JKBOSE 9th Class Hindi Solutions chapter – 6 वाख —ललद्यद

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Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 9th Class Hindi Solutions

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 कवयित्री – परिचय
ललद्यद कश्मीरी भाषा में रचना करने वाली प्रथम कवयित्री हैं जिन्होंने आज से लगभग 700 वर्ष पहले कश्मीरी जनता को अपने विचारों से गहरा प्रभावित किया था। उन की वाणी से तत्कालीन समाज ही प्रभावित नहीं हुआ था बल्कि अब भी उनकी रचनाएँ कश्मीर की जनता में गाई जाती हैं।
इन के जीवन के विषय में अन्य संतों के समान प्रामाणिक जानकारी बहुत कम मात्रा में प्राप्त हुई है। इन का जन्म कश्मीर स्थित पांपोर के सिमपुरा गाँव में लगभग सन् 1320 ई० में हुआ था। इनका देहावसान सन् 1391 ई० के आसपास माना जाता है। इन्हें केवल ललद्यद नाम से ही नहीं जाना जाता बल्कि लल्लेश्वरी, लाल्ल योगेश्वरी, ललारिका आदि नामों से भी जाना जाता है। इन के द्वारा रचित काव्य का वहां के लोक जीवन पर गहरा प्रभाव है। इनकी काव्य-शैली ‘वाख’ नाम से प्रसिद्ध है। जिस प्रकार हिंदी में कबीर के दोहे, मीरा बाई के पद, तुलसीदास की चौपाइयाँ और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार ललद्यद के ‘वाख’ प्रसिद्ध हैं। इन्होंने इनके द्वारा तत्कालीन समाज में प्रचलित भेदभावों और धार्मिक संकीर्णताओं को दूर करने का प्रयास किया था। इन्होंने समाज को भक्ति की उस राह पर चलाने में सफलता प्राप्त की थी जो अपने आप में उदार थीं। इन की भक्ति का जन-जीवन से संबंध था। इन्होंने धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया था तथा प्रेम को मानव जीवन का सब से बड़ा उपहार माना था। इन्होंने लोक जीवन के तत्वों से प्रेरित होकर तत्कालीन पंडिताऊ भाषा संस्कृत और दरबार के बोझ से दबी फ़ारसी को अपनी कविता के लिए स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने इन के स्थान पर सामान्य जनता की भाषा का प्रयोग करते हुए अपने भावों को अभिव्यक्त किया था। भाषा और विषय की सरलता और सहजता के कारण शताब्दियों बाद भी इनकी वाणी जीवित है । इनके भाव और भाषा की प्रासंगिकता इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि ये आधुनिक कश्मीरी भाषा की प्रमुख आधार स्तंभ स्वीकार की जाती हैं।
ललद्यद के ‘वाख’ भक्ति-भाव से परिपूर्ण हैं । वे जीवन को अस्थिर मान परम ब्रह्म को पाना चाहती थी । यह शैवयोगिनी थी । इन का चिंतन का आधार शैवधर्म था । इन की कविता केवल पुस्तक वर्णित धर्म नहीं है बल्कि इसमें लोगों के विश्वास – विचार और आशा-निराशा का स्पंदन है । इन्होंने शैव धर्म की दीक्षा अपने कुलगुरु बूढ़े सिद्ध श्री कंठ से ली थी । इन का काव्य जीवन और संसार को असत्य न मान कर उस में आस्था रखना सिखाता है। ये कबीर की तरह क्रांतिकारी व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। इन्होंने लोगों को समझाया था कि बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है।
वाखों का सार
