोई बंधन नहीं होता।
उदाहरण – 
जल की न घट भरैं मग की न पग धरें,
घर की न कछु करैं बैठी भर सांसु री ।
एकै सुनि लौट गई एकै लोट-पोट भई,
एकनि की दूगनि निकसि आए आंसू री ।
कहै रसखानि सो सबै ब्रज – बनिता बधि,
बधिक कहाय हाय भई कुल हांसु री ।
कारियै उपायै बांस डारियै कटाय,
नाहिं उपजैगौ बांस नाहिं बाजे फेर बांसुरी ।
उपर्युक्त पद्यांश में 16, 15 पर यति का विधान तथा प्रत्येक चरण के अन्त में गुरु अक्षर का विधान है। अतकवित्त छन्द है।
कवित्त के प्रत्येक चरण में कभी-कभी 8, 8, 8 और 7 पर भी यति का विधान होता है।
उदाहरण –
ऐसे बीर पौन, ओर गौन, बारी,
तो सो और कौन मनै, ठरकौं ही रांनि दै ।
जगत के प्रान ओछे। बड़े सों कमान धन,
आनन्द – निधान सुख, दान दुखियानि दै ॥
जान उजियारे गुन, भारे अंत मोही प्यारे,
अब है अमोही बैठे, पीठि पहिचानि दै ।
बिरह – बिथाहि मूरि । आंखिन मैं राखें पूरि,
धूरि तिन पायनि की, हा हा नेकु आनि दै ॥
अन्य उदाहरण-
1. पात भरी सहरी सकल सुत बारे बारे,                                  (16 वर्ण)
केवट की जाति कछु वेद न पढ़ाई हौं ।                                    (15 वर्ण)
2. सब परिवार मेरो याहि लागि राजा जू,
हो दीन वित्तहीन, कैसे दूसरी गढ़ाइहौं ।
5. सवैया – बाइस से लेकर छब्बीस वर्णों (अक्षरों) के छंद (वृत्त) “सवैया” कहलाते हैं । हिन्दी साहित्य में ‘सवैया’ छंद विशेष लोकप्रिय रहा है । तुलसी, सूरदास, रसखान, नरोत्तमदास, केशव, मतिराम, भूषण, देव, घनानन्द, पद्माकर, गुरु गोबिन्द सिंह जी आदि अनेक कवियों ने इस छंद को अपनाया है। इनमें भी रसखान के सवैये तो रस की खान ही माने जाते हैं। इस छन्द के मुख्य भेद निम्नलिखित हैं-
1. मदिरा सवैया (7 भगण + गुरु )
2. मत्तगयंद सवैया ( 7 भगण + गुरु, गुरु )
3. दुर्मिल सवैया ( 8 सगण)
4. किरीट सवैया ( 8 भगण )
5. सुन्दरी सवैया (8 सगण + गुरु)
6. चकोर सवैया ( 7 भगण + गुरु-लघु)
7. अरसात (7 भगण + रगण )
उदाहरण—मत्तगयंद सवैया का उदाहरण प्रस्तुत है। इसमें 7 भगण + 2 गुरु का नियम होता है।
ऽ  । । ऽ ।। ऽ ।। ऽ ।। ऽ ।। ऽ   ।। ऽ ।।  ऽ ऽ
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुं पुर को तजि डारौँ
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नन्द की गाई चराई बिसारौं।
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौँ ।
कोटिक ये कलघौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौ ।
उपर्युक्त पद्यांश के प्रत्येक चरण में 7 भगण तथा दो गुरु का नियम पालन है । अतः यहां मत्तगयंद सवैया प्रश्न-पद्धति–पाठ्यक्रम में स्पष्ट है कि छंद का लक्षण नहीं पूछा जाएगा बल्कि दिए गए पद्यांश में से पहचान कर लिखना होगा।

