JKBOSE 9th Class Hindi Grammar Chapter 3 अपठित गद्यांस 

JKBOSE 9th Class Hindi Grammar Chapter 3 अपठित गद्यांस

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Jammu & Kashmir State Board JKBOSE 9th Class Hindi Grammar

Jammu & Kashmir State Board class 9th Hindi Grammar

J&K State Board class 9 Hindi Grammar

अपठित गद्यांश (संदर्भ, अनुच्छेद, अवतरण) उन गद्य-खंडों को कहते हैं, जिनको विद्यार्थियों ने अपनी पाठ्य पुस्तकों में नहीं पढ़ा होता है। परीक्षा प्रश्न-पत्र में ऐसा ही एक अपठित गद्यांश दिया जाता है तथा गद्यांश के आधार पर प्रश्न पूछे जाते हैं। परीक्षार्थियों की इस अपठित गद्यांश को पढ़कर उस पर पूछे गए प्रश्नों के उचित उत्तर देने होंगे।
ध्यान देने योग्य बातें
(i) अपठित गद्यांश को दो-तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
(ii) गद्यांश के नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में और गद्यांश के अनुसार लिखने चाहिएं।
(iii) गद्यांश के रेखांकित या मोटे (काले) टाइप के मुहावरों के अर्थ अलग-अलग लिखने चाहिएं। शब्दों के अर्थ पूछे गए हों तो उन्हें भी पृथक्-पृथक् करके लिखें।
(iv) गद्यांश का शीर्षक पूछा गया हो तो वह बहुत ही छोटा लिखना चाहिए। साथ ही शीर्षक गद्यांश के अनुरूप हो।
(v) गद्यांश के शब्दों का बार-बार प्रयोग करना, कठिन भाषा लिखना और अप्रासंगिक बातें नहीं आनी चाहिएं।
कुछ अपठित संदर्भ विद्यार्थियों की सुविधा और ज्ञान के लिए उत्तर सहित प्रस्तुत हैं।
निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यान से पढ़ कर अंत में लिखे प्रश्नों के उत्तर अपने शब्दों में लिखिए—
1. भारतेन्दु के जीवन का उद्देश्य अपने देश की उन्नति के मार्ग को साफ-सुथरा और लम्बा-चौड़ा बनाना था। उन्होंने इसके कांटों और कंकड़ों को दूर किया। उसके दोनों ओर सुन्दर-सुन्दर क्यारियां बना कर उसमें मनोरम फल-फूलों के वृक्ष लगाए। इस प्रकार उसे सुरम्य बना दिया कि भारतवासी उस पर आनन्दपूर्वक चल कर अपनी उन्नति के इष्ट स्थान तक पहुँच सके। यद्यपि भारतेन्दु भी अपने लगाए हुए वृक्षों को फल-फूलों से लदा न देख सके, फिर भी हमको यह कहने में किसी प्रकार संकोच नहीं होता कि वे जीवन के उद्देश्य में पूर्णतया सफल हुए। हिन्दी भाषा और साहित्य की जो उन्नति आज दिखाई पड़ रही है, उसके मूल कारण भारतेन्दु जी हैं और उन्हें ही इस उन्नति के बीज को आरोपित करने का श्रेय प्राप्त है।
(क) भारतेन्दु के जीवन का क्या लक्ष्य था ?
(ख) भारतेन्दु अपने उद्देश्यों में कहां तक सफल हुए ?
(ग) इस पद्यांश का उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) भारतेन्दु जी के जीवन का लक्ष्य देश की उन्नति करना था। वे देश के उन्नति-पथ को सरल और सुगम बनाना चाहते थे।
(ख) भारतेन्दु जी अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप में सफल रहे। आज हिन्दी की जो प्रगति हुई है – यह सब भारतेन्दु जी की ही देन है। हालांकि इस सफलता को वे स्वयं अपनी आँखों से नहीं देख सके।
(ग) इस गद्यांश का उचित शीर्षक ‘भारतेन्दु की जीवन का लक्ष्य’ है।
2. बिना मितव्यय मनुष्य परोपकारी नहीं बन सकता। धनवान् और निर्धन सबके लिए मितव्यय की बहुत बड़ी आवश्यकता है। जो अपनी सारी आय खर्च कर लेता है वह न तो दूसरों की सहायता कर सकता है और न किसी को दान दे सकता है। ऐसा आदमी अपने बच्चों की शिक्षा का पूरा प्रबन्ध भी नहीं कर सकता और न ही उन्हें जीवन-यात्रा के लिए अधिक योग्य ही बना सकता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सरीखे विद्वान् को भी अपव्यय के कारण कष्ट उठाना पड़ा था। लेकिन नित्य सैंकड़ों-हज़ारों आदमी ऐसे देखे जाते हैं जिनमें विद्या और बुद्धि का अभाव है, पर वे भी मितव्यय के कारण बड़े सुख से रहते हैं।
(क) उचित शीर्षक लिखें।
(ख) मनुष्य को मितव्ययी होने की क्यों आवश्यकता है ?