कश्मीरी भाषा की प्रथम संत कवयित्री ललद्यद ने भक्ति के क्षेत्र में व्यापक जन चेतना को जगाने में सफलता प्राप्त की थी। उन के पहले वाख में ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों की व्यर्थता की चर्चा की गई है। अपनी जीवन रूपी नाव को कच्चे धागे की रस्सी से खींच रही है पर पता नहीं ईश्वर उस के प्रयास को सफलता प्रदान करेंगे। उस के सारे प्रयत्न असफल सिद्ध हो रहे हैं। वह परमात्मा के घर जाना चाहती है पर जा नहीं प रही। दूसरे वाख में बाह्याडंबरों का विरोध करते हुए कहा गया है कि अंतः करण से व समभावी होने पर ही मनुष्य की चेतना व्यापक हो सकती है। माया के जाल में व्यक्ति को कम से कम लिप्त होना चाहिए। व्यर्थ खा-खा कर कुछ प्राप्त नहीं होगा जबकि कुछ न खाकर व्यर्थ अहंकार बढ़ेगा। जीवन से मुक्ति तभी प्राप्त होगी जब बंद द्वार की साँकल खुलेगी। तीसरे वाख में माना गया है कि दुनिया रूपी सागर से पार जाने के लिए सद्कर्म ही सहायक सिद्ध होते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए अनेक साधक हठयोगी जैसी कठिन साधना करते हैं पर इस से लक्ष्य की प्राप्ति सरल नहीं हो जाती। चौथे वाख में भेदभाव का विरोध और ईश्वर की सर्वव्यापकता को प्रकट किया गया है। ईश्वर सभी के भीतर विद्यमान है पर मानव स्वयं उसे पहचान नहीं पाता ।
सप्रसंग व्याख्या
1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव । 
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार । पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे । 
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ॥ 
शब्दार्थ— रस्सी कच्चे धागे की = कमज़ोर और नाशवान सहारे । नाव = जीवन रूपी नौका । भवसागर = दुनिया रूपी सागर । कच्चे सकोरे = कच्चे बर्तन / स्वाभाविक रूप से कमज़ोर | व्यर्थ = बेकार । प्रयास = प्रयत्न ।
प्रसंग— प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य पुस्तक ‘भास्कर’ भाग-1 में संकलित किया गया है जिस की रचयिता कश्मीरी संत ललद हैं। मानव ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है और उसे पाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है पर उस के द्वारा किए गए प्रयत्नों से उसे सफलता नहीं मिलती । कवयित्री ने ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले ऐसे ही प्रयत्न की व्यर्थता को प्रकट किया है।
व्याख्या— कवयित्री दुःख भरे स्वर में कहती है कि मैं अपनी जीवन रूपी नौका को कमज़ोर और नाशवान कच्चे धागे की साँसों रूपी रस्सी से लगातार खींच रही हैं। मैं इसे उस पार लगाना चाहती हूँ पर पता नहीं परमात्मा कब मेरी पुकार सुनेंगे और मुझे दुनिया रूपी सागर को पार कराएंगे। स्वाभाविक रूप से कमज़ोर कच्चे बर्तन रूपी शरीर से निरंतर पानी टपक रहा है; मेरा जीवन घटता जा रहा है; आयु व्यतीत होती जा रही है पर मेरे द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के लिए किए गए सभी प्रयत्न असफल होते जा रहे हैं। मेरे हृदय से रह-रह कर पीड़ा भरी आवाज़ उत्पन्न होती है। परमात्मा से मिलने और इस संसार को छोड़कर वापस जाने की मेरी इच्छा बार-बार मुझे घर रही है पर वह इच्छा चाहकर भी पूरी नहीं हो रही है।
वाख पर आधारित अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्न–
प्रश्न (क) ‘रस्सी कच्चे धागे की’ तथा ‘नाव’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए। 
(ख) कवयित्री के हृदय से बार-बार हूक क्यों उत्पन्न होती है ? 
(ग) कवयित्री किस ‘घर’ में जाना चाहती है ? 