अलंकार

सामान्य परिचय
काव्य में अलंकार का स्थान
अलंकार का साधारण अर्थ है – अलंकृत करना, शोभा बढ़ाना । लोक भाषा में अलंकार का अर्थ गहना अथवा आभूषण है। जिस प्रकार स्त्रियां अपने सौन्दर्य – वर्द्धन के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के गहनों का प्रयोग करती हैं। उसी प्रकार कवि भिन्न-भिन्न प्रकार के अलंकारों के प्रयोग द्वारा कविता-कामिनी की शोभा बढ़ाते हैं। कंगन से हाथ की, कुंडल से कान की और हार से गले की शोभा बढ़ती है और ये सब मिलकर कामिनी के शरीर को सौन्दर्य और आकर्षण प्रदान करते हैं। ठीक इसी प्रकार अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग कविता को आकर्षण और प्रभावशाली बना देता है। कभी शब्द विशेष का प्रयोग कविता को चमत्कार प्रदान करता है तो कभी अर्थ।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन के उपरान्त अलंकार की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-
परिभाषा – ” शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न कर कविता की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को अलंकार कहते है।”
परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि अलंकार के मुख्य रूप से दो भेद हैं-
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार
1. शब्दालंकार – जहां शब्दों के कारण किसी रचना में चमत्कार उत्पन्न हो, वहां शब्दालंकार होता है। अनुप्रास, यमक और श्लेष प्रसिद्ध शब्दालंकार हैं ।
2. अर्थालंकार – जहां अर्थों के कारण किसी रचना में चमत्कार उत्पन्न हो वहां अलंकार होता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि प्रसिद्ध अर्थालंकार है ।

शब्दालंकार और अर्थालंकार में अन्तर

स्पष्ट किया जा चुका है कि शब्द के कारण चमत्कार उत्पन्न होने पर शब्दालंकार और अर्थ के कारण चमत्कार उत्पन्न होने पर अर्थालंकार होता है ।
शब्दालंकार में शब्द – विशेष के निकाल देने पर चमत्कार समाप्त हो जाता है, अर्थात् शब्द – विशेष के स्थान पर समानार्थी शब्द भी चमत्कार को बनाए रखने में असमर्थ है ।
जैसे-
‘पानी’ के बिना मोती का कोई महत्त्व नहीं ।
यहां मोती के पक्ष में पानी का अर्थ ‘चमक’ है। अब इसके स्थान पर समानार्थी शब्द जल, नीर, अम्बु, तोय आदि शब्दों में से कोई भी रख दें तो अलंकार समाप्त हो जाएगा, क्योंकि केवल ‘पानी’ का अर्थ ही चमक है। शेष कोई भी शब्द इस अर्थ को प्रकट नहीं करता ।
उसका मुख ‘चन्द्रमा’ के समान सुन्दर है । इस कथन में चमत्कार का कारण अर्थ है- ‘चांद’ भी सुन्दर है और उसका मुख भी सुन्दर है। यहां चांद का कोई भी समानार्थी शब्द राकेश, इन्दु, शशि आदि देने से अर्थ का चमत्कार बना रहता है।
1. अनुप्रास 2. यमक 3. श्लेष के लक्षण और उदाहरण ।

1. अनुप्रास

लक्षण – जहां व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हो, वहां अनुप्रास अलंकार होता है ।
उदाहरण –
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में ।
यहां ‘च’ की आवृत्ति के कारण चमत्कार है । अतः यहां अनुप्रास अलंकार है ।
विशेष – व्यंजनों की आवृत्ति के साथ स्वर कोई भी आ सकता है, अर्थात् जहां स्वरों की विषमता होने पर भी – व्यंजनों की एक क्रम से आवृत्ति हो वहां ‘अनुप्रास’ अलंकार होता है।
जैसे – क्या आर्यवीर विपक्ष वैभव देखकर डरते नहीं ?
यहां ‘व’ के साथ भिन्न-भिन्न स्वरों का प्रयोग होने पर भी ‘अनुप्रास’ अलंकार है।
विद्यार्थी सुविधानुसार निम्नलिखित में से कोई भी उदाहरण कण्ठस्थ कर सकते हैं-
  1. तरनि- तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाये ।                                (‘त’ की आवृत्ति)
  2. तजकर तरल तरंगों को, इन्द्रधनुष के रंगों को।                            (‘त’ की आवृत्ति)
  3. साध्वी सती हो गई ।                                                                    (‘स’ की आवृत्ति)
  4. तुम तुंग हिमालय शृंग, और मैं चंचल गति सुर सरिता, आवृत्ति)      (‘त’ और ‘स’ की)
  5. मैया मेरी मैं नहीं माखन खायो ।                                                    (‘म’ की आवृत्ति)
  6. वसन बटोरि बोरि – बोरि तेल तमीचर |                                          (‘ब’ की आवृत्ति)
  7. सत्य स्नेह सील सुख सागर ।                                                           (‘स’ की आवृत्ति
  8. मुदित महिपति मंदिर आए ।
    सेवक सचित सुमन बुलाए ।
  9. रघुपति राघव राजा राम ।
  10. संसार की समर स्थली मैं धीरता धारण करो ।
  11. दस्तक दे-देकर लौट जाएँगे ।