(ग) जो अपनी सारी आय खर्च कर देता है उसे कौन-कौन से दुःख उठाने पड़ते हैं ?
उत्तर— (क) ‘मितव्ययता’ ।
(ख) आज के युग में धनी-निर्धन सभी को मितव्ययी होने की बहुत आवश्यकता है। मितव्ययी व्यक्ति ही परोपकार कर सकता है, दान दे सकता है तथा बच्चों की शिक्षा का भी प्रबन्ध कर सकता है।
(ग) जो व्यक्ति अपनी सारी आय खर्च कर देता है, वह न बच्चों की शिक्षा का पूरा प्रबन्ध कर सकता है और न ही उन्हें जीवन यात्रा के लिए अधिक योग्य बना सकता है। अपव्यय के कारण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अनेक कष्ट उठाने पड़े।
3. ज्ञान राशि से संचित कोष का नाम ही साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने को योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह रूपवती भिखारिन की तरह कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्री सम्पन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलम्बित है। जाति विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्च-नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संगठन का, उसके ऐतिहासिक घटनाचक्रों तथा राजनीतिक स्थितियों का प्रतिबिम्ब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उनके साहित्य में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक आशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक असभ्यता और सभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य ही है। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है, उसका साहित्य भी वैसा ही होता है। जातियों की क्षमता, सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उनके साहित्य रूपी आइने में ही मिल सकती है।
(क) साहित्य – विहीन भाषा की तुलना किससे की गई है ?
(ख) साहित्य, समाज का दर्पण क्यों कहलाता है ?
(ग) उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) साहित्य – विहीन भाषा की तुलना रूपवती भिखारी से की गई है। जिस प्रकार सुन्दर होने पर भी भिखारिन को सम्मान नहीं मिल सकता उसी प्रकार साहित्य के अभाव में कोई भाषा सम्मान नहीं पा सकती।
(ख) साहित्य समाज का दर्पण है क्योंकि समाज की प्रवृत्तियों का सच्चा प्रतिबिम्ब साहित्य में ही दिखाई देता है। किसी भी समाज की सजीवता-निर्जीवता, सभ्यता-असभ्यता का निर्माण साहित्य द्वारा ही किया जाता है।
(ग) ‘साहित्य समाज का दर्पण है
4. समस्त भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता उसकी मूल में स्थित समन्वय की भावना है। उसकी यह विशेषता इतनी प्रमुख और मार्मिक है कि केवल इसी के बल पर संसार के अन्य साहित्यों के सामने वह अपनी मौलिकता की पताका फहरा सकता है। जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भारत के ज्ञान-भक्ति के समन्वय प्रसिद्ध हैं और जिस तरह वर्ण एवं आश्रम चतुष्ठय के निरूपण द्वारा इस देश में सामाजिक समन्वय का सफल प्रयास हुआ है, ठीक इसी प्रकार साहित्य तथा अन्य कलाओं में भी भारतीय संस्कृति समन्वय की ओर रही है। साहित्य समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुःख, उत्थान – पतन, हर्षविवाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण तथा अलौकिक आनन्द में विलीन होने से है। साहित्य के किसी अंग को लेकर देखिए सर्वत्र यही समन्वय दिखाई देगा। भारतीय नाटकों में ही सुख और दुःख के प्रतिघात दिखाए गए हैं, पर सबका अवसान आनन्द में ही है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीयों का ध्येय सदा से जीवन का आदर्श स्वरूप उपस्थित करके उसका उत्कर्ष बढ़ाने और उसे उन्नत बनाने का रहा है।
(क) साहित्य में समन्वय भावना से क्या तात्पर्य है ?