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर— (क) कवयित्री ने ‘रस्सी कच्चे धागे की’ से कमज़ोर और नाशवान सहारे रूपी साँसों को प्रकट किया है जो हर समय चल तो रही हैं पर पता नहीं कब तक वे चलेंगी। ‘नाव’ से जीवन रूपी नौका को प्रकट किया गया है।
(ख) कवयित्री हर क्षण एक ही प्रार्थना करती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त कर इस जीवन को त्याग दे पर ऐसा हो नहीं रहा। इसी कारण उस के हृदय से बार-बार हूक उत्पन्न होती है।
(ग) कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है। यह संसार तो उस का घर नहीं है। उस का घर तो वह है जहाँ परमात्मा है ।
(घ) कवयित्री ने अपने रहस्यवादी वाख में परमात्मा की शरण प्राप्त करने की कामना की है। वह भवसागर को पार कर जाना चाहती है पर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा। प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग सहज रूप से किया गया है। कश्मीरी से अनुदित वाख में तत्सम शब्दावली की अधिकता है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। शांत रस और प्रसाद गुण ने कथन को सरसता प्रदान की है। पुनरुक्ति, प्रकाश, रूपक, प्रश्न और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है।
2. खा-खा कर कुछ पाएगा नहीं
न खाकर बनेगा अहंकारी, 
सम खा तभी होगा समभावी 
खुलेगी साँकल बंद द्वार की l 
शब्दार्थ— अहंकारी = घमंडी। सम (शम) = अंतःकरण तथा बाह्य इंद्रियों का निग्रह | समभावी = समानता की भावना। खुलेगी सांकल बंद द्वार की = मन मुक्त होगा चेतना व्यापक होगी।
प्रसंग— प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य पुस्तक ‘भास्कर’ भाग-1 से लिया गया है जो कश्मीरी संत ललद्यद के द्वारा रचित है। मानव परमात्मा को प्राप्त के लिए तरह-तरह के आडम्बर रचता है पर उन से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति तो मानव की चेतना अंतःकरण से समभावी होने से व्यापक है।
व्याख्या— कवयित्री कहती है कि हे मानव यह संसार तो मायात्मक है। तू इस के भ्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर पाएगा। सुखों की प्राप्ति करता हुआ और नित तरह-तरह के व्यंजन खा कर तू कुछ नहीं पाएगा। यदि बाह्याडंबर करता हुआ तू व्रत के नाम पर कुछ नहीं खाएगा तो स्वयं को संयमी मानकर तू अहंकार का भाव अपने मन में लाएगा। स्वयं को योगी तपी मानने लगेगा। यदि तू परमात्मा को वास्तव में पाना चाहता है तो अपने अंतःकरण और बाह्य- इंद्रियों को अपने बस में कर; अपने तन-मन पर नियंत्रण कर । जब समानता की भावना तेरे भीतर उत्पन्न होगी तभी तेरा मन मुक्त होगा, तेरे मन रूपी बंद द्वार की साँकल खुलेगी, तेरी चेतना व्यापक होगी। बाह्याडंबरों से तुझे कुछ नहीं मिलेगा।
वाख पर आधारित अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्न–
प्रश्न (क) कवयित्री ने ‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ कह कर किस तथ्य की ओर संकेत किया है ?
(ख) ‘सम खा’ से क्या तात्पर्य है ?
(ग) कवयित्री किस द्वार के बंद होने की बात कहती है ? 