2. यमक

यमक में शब्द या शब्दांश की आवृत्ति होती है परन्तु प्रत्येक बार शब्द का अर्थ भिन्न होता है। लक्षण – जहां एक शब्द अथवा शब्द – समूह का एक से अधिक बार प्रयोग हो परन्तु प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्नभिन्न हो वहां यमक अलंकार होता है ।
अथवा
जहां पर निरर्थक अथवा भिन्न-भिन्न अर्थ वाले सार्थक समुदाय का अनेक बार प्रयोग हो वहां यमक अलंकार होता है।
उदाहरण –
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय,
वह खाए बौराय नर, यह पाए बौराय ।
‘सोने’ में ‘धतूरे’ से भी सौ गुणा नशा अधिक होता है। उसका (धतूरे को) खाने से मनुष्य पागल अर्थात् नशे का अनुभव करता है। इसको (सोने को) प्राप्त कर लेने मात्र से नशे का अनुभव करने लगता है ।
यहां ‘कनक’ शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है परन्तु प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न-भिन्न है।
पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘सोना’ है तथा दूसरे ‘कनक’ का अर्थ ‘ धतूरा’ है ।
अतः यहां यमक अलंकार का चमत्कार है।
अन्य उदाहरण –
1. तो पर वारों उरबसी, सुन राधिके सुजान। 

तू मोहन के उर बसी है उरबसी समान ॥
उरबसी – (i) उर्वशी नामक अप्सरा
(ii) उर (हृदय) में बसी हुई ।
(iii) गले में पहना जाने वाला आभूषण
2. ऊंचे घोर मन्दर के अन्दर रहनवारी,
ऊंच घोर मंदर के अन्दर रहाती है ।
मन्दर – (i) महल, (ii) पर्वत ।
3. जगती जगती की मूक प्यास ।
जगती = जागना, जगती = संसार । 
4. काली घटा का घमण्ड घटा ।
(i) घटा=बादल, (ii) घटा=कम हुआ।
अन्य उदाहरण-
1. विपुल धन अनेकों रत्न को साथ लाये ।
प्रियतम बतला दो लाल मेरा कहां है ।।
लाल – 1. पुत्र, 2. मणि
2. को घटि ये वृष भानुजा,
वे हलधर के वीर ।
वृष भानुजा – 1. वृषभानु की पुत्री अर्थात् राधिका ।
2. वृष की अनुजा अर्थात् बैल की बहन |
हुलधर – 1. बलराम 2. हल को धारण करने वाला ।

3. उपमा

उपमा  – उपमा अलंकार के चार अंग हैं-
1. उपमेय 2. उपमान 3. वाचक शब्द 4. साधारण धर्म ।
1. उपमेय – जिसकी समता की जाती है, उस उपमेय कहते हैं ।
2. उपमान – जिससे समता की जाती है, उसे उपमान कहते हैं ।
3. वाचक शब्द – उपमेय और उपमान की समता प्रकट करने वाले शब्द को वाचक कहते हैं ।
4. साधारण धर्म – उपमेय और उपमान में गुण ( रूप, रंग आदि) की समानता को साधारण धर्म कहते हैं।
उपमा का लक्षण – जहां रूप, रंग या गुण के कारण उपमेय की उपमान से तुलना की जाये, वहां उपमा होता है।
उदाहरण – पीपर पात सरिस मन डोला ।
(पीपल के पत्ते के समान मन डोल उठा)
उपमेय – मन
उपमान – पीपर- पात
वाचक शब्द – सरिस (समान)
साधारण धर्म – डोला
जिस उपमा में चारों अंग होते हैं, उसे पूर्णोपमा कहते हैं। इनमें से किसी एक अथवा अधिक के लुप्त होने से लुप्तोपमा अलंकार होता है । अतः उपमा दो प्रकार की होती हैं –
1. पूर्णोपमा 2. लुप्तोपमा
अन्य उदाहरण-
1. हो क्रुद्ध उसने शक्ति छोड़ी एक निष्ठुर नाग सी ।
( उसने क्रोध से भरकर एक शक्ति (बाण) छोड़ी जो सांप के समान भयंकर थी ।)
यहां ‘शक्ति’ उपमेय की ‘नाग’ उपमान से तुलना होने के कारण उपमा अलंकार है ।
2. वह किसलय के से अंग वाला कहां है ।
(यहां ‘अंग’ उपमेय की ‘किसलय’ उपमान से तुलना है । )
3. राम कीर्ति चांदनी-सी, गंगाजी की धारा- सी,
सुचपला की चमक से सुशोभित अपार है ।
(धर्मलुप्त है अतः यहां लुप्तोपमा अलंकार है।)
4. मुख बाल – रावि सम लाल होकर ज्वाला-सा बोधित हुआ ।
( यहां क्रोध से लाल मुख की तुलना प्रायः कालीन सूर्य से है।)