(ख) भारतीय साहित्य की मुख्य मुख्य विशेषताएं बताइए।
(ग) शीर्षक-लिखो।
उत्तर— (क) दो विरोधी भावों और विचारों के सामंजस्य को ‘समन्वय की भावना’ कहते हैं ।
(ख) भारतीय साहित्य की अनेक विशेषताएं हैं जिसमें समन्वय की भावना प्रमुख विशेषता है। अन्य विशेषताओं में मौलिकता, भक्ति की प्रधानता, सांस्कृतिक अभ्युत्थान और उच्चादर्शों की भावना आदि है।
(ग) ‘भारतीय साहित्य में समन्वय’ ।
5. सभ्यता का आन्तरिक प्रभाव संस्कृति है । सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है और संस्कृति व्यक्ति के अन्दर के विकास का । सभ्यता की दृष्टि वर्तमान की सुविधा- असुविधाओं पर रहती है, संस्कृति की भविष्य या अतीत के आदर्श पर, सभ्यता नज़दीक की ओर दृष्टि रखती है, संस्कृति दूर की ओर, सभ्यता का ध्यान व्यवस्था पर रहता है, संस्कृति का व्यवस्था के अतीत पर, सभ्यता के निकट कानून मनुष्य से बड़ी चीज है, लेकिन संस्कृति की दृष्टि में मनुष्य कानून से परे हैं, सभ्यता बाह्य होने के कारण चंचल है, संस्कृति आन्तरिक होने के कारण स्थायी । सभ्यता समाज को सुरक्षित रखकर उसके व्यक्तियों को इस बात की सुविधा देती है कि वे अपना आन्तरिक विकास करें, इसलिए देश की सभ्यता जितनी पूर्ण होमी अर्थात् उसकी व्यवस्था जितनी ही सजग होगी, राजनीतिक संगठन जितना ही पूर्ण होगा, नैतिक परम्परा जितनी ही विशुद्ध होगी और ज्ञानशीलन की भावना जितनी ही प्रबल होगी, उस देश के वासी उसी परिणाम में सुसंस्कृत होंगे। इसलिए सभ्यता और संस्कृति में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है।
(क) सभ्यता और संस्कृति में क्या अन्तर है ? स्पष्ट कीजिए।
(ख) ‘सभ्यता और संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं।’ स्पष्ट कीजिए।
(ग) उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) सभ्यता और संस्कृति एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। सभ्यता का सम्बन्ध आज की बाह्य व्यवस्था से है जबकि संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के आन्तरिक गुणों से है।
(ख) सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं। देश की सभ्यता जितनी पूर्ण होगी, उसकी नैतिक परम्परा उतनी ही विशुद्ध होगी, ज्ञानानुशीलन की भावना उतनी ही प्रबल होगी। परिणामस्वरूप संस्कृति भी उतनी पुष्ट होगी।
(ग) सभ्यता और संस्कृति ।
6. आइए देखें जीवन क्या है ? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है । यह तो पशुओं का जीवन है। मानव जीवन में भी ये सब प्रवृत्तियां होती हैं, क्योंकि वह भी तो पशु है, पर इनके उपरान्त कुछ और भी होता है। इसमें कुछ ऐसी मनोवृत्तियां होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हैं, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल में सहायक बन पाती हैं। जिन प्रवृत्तियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वे वांछनीय होती हैं जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियां हैं। यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दें तो निःसन्देह वे हमें नाश और पतन की ओर ले जाएंगी। इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें। हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है।
(क) जीवन में वांछनीय प्रवृत्तियां कौन-सी हैं ?
(ख) किन प्रवृत्तियों को दूषित माना जाता है ?
(ग) मनुष्य जीवन में कौन-कौन सी बाधक प्रवृत्तियां अधोपतन का कारण बनती हैं ? (घ) मनुष्य का जीवन मंगलमय किस प्रकार बन सकता है ?