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर— (क) कवयित्री ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि मानवं ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडंबर रचते हैं। भूखे रह कर व्रत करते हैं पर इस से उन में संयमी बनने और अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का अहंकार मन में आ जाता है।
(ख) ‘सम खा’ से तात्पर्य मन का शमन करने से है। इस से अंत: करण और बाह्यइंद्रियों के निग्रह का संबंध है।
(ग) कवयित्री मानव मन के मुक्त न होने तथा उस की चेतना के संकुचित होने को ‘द्वार के बंद होने से संबोधित करती है ।
(घ) संत ललद्यद जीवन में बाह्याडंबरों को महत्त्व न देकर समभावी बनने का आग्रह करती है। उपदेशात्मकता की प्रधानता है। कश्मीरी से अनुदित वाख में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है। पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने कथन को गहनता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस की प्रधानता है। प्रतीकात्मकता ने कथन को गंभीरता प्रदान की है।
3. आई सीधी राह से, गई न सीधी. राह, 
सुषुम- संत पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह ।
जेब टटोली कौड़ी न पाई ।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
शब्दार्थ— गई न सीधी राह = जीवन में सांसारिक छल-छद्मों के रास्ते चलती रही । सुषुम-संत = सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल; हठयोग के अनुसार शरीर की तीन प्रधान नाड़ियों (इंगला, पिंगला और सुषुम्ना) में से जो नासिका के मध्य भाग (ब्रह्मरंध्र) में स्थित है। जेब टटोली = आत्मा लोचन किया। कौड़ी न पाई = कुछ प्राप्त न हुआ। माझी = ईश्वर गुरु; नाविक । उतराई = सद्कर्म रूपी मेहनताना ।
प्रसंग— प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य पुस्तक ‘भास्कर’ भाग-1 में संकलित है जिसकी रचयिता कश्मीरी संत ललद्यद हैं। परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सद्कर्मों से दूर हो जाता है जिस कारण वह अपने मन ही मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास वापस जाने पर वह वहाँ क्या बताएगा ? भवसागर से पार जाने के लिए सद्कर्म ही सहायक होते हैं।
व्याख्या— कवयित्री दुःख भरे स्वर में कहती है कि जब परमात्मा ने मुझे संसार में भेजा था तो मैं सीधी राह से यहाँ आई थी पर मोह-माया से ग्रसित इस संसार में सीधी राह पर न चली। मैं सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल पर खड़ी रही और मेरा जीवन रूपी दिन बीत गया। हठयोग ने मुझे रास्ता तो दिखाया था पर मैं ही अज्ञान वश उस मार्ग पर पूरी तरह चल नहीं पाई। मैं माया रूपी संसार में उलझ गई। अब जब इस संसार को छोड़ कर वापस जाने का समय आया है तो मेरे द्वारा आत्मालोचन करने से पता चला कि मैंने इस संसार से कुछ नहीं पाया; जीवन भर भक्ति नहीं की इसलिए मुझे उस का फल नहीं दिया। मुझे नहीं पता कि अब मैं उतराई के रूप में नाविक रूपी ईश्वर को क्या दूंगी। भाव है कि मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया है और मेरे पास सद्कर्म रूपी मेहनताना भी नहीं है।
वाख पर आधारित अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्न–
प्रश्न (क) ‘गई न सीधी राह’ से क्या तात्पर्य है ? 
(ख) ‘माझी’ और ‘उतराई’ क्या है ? 
(ग) कवयित्री को जेब टटोलने पर कौड़ी भी क्यों न मिली ? 
(घ) साख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए। 
उत्तर— (क) ‘गई न सीधी राह’ से तात्पर्य है कि संसार के मायात्मक बंधनों ने मुझे अपने बस में कर लिया और मैं चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ी। मैंने सद्कर्म नहीं किया और दुनियादारी में उलझी रही।
(ख) ‘माझी’ ईश्वर है ; गुरु है जिस ने इस संसार में जीवन दिया था और जीने की राह दिखाई थी । ‘उतराई’ सद्कर्म रूपी मेहनताना है जो संसार को त्यागते समय मुझे माझी रूपी ईश्वर को देना होगा।
(ग) कवयित्री ने माना है कि उस ने कभी आत्मालोचन नहीं किया ; सद्कर्म नहीं किए। केवल मोह-माया के संसार में उलझी रही इसलिए अब उस के पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उस की मुक्ति का आधार बन सके।
(घ) संत कवयित्री ने स्वीकार किया है कि वह जीवन भर मोह-माया में उलझ कर परमात्मा तत्व को नहीं पा सकी। उस ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो उसे भक्ति मार्ग में उच्चता प्रदान करा सकता । वह तो सांसारिक छल-छद्मों की राह पर ही चलती रही । प्रतीकात्मकता ने कवयित्री के कथन को गहनता प्रदान की है। अनुप्रास और स्वरमैत्री ने कथन को सरसता दी है। लाक्षणिकता के प्रयोग ने वाणी को गहनता- गंभीरता से प्रकट किया है। ‘सुषुम-संत’ संतों के द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट शब्द है।
4. थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां । 
ज्ञानी है तो स्वयं को जान, 
वही हैं साहिब से पहचान ॥
शब्दार्थ— थल थल = सर्वत्र l  शिव = ईश्वर l भेद =  अंतर l साहिब = स्वामी, ईश्वर।
प्रसंग— प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य पुस्तक ‘भास्कर’ भाग-1 से अवतरित किया गया है जिसे ‘वाख’ के अंतर्गत संकलित किया है। संत कवयित्री ललयद ने शैव दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कणकण में विद्यमान है।
व्याख्या— कवयित्री कहती है कि शिव तो इस संसार में सर्वत्र विद्यमान है। प्रभु का स्वरूप तो प्रत्येक वस्तु के कण-कण में सिमटा हुआ है। आप चाहे हिंदू हैं या मुसलमानउस परमात्मा को जानने पहचानने में कोई अंतर न करो। यदि आप ज्ञानवान हैं तो स्वयं को पहचानो। स्वयं को पहचानना ही परमात्मा को पहचानना है क्योंकि परमात्मा ही तो आप के जीवन का आधार है। वही आप के भीतर है और आप के जीवन की गति का आधार है। ईश्वर सर्वव्यापक है इसलिए धर्म के आधार पर उसमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। आत्मज्ञान ही सर्वोपरि है।
वाख पर आधारित अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्न–
प्रश्न (क) कवयित्री के द्वारा परमात्मा के लिए ‘शिव’ प्रयुक्त किए जाने का मूल आधार क्या है ?
(ख) ‘भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए । 
(ग) ईश्वर वास्तव में कहाँ है ?
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए ।
उत्तर— (क) कवयित्री शैव मत से संबंधित शैव यौगिनी थी। उस के चिंतन का आधार शैव दर्शन था इसलिए उस ने परमात्मा के लिए ‘शिव’ शब्द प्रयुक्त किया है ।
(ख) परमात्मा सभी के लिए एक ही है। चाहे हिंदू हों या मुसलमान – उन के लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उपदेशात्मक स्वर में यही स्पष्ट किया गया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।
(ग) ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है । वह तो हर प्राणी के शरीर के भीतर भी है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूंढ़ने की आवश्यकता
नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए।
(घ) कवयित्री ने भेदभाव का विरोध तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराने का प्रयास उपदेशात्मक स्वर में किया है और माना है कि ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। उसे पाने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है। पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। अभिधा शब्द शक्ति ने कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है। शांत रस और प्रसाद गुण विद्यमान हैं। अनुदित अवतरण में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक है।
अभ्यास के प्रश्नों के उत्तर
प्रश्न 1. ‘रस्सी’ यहाँ किस के लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है ? 
उत्तर— ‘रस्सी’ निरंतर चलने वाली साँसों के लिए प्रयुक्त किया गया है जो स्वाभाविक रूप से बहुत कमज़ोर है।
प्रश्न 2. कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे है ? 
उत्तर— कवयित्री स्वाभाविक रूप से कमजोर साँसों रूपी रस्सी से जीवन रूपी नौका को भवसागर के पार ले जाना चाहती है पर शरीर रूपी कच्चे बर्तन से जीवन रूपी जल टपकता जा रहा है, इसलिए उन के प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं।
प्रश्न 3. कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर— सभी संतों के समान कवयित्री भी मानती है कि उस का वास्तविक घर तो वह है जहाँ परमात्मा बसते हैं क्योंकि जीवात्मा वहीं से आई थी और उसे वहीं लौट जाना है इसलिए उस की उसी घर जाने की चाह है ।
प्रश्न 4. भाव स्पष्ट कीजिए—
(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई ।
(ख) खा खा कर कुछ पाएगा नहीं, न खा कर बनेगा अहंकारी ।
उत्तर— (क) इस संसार में रहते हुए माया के जाल से मुक्ति ही नहीं पाई। परमात्मा के प्रति ध्यान ही नहीं लगाया ; सद्कर्म नहीं किए। जब आत्म लोचन किया तो पता लगा कि हमने जीवन व्यर्थ गंवा दिया है।
(ख) इस मायात्मक संसार में सुखों की प्राप्ति की कामना ही करते रहे । तरह-तरह के सुख उपभोग के साधन जुटाते रहे जिन से परमात्मा नहीं मिलते। बाह्याडंबर करते हुए व्रत और साधना का सहारा लिया । स्वयं को कष्ट देकर सिद्धि पानी चाही । भूखे रह कर ब्रह्म पाना चाहा पर इससे और तो कुछ नहीं मिला। बस स्वयं को संयमी समझ कर अहंकार का भाव मन में अवश्य समा गया ।
प्रश्न 5. बंद द्वार की सांकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है ?