4. रूपक

रूपक अलंकार में दो वस्तुओं अथवा व्यक्तियों में अभेदता प्रकट किया जाता है। नाटक को भी रूपक कहते हैं क्योंकि वहां एक व्यक्ति के ऊपर दूसरे का आरोप होता है, जैसे कोई राम का अभिनय करता है तो कोई रावण का ।
लक्षण – जहां उपमेय में उपमान का आरोप हो, वहां रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण –
चरण कमल बन्दौ हरि राई ।
(मैं भगवान् के चरण रूपी कमलों की वन्दना करता हूँ।)
(यहां ‘चरण’ उपमेय पर ‘कमल’ उपमान का आरोप है अतः यहां रूपक अलंकार है । )
अन्य उदाहरण-
1. बीती विभावरी जागरी ।
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी ।
( यहां अम्बर पर कुएं का, सितारों पर घड़े का तथा ऊषा पर नागरी का आरोप होने के कारण रूपक अलंकार है।
2. दुःख है जीवन तरु के मूल ।
‘जीवन’ उपमेय पर ‘तरु’ उपमान पर आरोप है। अतः यहां भी रूपक अलंकार है ।
3. मैया मैं तो चन्द्र खिलैना लै हों ।
( चन्द्र उपमेय पर खिलौना उपमान का आरोप होने के कारण रूपक अलंकार है । )

5. अतिशयोक्ति

अतिशयोक्ति = अथिशय + उक्ति, अतिशय का अर्थ है अत्यधिक और उक्ति का अर्थ है कथन । इस प्रकार अतिशयोक्ति का अर्थ हुआ बढ़ा-चढ़ा कर कहना ।
लक्षण – जहां किसी वस्तु या विषय का इतना बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया जाए कि लोक मर्यादा का उल्लंघन हो जाए, वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है ।
उदाहरण –
देख लो साकेत नगरी है यही ।
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही ॥
साकेत नगरी में स्वर्ग जैसा गुण नहीं हो सकता। लेकिन कवि ने साकेत अर्थात् अयोध्या का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है। इसलिए यहां अतिशयोक्ति अलंकार है ।
अन्य उदाहरण –
1. हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आगि ।
लंका सिगरी जरि गई गये निसाचरि भागि ।
प्रस्तुत उदाहरण में हनुमान की पूंछ में आग लगते ही लंका का जल जाना और राक्षसों का भाग जाना आदि बातें बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर कही गई हैं । अतः यहां अतिशयोक्ति अलंकार है ।
2. पंखुरी लगे गुलाब की परिहै गात खरोट ।
गुलाब की पंखुरी से शरीर में खरोट पड़ जाएगी, यह सम्भव नहीं। यहां शरीर की सुकुमारता की अत्यन्त प्रशंसा की गई है। अतः यहां अतिशयोक्ति अलंकार है ।
3. वह शर इधर गांडीव – गुण से भिन्न जैसे ही हुआ ।
धड़ से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ ।
यहां बाण का छूटना तथा सिर का गिरना एक साथ दिखाए गए हैं। अतः यहां अतिशयोक्ति अलंकार है ।
4. प्रान छूटे प्रथमै रिपु के रघुनायक सायक छूट न पाये ।
राम के बाण छोड़ने से पहले ही शत्रु के प्राण निकल जाने में अतिशयोक्ति है

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