(ङ) उचित शीर्षक लिखें ।
उत्तर— (क) मानव जीवन में वे प्रवृत्तियां वांछनीय हैं जो प्रकृति के साथ हमारी सामंजस्य बढ़ाती हैं ।
(ख) जो प्रवृत्तियां मानव जीवन और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने में बाधक बनती हैं, उन्हें दूषित माना जाता है।
(ग) मनुष्य के जीवन में अहंकार, क्रोध, द्वेष बाधक प्रवृत्तियां हैं जो उसके अधोपतन का कारण बनती हैं। वे मनुष्य को नाश और पतन की ओर ले जाती हैं।
(घ) यदि मनुष्य अपने जीवन में बाधक प्रवृत्तियों पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर ले तथा अपने मन को संयम से रखे तो उसका जीवन मंगलमय बन सकता है।
(ङ) ‘जीवन का उद्देश्य’ ।
7. समय वह सम्पत्ति है जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वही शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनन्द प्राप्त करते हैं। इसी समय सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन सकता है। उसी के द्वारा मूर्ख विद्वान्, निर्धन धनवान् और यज्ञ अनुभवी बन सकता है। सन्तोष, हर्ष या सुख मनुष्य को कदापि प्राप्त नहीं होता जब तक वह उचित रीति से समय उपयोग नहीं करता। समय निःसन्देह एक रत्न शील है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अन्धाधुन्ध व्यय करता है, वह दिन-दिन अकिंचन, रिक्त हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहकर भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है, अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन जंजाल छुड़ा देती है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवनमृत की दशा बनी रहती है। ये ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता में बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उनकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुंचती है। यदि उसे कहा जाता है कि तेरी आयु से दस-पाँच वर्ष घटा दिए तो निःसन्देह उनके हृदय पर भारी आघात पहुंचता, परन्तु वह स्वयं निश्चेष्ट बैठे अपने अमूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शोक नहीं करता। यद्यपि समय की निरुपभोगिता आयु को घटाती है, परन्तु यदि हानि होती है तो अधिक चिन्ता की बात न थी, क्योंकि संसार में सब को दीर्घायु प्राप्त नहीं होती; परन्तु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता और अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कार्य में लवलीन नहीं होते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है तो सब कामों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न सोचे, प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए कार्य निश्चित करे ।
(क) किस प्रकार के व्यक्ति शारीरिक और आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं ? क्या अहित हो सकता है ?
(ख) समय का सदुपयोग न करने से
(ग) समय नष्ट करने को आत्मघात किस प्रकार माना जा सकता है ?
(घ) मनुष्य की सफलता का क्या रहस्य है ?
(ङ) उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) जो लोग समय के महत्त्व को समझ कर उसका नियमित रूप से पालन करते हैं, वे ही शारीरिक और आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं ।
(ख) समय का सदुपयोग न करने से मनुष्य अपने जीवन में किसी प्रकार का भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। यह अज्ञान के कारण मूर्ख तथा धन के अभाव में ग़रीब रहेगा ।
(ग) आत्मघात के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को समाप्त कर लेता है और समय नष्ट करके वह अमूल्य जीवन में विभिन्न प्रकार के कष्टों को इकट्ठा कर लेता है जिससे जीवन बोझ बन जाता है। उसके दुःख उसे मृतक की पीड़ा से बढ़ कर कष्टकारी हो जाते हैं।
(घ) मनुष्य के लिए समय ईश्वर द्वारा दी गई अमूल्य सम्पत्ति है उसके सदुपयोग से जीवन का विकास होता है। शारीरिक तथा आत्मिक सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है। इसका उपयोग बहुमूल्य पदार्थ के समान करना चाहिए। इसको खोना जीवन को खोना है। समय का दुरुपयोग करने वाला मृत्यु में भी सुख नहीं पाता । समय नष्ट करने से आयु घटती है और विचार दूषित बनता है। आलसी, पापी और शैतान की कोटि में आते हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता कर्मट होने में है। प्रत्येक क्षण का सदुपयोग जीवन की सफलता का परिचायक है।
(ङ) ‘समय का सदुपयोग’ ।
8. साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल में प्रवाहित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असम्भव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके क्रन्दन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश होकर भी सार्वभौमिक रहता है। ‘टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है, पर आज उसे प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें व्यापकता है कि लोग उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं। पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तबदीलियां नहीं होतीं। हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष आशा और भय उपज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय में भी और कदाचित अनन्त मन पर उसी तक रहेंगे। रामायण के काल का समय अब नहीं है, महाभारत का समय भी अतीत हो गया। पर ये ग्रन्थ अभी तक नये हैं। साहित्य ही सच्चा इतिहास है, क्योंकि इसमें अपने देश और काल का जैसे चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता। घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है और न राजाओं की लड़ाइयां ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम और जीवन पर साहित्य अपने देश काल का प्रतिबिम्ब होता है।
(क) साहित्यकार अपने साहित्य के लिए प्रेरणा कहां से प्राप्त करता है ?
(ख) साहित्य में व्यक्त समाज की पीड़ा का क्या कारण होता है ?
(ग) ‘साहित्य कभी पुराना नहीं होता’इस धारणा का क्या कारण है ?