उत्तर— कश्मीरी संत कवयित्री ललद्यद ने सुझाया है कि मानव तू अपने अंतः करण और बाह्य- इंद्रियों का निग्रह कर। अपने तन-मन पर नियंत्रण रख । जब तेरी चेतना व्यापक हो जाएगी; तेरे भीतर समानता की भावना उत्पन्न हो जाएगी। तब तेरे मन रूपी बंद द्वार की साँकल खुल जाएगी। आडम्बर करने से तुझे कुछ प्राप्त नहीं होगा।
प्रश्न 6. ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है ? 
उत्तर— आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,
सुषुम- सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह ।
जेब टटोली कौड़ी न पाई,
माझी को दूँ क्या उतराई ?
प्रश्न 7. ‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— कवयित्री का ‘ज्ञानी’ से अभिप्राय उस मानव से है जो बिना आडम्बर रचाए सच्चे मन से परमात्मा को अपने भीतर से ही खोजने की चेष्टा करता है वह माया जाल से दूर रहता है। जात-पात और भेद-भाव से दूर रह आत्मलोचन करता हुआ सद्कर्मों में लीन रहता है।
रचना और अभिव्यक्ति—
प्रश्न 8. हमारे संतों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता; लेकिन आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है—
(क) आपकी दृष्टि से इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है ?
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए ।
उत्तर— (क) यद्यपि संतों, भक्तों और महापुरुषों ने मनुष्यों को आपसी भेदभाव दूर करने के लिए बार-बार स्मरण कराया लेकिन फिर भी वे जात-पात, छोटे-बड़े, गरीबअमीर, शिक्षित – अशिक्षित, ऊँच-नीच आदि तरह-तरह के भेदभाव उन्हें सदा घेरे रहते हैं। इस कारण लोगों में मानसिक विद्वेष भाव बढ़ता है ; वे एक-दूसरे से घृणा करने लगते हैं। इस का सीधा प्रभाव उन के जीवन और काम-काज पर पड़ता है। संकीर्ण विचारधारा मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना देती है। मनुष्य हीन बुद्धि के हो जाते हैं। वे एक-दूसरे को छूने से भी परहेज़ करने लगते हैं। ऐसे लोग मिल बाँट कर खाते-पीते नहीं ; पारिवारिक संबंध नहीं बनाते। इस से समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटने लगता है। जिस समाज या देश में जितने छोटे टुकड़े होंगे वह उतना ही कमज़ोर होगा और समुचित उन्नति नहीं कर पाएगा।
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए शिक्षा का व्यापक प्रचार सब से महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति का बौद्धिक विकास पूरी तरह नहीं हो पाता इसलिए अच्छे-बुरे के बीच भेद करने का विवेक उन्हें प्राप्त नहीं होता। वे कुएं के मेंढक की तरह संकुचित मानसिकता के हो जाते हैं। आपसी भेद-भाव मिटाने के लिए आर्थिक विषमता का दूर होना भी आवश्यक है। गरीबी – अमीरी के बीच की खाई भेद-भाव को बढ़ाती है। नर-नारियों पर लगे तरह-तरह के सामाजिक-धार्मिक प्रतिबंध पूर्ण रूप से मिटा दिए जाने चाहिएं। नारी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए ताकि नारी शिक्षित होकर अपने परिवेश से ऐसे विचारों को दूर कराने में सहायक बन सके। कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा भेद-भावों को बढ़ाने संबंधी भ्रामक विचारों के प्रसारण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए । इसे दंडनीय अपराध मानना चाहिए ताकि वे भोली-भाली जनता को बहका न सकें। सरकार के द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में ऐसे सजगता संबंधी कार्यक्रम कराने चाहिएं जिनसे वे जागरूक हो सकें ।
पाठेत्तर सक्रियता— 
● भक्तिकाल में ललद्यद के अतिरिक्त तमिलनाडु की आंदाल, कर्नाटक की अक्का महादेवी और राजस्थान की मीरा जैसी भक्त कवयित्रियों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए एवं उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में कक्षा में चर्चा कीजिए।
● ललद्यद कश्मीरी कवयित्री हैं। कश्मीर पर एक अनुच्छेद लिखिए। 
उत्तर — छात्र छात्राएं अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें ।
परीक्षोपयोगी अन्य प्रश्नोतर
प्रश्न 1. ‘ललयद ने संकीर्ण मतभेदों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया – इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— ललद्यद की शैवधर्म में आस्था थी पर उसने संकीर्ण मत-वादों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया था। उसने जो कहा वह सार्वभौम महत्त्व रखता था। किसी धर्म या संप्रदाय विशेष को अन्य धर्मों या संप्रदायों से श्रेष्ठ मानने की भावना का उस ने खुल कर विरोध किया। वह उदात्त विचारों वाली उदार संत थी। उस के अनुसार ब्रह्म को चाहे जिस नाम से पुकारो वह ब्रह्म ही रहता है। सच्चा संत वही है जो प्रेम और सेवा भाव से सारी मानव जाति के कष्टों को दूर करे तथा ईश्वर को मतभेद से दूर होकर स्वीकार करे ।
प्रश्न 2. ललद्यद के क्रांतिवादी व्यक्तित्व पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर— ललद्यद में विभिन्न धर्मों के विचारों को समन्वित करने की अद्भुत शक्ति थी । वह धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों पर कड़ा प्रहार करती थी । धर्म के नाम पर ठगने वाले लोग उसकी चोट से तिलमिला उठते थे । वह मानती थी कि धार्मिक बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है। तीर्थ यात्राओं और शरीर को कष्ट देकर की जाने वाली तपस्याओं से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। बाहरी पूजा एक ढकोसला मात्र है। वह देवी-देवताओं के लिए पशु बलि देना सहन नहीं करती थी।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. ललद्यद की काव्य शैली क्या है ?
उत्तर—  वाख ।
प्रश्न 2. ‘रस्सी कच्चे धागे की’ से कवयित्री का क्या आशय है ?
उत्तर— साँसें ।
प्रश्न 3. कवयित्री ने ‘नाव’ किसे कहा है ?
उत्तर— जीवन को ।
प्रश्न 4. ‘सम खा तभी होगा समभावी में’ सम खा’ क्या है ?
उत्तर— मन को वश में करना ।
प्रश्न 5. कवयित्री ने ज्ञानी किसे माना है ?
उत्तर— सहजभाव से अपने मन में परमात्मा को खोजने वाले को । –
प्रश्न 6. ‘खुलेगी सांकल बंद द्वार की’ का भाव क्या है ?
उत्तर— मन का मुक्त होना ।
प्रश्न 7. कवयित्री के अनुसार ‘सीधी राह’ कौन-सी है ?
उत्तर— परमात्मा का स्मरण करना ।
प्रश्न 8. कवयित्री कौन-सा सागर पार करना चाहती है ?
उत्तर— भवसागर ।
प्रश्न 9. कवयित्री का ‘साहिब’ कौन है ?
उत्तर— परमात्मा ।
प्रश्न 10. ‘वाख’ कितनी पंक्तियों का छंद होता है ?
उत्तर— चार ।
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