(घ) सच्चा इतिहास किसे माना जाना चाहिए ?
(ङ) शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) प्रत्येक साहित्यकार अपने साहित्य के लिए प्रेरणा अपने समाज से प्राप्त करता है। देश में उत्पन्न किसी भी प्रकार की हलचल उसे प्रभावित करती है। लोगों के सुख-दुःख उसे व्यथित करते हैं और वह उन सुख-दुःखों को साहित्य के माध्यम से प्रकट करने लगता है।
(ख) प्रत्येक साहित्यकार अपने समाज से प्रभावित होता है और लोगों के दुःखों को अनुभव करके उन्हें वाणी प्रदान करता है। साहित्यकार भावुक होता है और उसे लोगों की पीड़ा अपनी पीड़ा लगने लगती है।
(ग) साहित्य मानव मन और उसके व्यवहार से सम्बन्धित है। मानव के हृदय में उत्पन्न होने वाले भाव कभी नहीं बदलते। दुःख, सुख, विस्मय, क्रोध, द्वेष, आशा, निराशा, भय आदि सदा उसे समान रूप से प्रभावित करते हैं। जब वे साहित्य के माध्यम से प्रकट हो जाते हैं तो शाश्वत गुण प्राप्त कर सदा नया रूप प्राप्त किए रहते हैं।
(घ) साहित्यकार अपने देश की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। उसकी वाणी में व्यापकता होती है। इसलिए वह देश का होकर भी स्वदेशीय बन जाता है। सच्चा साहित्य मानवीय अनुभूतियों का चित्रण होने के कारण कभी पुरानी नहीं होता। रामायण और महाभारत अमर रचनाएं हैं। इतिहास और साहित्य में बड़ा अन्तर होता है। इतिहास में घटनाओं की तालिका और राजाओं के नाम और उनके कारनामे होते हैं। इसे सच्चा इतिहास नहीं कहा जा सकता है। सच्चा इतिहास तो साहित्य ही है। (ङ) साहित्यकार और समाज ।
9. शिक्षा के क्षेत्र के समान चिकित्सा के क्षेत्र में भी स्त्रियों का सहयोग वांछनीय है। हमारा स्त्री- समाज रोगों से जर्जर हो रहा है। उसकी सन्तान कितनी अधिक संख्या से असमय ही काल का ग्रास बन रही है, यह पुरुष से अधिक स्त्री की खोज का विषय है। जितनी सुयोग्य स्त्रियां इस क्षेत्र में होंगी, उतना ही अधिक समाज का लाभ होगा। स्त्री में स्वाभाविक कोमलता पुरुष की अपेक्षा अधिक होती है, साथ ही पुरुष के समान व्यवसाय बुद्धि प्रायः उसमें नहीं रहती है। अतः वह इस कार्य को अधिक सहानुभूति के साथ ही कर सकती है। इसी कारण रोगी की परिचर्या के लिए नर्स ही रखी जाती है । यह सत्य है कि न सब पुरुष ही इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं और न सब स्त्रियां, परन्तु जिन्हें इस गुरुतम कर्त्तव्य के लिए रुचि और सुविधाएं दोनों ही मिली हैं, उन स्त्रियों का इस क्षेत्र में प्रवेश करना उचित ही होगा। कुछ इनी-गिनी स्त्री – चिकित्सक भी हैं, परन्तु समाज अपनी आवश्यकता के समय ही उनसे सम्पर्क रखता है। उसका शिक्षितों से अधिक बहिष्कार है, कम नहीं। ऐसी महिलाओं में से, जिन्होंने सुयोग्य एवं सम्पन्न व्यक्तियों से विवाह करके बाहर के वातावरण की नीरसता को घर की सरसता में मिलाना चाहा, उन्हें प्रायः असफलता ही प्राप्त हो सकी। उनका इस प्रकार घर की सीमा से बाहर ही कार्य करना पतियों की प्रतिष्ठा के अनुकूल सिद्ध न हो सका, इसलिए अन्त में उन्हें अपनी शक्तियों को घर तक ही सीमित रखने के लिए बाध्य होना पड़ा। वे पारिवारिक जीवन में कितनी सुखी हुई, यह कहना तो कठिन है, परन्तु उन्हें इस प्रकार खोकर स्त्री- समाज अधिक प्रसन्न न हो सका। यदि झूठी प्रतिष्ठा की भावना इस प्रकार की बाधा न डालती और वे अवकाश के समय कुछ अंश इस कर्त्तव्य के लिए भी रख सकतीं तो अवश्य ही समाज का अधिक कल्याण होता ।
(क) स्त्रियां चिकित्सा क्षेत्र में अधिक सफलता क्यों प्राप्त कर सकती हैं ?
(ख) प्रायः स्त्रियां चिकित्सक के रूप में इतनी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकीं, जितना पुरुष चिकित्सक । क्यों ?
(ग) समाज का कल्याण कब अधिक अच्छा हो पाता है ?
(घ) स्त्री चिकित्सकों के पतियों को किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ?
(ङ) उचित शीर्षक लिखें ।
उत्तर— (क) स्त्रियां उपेक्षाकृत अधिक भावुक और मानसिक रूप में कोमल होती हैं। उनमें पुरुषों से अधिक कोमलता होती है। वे उतनी व्यावसायिक कभी नहीं हो सकतीं जतने पुरुष होते हैं। उनमें सहानुभूति की भावना अधिक होती है, इसलिए वे चिकित्सा क्षेत्र में अधिक सफलता प्राप्त कर सकती हैं।
(ख) स्त्री चिकित्सकों के साथ समाज में प्रायः तभी सम्पर्क रखा जाता है जब उसे उसकी आवश्यकता होती है। साथ ही वे विवाह के पश्चात् घर-बाहर के प्रति ठीक प्रकार से ताल-मेल नहीं बिठा पातीं जिस कारण परिवार में असन्तुष्टि की भावना पनपने लगती है। वे घर-बार दोनों जगह असन्तोष उत्पत्ति के कारण उतनी प्रतिष्ठित नहीं हो पातीं जितने पुरुष चिकित्सक।
(ग) यदि स्त्री चिकित्सक घर-बाहर से ठीक प्रकार से सन्तुलन बना पाती तो समाज का अधिक कल्याण हो पाता।
(घ) स्त्रियों को शिक्षा के क्षेत्र के समान चिकित्सा के क्षेत्र में भी आना चाहिए। वे शरीर तथा स्वभाव दोनों से इस व्यवसाय के लिए उपयुक्त हैं। भारतीय महिलायें प्रायः बीमार तथा कमजोर रहती हैं। उनके बच्चे भी अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। इन समस्याओं की खोज स्त्रियां भली भान्ति कर सकती हैं। कुछ स्त्रियां इस व्यवसाय को अपनाना चाहती हैं पर उनके पति इस व्यवसाय को अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते हैं। उन्हें विवश होकर इस व्यवसाय से विमुख होना पड़ता है। पतियों को समाज के हित के लिए निरर्थक सम्मान की भावना का त्याग करना चाहिए।
(ङ) ‘स्त्री चिकित्सक’।
10. आपका जीवन एक संग्राम स्थल है जिसमें आपको विजयी बनना है। महान् जीवन के रथ के पहिए फूलों से भरे नंदन-वन से नहीं गुज़रते, कंटकों से भरे बीहड़ पथ पर चलते हैं। आपको ऐसे ही महान् जीवन-रथ का सारथि बन कर अपनी यात्रा को पूरा करना है। जब तक आपके पास आत्मविश्वास का दुर्जेय शस्त्र नहीं है, तो न तो आप जीवन की ललकार का सामना कर सकते हैं, न जीवन संग्राम में विजय प्राप्त कर सकते हैं और न महान् जीवन के सोपानों पर चढ़ सकते हैं। जीवन-पथ पर आप आगे बढ़ रहे हैं, दुःख और निराशा की काली घटाएं, आपके मार्ग पर छा रही हैं, आपत्तियों का अन्धकार मुँह फैलाये आपकी प्रगति को निगलने के लिए बढ़ा चला आ रहा है, लेकिन आपके हृदय में आत्मविश्वास की दृढ़ ज्योति जगमगा रही है तो इस दुःख एवं निराशा का कुहरा उसी प्रकार कट जाएगा जिस प्रकार सूर्य किरणों के फूटते हैं अन्धकार भाग जाता है।
(क) किस का भविष्य उज्ज्वल होता है ?
(ख) जीवन में विजयी बनने के लिए किन गुणों की आवश्यकता है ?
(ग) उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर— (क) जो व्यक्ति आत्मविश्वासी होता है उसका भविष्य उज्ज्वल बनता है।
(ख) जीवन में विजयी बनने के लिए आत्मविश्वास तथा संघर्ष करने की आवश्यकता है।
(ग) ‘जीवन एक संग्राम’ |
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